Tuesday, 21 May 2024

422 हिंदू धर्म की उत्पत्ति


प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, विशेषकर तथाकथित हिंदू धर्म, के बारे में आम लोगों में बहुत गलतफहमी है, इसलिए मैं थोड़ा विस्तार में जाना चाहता हूं ताकि लोगों को सच्चाई पता चल सके।
दरअसल, मानव जाति इस धरती पर लाखों साल पहले आई थी लेकिन मानव सभ्यता लगभग 15000 साल पहले से 8000 हजार साल के बीच यानी ऋक्वैदिक युग के समय तक अपने चरम पर अस्तित्व में अपनी प्रगति करती रही। इस युग के दौरान अलग-अलग ऋषि अलग-अलग क्षेत्रों में ज्ञान की खोज कर रहे थे और एक विशेष ऋषि के ये विचार कई मायनों में दूसरे के साथ भिन्न थे, लेकिन फिर भी उन दिनों जीवन का धार्मिक तरीका अपने क्षेत्र के ऋषि की शिक्षाओं का पालन करना था। ऋषि की शिक्षा को “अर्ष धर्म“ का नाम दिया गया था।

लगभग 7000 वर्ष पहले भगवान ‘‘शिव’’ नामक एक महान व्यक्तित्व अस्तित्व में आया और उसने, अपने अपने वर्चस्व के लिए झगड़ते समाज में हलचल पैदा कर दी। उन्होंने इसे अपनी शिक्षाओं के साथ जोड़ा, जिस पर वर्तमान में आम तौर पर चर्चा नहीं की जाती है और इसलिए नए समाज के निर्माण में उनके योगदान को प्रायः भुला दिया गया है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को प्रत्येक जीवित प्राणी की “जन्मजात लाक्ष्णिकताओं“ के रूप में परिभाषित किया। यही आगे चलकर शैव धर्म/भागवद धर्म/सनातन धर्म कहलाया। आज हम जिन दर्शनों को जानते हैं उनका आविष्कार शिव के समय में नहीं हुआ था। शैव धर्म का सिद्धांत परम आनंद प्राप्त करना था। इसलिए शिव ने अपनी शिक्षाओं के व्यावहारिक पक्ष का पालन किया क्योंकि उन्हें लिखने की कोई प्रणाली नहीं थी। जब भगवान शिव ने शैव धर्म या भागवद धर्म के व्यावहारिक पक्ष को व्यवस्थित किया तो तंत्र की गौड़ीय और कश्मीरी प्रणालियाँ पहले से ही मौजूद थीं लेकिन बिखरे हुए रूप में। भगवान शिव ने उन्हें पुनर्व्यवस्थित किया और एक नई व्यावहारिक विधि का परिचय दिया जिसे उन्होंने विद्यातंत्र का नाम दिया। अपने अनुयायियों को उनके स्पष्ट निर्देश इस प्रकार थेः-
‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि,
ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘।
(मतलब, मन को बाहरी आकर्षण और इंद्रियों के विषयों से हटाकर “अहम् तत्व“ में जोड़ दें। फिर अहमतत्व को महतत्व में जोड़ दें और अंत में इन सभी को आत्मतत्व में जोड़ दें।)
यह कैसे किया जाना है इसकी ट्रेनिंग देने का कार्य वे स्वयं अपने सानिद्य में किया करते थे।

अब तक वैदिक ऋषियों ने यजुर्वेद और अथर्ववेद के रूप में कुछ उन्नत विचारों को प्रस्तुत किया, जिसमें कर्मकांडीय आडंबर पर अधिक जोर दिया गया, हालांकि विद्यातंत्र की व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी। यहां यह बताना आवश्यक है कि वेदों में 90 प्रतिशत सैद्धान्तिक वर्णन तथा केवल 10 प्रतिशत व्यावहारिक साधना की विधियॉं मिलती हैं, जबकि विद्यातंत्र में 90 प्रतिशत व्यावहारिक कार्य तथा केवल 10 प्रतिशत सिद्धांत मिलते हैं।
अथर्ववेद के काल तक ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का आविष्कार हो चुका था और लिखने के लिए भोजपत्रों का प्रयोग किया जाता था। ऋषि अर्थवा ने अपने अनुयायियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के साथ वेदों को वैदिक संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में लिखा। इस प्रकार आर्यों की याज्ञिक प्रणाली (कर्मकांड) और शिव की विद्यातंत्र (ज्ञानकांड) दो प्रणालियाँ थीं जिनका पालन भारत के प्राचीन मूलनिवासियों द्वारा किया जाता था लेकिन कहीं भी मूर्ति पूजा नहीं थी।

इसके बाद लगभग 5500 साल पहले (भगवान ‘‘कृष्ण’’ के आगमन से लगभग 500 साल पहले) ‘‘कपिल’’ मुनि अस्तित्व में आए और उन्होंने ‘सांख्य दर्शन’ नाम से अपना दर्शन प्रस्तुत किया, जिसमें इस ब्रह्मांड के निर्माता को कुछ संख्याओं में गिनाने की कोशिश की गई। उन्हें “अदिविद्वान“ अर्थात प्रथम दार्शनिक और ईश्वर को निश्चित संख्याओं में बांधने वाला पहला विद्वान माना जाता था।
‘सांख्य दर्शन’ के काफी समय बाद एक अन्य दार्शनिक महर्षि ‘‘पतंजलि’’ ने ‘‘पातंजल योग दर्शन’’ दिया और सांख्य दर्शन के दोषों को दूर करने का प्रयास किया लेकिन कुछ मामलों में वे पिछड़ गये। उनका सबसे बड़ा दोष यह था कि वह जीवित प्राणियों और ईश्वर के बीच के संबंध को निर्धारित करने में विफल रहे। महर्षि ‘कणाद’ एक अन्य दार्शनिक थे जिन्होंने “कारण और प्रभाव सिद्धांत“ दिया और “वैशेषिक दर्शन“ की स्थापना की। दार्शनिक विचारों के विश्लेषण से उन्होंने यह स्थापित किया कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। वह ईश्वर को साक्षी सत्ता और पदार्थ की सबसे छोटी इकाई को परमाणु मानते हैं लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि ईश्वर एक दार्शनिक कारण है या यांत्रिक इकाई है। उन्होंने ईश्वर और एटम के सम्बन्ध के बारे में भी कुछ नहीं कहा। कालान्तर में वैशेषिक द्वैतवादी हो गये।

इन्हीं दर्शनों के उथलपुथल भरे समय में जबकि कहीं पर शैव, कहीं पर शाक्त, कहीं पर विद्यातंत्र और कहीं पर अविद्यातंत्र का डंका बज रहा था, महासंभूति कृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अपना कोई दर्शन तो नहीं दिया परन्तु शिव प्रणीत विद्यातंत्र के ज्ञानकांड, कपिल के सांख्य और पातंजल दर्शन को समन्वयीकृत कर ज्ञानियों को ज्ञानमार्ग का और कर्मियों को निष्काम कर्म योग का अनुसरण करते हुए भक्ति को पाने की व्यवस्था बनाई। इसमें कहा गया है कि पूर्णप्रपत्ति के बिना आप अपने को जान ही नहीं सकते। इसे ही ‘वैष्णववाद’ कहा गया।

इसके बहुत बाद में दार्शनिक युग के मध्य काल में ‘‘मीमांसा सम्प्रदाय’’ का उदय हुआ जिसने पूर्ववर्ती दर्शनों की विसंगतियों एवं दोषों को दूर करने का प्रयास किया। इसे दो खंडों में विभाजित किया गया था एक को आचार्य बादरायण व्यास, आचार्य गौडपाद, आचार्य गोविंदपाद और श्रीमत शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित उत्तर मीमांसा कहा जाता है और दूसरे खंड को आचार्य जैमिनी द्वारा प्रतिपादित पूर्व मीमांसा कहा जाता है। इन सभी आचार्यों के विचारों और मतों में व्यापक मतभेद थे लेकिन इन सभी ने ‘‘ब्रह्म’’ के अस्तित्व को स्वीकार किया था। दोष यह था कि उन्होंने ब्रह्म के साथ ‘‘माया’’ का परिचय कराया, तदनुसार माया इस संसार का निर्माण कर रही है इसलिए इसे मिथ्या माना गया।

इस प्रकार आचार्यों के विभिन्न विचारों में सामाजिक जीवन ठहरा हुआ था। बाद में, लगभग 2500 वर्ष पूर्व माहर्षि ‘वृहस्पति’ (जिन्हें चार्वाक के नाम से जाना जाता है), वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने समाज में अपने विचारों का प्रतिपादन किया। इस काल में वेदों का कर्मकाण्ड व्यापक रूप से प्रचारित हुआ तथा ज्ञानकाण्ड छिपा हुआ था। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने कर्मकांड का विरोध किया और वेदों को स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने ज्ञानकांड का विरोध नहीं किया। इस प्रकार बुद्ध की नैतिकता और महावीर की अहिंसा पर आधारित नये विचार अस्तित्व में आये। बुद्ध ने ईश्वर या भगवान के अस्तित्व के बारे में कोई बात नहीं कही और यह प्रतिपादित किया कि अंततः सब कुछ शून्य है । जबकि महावीर निर्वाण में विश्वास करते थे, लेकिन रचयिता और सृष्टि तथा उनके परस्पर संबंध के बारे में कई बातें अस्पष्ट थीं। इसी दौरान चार्वाक वेदों, बुद्ध और महावीर के विचारों से कई कदम आगे पहुंच गये क्योंकि उनके दर्शन ने कर्मकांडीय आडंबरों का विरोध करते हुए नैतिक सिद्धांतों और मानवीय मूल्यों को भी नकार दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि जब तक जीवित रहो सुख से रहो चाहे कर्ज भी लेना पड़े फिर भी मक्खन खाते रहो। शब्दों की बाजीगरी का उपयोग करने वाला यह दर्शन प्रत्यक्ष बोध के अलावा किसी भी प्रमाण को स्वीकार नहीं करता था और इसलिए समाज भौतिकवादी हो गया। आज तक हम देखते हैं कि समाज में कर्मकांडीय आडंबर, मूर्ति पूजा और भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रचलित है। जब मुस्लिम और ब्रिटिश आक्रमणकारी भारत में आए, तो उन्होंने इस क्षेत्र (जिसे भारत या मूल रूप से जम्बूद्वीप कहा जाता था) को हिंदुस्तान और मंदिरों में पूजा-पाठ और अनुष्ठान आदि कार्य देखकर इसे ही “हिंदू धर्म“ नाम दे दिया क्योंकि ज्ञानकांड पर आधारित चर्चा इस समय दब चुकी थी। इस समय तक मूलतः ‘शैव’ मतानुयायी, कालक्रम के अनुसार जैन और बौद्ध के प्रभाव में आते जा रहे थे । जैन तन्त्र की अव्यावहारिकता और बौद्ध तन्त्र की दुखवादिता से जनसामान्य अपने जीवन की रसमयता को खोता जा रहा था, इसलिए आज चार्वाक का भौतिकवाद चरम पर जा रहा है।

इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में कैसे दर्शनशास्त्र के विभिन्न रूपों का उदय हुआ और उन्होंने विद्यातंत्र और वेदों के सच्चे ज्ञान को पर्दे के पीछे रखकर आम समाज को शब्दों की बाजीगरी में उलझा दिया। अब यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तथाकथित हिंदू धर्म में वेदों का कितना हिस्सा माना जाता है, शैव, भागवत या सनातन धर्म का तो कहना ही क्या!

यह भी स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य इस ब्रह्माण्ड के रचयिता व निर्माण के पीछे के सत्य व उसके घटकों तथा जीवों के साथ उसके परस्पर सम्बन्ध को जानना था। इससे पता चलता है कि आज भारत को विश्वगुरु बनने के लिए भगवान शिव द्वारा प्रतिपादित विद्यातंत्र आधारित पूजा प्रणाली को स्थापित करने की अत्यंत आवश्यकता है। आज के नेताओं द्वारा भारत को विश्वगुरु बनाने दावा किया जा रहा है, परन्तु विशुद्ध रूप में सनातन/भागवत धर्म की स्थापना के बिना क्या यह संभव है?

Friday, 22 December 2023

421 रामायण/रामचरितमानस में कमियॉं निकालना?

 

प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना की विषयवस्तु में किसी एक चरित्र को केन्द्रित कर अपने विचार व्यक्त करता है। अन्य चरित्र कथानक की आवश्यकता के अनुसार यथा स्थान पर अपनी भूमिका पाते जाते हैं। रामायण या रामचरितमानस जैसे महाकाव्यों में जिस चरित्र को प्रधानता दी गई है वह है ‘‘राम’’। इसलिए स्वाभाविक है कि अन्य सभी पात्रों की भूमिका ‘‘राम’’ के चारों ओर ही सीमित रहेगी। ‘रामायण’ माने ‘राम का घर’ और ‘रामचरितमानस’ माने ‘मेरे मन के अनुसार राम का चरित्र’ अतः स्पष्ट है कि रचनाकार किसी चरित्र का चित्रण करते समय जितना आवश्यक होगा उतना विवरण ही देगा। इससे उस रचयिता पर किसी चरित्र की उपेक्षा किए जाने का दोषारोपण करना उचित प्रतीत नहीं होता। पूर्वोक्त ग्रंथों के रचियताओं ने अपने इष्ट ‘‘राम’’’ के प्रति अनन्य निष्ठा प्रदर्शित की है और उनसे जुड़े सभी पात्रों के चरित्रों में भी उसी निष्ठा को निरूपित किया है फिर चाहे वह लक्ष्मण और भरत हो या दशरथ और सुमित्रा अथवा वशिष्ठ और मंथरा। रचनाकार भक्तों का पूर्णतः उद्देश्य यह है कि हर प्रकार से वे अपने इष्ट ‘राम’ के प्रति ‘‘ओत प्रोत’ भाव से जुड़े रहें। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने इष्ट से क्षण भर भी दूर नहीं रह सकता। बार बार वन के कष्टों का विवरण देकर राम द्वारा रोके जाने पर भी लक्ष्मण और सीता इसीलिए उनके साथ साथ वन चल दिये। उन दोनों की भावना यह थी कि मुझे चाहे जितना कष्ट हो पर मैं अपने इष्ट को अपने प्रत्येक कार्य से प्रसन्नता देना चाहता हंॅू। यह रागात्मिका भक्ति कहलाती है। दशरथ अपने इष्ट से दूर रह ही नहीं सकते थे इसलिए राम के वन जाते ही उन्होंने अपने शरीर को ही तिनके की भांति त्याग दिया। तुलसीदास जी का कहना है, ‘‘वन्दौ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहिं राम पद। विछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृण इव परिहरेउ। इसलिए पौराणिक कथाओं को शब्दशः न लेकर उनके पीछे दी गई शिक्षा ही ग्रहण करना चाहिए परन्तु तथाकथित विद्वान मनमानी व्याख्या कर उनके महत्व को कम करते देखे जाते हैं!



Friday, 15 December 2023

420 माया वास्तव में क्या है?


भारतीय दर्शन में समग्र सृष्टि के स्रजनकर्ता को परमपुरुष और जिस शक्ति से वे रचना कार्य करते हैं उसे माया कहा गया है। विद्वानों ने इस माया को सदा हमारी प्रगति का विरोध करने वाला और भ्रम भी कहा है। इतना ही नहीं, उससे बचने के अनेक उपाय भी सुझाए हैं। कबीरदास जी तो माया को महाठगनी कह गए हैं। कृष्ण भी कहते हैं कि ‘मम माया दुरत्यया’ अर्थात् मेरी माया को पार कर पाना बड़ा ही दुष्कर है। आइए इस विषय पर कुछ सोचें।
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष मेंं गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (ब्रेक) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। 
आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में मूलतः ‘माया’ कहा गया है जो  विद्यामाया और अविद्यामाया के रूप में कार्य करती है। किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी उस कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उसपर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्यामाया’’ और सेंट्राफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्यामाया’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेंट्रीफयूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहॉं सेंट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है, भ्रम उत्पन्न करता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो ? और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या दोनों को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हें।

Sunday, 3 December 2023

419 अक्षरामृत कौन है?

 

विद्वान ऋषियों ने यह जानने के लिए एक संगोष्ठी की कि वह कौन है जो इस समग्र ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करता है जिसकी उपासना कर हम इस विश्वमाया से मुक्त हो सकें। इस पर अनेक मत इस तर्क पर स्थिर हो गए कि ‘प्रकृति’ ही वह सत्ता है जो सभी पर नियंत्रण करती है और सभी का संचालन करती है, इतना ही नहीं प्रकृति ने ही अपनी विश्वमाया में सबको भ्रमित कर रखा है अतः उसी की उपासना करना चाहिए। एक ऋषि इससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने तर्क दिया कि ‘‘ ‘प्र’ करोति या सा प्रकृतिः’’ अर्थात् जो अपने को विभिन्न प्रकारों में रूपान्तरित करती रहती है वह प्रकृति है अतः जो बदलता रहे वह परम सत्य नहीं माना जा सकता। चूंकि प्रकृति का क्षरण होता रहता है इसलिए वह अमर नहीं है अतः उसे उपास्य भी नहीं माना जा सकता। उपास्य वही हो सकता है जो अमर हो। तो वह अमर सत्ता कौन है जिसकी उपासना की जा सकती है? एक ऋषि बोले ‘‘हर’’ ‘ह’ माने अन्तरिक्ष और ‘र’ माने ऊर्जा इसलिए अन्तरिक्षीय ऊर्जा ही अक्षय है वह नष्ट नहीं होती अतः ‘हर’ ही अमर हैं और वही अक्षर भी इसलिए वही उपास्य हैं।

अन्य ऋषि ने तर्क दिया कि ऊर्जा भले ही नष्ट न हो परन्तु रूप तो बदलती रहती है अतः वह भी प्रकृति की भॉंति है इसलिए जब प्रकृति उपास्य नहीं है तो ऊर्जा को भी उपास्य नहीं माना जा सकता। बहुत डिस्कशन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि ‘‘प्रकृति का क्षरण होता है और ऊर्जा भले अक्षर है परन्तु इसे उपासना का लक्ष्य नहीं माना जा सकता। परन्तु इन दोनों का ही नियंत्रणकर्ता कोई एक ही सत्ता है जिसके अभिध्यान करने, जिससे जुड़ने और जिसके सर्वत्र व्याप्त होने का अनुभव करने पर ही हम इस विश्वमाया से मुक्ति पा सकते हैं।

सूत्र के रूप में इसे उपनिषद इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 

‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः, 

तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमाया निवृतिः।’’


Tuesday, 28 November 2023

418 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।
ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाला मन ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।
यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है। यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गरवे नमः।’’ ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।

Thursday, 9 November 2023

417 हमारी सनातन संस्कृति का लक्ष्य : पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाना है।


जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, वे मनुष्य रूप में पशु ही हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं। इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए, हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपतिनाथ हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
यह विचित्र सा लग सकता है परन्तु यह सत्य है। इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उसे वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में जिस स्तर पर पहुंचती है उसे देवता कहेंगे। ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
स्पष्टीकरण -
एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। श्शयद आप जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता हैं । हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीरभाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

416 ईश्वर से बात कैसे करें?

 

ईश्वर के संबंध में विभिन्न मतों में विभिन्न अवधारणाओं को बल दिया गया है। आपने किस मत की कौन सी अवधारणा को पालन करना स्वीकार किया है इस पर ही उनसे बात करना या न कर पाना निर्भर करता है।
सच्चाई यह है कि किसी ने भी ईश्वर को उनके निर्गुण स्वरूप में नहीं देखा है और न देख सकता है। इसलिए 90 प्रशित से अधिक भक्त पौराणिक कथाओं के आधार पर अपनी अवधारणाएं दृढ़़ करते हुए आगे बढ़ते हुए देखे जाते हैं। इन कथाओं में ईश्वर के अवतारों और आकार प्रकारों पर बताया गया है परन्तु उनको भी किसी ने साक्षात देखा नहीं है, जो भी पुस्तकों में भक्तों ने अपने अनुभव लिखे हैं उसी प्रकार उनके अनुयायी भी देखने का प्रयास करते हैं। अब समस्या यह है कि कोई भक्त कैसे यह जाने कि उस अद्वितीय अरूप अमाप्य अनन्त और अवर्णनीय को अपने छोटे से मन के द्वारा अनुभव करे, बात करे, अपने सुखदुख को बताकर शिकायत करे, उनका असीम प्रेम अनुभव करे?
इसका समाधान केवल विद्यातंत्र में ही मिलता है कर्मकांड में नहीं। शायद आप को पता होगा कि भगवान कृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- तपस्वीभ्योधिको योगी ज्ञानीभ्योपि मतोधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन।।
अर्थात् ‘योगी’ कर्मकांडियों, ज्ञानियों और तपस्वियों आदि से सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अर्जुन तुम योगी बनो।
आजकल योगी होने का मतलब योगासनें करने और सिखाने वाले को माना जाता है। पर यह सही नहीं है। विद्यातंत्र में मान्य योग की परिभाषा है‘ ‘‘संयागो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’’ अर्थात् "परम आत्मा" को अपनी जीवात्मा के साथ जोड़ने की प्रक्रिया को योग कहते हैं।
अब यहॉं आपके प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना बनती है। परन्तु फिर प्रतिप्रश्न उठता है कि कैसे?
इसका उत्तर है विद्यातंत्र में विशारद कौल गुरु जो पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण हो उससे अपने इष्ट मंत्र को प्राप्त करना। जब आपको अपने इष्ट और इष्टमंत्र का सही सही ज्ञान कौल गुरु के द्वारा करा दिया जाता है और अपने निर्देशन में साधना का अभ्यास करा कर योग्य बना दिया जाता है तब आपका मन और बुद्धि उस अरूप का रूप अपनी आत्मा के भीतर देख सकती है, अनुभव कर सकती है, उससे बात कर सकती है और उसके साथ एकाकार हो सकती है। वहीं आपको अनुभव होगा कि यही मेरे सर्वस्व हैं। यों तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव’ पर उन सबके व्यवहार में बहुत भिन्नता देखी जाती है। आप हतोत्साहित न हों, मन में कौल गुरु की अवधारणा को जीवन्त रखें वे आपको स्वयं इष्टमंत्र देने आएंगे और आपकी वार्ता अपने इष्ट से करायेंगे।