Sunday, 21 December 2025

456 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 13)

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बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 13)


रवि- चाहे शिव हो या कृष्ण सभी ने ‘भक्ति‘ को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है यह केवल दार्शनिक आधार पर ही कहा जाता है या इसका कोई मनोवैज्ञानिक आधार है?

बाबा- ‘भक्ति‘ को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों आधारों पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आश्चर्यजनक रूपसे किन्हीं सद्गुणों जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलम्बित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है। 


इन्दु- परन्तु सभी लोग तो किसी न किसी की पूजा करने को ही भक्ति कहते हैं, क्या यह गलत है?

बाबा- प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती थी चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारम्भ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष, अतः परमपुरुष की ही ओर सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये, उन्हें ही पूजना चाहिये।


राजू- तो क्या पार्थसारथी कृष्ण को भक्तिभाव से पूजना सार्थक नहीं होगा?

बाबा- चलो पार्थसारथी का इसी परिप्रेक्ष्य में परीक्षण करें। उन्हें सबके रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और होगा सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सब ओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेशा पॉंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान, बुद्धि और स्मरण शक्ति की विशालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईश्वर कहते हैं ये ईश्वरकोटि के लोग भी परमपुरुष को महेश्वर कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेश्वर ही हैं, यह उनकी ऐश्वर्यता प्रकट करने वाली अष्ट सिद्धियों से सिद्ध होता है। उनके पास अनिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईशित्व, वशित्व, प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों  एश्वर्य असीम स्तर पर थे यही कारण है कि सभी उनके समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों एश्वर्य उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता।


चन्दू- परिप्रश्न यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हॉं तो उनका स्तर क्या है? 

बाबा- पहले यह समझ लो कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाश और दूसरा है छह गुणों का समाहार। ‘भग‘ के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है ‘‘भेति भास्यते लोकान,’’ अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाश से सभी लोक प्रकाशित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है, ‘‘इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्।’’ अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उद््रगम भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘‘एश्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यशासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोश्च च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ एश्वर्य का अर्थ है ऊपर बतायी गयीं आठ सिद्धियॉं, वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से शत्रु कॉंपने लगें, जो सब पर प्रशासन कर सके। यशासह का अर्थ है यश और अपयश दोनों। श्री का अर्थ है सभी भौतिक उपलब्धियों के साथ शक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे । महाभारत के अनेक उद्धरणों में से इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना,  पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके शरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंशावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम शरणम् बृज अहम त्वॉंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा शुचः,‘  अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आजाओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थसारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं। 

क्रमशः ...

Saturday, 20 December 2025

455 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)

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455  बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)


राजू- बाबा! कभी आप बृजकृष्ण कहते हैं कभी बृजगोपाल, इनमें अन्तर है या केवल अलग अलग नाम ?

बाबा- दोनों एक ही हैं। जब आनन्द के साथ आगे की ओर गति की जाती है तो उसे बृज कहते हैं। अनेक प्रकार की तन्मात्राओं के द्वारा हमें बाह्य भौतिक जगत का ज्ञान होता है और इन तन्मात्राओं का नियंत्रण मन के द्वारा होता है। परंतु एक और नियंत्रक होता है जो मन के पीछे छिपा होता है वह दिखाई नहीं देता ठीक कठपुतली के प्रदर्शनकर्ता की तरह। यही कारण है कि लोग कहते हैं वाह! कितना अच्छा वक्ता है, गायक है, नर्तक है पर यह नहीं जानते कि वास्तव में यह सब कराने वाला कौन है।़ पूरी महत्ता, प्रदर्शन करने वाले को ही प्राप्त होती है। सभी प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिये हम ज्ञानेन्द्रियों की सहायता लेते हैं, संस्कृत में गो का अर्थ है इिंद्रयॉं और वह सत्ता जो इनका संरक्षण और संवर्धन करता है वह गोपाल। अतः आनन्द पूर्वक लोगों को आगे ले जाने और अनुभूतियॉं कराने का कार्य करने वाला कहलायेगा बृजगोपाल। बृजगोपाल सभी को अपनी ओर आकर्षित करते, हंसाते, रुलाते, मन में जिज्ञासा जगाते, संदेह निर्मित करते, मन में अनेक रसों का प्रसार करते, हर बार नये नये रसों और प्रकारों से आनन्दित करते सब को आगे बढ़ते जाने का मार्गदर्शन करते हैं क्यों कि विश्व अनन्त रसों का सागर है। इस प्रकार वे जीवन के सार तत्व परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं क्योंकि इसके अलावा जीवन में कुछ नहीं है। 


रवि - तो क्या बृजगोपाल की तुलना किसी अन्य सत्ता से की जा सकती है?

बाबा- लोगों ने प्रयास किया कि बृजगोपाल की तुलना करने के लिये कौन उचित होगा पर जीवों के प्रति उनका प्रेम, भाव, और अन्तर्ज्ञान, दूरदर्शिता और ज्ञान की गहराई देखकर कोई भी उनके समतुल्य नहीं मिल पाया अतः उन्होंने कहा तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति। उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं । 


चन्दू- बृजगोपाल और भक्ति का क्या सम्बन्ध है?

बाबा- ब्रह्मॉंड की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित करती है ग्रहों को तारे तारों को गेलेक्सी और गेलेक्सियों को ब्रह्मॉंड का केन्द्र और इन सब को परमपुरुष। जब कोई यह सोचता है कि परमपुरुष उसे आकर्षित कर रहे हैं और वह भी परमपुरुष को आकर्षित करता है तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसे भक्ति कहा जाता है। इस तरह कोई छोटा हो या बड़ा, वे परस्पर और इस महान के आकर्षण से मुक्त नहीं है। यह समझ कर परम पुरुष की ओर बढ़ते जाना भक्ति है। बृजगोपाल क्या करते हैं, वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सबको अपने प्रेम और मधुरता के भावों में प्रसन्नता से आगे बढ़ते जाने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः बृजगोपाल के अलावा अन्य कोई सत्ता भक्ति की इस उच्च स्थिति को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है।


नन्दू- परिप्रश्न किसे कहते हैं ? 

बाबा- वह जिसका उत्तर पा जाने पर लोग प्रोत्साहित होकर उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं और तदानुसार परिणाम भी प्राप्त होने लगता है। अर्थात् हर प्रभाव का कारण खोजते खोजते मूल कारण प्राप्त कर लेना। सबसे पहले जब मनुष्यों ने सोचा कि जगत का मूल कारण क्या है तो जो उत्तर मिला वह आद्या शक्ति कहलाता है। आध्यात्मिक साधकों ने कहा है कि ‘‘यच्छेदवॉंग्मनसी प्रज्ञस्तदयच्छेद्ज्ञानात्मनि। ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि।'' अर्थात् साधना के द्वारा इंद्रियों को चित्त में अर्थात् जड़ मन में समाहित करे, इस प्रकार इंद्रियों के चित्त में समाहृत हो जाने पर आप अपनी और अन्यों की इंद्रियों को स्तंभित कर सकते हो अर्थात् उनकी गतिविधियों पर अपने मन से नियंत्रण कर सकते हो। इसके बाद अपने चित्त की क्षमता को अहमतत्व अर्थात् ‘मैं करता हॅूं‘ इस भावना में संयोजित कर दो, जो कि ‘मैं हॅू‘‘ भावना अर्थात् महत्तत्व से जुड़ा है। इस प्रकार वे अन्तर्ज्ञान के क्ष्ेत्र में प्रवेश पा लेंगे और उन्हें बिना किसी औपचारिकता के सभी ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। अब ‘मैं हॅूं‘  भावना को परम पुरुष में समर्पित कर दो इससे परम शान्ति प्राप्त होगी। इस प्रकार साधना की प्रगति की दशाओं पर प्रकाश डाला गया है जो कि वास्तव में परमपुरुष के संबंध में परिप्रश्न कहलाता है। 


रवि- तो परिप्रश्न के परिप्रेक्ष्य में बृजगोपाल का क्या स्तर है?

बाबा- बृजगोपाल क्या करते हैं? वे सभी को बिना भेदभाव के अपनी ओर आकर्षित करते हैं और भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी स्तरों पर प्रगति का रास्ता दिखलाते हैं। इतना ही नहीं जो उनकी आलोचना करते हैं वे भी उनको अपना अंतरंग ही मानते हैं। इस तरह परिप्रश्न के संदर्भ में बृजगोपाल विश्व के केन्द्र हैं, मानव हृदय और संवेदनों के सार हैं, वे जीवों के अंतिम आश्रय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में अद्वैत , बाद में द्वैत और अंत में अद्वैत की स्थिति बनती है जो ‘‘एकोहमवहुस्याम‘‘ के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। जिसका अर्थ है मैं एक था फिर अनेक हो गया और फिर एक ही रहॅूंगा। यथार्थतः बृजगोपाल का हृदय सबका आश्रय है।

क्रमशः...

Thursday, 18 December 2025

454 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 11)

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 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 11)


रवि-कुछ विद्वान द्वैताद्वैतवाद की चर्चा करते हैं यह क्या है?

बाबा-  द्वैताद्वैत का अर्थ है प्रारंभ में द्वैत पर अंत में अद्वैत। अर्थात् पहले जीव अपने को परम पुरुष से पृथक मानते हैं पर बाद में साधना करके वे उनके अधिक निकट आ जाते हैं और फिर उन से मिलकर एक हो जाते हैं। अब प्रश्न है कि यह मिलकर एक हो जाना कैसा है? शक्कर और रेत जैसा या शक्कर और पानी जैसा?  यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि जीव आखिर आते कहॉं से हैं? जीवों का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। पर द्वैताद्वैतवादी इस संबंध में बिलकुल मौन हैं कि जीव आते कहॉं से हैं, पर यह कहते हैं कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। सभी जीव जानते हैं कि उनके पास एक जैविक बल है, उनकी अपेक्षायें और आशायें हैं, सुख दुख हैं, भावनायें और भाभुकतायें हैं। इन सबको भुलाकर छोड़ा नहीं जा सकता। ये सब बोझ भी नहीं हैं बल्कि आनन्ददायी जीवन का आनन्द हैं। अतः स्पष्ट है कि द्वैताद्वैतवाद में मानवता का मूल्य नहीं समझा गया। वह अनन्त सत्ता जिसका प्रवाह सतत रूप से विस्तारित हो रहा है उसका अन्त भी आनन्द स्वरूप अनन्त में ही होगा अतः जीव और शिव का मिलन शक्कर और रेत की तरह नहीं वरन् शक्कर और पानी की तरह ही संभव है । अपनी उन्नत बुद्धि और निस्वार्थ सेवा के बल से साधना और सत्कर्म करते हुए वे साधारण से असाधारण व्यक्तित्व को प्राप्त कर सकते हैं।


इन्दु - तो क्या बृजगोपाल का व्यक्तित्व द्वैताद्वैवाद के अनुकूल माना जा सकता है?

बाबा- वे पैदा ही जेल में हुए, उस रात में भयंकर जलवृष्टि और विजली की बज्र चमक हो रही थी जिसका मतलब ही था कि कंस की भ्रष्ट नीतियों को नष्ट करने के लिये दूरदर्शी विधान। जेल के प्रहरी के द्वारा ही दरवाजे के ताले खोले जाना , गोकुल के सभी व्यक्तियों का गहरी नींद में सो जाना, यह सब नवजात कृष्ण को सुरक्षित बचाने का दैवीय विधान था। बृजगोपाल के जीवन की छोटी छोटी घटनायें जैसे पूतना का मारा जाना, बकासुर और अघासुर कर मारा जाना किस प्रकार संभव हुआ। ये सब कंस के जासूस थे । वे तो यह काम अपनी आजीविका के लिये करते थे, उन्हें कृष्ण से व्यक्तिगत रूपसे कुछ भी लेना देना नहीं था। कृष्ण ने भी उन्हें जानबूझकर नहीं मारा ,वे सब उन्हें मारने आये थे अतः अपने बचाव में कृष्ण ने उन्हें मारा और वे स्वभावतः मारे गये । पूतना का वे गला दबाकर या तलवार से बध कर सकते थे पर उन्होंने यह नहीं किया बल्कि दॉंत से काटा और उसके द्वारा लगाया गया विष उसी के शरीर में प्रवेश कर गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। स्पष्ट है कि इन सब में कृष्ण ने अपना मानवीय द्रष्टिकोण नहीं छोड़ा। जीव परमपुरुष से आये हैं और उन्हीं में अंत में चले जायेंगे। पूतना आदि भी परमपुरुष से ही आये थे, वे भी द्वैतवादी थे यदि उन्होंने साधना की होती तो परम पुरुष में मिलकर एक हो गये होते पर उन्होंने नकारात्मक रास्ता चुना और उन्होंने विश्व के केन्द्र को ही नष्ट करना चाहा । अंततः कृष्ण को उनकी बुरी प्रवृत्तियॉं नष्ट कर मानवता की रक्षा के लिये मारना पड़ा। कोई यदि आग के पास बिना किसी सुरक्षा के जाता है तो वह उन्हें राख कर देती है, कृष्ण यदि केवल  द्वैतवादी की तरह व्यवहार करते तो वे अपने को उनसे दूर कर लेते पर उन्होंने यह नहीं किया, उन्होंने उन सबको अपने पास ही बुला लिया। गोपियॉं भी कोई पढ़ी लिखीं नहीं थीं, पर वे अपने द्वैत को अद्वैत में बदलने के लिये लगातार उनके पास जाने के लिये गतिशील बनी रहीं। अब यह मेल कैसा था? पानी और शक्कर की तरह । बृजगोपाल ने सभी ग्वालबालों और गोपियों के साथ अपने को इस प्रकार मिला लिया था कि उन्हें पहचानना संभव नहीं होता था। यहॉं द्वैत समाप्त था। सॉंसारिक रंग भेद और आकर्षण, द्वैत में फुसला कर भटकाये रहते हैं और परमपुरुष से दूर करते जाते हैं, कृष्ण का कहना था कि ये सब आकर्षण और भेद उन्हें देकर उनके साथ ही एक हो जाओ क्योंकि परम पुरुष से आये हो तो परमपुरुष में ही मिलने का लक्ष्य होना चाहिये, यह अद्वैत है। उन्हीं की वस्तु उनको ही सौपकर भार मुक्त होने में ही बुद्धिमत्ता है। स्पष्ट है कि बृजगोपाल का मिलन शक्कर और रेत के जैसा नहीं बल्कि शक्कर और पानी की तरह है, क्यों कि वे तारक बृह्म हैं।


चन्दू- इस परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी ने क्या किया? 

बाबा- उन्होंने सच्चे लोगों को एकत्रित कर मानवता के मूल्यों की रक्षा करने के लिये लगातार संघर्षरत रखा। साधक को परम पुरुष के समीप जाने के लिये साधना के कटीले रास्ते पर चलना ही पड़ता है। जब रास्ते के कॉंटे हटकर दूर हो जाते हैं साधक आगे बढ़कर परमपुरुष की गोद में आश्रय पा ही लेता है। यह भी हो सकता है कि भक्त सच्चाई और ईमानदारी से अपनी सभी ऊर्जा को एक बिंदु पर केन्द्रित कर  एक स्थान पर बैठा अधीरता से पुकार कर कहे कि हे परमपुरुष मेरे ऊपर कृपा करो और मेरे पास आ जाओ। इस प्रकार उसकी सभी मनोवैज्ञानिक ऊर्जा एक बिंदु पर केन्द्रित होकर परम पुरुष से एकीकृत हो जाती है, यह अद्वैत है। इस प्रकार का रास्ता भक्ति मार्ग , ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कहलाता है, प्रारंभ में भक्त और परमपुरुष दो, फिर अंत में केवल परमपुरुष एक। पार्थसारथी ने सच्चाई का पालन करने के लिये कुशल रणनीति बनाने का कौशल भी सिखाया। बार बार जरासंध के आक्रमण से नागरिकों को बचाने के लिये अपनी राजधानी को मथुरा से द्वारका में ले जाना इसी रणनीति का हिस्सा था, क्योंकि जरासंध को द्वारका जाने में मरुस्थल को पार करना कठिन था। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में सच्चाई के साथ रहते हुए दुष्टों के विरुद्ध शस्त्र किस प्रकार उठाये जाते हैं यह भी उन्होंने सिखाया। उन्होंने धर्म के प्रति स्थिर और बुद्धिमान लोगों को एकत्रित कर सत्य और उच्चतर जीवन जीने की ओर प्रेरित किया जिससे लोग उन्हें अपना निकटतम मानने लगे। यही कारण है कि वे आज तक सब के दिलों पर राज्य कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्टतः कहा कि मुझ से ही सभी उत्पन्न हुए हैं मुझ में ही सभी प्रतिष्ठित हैं और अंत में मुझमें ही मिल जायेंगे। द्वैताद्वैतवाद यह नहीं कह पाता कि जीव कहॉं से आते हैं, केवल यह कहता है कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैताद्वैतवाद के प्रकाश में परीक्षित करना व्यर्थ है, वह उससे बहुत ऊपर हैं।

क्रमशः.....


Monday, 8 December 2025

453 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

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बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

राजू - सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? इस तरह क्या यह दर्शन की त्रुटियॉं नहीं हैं? 

बाबा- प्रारंभ में लोग दर्शन शास्त्र के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे  अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार जीव भाव को सॉंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं । जीव का यही भाव ‘‘इकाई मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है। 

नन्दू- इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहॉं होता है? 

बाबा- जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है, जैसे, मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया, मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका यह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परम सत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है। 

इन्दु- लेकिन आपने तो एक बार यह बताया था कि भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहॉं बचता है?

बाबा- बिलकुल सही । देखो ! द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हॅूं और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर नहीं बनना चाहता, मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्क्र का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में एक धन एक बराबर दो, दूसरी अवस्था में एक धन एक बराबर एक और तीसरी अवस्था में एक धन एक बराबर क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है।

रवि- परन्तु हम इसे बृजकृष्ण पर कैसे लागू कर सकते हैं?

बाबा- बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है। 

चन्दू- तो क्या पार्थसारथी पर द्वैतवाद लागू हो सकता है ? 

बाबा- चलो पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखते हैं। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वॉम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः।‘‘ मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्मां को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं उनका क्या होगा ! मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय।

राजू - आपने प्राथमिक और द्वितीयक नाम के नये धर्म बताकर थोड़ा कन्फ्यूज सा नहीं कर दिया ? 

बाबा- यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही परमपुरुष हैं और उन्हें ‘एक‘  और अन्य द्वितीयक धर्म ‘शून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद शून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले शून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसीलिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। इस प्रकार प्रारंभिक धर्म ‘परमपुरुष‘ को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है । 

रवि- तो क्या पार्थसारथी अद्वैतवादी हैं?

बाबा- हॉं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।  

क्रमशः.... 


Sunday, 7 December 2025

452 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

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बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

रवि-    ब्रह्मॉंड में फैले पदार्थ और वनस्पति या जीवजन्तुओं सहित मनुष्यों के बीच कुछ अन्तर है या नहीं ? 

बाबा-   पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परमसत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। यही जड़ात्मक मन, इकाई संरचना को प्रतिसंचर क्रिया के माध्यम से बहुकोशीय संरचनाओं तक ले जाकर ब्रह्मचक्र पूरा करता है। बहुकोशीय संरचना वाले मनुष्य का मन सूक्ष्म चिंतन कर सकने और उस परमसत्ता के आकर्षण से उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा। 

राजू-     तो वह परमसत्ता मनुष्यों पर किस प्रकार नियंत्रण कर पाती है? 

बाबा-     मनुष्य की संरचना में पचास छोटेबड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वृत्तियॉेंं को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्त्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है।

इन्दु-    और सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण किस प्रकार होता है?

बाबा-   परमपुरुष समस्त ब्रह्मॉंड पर नियंत्रण करते हैं। सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीं है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयत्नों  से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परमपुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं। 

नन्दू-   परन्तु हम तो कृष्ण को दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर रहे थे, वह भी अद्वैतवाद के विशेष प्रकारों के आधार पर?

बाबा-   हॉं, अब मूल विषय पर आया जाय। यद्यपि अभी जो चर्चा की गई है उसका सम्बन्ध भी किसी न किसी प्रकार से मूल विषय से आगे जुड़ ही जायेगा फिर भी विशुद्ध अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्मॉंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्मॉंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर और साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुधार  करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों िंचगारियॉं निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियॉं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उन तक वापस लौटना आवश्यक नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हॅूं और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण, महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। इसलिए विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य। पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है।

चन्दू-   तो पार्थसारथी का विशिष्ठाद्वैतवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा जला सकता है या नहीं?

बाबा-   अच्छा, अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद्भुद करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद्गुणी लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियॉं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश का समर्थन करता है। विनाश का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियॉं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधी काल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हैं। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता होती है जो उसे उचित दिशा दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैतवाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। 

क्रमशः ..


Tuesday, 2 December 2025

451 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

 पिछली कक्षा के आगे....

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)


नन्दू- परन्तु इसके बाद आए अनेक दर्शनों में कृष्ण का स्थान कहॉं पर आता है?

बाबा- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण करना उचित होगा। जैसे, विशुद्ध अद्वैतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमॉंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तारित किया। इसके अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रंह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्योंकि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहॉ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन सॉंख्य और न्याय दर्शन के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रंह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा। 


राजू- तो क्या इस सिद्धान्त के आधार पर बृजकृष्ण की भूमिका को नहीं समझाया जा सकता ?

बाबा- ठीक है बृजकृष्ण की भूमिका को लेते हैं। बृजकृष्ण तो अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं  हैं, वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। ब्रह्मॉंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्मॉंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परमपुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके बिना जीवों का कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने इस दर्शन का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है? 


इन्दु- परन्तु मायावाद तो कुछ प्रकाश डाल सकता है कि नहीं?

बाबा- इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जबकि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि सॉंसारिक वस्तुऐं  सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बॉंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बॉंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की माया है। ब्रह्म के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया संम्बित और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है। 


चन्दू- तो पार्थसारथी की भमिका क्या मायावाद के अनुकूल हो सकती है?

बाबा- जहॉं तक पार्थसारथी का प्रश्न है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये किया। शॉंति और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियॉं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहॉं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है।


राजू- अर्थात् पार्थसारथी ने तात्कालिक किसी भी दर्शन को आधार नहीं बनाया?

बाबा-पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता का शोषण किया जाना चरम सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के ऑंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दवाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बॉंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं। इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।

क्रमशः ....


Saturday, 29 November 2025

450 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

 पिछली क्लास से आगे...

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)


राजू- सॉंख्य दर्शन में क्या कहा गयाहै?

बाबा-सॉंख्य दर्शन के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चौबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये जन्यईश्वर और समग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रकृति को उत्तरदायी माना गया है। जन्य इंर्श्वर या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण। 


नन्दू- तो क्या कृष्ण को इस मत  के अनुसार जन्यईश्वर कहा जा सकता है?

बाबा- इस दर्शन के प्रकाश में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहॉं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता। 


चन्दू- तो आपके अनुसार बृज कृष्ण सॉख्य दर्शन के अनुकूल हैं?

बाबा- बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह सॉंख्य दर्शन में कहीं  भी दिखाई नहीं देता। सॉंख्य का पुरुष अक्रिय जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते । उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते।


रवि- लेकिन बृज कृष्ण की गतिविधियों को तो उनकी बाल लीलाओं में ही गिना जाता है?

बाबा- बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता बसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण सॉंख्यदर्शन से बहुत ऊपर हैं, सॉंख्य दर्शन में उन्हें नहीं बॉंधा जा सकता। 


इन्दू-  तो क्या पार्थ सारथी की भूमिका सॉंख्य दर्शन के अनुकूल मानी जा सकती है?

बाबा- यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है, पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत आवश्यकताओं के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहॉं पाया जा सकता है वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । सॉंख्य का पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया, महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना जैसे सक्रिय कार्य सॉंख्य के जन्यईश्वर में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन में क्या बॉंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे जो बच्चों का खेल नहीं है। अतः सॉंख्य के जन्यईश्वर या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।

क्रमशः...