Monday, 8 December 2025

453 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

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बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

राजू - सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? इस तरह क्या यह दर्शन की त्रुटियॉं नहीं हैं? 

बाबा- प्रारंभ में लोग दर्शन शास्त्र के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे  अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार जीव भाव को सॉंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं । जीव का यही भाव ‘‘इकाई मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है। 

नन्दू- इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहॉं होता है? 

बाबा- जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है, जैसे, मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया, मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका यह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परम सत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है। 

इन्दु- लेकिन आपने तो एक बार यह बताया था कि भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहॉं बचता है?

बाबा- बिलकुल सही । देखो ! द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हॅूं और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर नहीं बनना चाहता, मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्क्र का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में एक धन एक बराबर दो, दूसरी अवस्था में एक धन एक बराबर एक और तीसरी अवस्था में एक धन एक बराबर क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है।

रवि- परन्तु हम इसे बृजकृष्ण पर कैसे लागू कर सकते हैं?

बाबा- बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है। 

चन्दू- तो क्या पार्थसारथी पर द्वैतवाद लागू हो सकता है ? 

बाबा- चलो पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखते हैं। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वॉम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः।‘‘ मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्मां को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं उनका क्या होगा ! मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय।

राजू - आपने प्राथमिक और द्वितीयक नाम के नये धर्म बताकर थोड़ा कन्फ्यूज सा नहीं कर दिया ? 

बाबा- यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही परमपुरुष हैं और उन्हें ‘एक‘  और अन्य द्वितीयक धर्म ‘शून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद शून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले शून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसीलिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। इस प्रकार प्रारंभिक धर्म ‘परमपुरुष‘ को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है । 

रवि- तो क्या पार्थसारथी अद्वैतवादी हैं?

बाबा- हॉं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।  

क्रमशः.... 


Sunday, 7 December 2025

452 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

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बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

रवि-    ब्रह्मॉंड में फैले पदार्थ और वनस्पति या जीवजन्तुओं सहित मनुष्यों के बीच कुछ अन्तर है या नहीं ? 

बाबा-   पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परमसत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। यही जड़ात्मक मन, इकाई संरचना को प्रतिसंचर क्रिया के माध्यम से बहुकोशीय संरचनाओं तक ले जाकर ब्रह्मचक्र पूरा करता है। बहुकोशीय संरचना वाले मनुष्य का मन सूक्ष्म चिंतन कर सकने और उस परमसत्ता के आकर्षण से उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा। 

राजू-     तो वह परमसत्ता मनुष्यों पर किस प्रकार नियंत्रण कर पाती है? 

बाबा-     मनुष्य की संरचना में पचास छोटेबड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वृत्तियॉेंं को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्त्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है।

इन्दु-    और सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण किस प्रकार होता है?

बाबा-   परमपुरुष समस्त ब्रह्मॉंड पर नियंत्रण करते हैं। सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीं है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयत्नों  से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परमपुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं। 

नन्दू-   परन्तु हम तो कृष्ण को दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर रहे थे, वह भी अद्वैतवाद के विशेष प्रकारों के आधार पर?

बाबा-   हॉं, अब मूल विषय पर आया जाय। यद्यपि अभी जो चर्चा की गई है उसका सम्बन्ध भी किसी न किसी प्रकार से मूल विषय से आगे जुड़ ही जायेगा फिर भी विशुद्ध अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्मॉंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्मॉंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर और साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुधार  करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों िंचगारियॉं निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियॉं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उन तक वापस लौटना आवश्यक नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हॅूं और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण, महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। इसलिए विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य। पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है।

चन्दू-   तो पार्थसारथी का विशिष्ठाद्वैतवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा जला सकता है या नहीं?

बाबा-   अच्छा, अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद्भुद करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद्गुणी लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियॉं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश का समर्थन करता है। विनाश का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियॉं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधी काल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हैं। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता होती है जो उसे उचित दिशा दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैतवाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। 

क्रमशः ..


Tuesday, 2 December 2025

451 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

 पिछली कक्षा के आगे....

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)


नन्दू- परन्तु इसके बाद आए अनेक दर्शनों में कृष्ण का स्थान कहॉं पर आता है?

बाबा- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण करना उचित होगा। जैसे, विशुद्ध अद्वैतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमॉंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तारित किया। इसके अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रंह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्योंकि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहॉ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन सॉंख्य और न्याय दर्शन के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रंह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा। 


राजू- तो क्या इस सिद्धान्त के आधार पर बृजकृष्ण की भूमिका को नहीं समझाया जा सकता ?

बाबा- ठीक है बृजकृष्ण की भूमिका को लेते हैं। बृजकृष्ण तो अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं  हैं, वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। ब्रह्मॉंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्मॉंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परमपुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके बिना जीवों का कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने इस दर्शन का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है? 


इन्दु- परन्तु मायावाद तो कुछ प्रकाश डाल सकता है कि नहीं?

बाबा- इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जबकि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि सॉंसारिक वस्तुऐं  सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बॉंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बॉंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की माया है। ब्रह्म के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया संम्बित और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है। 


चन्दू- तो पार्थसारथी की भमिका क्या मायावाद के अनुकूल हो सकती है?

बाबा- जहॉं तक पार्थसारथी का प्रश्न है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये किया। शॉंति और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियॉं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहॉं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है।


राजू- अर्थात् पार्थसारथी ने तात्कालिक किसी भी दर्शन को आधार नहीं बनाया?

बाबा-पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता का शोषण किया जाना चरम सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के ऑंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दवाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बॉंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं। इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।

क्रमशः ....


Saturday, 29 November 2025

450 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

 पिछली क्लास से आगे...

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)


राजू- सॉंख्य दर्शन में क्या कहा गयाहै?

बाबा-सॉंख्य दर्शन के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चौबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये जन्यईश्वर और समग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रकृति को उत्तरदायी माना गया है। जन्य इंर्श्वर या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण। 


नन्दू- तो क्या कृष्ण को इस मत  के अनुसार जन्यईश्वर कहा जा सकता है?

बाबा- इस दर्शन के प्रकाश में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहॉं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता। 


चन्दू- तो आपके अनुसार बृज कृष्ण सॉख्य दर्शन के अनुकूल हैं?

बाबा- बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह सॉंख्य दर्शन में कहीं  भी दिखाई नहीं देता। सॉंख्य का पुरुष अक्रिय जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते । उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते।


रवि- लेकिन बृज कृष्ण की गतिविधियों को तो उनकी बाल लीलाओं में ही गिना जाता है?

बाबा- बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता बसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण सॉंख्यदर्शन से बहुत ऊपर हैं, सॉंख्य दर्शन में उन्हें नहीं बॉंधा जा सकता। 


इन्दू-  तो क्या पार्थ सारथी की भूमिका सॉंख्य दर्शन के अनुकूल मानी जा सकती है?

बाबा- यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है, पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत आवश्यकताओं के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहॉं पाया जा सकता है वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । सॉंख्य का पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया, महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना जैसे सक्रिय कार्य सॉंख्य के जन्यईश्वर में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन में क्या बॉंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे जो बच्चों का खेल नहीं है। अतः सॉंख्य के जन्यईश्वर या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।

क्रमशः...

Wednesday, 26 November 2025

449 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)


पिछली क्लास से आगे...

449 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)

रवि- लेकिन आपने तो बताया था कि कृष्ण से पहले सदाशिव ने तन्त्र की व्यवहारिकता का ज्ञान समाज को दिया था, तो क्या वह कपिल के प्रपत्तिवाद से पृथक था?

बाबा- सत्य है, तंत्र के प्रवर्तक हैं भगवान ‘‘सदाशिव‘‘। स्थानीय रूप से इसमें दो भाग हैं एक गौड़ीय और दूसरा कश्मीरी। गौड़ीय में व्यावहारिकता अधिक और कर्मकॉंड शून्य है जबकि कश्मीरी में कर्मकॉंड अधिक और व्यावहारिकता कम। व्यावहारिकता के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने पर पता चलता है कि तंत्र के पॉंच विभाग हैं, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य। कहा जाता है कि शैवतंत्र में ज्ञान और सामाजिक चेतना पर अधिक जोर दिया जाता है, शाक्त तंत्र में शक्ति को प्राप्त कर उसे न्यायोचित ढंग से प्रयुक्त करने पर जोर रहता है, वैष्णवतंत्र में मधुर दिव्यानन्द को प्राप्त करने की ओर बल दिया जाता है पर सामाजिक चेतना की ओर कम, सौर तंत्र में चिकित्सा और ज्योतिष को ही महत्व दिया जाता है तथा गाणपत्य तंत्र में विभक्त समाज के गुटों को एकीकृत रहकर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। जहॉं तक प्रपत्ति का प्रश्न है वैष्णव तंत्र में बृज कृष्ण की तरह, दिव्यानन्द की मधुरता का स्वाद लेने को दौड़ना स्पष्टतः दिखाई देता है। इस अवस्था में ज्ञान और कर्म की कठिनाई से लड़ना संभव नहीं है। 

राजू- क्या कृष्ण का ज्ञानमार्ग, शैवतंत्र के ज्ञान मार्ग और वैष्णवतंत्र के मधुर दिव्यानन्द से कुछ समानता रखता है या नहीं ?

बाबा- पार्थसारथी कृष्ण ने अर्जुन को अपने प्रकॉंड ज्ञान का दर्शन कराया पर उसमें नकारात्मकता या पलायनवाद कहीं पर नहीं था। उन्होंने बताया कि जीवधारी विशेषतः मनुष्य दो संसारों में जीते हैं, एक संसार उनके छोटे ‘मैं‘ का और दूसरा परम पुरुष का। वह अपने छोटे संसार का स्वमी होकर अनगिनत आशायें और अपेक्षायें पाले रहता है पर ये सब उसी प्रकार होतीं हैं जैसे एक छोटा सा बुलबुला महॉंसागर में तैरता है। इस छोटे से बुलबुले की इच्छायें तभी पूरी हो सकती हैं जब वह परमपुरुष के संसार अर्थात् महासागर में अपने को मिलाकर आपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है अन्यथा नहीं। स्पष्ट है कि मनुष्य की इच्छाओं की तरंगें जब तक परमपुरुष की इच्छातरंगों से मेल नहीं करती उनका पूरा होना संभव नहीं है। यह पूर्णप्रपत्ति है पर जब प्रारंभ में वे ज्ञान और दर्शन का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो यही बात विप्रपत्ति जैसी अनुभव होती है, पर जब वह समझाते हैं कि सब कुछ तो उन्होंने ही योजित कर रखा है तो यह अप्रपत्ति की तरह लगता है और जब वे कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा का कोई मूल्य नहीं मैं ही सब कुछ करता हॅूं तब वह स्पष्टतः प्रपत्ति ही है। मामेकम शरणम् व्रज , यह कहने पर तो सब कुछ प्रपत्ति का ही समर्थन हो जाता है।

इन्दु- तो क्या शैवतंत्र का दार्शनिक ज्ञान और वैष्ण्वों की प्रपत्ति दर्शन क्या भिन्न हैं? 

बाबा- शैवों का दर्शन ज्ञान, लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिये विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मकताओं में संघर्ष करने और कार्य कारण सिद्धान्त के विश्लेषण के आधार पर आगे बढ़कर लक्ष्य तक ले जाने की बात कहता है अतः प्ररंभ में विप्रपत्ति प्रतीत होती है पर अंत में जब लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तब न तो अप्रपत्ति न प्रपत्ति और न ही विप्रपत्ति बचती है।

चन्दु- आपने शिव को तारक ब्रह्म कहा है, इस पद का अर्थ क्या है?

बाबा- अपनी असाधारण बुद्धि, व्यक्तित्व, चतुराई और संगठनात्मक क्षमता के कारण जो समग्र समाज का नेतृत्व  करते हैं वे समाजप्रर्वतक कहलाते हैं। वे, जो कुल अर्थात् तंत्र साधना कर अन्तर्ज्ञान के सहारे सूक्ष्म ऋणात्मकता को विराट धनात्मकता में बदलकर अपने इकाई मन को परमसत्ता के  मन के स्तर तक ऊंचा कर सकते हैं कौल कहलाते हैं। वे, जो अपने अभ्रान्त ज्ञान के मार्गदर्शन से दूसरों को कौल बना देते हैं वे महाकौल कहलाते हैं। परंतु तारक ब्रह्म इन सबसे भिन्न विशेष सत्ता होते हैं जो एकसाथ समाज प्रवर्तक, आध्यात्मिक प्रवर्तक, कौल और महाकौल सबकुछ होते हैं इतना ही नहीं वह इन सब से भी अधिक होते हैं वे समाज के प्रत्येक भाग के लिये दिशानिर्देशक की तरह कार्य करते हैं। भगवान सदाशिव तारक ब्रह्म थे। क्रमश:......


448 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

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448 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)


राजू- क्या कृष्ण के समय तक दर्शन अर्थात् फिलासफी का उद्गम हो चुका था?

बाबा- भारतीय दर्शन के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक कपिल शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और उन्हें नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर‘‘। संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे सॉंख्य दर्शन कहा गया है।


रवि- तो क्या उस समय के विद्वानों ने उनकी इस बात को स्वीकार कर लिया?

बाबा-  कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं । अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ्ा है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। निश्चय ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे।


इन्दु- तो क्या कृष्ण के समय तक यह दर्शन स्थापित हो चुका था या समाप्त हो चुका था या कृष्ण ने अलग कोई अपना दर्शन प्रस्तुत किया ?

बाबा- कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के दार्शनिक वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहॉं यह याद रखने योग्य है कि भागवतशास्त्र जिसमें प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया।  बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियॉं और कार्यव्यवहार संपूर्ण प्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन खि्ांचकर अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बॉंसुरी सुनकर सभी लोग उन की ओर ही दौड़ पड़ते थे उन्हें लगता था कि वह बॉसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या कॉंटे उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नहीं तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्म करना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहॉं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।


चन्दू- प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में? 

बाबा- यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इस प्रकार कर्म प्रारंभ में तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बॉसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है। क्रमशः....


447 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

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447  बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)


रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?

बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहॉं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनां का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मध्ुरता भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी। 


नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?

बाबा - हॉं, एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यां से युक्त होता है, इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते  अपनी तरंग दैर्घ्य को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद, जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा। 


चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?

बाबा- बृज कृष्ण अपनी बॉंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी की अनुभ्ूति क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है, पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बॉंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं यहॉं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हॅूं और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहॉं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है, मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हॅूं और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पॉंचजन्य की ध्वनि कानों में गॅूंजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।


इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियॉं कृष्ण से भिन्न थीं?

बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने, स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, पर दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।क्रमशः....