Thursday, 17 July 2025

भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -1 : (शिवोक्तियॉं)

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -1 : (शिवोक्तियॉं)

1. शिव का कहना है कि गतिशीलता का अर्थ है समय के सापेक्ष एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर जाना। इस अर्थ में भूतकाल और भविष्यकाल दोनों ही सापेक्षिक  सत्य हुए परन्तु वर्तमान काल है भूतकाल का वह भाग जो भविष्यकाल से किसी व्यक्ति विशेष की समझ के अनुसार संयोजित है। सामान्यतः दार्शनिक, ऐतिहासज्ञ और भौतिकवादी  इस संबंध में गलती करते हैं। शिव का कहना है कि आप वर्तमान काल में रहते हैं अतः आप अपने भूतकाल के अनुभव को वर्तमान को उन्नत बनाने और भविष्य की योजना में यह मानकर लगाओ कि पूर्ण मानव वैभव एकत्रित होकर आपके ऊपर अपार ऊर्जा को विकीर्णित कर रहा है। इसलिए ‘‘वर्तमानेषु वर्तेत’’ अर्थात् वर्तमान के अनुसार सक्रिय रहो।

2. शिव का कहना है कि हमारा मन दो प्रकार से कार्य करता है पहला सोचना और दूसरा याद रखना। परन्तु हमें सही ज्ञान की प्राप्ति होती है तीन साधनों से पहला धारणा, दूसरा अनुमान और तीसरा योग्यता धारक विद्वान। सामान्यतः मनुष्य धारणा और अनुमान को भूलकर केवल किसी तथाकथित पंडित के प्रभाव में आकर अपनी मान्यताएं बना लेते हैं यह उचित नहीं है। क्योंकि बिना विचार किए गए कार्य बंधनों में बांधते हैं और सच्चा ज्ञान बंधन मुक्त करता है। ‘‘कर्मणा बद्धते जीवा, विद्याया तु प्रमुच्यते।’’  इसलिए ज्ञान के उचित श्रोत से ज्ञान प्राप्त कर अपनी धारणा और विवेक का उपयोग कर जो भाग उस ज्ञान का ग्रहण करने योग्य है उसे ही याद रखना और तदनुकूल चलना विवेक संम्मत माना जाता है। शिव का कहना है कि  तथाकथित ज्ञानी लोग जो अपने प्रभाव से जन सामान्य को अपनी अतार्किक बातें मानने के लिए दबाव बनाते हैं वे ‘‘लोकव्यामोहकारक’’ होते हैं अर्थात् वे मानसिक बीमारियों और डोगमा को समाज में स्थापित करते ह,ैं उनसे दूर रहना चाहिए।

3. प्रारंभिक काल से ही सभी प्राणी दो ग्रुपों में रहते आए हैं ‘अकेले’ और  ‘समूह’ में।  प्रारंभ में पुरुषों को अपनी जिम्मेवारी का आभास नहीं था अतः शिव ने उन्हें परिवार और विवाह नामक व्यवस्था में रहते हुए अपना जीवन यापन करने की व्यवस्था बनाई।  शिव ने कहा कि वे लोग जो समाज में उच्च आदर्श की स्थापना के लिए आगे आना चाहें वे ब्रह्मचर्य जीवन विताएं और सच्चा ज्ञान प्राप्त कर आदर्श के ध्वज वाहक बने। तथा वे जो पारिवारिक जिम्मेवारी निभाते हुए समूह में रहना चाहते हैं वे स्त्री और पुरुष समानाधिकार पूर्वक साथ रहें और दोनों एक दूसरे के पूरक रहें। समानता के आधार पर ही शिव ने महिला को स्त्रीलिंग न कहकर पुल्लिंग में ही संबोधित किया। संस्कृत में महिला को ‘नारी’ कहा गया पर शिव ने उसे ‘कलत्र’ कहा और जिम्मेवार पुरुष को भर्ता, जो पुल्लिंग शब्द हैं। उन्होंने स्वयं इस व्यवस्था का अपने परिवार में पालन किया और दूसरों से भी कराया। इसलिए शिव ने शिक्षा दी कि ‘‘यद भरत्तुरेव हितमिच्छति तद कलत्रम्।’’ अर्थात् ‘कलत्र’ वह है जो अपने ‘भर्तार्' के हित के लिए उसे सहयोग करे। 

4. जब किसी व्यक्ति के संस्कारजन्य आवेगों को प्रतिकूल वातावरण मिलता है तो उसे क्रोध आ जाता है। कहा गया है कि ‘‘ प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्’’। जब क्रोध आता है तो अचानक मन के कंपन छोटे छोटे स्नायु तंतुओं पर इतना अधिक दबाव डालते हैं कि थोड़े से समय में ही उसके सोचने विचार करने की क्षमता प्रभावित हो जाती है। उसका ध्यान, मनन और चिंतन करना सभी अव्यवस्थित हो जाता है और साधना प्रभावित हो जाती है। इसलिए क्रोध करने से सदा बचें क्योंकि ’’ क्रोध एव महान शत्रुः।’’ अर्थात् क्रोध ही हमारा परम शत्रु है।

5. शिव का कहना है कि व्यक्ति अपने भीतर भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संसार की चीजों को आत्मसात करना चाहते हैं कभी जानते हुए, कभी  अनजाने।  आध्यत्मिक क्षेत्र में किसी सत्ता को आत्मसात करते समय उसकी प्रक्रिया में ही वे अपने आपको उस सत्ता में मिला लेते हैं वैसे ही, जैसे नदियॉं अपनी अंतिम सत्ता महासागर में मिला देती है। जब कोई बौद्धिक जगत में अपने का मिलाना चाहता है तो वह भौतिक जगत को भूल जाता है या भूला रहना चाहता है। यही कारण है कि इस प्रकार के विद्वान व्यावहारिकता से दूर ही रहने लगते हैं। परन्तु यह देखा गया है कि यदि किसी को बौद्धिक स्तर पर कुछ उपलब्धियां हुई हैं तो उसका मन घमंड से भर जाता है। सामान्यतः भौतिक उपलब्धियों की ओर लोगों का रुझान आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। भौतिक उपलब्धियों का अविवेकपूर्ण संग्रह लोभ कहलाता है जबकि आध्यात्मिक क्षेत्र में यह संग्रह  नुकसानदायक नहीं माना जाता। बौद्धिक क्षेत्र में संचित की गई उपलब्ध्यिं को यदि मानवता के कल्याण में लगाया जाय तो वह भी नुकसान नहीं करता। अन्यथा वे लोग डोग्मा फैलाकर लोगों के मन में प्रदूषण करते हैं और जन सामान्य के स्तर को पशुजीवन तक गिरा देते है। इसलिए संचय की प्रवृत्ति चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, यदि विवेकपूर्वक नियंत्रित नहीं की जाती तो यह लोभ में बदल जाती है जो उन्हें असामयिक मृत्यु की ओर ले जाती है।  इसलिए शिव ने चेताया है कि ‘‘लोभः पापस्य हेतुभूतः’’। लोभ पाप का मूल कारण है।

6. शिव का कहना है कि कुछ लोगों में प्रदर्शन की जन्मजात प्रवृत्ति होती है चाहे उनमें कुछ योग्यता हो या न हो। इस प्रकार के लोग अन्यों को नीचा और हेय समझते हैं जिसका कारण अहंमन्यता का मनोविज्ञान है। वे यह भूल जाते हैं कि अच्छे या बुरे सभी कर्म प्रकृति द्वारा साक्ष्यकारी सत्ता की अनुमति से किए जाते  हैं। इससे प्रदर्शन करने का मनोविज्ञान उन पर हावी हो जाता है। सच्चाई यह है कि कोई भी तथ्यात्मकता बिना विषयगत सहयोगी के नहीं रह सकती। वे, जो इस दार्शनिक सत्य को भूल जाते हैं और केवल तथ्यात्मकता को ही याद रखते है वे सबसे खराब मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जाते है जिसे ‘अस्मिता’ कहते है। ‘‘द्रकदर्शनाशक्तर्योकात्मातेवाहास्मितां’’। चूंकि अस्मिता के कारण लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते अतः वे अपने सामने किसी को भी तुच्छ समझने लगते हैं। वे कोई नई बात सुनना और समझना नहीं चाहते और आक्रामक हो जाते है। इस प्रकार अस्मिता से जन्म लेने वाली आक्रामकता अहंकार के प्रभाव से उन्हें पतन की ओर ले जाती है । शिव ने इस प्रकार के अहंकार ग्रस्त लोगों से दूर रहने की सलाह दी है, और चेताया है कि  ‘‘ अहंकारः पतनस्य मूलम्।’’

7. भौतिक जगत में स्थान में सापेक्षिक परिवर्तन लाने वाला कारक क्रिया कहलाता है। भौतिक जगत में जब इस स्थान परिवर्तन का अधिक प्रभाव बढ़ने लगता है तो मानसिक संसार भी प्रभावित होने लगता है परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में स्थान में कोई परिवर्तन नहीं होता।  आध्यात्मिक संवेग तो केवल उस परमसत्ता के लगातार आनन्दमय स्मरण और उसके प्रति जागरूकता से प्राप्त होता है जो उस व्यक्ति के जीवन और अस्तित्व को संतृप्त कर देता है। आध्यत्मिक क्षेत्र में किया गया कर्म सचमुच ‘याग’ कहलाता है जिसका अर्थ है बिना किसी रुकावट और डर के लगातार अभ्यास करते जाना। भौतिक जगत की बाधाओं से संघर्ष करना ‘जड़साधना ’ और बौद्धिक क्षेत्र में संघर्ष करना ‘‘भावसाधना’’ कहलाता है । आध्यत्मिक क्षेत्र में साधना और साधना का लक्ष्य एक ही हो जाता है। इसीलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि ‘भक्ति’ साधन और साध्य दोनों ही है। आध्यात्मिक क्षेत्र में की गई साधना विशेष अर्थ में ‘अभिध्यान’ कहलाती है और सामान्य अर्थ में ‘परिश्रम’। बौद्धिक क्षेत्र में की गई साधना विशेष अर्थ में  ‘धारणा’ कहलाती है और परिश्रम समान्य अर्थ में। भौतिक क्षेत्र में की गई साधना को ‘श्रम’ विशेष अर्थ में और ‘परिश्रम’ सामान्य अर्थ में कहते हैं। हमारे अस्तित्व को अर्थवान बनाने के लिए अभिध्यान, धारणा, श्रम और परिश्रम सभी घटकों का महत्व है इनके ही संयुक्त रूप को ‘‘योग’’ कहते हैं अर्थात् कार्य करने का कौशल।  अतः स्पष्ट है कि यदि कोई हर प्रकार की उन्नति करना चाहता है तो उसे परिश्रम करना ही होगा यदि कोई आम के पेड़ को पकड़ ़कर बैठ जाए और कहे कि आम मेरे मुंह में चला जाएगा तो यह संभव नहीं है, उसे आम को तोड़ना पड़ेगा और फिर काटना पड़ेगा तभी वह खा सकेगा। इसलिए शिव की शिक्षा है कि ‘‘परिश्रम विनाकार्यसिद्धिर्भवति दुर्लभा’’। परिश्रम के बिना किसी भी कार्यक्षेत्र में सफलता पाना दुर्लभ है।

8. शिव ने बताया कि लोग दो कारणों से असत्य बोलते है, अपने स्वार्थ और जन्मजात प्रवृत्ति से।यह संसार तो सत्य सेभरा हुआ है, जैसे पशु, पेड़पौधे, आदि। छोटे बच्चे भी सत्य बोलते हैं जब तक कि उन्हें अन्यथा न  सिखाया  जाए। तथाकथित उन्नत और विकसित  मनुष्य ही असत्य बोलते अविकसित मनुष्य नहीं। जो यथार्थ है, जो अपरिवर्तित रहता है उसे ‘ऋत’ कहते हैं, यह पौधों और अविकसित मनुष्यों में देखा जा सकता है। यह समाज के लिए प्रेरणादायक घटक है और समाज के कल्याण के लिए उपयोगी है। ‘ऋत’ जब समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है तब वह ‘सत्य’ कहलाता है। सत्य की मजबूत नीव पर ही धर्म की अनेक धाराऐं आकार पाती हैं। वे जो सत्य का पालन नहीं करते उनके साथ धर्म नहीं रहता। अपने व्यक्तिगत हित के लिए जो असत्य का पालन करता है वह प्शु और पेड़ पौधों से भी निम्न स्तर पर होता है। इसलिए अपनी असत्य बोलने की आदत को दूर करने के लिए लम्बी अवधि तक प्रयास करना पड़ता है। यह कहा गया है कि असत्य का संसार ही विभिन्न प्रकार के अपराधों की जड़ है। इसलिए कोई कितना ही व्रत उपवास कर ले, धार्मिक यात्राएं कर ले, अनुष्ठान कर ले परन्तु यदि वह असत्य का पालन करता है तो धर्म उसका साथ कभी नहीं देगा।

9. शिव ने कहा  है ‘‘प्रतिकूल वेदनीयम् दुखम’’ अर्थात् मन जब प्रतिकूलता का अनुभव करता है तो दुख का अनुभव करता है। जो आदतन झूठ बोलने वाला होता है वह अपने मन की तरंगों को बार के वातावरण के साथ एडजस्ट नहीं कर पाता क्योंकि ईंट, पत्थर, लकड़ी, पहाड़, पशु असत्य नहीं बोलते वे सभी सत्य मे आश्रित रहते हैं। जैसे पाम के पेड़ के तने पर चिंन्ह उसकी आयु बता देते हैं, भेड़िए अपने शिकार से बचने के लिए कभी अपनी आवाज नहीं बदलते आदि। स्पष्ट है कि उनके संस्कार सत्य के साथ एकीकृत रहते हैं जबकि झूठे व्यक्ति के मानसिक कम्पन झूठ के साथ। नियम यह है कि प्रतिकूल वातावरण के पाने पर मन दुखी होता है अतः झूठ बोलने वाले सत्य के संसार में अनुकूलता अनुभव नहीं कर सकते उन्हें दुखी होना ही पड़ेगा। दसलिए शिव का कहना है कि ‘‘मिथ्यावादी सदा दुखी’’। 

10. सभी प्राणी स्वभावतः सरल रास्ते पर सीधे चलते हैं परन्तु जो पापी, दुष्ट, स्वार्थी और डरपोंक होते हैं वे अपना रास्ता कुटिलता पूर्वक तय करते है। उनकी यह कुटिलता उनके वैचारिक संसार में वकृताएं पैदा कर देती है। वे अपने विचारों से पारस्परिक शंकाओं को जन्म देते हैं जो निरपराध लोगों को भी नहीं छोड़ते। वे अपने किए पर न तो पछताते हैं और न ही शर्मिंदा होते है। यह लक्षण ही पापकर्मियों का मनोविज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के लोग दूसरों की आवाज को दबा कर उन्हें न्याय से वंचित कर देते है परन्तु अन्त में वे भी प्रकृति के न्याय से वंचित रहते हैं। शिव इन स्थितियों से परिचत थे अतः उन्होंने भक्तों को सचेत किया है कि ‘‘ पापस्य कुटिला गतिः’’। अर्थात् पाप की चाल टेड़ीमेड़ी होती है।

11. वह धर्म ही है जो पेड़ पौधों, पशुपक्षियो, मनुष्यों जीवित या अजीवित सभी के अस्तित्व को स्थापित करता है। यदि किसी का धर्म भुला दिया जाय तो समझा जाता है कि उसका अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। इसलिए विचारशील, बुद्धिमान और जागरूक लोगों को सावणान रहना चाहिए यदि कोई अपने धर्म अर्थात् आभ्यान्तिरिक गुणों को खोने लगा है। वास्तव में सभी जीवधारियों के भीतर नियंत्रण करने वाली सत्ता ही धर्म है इसी लिए कहा गया है कि ‘‘ध्रियते धर्म इत्याहुः सा एव परमं प्रभुः’’ अर्थात् जो सत्ता किसी के अस्तित्व को जकड़े रहती है और उसे सफलता की ओर ले जाने को प्रेरित करती ह,ै वह धर्म है। इसलिए सभी वस्तुएं, जीवित या गैरजीवित अपने अपने धर्म में महान हैं। यहॉं धर्म का अर्थ कोई ‘रिलीजन’ से नहीं वरन् उसके अस्तित्व की सूक्ष्म सत्ता से है। मनुष्य भी इस लिए मनुष्य हुआ है कि वह अपने को मानव धर्म में स्थापित करते हुए अपने धर्म में भव्यता से मृत्यु पाए न कि अपने को पशुजीवन की ओर ले जाए। तो यह मानव धर्म क्या है? शिव ने बताया कि इसके चार स्तर हैं-

विस्तार(अर्थात् स्वयं का अधिक से अधिक प्रभावी होने का सिद्धान्त) : इसका अर्थ यह है कि दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित किए विना अपने को समग्र विश्व में विस्तारित करना और प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर मधुरता की भावनाओं का संचार करना। रस(परमपुरुष के प्रति सम्पूर्ण सर्मिर्पत होने का सिद्धान्त) : इसका अर्थ है कि मानव अस्तित्व में सदा ही आनंदित अवस्था में संतृप्त रहते हुए ताजगी की मधुरता अनुभव करना और, यह तभी हो सकता है जब हम अपने को परमपुरुष से अपना सतत संपर्क बनाए रखेंगे।  सेवा(परमपुरुष और उनकी स्रष्टि की निस्वार्थ सेवा): इसका अर्थ है कि संसार में ‘देने और लेने’ का चलन है। सभी लेना तो चाहते हैं परन्तु देना नहीं। यह लेनदेन की प्रवृत्ति ही मनुष्य को राग और द्वेष में फंसाती है इसलिए उससे ऊपर उठना होगा और निस्वार्थ सेवा को अपनाना होगा जिसमें यह भावना रखना होगी कि मैं तो परमपु्रुष की सेवा कर रहा हॅूं उसकी इच्छा के अनुरूप कार्य कर रहा हॅूं। इसलिए विस्तार , रस और सेवा यह तीनों साधना के अन्तर्गत आते हैं और इन सबका परिणाम होता है चौथा स्तर अर्थात् तदस्थिति। तदस्थिति(परमपुरुष के भीतर अन्तिम आश्रय पाना)।  इसलिए मानव धर्म इन सभी चारों स्तरों का समाहार है। यह धर्म ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है इसके लिए किसी भी प्रकार का त्याग करना कठिन नहीं है, इसे ही ‘भागवत धर्म’ कहते हैं (अर्थात् वह धर्म जिससे परमसत्ता को पाया जाता है)।  अतः शिव ने अनुभव किया कि ‘‘घर्मः रक्षति रक्षितः।’’ अर्थात् जो अपने धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए कहा गया है कि ‘‘धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः’’ अर्थात् धर्म को अनुभव करने के तरीके बहुत सूक्ष्म हैं। 

12    भगवान शिव कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि चाहे कि वह चतुर्थ अवस्था अर्थात्  तदस्थिति को सीधे ही पहुंच जाय तो यह संभव नहीं है उसे विस्तार, रस, सेवा इन तीनों को पार करना ही होगा। क्योंकि इस प्रकार ही वह समझ सकेगा कि जो अन्त है वही प्रारंभ भी है। इसीलिए कहा कहा गया है कि सभी को चाहे वह शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय या विप्र  कोई भी हो, धर्माचरण करना ही होगा। मानव जीवन पाने का एकमात्र उद्देश्य है परमपुरुष को पाना(तदस्थिति)। शिव कहते है कि ‘‘ तस्मात् धर्मः सदा कार्यः सर्ववर्णै प्रयत्नतात्’’। कोई चाहे कि वह हिमालय की गुफा में बैठकर साधना करके तदस्थिति को पा लेगा तो शिव का कहना है कि नहीं उससे तो अच्छा एक ग्रहस्थ होगा जो ईमानदारी से अपने भौतिक कर्तव्य को करते हुए दुखी जीवों की निस्वार्थ सेवा भी करता है; वह सही भागवत धर्म का पालन करता है। संन्यासी वह श्रेष्ठ है जो पारिवारिक जीवन से दूर रहकर भागवत धर्म का पालन करते हुए दुखियों को उनके कष्टों पर शांति और प्रगति की मरहम लगाते हुए भागवत धर्म की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित करता है। इसलिए शिव का स्पष्ट कहना है कि आपके धर्म पालन का उद्देश्य होना चाहिए ‘‘ आत्म मोक्षार्थं जगदहिताय च’’। अर्थात् मोक्षमार्ग की ओर चलते हुए विश्व का कल्याण करना।   


Sunday, 13 July 2025

 क्या देवी को बलि देना शास्त्र सम्मत है?

उत्तर- शायद आप जानते हैं कि मनुष्य रूप में आने से पहले यह जीव अन्य पशुओं, अन्य पश्वेतर जीवधारियों और वनस्पतियों से होता हुआ क्रमशः इस स्तर पर आ पाता है कि उसे मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है। स्वयंसिद्ध है कि मनुष्य का शरीर पाने के साथ ही उसके अपने अमनुष्येतर जीवनों के संस्कार भी जुड़े रहेंगे।  पशुओं और अन्य जीवधारियों के लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अतः वे यदि अन्य जीव का भक्षण करने के लिए उनका शिकार करते हैं तो  यह स्वाभाविक है। इसे पाश्वाचार कहा गया है। मनुष्य जब अपनी पशु अवस्था को छोड़कर मनुष्य अवस्था में आता है तो इसी पाश्वाचार के संस्कारों के चिपके रहने के कारण ही उसे अन्य पशुओं का शिकार करने और उनका मांस भक्षण करने की प्रवृत्ति होती है।  मनुष्य जब अधिक उन्नत होता जाता है तब उसके मन में अपनी शक्ति के प्रदर्शन का भाव आता है और यदि उसे उचित मार्गदर्शन न मिल पाए तो वह विध्वंसक होकर सभी का विनाश करने लगता है जिसे राक्षसी वृत्तियॉं कहा जाता है, परन्तु उचित मार्गदर्शन मिल जाने के कारण वह उस शक्ति का उपयोग आत्मोत्थान के लिए करता है जिसे दिव्याचार कहते हैं।

अब, तथाकथित देवी के नाम पर पशुओं की बलि देने का कार्य किस स्तर का कहा जाएगा यह आप स्वयं समझ सकते हैं। मनुष्य को पाश्वाचार से दिव्याचार की ओर  बढ़ने का आदेश भगवान सदाशिव ने आज से 7500 वर्ष पहले हमें दिया था और हम यदि पाश्वाचार पर ही टिके रहते हैं तो पहली बात तो यह कि हम शिव के आदेशों का उल्लंघन करते हैं और दूसरी बात यह कि  शास्त्रों के निर्देश की भी अवहेलना करते हैं जो कहते हैं कि ‘‘जिस प्रकार आपको अपनी जीवन प्यारा है उसी प्रकार अन्य जीवों को भी उनका जीवन प्यारा है, केवल  उनके मूक होने के कारण आप उन्हें यातना देने के अधिकारी नहीं बन सकते।’’ 

कुछ विद्वान ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हर्वि ब्रह्माग्नो .... आदि की बात करते तर्क देते हैं तो  वे पूर्वोक्त यथार्थता को भूल कर ही यह कह रहे होते हैं। क्योंकि यह वाक्य भगवान कृष्ण उन महापुरुषों के संदर्भ में कहते हैं जो दिव्याचार में सलग्न रहकर ‘‘अहं ब्रह्मास्मि, या तत्वमसि’’आदि महावाक्यों का अनुभव कर चुके होते है।

इनके संदर्भ में आपको यह भी याद होगा कि भगवान कृष्ण ने तो यह तक कहा है कि ‘‘ नैव किंचित करोमीति युक्तोमन्येत तत्ववित्’’ अथवा ‘‘यस्य नाहंकृतो भावो बुर्द्धियस्य न लिप्यते, हत्वापि स इमांलेकान्न हन्ति न निवद्यते।‘‘

परन्तु दुख है कि हमने अपने सवार्थ और स्वाद के लिए वेदों के तत्वज्ञान को तरल कर दिया है और अब दम्भ भर रहे हैं कि हम ब्राह्मण हैं।

यदि संभव हो तो कृपया उनसे पूछ कर देखिए जो पांडे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि उपनाम लिखते हैं कि क्या उन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर प्राप्त इस सरनेम के अनुसार वेदों का ज्ञान है?  

अनुरोध यह है कि उपनिषदों का आज सही अर्थ समझकर  गंभीरता पूर्वक अनुकरण करने की आवश्यकता है, तभी हमारी संस्कृति बची रह सकती है । केवल हमारे वेद, हमारी उपनिषदें आदि चिल्लाते रहने से कुछ भी होने वाला नहीं है।


 उपवास एकादशी को ही क्यों?

असंयमित जीवन से शरीर की ही नहीं मानसिक और आध्यात्मिक हानि होती है। सभी को यह याद रखना चाहिए कि जो कुछ हम भोजन करते हैं उसके सार तत्व को संस्कृत में लसिका ( लिंम्फ या वाइटल फ्लुड) कहते हैं।  यह लसिका हमारे मस्तिष्क का भोजन है। इसमें विकृति आने पर अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियॉं उत्पन्न हो जाती हैं। अपवित्र विचारों से, गंदा साहित्य पढ़ने से और कुसंगति करने से मन में उत्तेजक भावनाएं सदा ही मंडराती हैं जिससे लसिका प्रभावित होकर शुक्र (सेमिनल फ्लुड) में बदलती रहती है जो अधिक समय तक संचित नहीं रह पाता और जाने या अंजाने वह बाहर आ जाता है। इस प्रकार शुक्र के लगातार क्षय होने पर उपरोक्त हानियों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए पवित्र विचारों के पालन के साथ लसिका के संरक्षण करने की सभी को सलाह दी जाती है।

हम जो प्रतिदिन भोजन करते हैं तो उससे उत्पन्न लसिका प्रतिदिन के मस्तिष्क हेतु आवश्यक भोजन से थोड़ा अधिक होती है और वहीं पर संचित होती जाती है। धीरे धीरे एक माह में यह चार दिन के भोजन से उत्पन्न लसिका के बराबर हो जाती है। यदि इसे संरक्षित रखने का उपाय नहीं किया गया तो अवांछित विचार आने पर वह सीमेन में बदलकर बाहर निकल जाती है। 

अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 13 या 14 साल की उम्र के आने तक लड़कों के टेस्टीकल्स से  हार्मोन्स निकलने लगते हैं जो लिंफ को सेमिनल फ्लुड में बदलने लगते हैं, जिससे भी कामुक विचार उनके मन में आने लगते हैं। यदि हारमोन्स के इस उत्सारण को नियंत्रित न किया जाय तो लड़के मनमानी करने लगते हैं। यदि ये हारमोन्स पवित्र विचारों द्वारा नियंत्रित रहें तो वही लड़के बहुत कुछ समाजहित में उल्लेखनीय कार्य करते हैं। 

प्रकृति ने हमारी धरती पर 78 प्रतिशत भाग पानी भर दिया है और अमावश्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमते हुए अधिक निकट आ जाता है और अपने गुरुत्वाकर्षण से जलीय भाग को अपनी ओर खींचता है अतः पृथ्वी पर एकादशी से पूर्णिमा या अमावश्या तक ज्वार और भाटे आते आते रहते हैं। चंद्रमा की धरती से निकटता होने से धरती का पानी ही नहीं प्रभावित होता वरन प्रत्येक जीवित वस्तु के जलीय तत्व पर भी प्रभाव डालता है। स्पष्ट है कि मनुष्यों के शरीर का पानी और लसिका पर भी इसके आकर्षण का प्रभाव पड़ता है और वह अपना स्थान छोड़कर बाहर आने लगती है। सभी का अनुभव है कि (और पुलिस का रिकार्ड भी है) अमावश्या और पूर्णिमा के आस पास ही अनैतिक कार्य, चोरियॉं और आत्महत्याएं आदि अधिक होती हैं। 

इससे यह स्पष्ट है कि हमें अपने मस्तिष्क के भोजन लसिका को अधिकतम संरक्षित रखना चाहिए परन्तु कैसे? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।  

इसके लिए योगविज्ञान में ‘उपवास’ की अवधारणा को मान्यता दी गई है। उपवास का अर्थ केवल भोजन को त्यागना नहीं है वरन् ईश्वर के निकट बैठना है। सन्यासियों और विद्यार्थियों के लिए नैष्ठिक ब्रह्मचर्य (जिसमें अपेक्षा की जाती है कि सीमेन अर्थात् वीर्य की छोटी सी बूंद का भी कभी क्षरण न हो पाए।) और ग्रहस्थों के लिये प्राजापत्य ब्रह्मचर्य (जिसमें माह में केवल चार दिन संतान उत्पत्ति के उद्देश्य से विहित पत्नी के साथ सेक्स करने की अनुमति दी गई है जिसमें  एक माह में बना 4 दिन का अतिरिक्त सेमिनल फ्लुड संतानोत्पत्ति के लिए प्रयुक्त हो सकें) का निर्धारण किया गया है। इसलिए लसिका को लसिका के रूप में ही संरक्षित रखने की व्यवस्था बनाई गई है निर्जल उपवास के द्वारा। इस व्यवस्था में एकादशी को निर्जल उपवास रखकर केवल भगवद् भजन और साधना करना होती है और अन्य समय सद्साहित्य से जुड़े रहकर पूरे 24 घंटे के बाद उपवास को समाप्त किया जाता है। उपवास को तोड़ने के लिए भी  योग में उचित विधि को बताया गया है जो उपवास का अभिन्न अंग है। 24 घंटे तक साधना और भजन पूजन से जुड़े रहकर एक ओर से हमारा मन ष्शु़द्ध होने लगता है और दूसरी ओर उपवास को तोड़ते समय शरीर की सभी गंदगी को बाहर करके उसे शुद्ध किया जाता है। इसके लिये गुनगुने पानी में (एक लिटर) लगभग 10 ग्राम साधारण नमक और तीन नीबुओं का रस निचोड़कर लगातार पिया जाता है । इससे निर्जल उपवास के समय ष्शरीर से  जल की कमी के स्थान पर यह क्षारीय जल शरीर के छोटे  से छोटे प्रत्येक छिद्र में घुसकर वहॉं पर पायी जाने वाली गंदगी को अपने में घोल लेता है साथ ही आंतों में सूखा मल भी घुल जाता है। आधे घंटे बाद आधा लिटर सामान्य पानी पीने के बाद कुछ ही देर में टायलेट जाने का प्रेशर बनता है और शरीर का मल मिश्रित गंदगी सबकुछ बाहर आ जाता है। इस प्रकार लगातार तीन चार बार के स्ट्रोक में  पिये गए पानी के साथ घुलकर सब गंदगी बाहर हो जाती है। एक स्थिति वह आती है कि यूरिन और एनस से स्वच्छ पानी आने लगता है, इससे पता चलता है कि अब पेट साफ हो चुका है। इसके बाद नहाकर केवल तीन केले खाकर उपवास को तोड़ा जाता है। इसके कुछ देर बाद उस दिन सामान्य खिचड़ी ही खाना होती है और फिर सामान्य भोजन। उपवास की विधि पर मेरे अन्य लेख में विस्तार से पूर्व में समझाया जा चुका है जिससे बहुत से लोग लाभ उठा रहे हैं।

इस प्रकार एक माह में दोनों एकादशियों को इस प्रकार उपवास करने पर चंद्रमा के प्रभाव में लिंफ नहीं आ पाता और अतिरिक्त संचित लिंफ मस्तिष्क के भोजन के रूप में प्रयुक्त हो जाता है। इस वैज्ञानिक विधि को योग मार्ग का सही अनुसरण करने वाले सभी लोग स्वस्थ और उन्नत विचारों के होते हैं। विद्यार्थियों के लिए तो यह सर्वोत्तम है। अतः एकादशियों को उपवास करने का क्या महत्व है यह स्पष्ट हो जाता है।  


 सनातन धर्म के पतन का कारण : इस्लाम ।

ऐतिहासिक उदाहरणों से यह भलीभॉंति समझा जा सकता है कि भूतकाल की हमारी अत्युच्च स्तर की धर्म संस्कृति को किस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से समूल नष्ट करने का प्रयास किया गया है जिसका परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं।

उदाहरण (1) : बौद्ध विश्वविद्यालयों का विनाश।

सदियों से लेकर 1947 तक, वर्तमान पाकिस्तान भारत का हिस्सा था। 2400 साल पहले हर जगह बौद्ध धर्म का बोलबाला था और, उस समय, तीन बहुत बड़े विश्वविद्यालय थेः (अ) तक्षशिला (पहले पश्चिमी भारत में), (ब) नालंदा (बिहार में), और (स) विक्रमशिला (बिहार में)। उन दिनों (2400 साल पहले) वे विश्वविद्यालय कई लाख छात्रों को शिक्षा देते थे। वे संपन्न संस्थान थे, और अब, दुखद रूप से, वे सभी खंडहर में हैं, तीनों पूरी तरह से नष्ट हो गए हैं। अंततः, शंकराचार्य और उसके बाद के काल में भारत से बौद्ध धर्म का सफाया हो गया। तक्षशिला विश्वविद्यालय का क्षेत्र अब मुस्लिम देश पाकिस्तान का हिस्सा है। यह एक प्रतिष्ठित उदाहरण है कि कैसे एक क्षेत्र को पूरी तरह से अपमानित किया जा सकता है। बौद्ध काल में जो कभी उन्नत शिक्षाओं और संवेदनशील अध्ययनों का घर था, वह एक हठधर्मी और नीच जीवन शैली का स्थान बन गया। उस उच्च विचार वाले समाज को नष्ट कर दिया गया और आज भी उस भूमि क्षेत्र पर कठोर, शोषक मुस्लिम मौलवियों का वर्चस्व है, जहाँ महिलाओं को कोई अधिकार नहीं है उनके कानून के अनुसार, तीन महिलाएँ एक पुरुष के बराबर होती हैं।

उदाहरण (2) : अफ़गानिस्तान में पतन ।

वर्तमान अफ़गानिस्तान का भी यही हश्र हुआ। कुछ हज़ार साल पहले वह क्षेत्र भी महाभारत काल से भारत का हिस्सा था। ऐतिहासिक राजा धृतराष्ट्र की पत्नी खंडहारा (कंधार/गंधार ) नामक क्षेत्र से थीं और उन दिनों उस स्थान पर सभी लोग संस्कृत बोलते थे। विश्व प्रसिद्ध व्याकरणविद पाणिनि का जन्म भी उसी भूमि पर हुआ था। इसके अलावा, उस पूरे क्षेत्र में वैदिक सभ्यता का प्रभुत्व था, और यहाँ तक कि यजुर्वेद की रचना भी वहीं हुई थी। इसलिए उस भूमि का इतिहास बहुत समृद्ध है; यह भारत का एक हिस्सा था जो वैदिक सभ्यता और संस्कृत भाषा के परिष्कार आदि से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था। जब पूरा भारत बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गया तो वह क्षेत्र भी बौद्ध बन गया। बामियान बुद्ध की कहानी 6वीं शताब्दी में अफगानिस्तान के पहाड़ों में उकेरी गई दो विशाल बुद्ध प्रतिमाओं के विनाश की कहानी है। 2001 में तालिबान ने इन प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया है। उस क्षेत्र में, महाभारत काल से लेकर बौद्ध काल तक, लगभग 1,000 वर्षों की अवधि तक मनुष्यों का सामान्य मानक बहुत ऊंचा था जबकि आज इसकी पूरी तरह से अलग कहानी है। वहां रहने वाले लोग अपने वंश को जानना या उससे जुड़ना नहीं चाहते क्योंकि वे अब इस्लामी हठधर्मिता में डूबे हुए हैं। इसके अलावा, देश पर चरमपंथी तालिबान समूह का शासन है और यह लाखों इस्लामी आतंकवादियों का घर है।

उदाहरण (3) : पारसी लोगों का विलुप्त होना ।

कट्टरपंथियों के धार्मिक उन्माद का शिकार केवल भारत ही नहीं है। पूरी दुनिया में, ऐसे अनगिनत स्थान हैं जहाँ ऐसा हुआ है। जैसे, ईरान में पारसी धर्म प्रमुख धर्म था फिर, मुस्लिम आक्रमण और जबरन धर्म परिवर्तन के बाद, पूर्व पारसी धर्म के लगभग सभी अनुयायियों को अपंग कर दिया गया और मार दिया गया। बचे हुए अनुयायी उन बर्बर इस्लामी आक्रमणकारियों से अपनी जान बचाने के लिए भागकर भारत आ गए और आज भी उनके वंशज  भारत में रह रहे हैं। और, अब ईरान एक पूर्ण इस्लामी देश है।

निष्कर्ष : अब हमें क्या करना चाहिए?

इस पूरे विवरण का सार यह है कि यदि सनातन समाज के वरिष्ठ विद्वानों द्वारा अपने प्रमाणित शोधकार्यों और दार्शनिक, धार्मिक शिक्षाओं का स्वयं पालन नहीं किया जाता है और पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें सही तरीके से नहीं सौंपा जाता है तथा इस प्रकार की  उच्च विचारों वाली शिक्षाओं की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की जाती है तो उस महान समाज को गंभीर पतन का सामना करना पड़ सकता है, जिसमें लोग जानवरों की तरह कुत्सित तरीके से जीने लगते हैं। ऊपर बताए गए ऐतिहासिक उदाहरण सूचित करते हैं कि अब सनातन की सच्चाई के जानकार विद्वानों को  हमारे पूर्वज (ऋषियों) की शिक्षाओं को बनाए रखने के महत्व के बारे में सचेत होना चाहिए न कि सनातन सनातन चिल्लाना। अर्थात् साधना, यम और नियम, आसन, सभी आचरण नियम आदि का अभ्यास करते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें सही तरीके से आगे बढ़ाते हुए अपनी उपलब्धियों को  प्रमाणित करना चाहिए तभी हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमारा सनातन समाज और उसमें वर्णित सभी धार्मिक शिक्षाएँ अक्षुण्ण रहेंगी। हमें सनातन धर्म की शिक्षाओं की इस प्रकार रक्षा करना चाहिए ताकि अब किसी भी विरोधी ताकत को उन्हें नष्ट करने का कोई मौका न मिले। केवल यह चिल्लाने से काम नहीं बनेगा कि हमारे ऋषियों ने यह अनुसंधान बहुत पहले किया या हमारे वेदों में तो यह पहले से ही लिखा हुआ है। वास्तव में हमें उनकी व्यावहारिकता का सही ढंग से पालन करते हुए  प्रमाणित करना होगा कि सनातन ही सभी धर्मों का मूल है उसे विकृत करना स्वयं का ही नहीं संपूर्ण मानव समाज का विनाश करने जैसा अपराध होगा। 


 भगवान सदाशिव का समाज के लिए क्या योगदान है?

यदि आप किसी भी तथाकथित विद्वान से भगवान शिव के योगदान के संबंध में पूंछते हैं तो वह विभिन्न पुराणों की कहानियां सुनार बताएगा कि उन्होंने इस राक्षस को मारा उसको मारा, लोगों की रक्षा की , वे अवढरदानी थ,े आदि पर समाज के लिए उनके योगदान के बारे में ‘वे तो भगवान है’ कहकर  चुप हो जाते हैं।  आइए आज इस पर ही कुछ चर्चा की जाए-

विद्यातंत्र की स्थापना :

ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम दिशा से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।  ‘‘शिव’’ का शाब्दिक अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष  पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव। उन्होंने विद्यातंत्र को सुव्यवस्थित किया क्योंकि गौड़ीय और कश्मीरी तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था।

पारस्परिक झगड़ों की समाप्ति :

उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः वह मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की प्रथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में  विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की प्रथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । 

‘विवाह’ संस्कार की स्थापना : 

वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह प्रथा थी ही नहीं, यही कारण है कि  माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। ‘महाशिवरात्रि’ का पर्व भगवान शिव के विवाह दिवस की स्मृति में मनाया जाता है। उस समय आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की प्रथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की द्रष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः पार्वती, गंगा और काली नाम की कन्याओं से  विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने  को नया आयाम दिया।


शिव की शिक्षाएं और तत्कालीन विद्वान ऋषिगणों का आकर्षण :

महासंभूति शिव ने सबसे पहले यह बताया कि ‘‘परमब्रह्म अर्थात् ‘कॉस्मिक एंटिटी’, अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति अर्थात् ‘नेचर’ के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्मॉंड का संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल अर्थात् ‘सेंटिएंट फोर्स’  को आधार बनाकर राजसिक अर्थात् ‘म्यूटेटिव’ और तामसिक अर्थात् ‘स्टेटिक’  बलों की मदद से द्रश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार(परमब्रह्म) अद्रश्य सा ही रहता है केवल राजसिक और तामसिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे।’’

अधिक सरल शब्दों में इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान, सबका अस्तित्व है परंतु वे अपने अस्तित्व का अनुभव नहीं करते हैं। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते और अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अद्रश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर  संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को प्रदर्शित किया जाता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अद्रश्य ‘सेंटिऐंट’ बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।

शिव की शिक्षाओं का प्रसार प्रचार : 

वे ऋषि गण जो शिव से सबसे पहले प्रभावित  हुए वे ऋषि थे भरत, धनवन्तरि, विश्वकर्मा, नन्दी आदि। शिव ने इन्हें उनकी रुचि के अनुसार क्रमशः संगीत, वैद्यकशास्त्र, भवन निर्माण शिल्प अर्थात् स्थपत्य कला और कृषि तथा पशुपालन करने की विद्या में पारंगत किया और फिर जनसाधारण को सिखाने के कार्य में उन्हें लगा दिया। उन्होंने पार्वती से अपने पुत्र भैरव को और काली से अपनी पुत्री भैरवी को विद्यातंत्र में पारंगत कर क्रमशः पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य सोंपा और गंगा से अपने पुत्र कार्तिकेय को सुरक्षा, सेन्य विज्ञान और अस्त्र शस्त्र का ज्ञान कराकर अन्य योग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने का कार्य दिया।

संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव का मौलिक अनुसंधान :

शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वास, प्रश्वास आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं, यद्यपि प्रार्थना के रूप में वह सर्वोत्तम है।

शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। आप लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाआें ंका संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ‘ऋग्वेद’ का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन ‘यजुर्वेद’ से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

शैव धर्म क्या है?

आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के ‘ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट‘  से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के बीच आदर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

असुरों, राक्षसों और भूतों के नाथ, भूतनाथ शिव :

असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दॉंतां वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले(झारखंड) में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सबको जीने का अधिकार है। वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। शायद आप लोग जानते हैं कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़ पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे।  शिव सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

शिव के अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान :

शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब िंपंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा।

शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौशिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

क्या ‘तांडव‘ भयानक विनाश का समानार्थी नहीं है?

जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। (शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।) 

छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य बनाया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र भौतिक एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है। सभी पुरुषों को इसे सीखकर अभ्यास करते रहना चाहिये इससे मन, शरीर और बुद्धि पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है। कौशिकी में शरीर और मन के सूक्ष्म स्तरों को उचित पोषण मिलता है और उनकी क्रियाशीलता से मन बुद्धि और आत्मा के बीच सामंजस्य बनाये रखने में सरलता होती है। यह महिलाओं के लिये विशेष रूप से लाभदायी है। पुरुष, तांडव और कौशिकी दोनां का अभ्यास नियमित रूप से कर सकते हैं परंतु कौशिकी केवल महिलाओं के लिये ही है। शिव ने इसे पार्वती के सहयोग से महिलाओं के हारमोनिक असंतुलन से होने वाले रोगों को दूर करने के लिये बनाया था। महिलायें यदि कौशिकी का नियमित अभ्यास करती हैं तो वे सदा निरोग रहेंगी।



Thursday, 28 November 2024

क्वान्टम थ्योरी और माया

 

क्वान्टम थियोरी, क्लासीकल थ्योरी का अतिसूक्ष्म क्षेत्र है जहॉं पर कण और तरंग की एकरूपता एक ही समय में होना संभव होता है। क्वान्टम का अर्थ है सूक्ष्मतम क्षेत्र की निर्धारित न्यूनतम मात्रा। उदाहरण के लिए प्रकाश ऊर्जा का सूक्ष्मतम भाग ‘फोटान’ के नाम से जाना जाता है और विद्युत ऊर्जा का ‘इलेक्ट्रान’। यह दोनों ही, कण और तरंग की तरह एक साथ व्यवहार करते हैं। किसी भी कण की ऊर्जा निर्धारित होती है और वह प्लांक स्थिरांक से उसकी आवृत्ति के गुणनफल के बराबर होती है।

माया को क्वान्टम थ्योरी से समझा पाना, ह्युमन माइंड से, जो कि यूनिट माइंड है, संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि ‘माया’ एक दार्शनिक शब्दावली के अतिरिक्त कुछ नहीं है जो ‘कॉस्मिक माइंड’ की कल्पना है। इस संबंध में विद्वान कहते हैं कि ‘‘ घातना अघातना पतीयसी माया’’ अर्थात्, जो नहीं है परन्तु उसे होने का आभास कराती है, वह है माया। अब सोचिए, यह माया क्या ‘‘मिरेज’’ की तरह ही नहीं है कि जिसमें दूर पानी भरा दिख रहा है पर पास जाने पर अदृश्य हो जाता है। परन्तु क्वान्टम सिद्धान्त में किसी कण का तरंग और कण के रूप में होना वास्तविक है। यह अलग बात है कि दार्शनिक रूप से फोटानों और इलेक्ट्रानों सहित बृहद और व्यापक दृष्टिकोण से सोचने पर, हम सब और पूरा कॉसमस, उस कास्मिक माइंड के भीतर ही है जिसे अभी हमारे यूनिट माइंड ने आधुनिक भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों से नहीं समझ पाया है। हॉं कोशिशें जारी हैं और अभी पदार्थ से ऊर्जा के बीच के संबंधों को जब हम क्वान्टम सिद्धान्तों से समझाते हैं तो पदार्थ से जीवन और जीवन से पदार्थ के बीच क्वान्टम सिद्धान्त लागू नहीं हो पाते।

भारतीय दर्शन में अत्यंत सूक्ष्म कणों को ‘‘तन्मात्रा’’(तन्मात्रा = तत् + मात्रा। तत् =वह, मात्रा= सूक्ष्मतम अंश अर्थात् उसका सूक्ष्मतम अंश। यहॉं ‘उसका’ से तात्पर्य परमसत्ता से है जिसकी कल्पना तरंगों का यह सभी प्रपंच है।) कहा जाता है जिसे क्वान्टम के समतुल्य माना जा सकता है परन्तु क्वान्टम सिद्धान्त उन पर लागू हो सकता है यह कहा नहीं जा सकता। अभी कुछ शोधों में प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है कि पदार्थ (इलेक्ट्रान) से पूर्व की अवस्था जीवन के उद्गम का क्षेत्र है जहॉं ‘माइक्रोवाइटम’ (नई टर्म ) को प्रभावी बताया गया है। यह कहा गया है कि लाखों माइक्रोवाइटा मिलकर एक इलेक्ट्रान बनाते हैं। परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान को अविभाज्य मानते हें। यदि अब क्वान्टम सिद्धान्त और माइक्रोवाइटम सिद्धान्त को एकीकृत किया जा सके या उनमें भी क्लासीकल मेकेनिक्स की तरह क्रमागत माना जा सके तभी ‘‘पदार्थ, मन और ऊर्जा’’ के बीच उचित तारतम्य स्थापित करते हुए कास्मिक माइंड के साथ संबंध बनाया जा सकता है। सपष्टतः तभी हम इस माया के अस्तित्व पर भी प्रकाश डाल सकेंगे। मन की कंपनशीलता और उसकी शक्ति सम्पन्नता प्लांक के सिद्धान्त के अनुकूल प्रतीत होती है परन्तु यूनिट माइंड की तरह कास्मिक माइंड (जिसे तन्मात्रा का तत् कहा गया है) का अस्तित्व शोध का विषय है।

आनन्दमार्ग दर्शन में यह माना गया है कि यह समग्र ब्रह्मांड एकमात्र परमसत्ता की विचार तरंगों का समूह है जो उनके मन के भीतर ही है। उनके मन में इस ब्रह्मांड की रचना करने का विचार आते ही उनकी ही क्रियाशीला शक्ति, जिसे प्रकृति के नाम से भी जाना जाता है, क्षण भर में यह सब रच डालती है जिसे विद्वान माया भी कहते हैं। अतः हमें वह मूल तत्वस्वरूप परमसत्ता तो दिखाई नहीं देती परन्तु उसकी प्रकृति के कार्य दिखाई देते हैं स्पष्टतः देखे जाते है, ( वैसे ही जैसे, मन भी दिखाई नहीं देता पर उसके कार्य स्पष्टतः देखे जाते हैं)। इसलिए हम प्रकृति अर्थात् शक्ति को ही प्रधानता देने लगते हैं और उसे परमशक्तिशाली मानकर उसकी उपासना करने लगते हैं। परन्तु तत्वतः प्रकृति है किसकी ? उस परमसत्ता की। इसीलिए आनन्दसूत्रम में कहा गया है कि ‘‘ शक्ति सा शिवस्य शक्ति’’ क्योंकि उस परासत्ता को दार्शनिक नाम शिवतत्व दिया गया है।

जब हम किसी विराट सत्ता के संपर्क में आते हैं तो हम उसके भावों और विचारों के प्रति आकर्षित होकर अपनी अलग भावना निर्मित कर लेते हैं। यह भावना हृदय की जितनी गहराई से निकलती है उतनी ही पवित्र होती है जिसे हम श्रद्धाभक्ति कहते हैं। इसलिए भक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती वह ज्ञानपूर्वक कर्म करने का ही परिणाम होती है। इसलिए माला, फूल, चंदन आदि लगाकर किसी का देखादेखी अनुसरण करने लगना भक्ति नहीं कहा जा सकता। जबकि तन्मात्राओं के और आगे (जैसे माक्रोवाइटम) जाकर नये अस्तित्व का पता लगाकर उसे जनसामान्य के हित में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था और आध्यात्मिक शोध को उन्नत किया जाना चाहिए था परन्तु माया से प्रभावित मन यहीं भटक रहा है। अतः इस वैज्ञानिक युग में आध्यात्मिक उपासना के अर्थ में क्वान्टम सिद्धान्त और माइक्रोवाइटम सिद्धान्त में पारस्परिक समायोजन का कार्य माना जाय तो अनुचित न होगा। श्रद्धा, भक्ति और उपासना आदि दार्शनिक तथ्यों को नए अर्थ में तभी समझा जा सकेगा।

क्वान्टम सिद्धान्त में कणों के ‘तरंग और कण’ दोनों व्यवहारों का साथ साथ पाया जाना क्या ‘अर्धनारीश्वर शिव’ का सीमित दृश्य नहीं माना जा सकता? दार्शनिक अपनी अपनी मान्यताओं और तर्कों के अनुसार जब यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि उस अद्वितीय सत्ता को आकार में कैसे समझाया जाय तब आज से सात हजार साल पहले भगवान सदाशिव ने ‘‘ शिवशक्त्यात्मक ब्रह्म ’’ कहकर उसे समझाया था कि ‘‘शक्ति सा शिवस्य शक्ति’’ अर्थात् वह परमसत्ता जिसे ब्रह्म कहा जाता है, शिव और शक्ति दोनों से संयुक्त है और जो शक्ति है वह शिव की ही शक्ति है अतः शिव और शक्ति अभिन्न हैं। इस सत्य को आकार में प्रकट करने के लिए दार्शनिकों ने आधे भाग को शिव और आधे भाग को शक्ति का रूप देते हुए संयुक्त रूप में मूर्ति बनाकर प्रकट किया जिसे अर्धनारीश्वर शिव कहा जाता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि शक्ति जिसकी है उसी की उपासना करने के लिए प्रयास करना चाहिए। इस रास्ते पर जो चल चुके हैं और जिनसे आपको आन्तरिक श्रद्धा उत्पन्न होती हो उनके निकट संपर्क में आकर अपना बीजमंत्र (अपनी मूल आवृत्ति) प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करना चाहिए। वे कृपापूर्वक जब आपको मंत्र दे देंगे तभी आपकी उपासना को गति मिल सकेगी। गति जब प्रगति में बदलने लगेगी तब भक्ति के कण (सूक्ष्मतम खोज) आपके भीतर ही द्रवित होंगे और आपको सब कुछ बिना चाहे प्राप्त हो जाएगा। इसलिए आडम्बरी माया को छोड़कर सन्मार्ग की तलाश में जुट जाना चाहिए।
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Tuesday, 21 May 2024

422 हिंदू धर्म की उत्पत्ति


प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, विशेषकर तथाकथित हिंदू धर्म, के बारे में आम लोगों में बहुत गलतफहमी है, इसलिए मैं थोड़ा विस्तार में जाना चाहता हूं ताकि लोगों को सच्चाई पता चल सके।
दरअसल, मानव जाति इस धरती पर लाखों साल पहले आई थी लेकिन मानव सभ्यता लगभग 15000 साल पहले से 8000 हजार साल के बीच यानी ऋक्वैदिक युग के समय तक अपने चरम पर अस्तित्व में अपनी प्रगति करती रही। इस युग के दौरान अलग-अलग ऋषि अलग-अलग क्षेत्रों में ज्ञान की खोज कर रहे थे और एक विशेष ऋषि के ये विचार कई मायनों में दूसरे के साथ भिन्न थे, लेकिन फिर भी उन दिनों जीवन का धार्मिक तरीका अपने क्षेत्र के ऋषि की शिक्षाओं का पालन करना था। ऋषि की शिक्षा को “अर्ष धर्म“ का नाम दिया गया था।

लगभग 7000 वर्ष पहले भगवान ‘‘शिव’’ नामक एक महान व्यक्तित्व अस्तित्व में आया और उसने, अपने अपने वर्चस्व के लिए झगड़ते समाज में हलचल पैदा कर दी। उन्होंने इसे अपनी शिक्षाओं के साथ जोड़ा, जिस पर वर्तमान में आम तौर पर चर्चा नहीं की जाती है और इसलिए नए समाज के निर्माण में उनके योगदान को प्रायः भुला दिया गया है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को प्रत्येक जीवित प्राणी की “जन्मजात लाक्ष्णिकताओं“ के रूप में परिभाषित किया। यही आगे चलकर शैव धर्म/भागवद धर्म/सनातन धर्म कहलाया। आज हम जिन दर्शनों को जानते हैं उनका आविष्कार शिव के समय में नहीं हुआ था। शैव धर्म का सिद्धांत परम आनंद प्राप्त करना था। इसलिए शिव ने अपनी शिक्षाओं के व्यावहारिक पक्ष का पालन किया क्योंकि उन्हें लिखने की कोई प्रणाली नहीं थी। जब भगवान शिव ने शैव धर्म या भागवद धर्म के व्यावहारिक पक्ष को व्यवस्थित किया तो तंत्र की गौड़ीय और कश्मीरी प्रणालियाँ पहले से ही मौजूद थीं लेकिन बिखरे हुए रूप में। भगवान शिव ने उन्हें पुनर्व्यवस्थित किया और एक नई व्यावहारिक विधि का परिचय दिया जिसे उन्होंने विद्यातंत्र का नाम दिया। अपने अनुयायियों को उनके स्पष्ट निर्देश इस प्रकार थेः-
‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि,
ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘।
(मतलब, मन को बाहरी आकर्षण और इंद्रियों के विषयों से हटाकर “अहम् तत्व“ में जोड़ दें। फिर अहमतत्व को महतत्व में जोड़ दें और अंत में इन सभी को आत्मतत्व में जोड़ दें।)
यह कैसे किया जाना है इसकी ट्रेनिंग देने का कार्य वे स्वयं अपने सानिद्य में किया करते थे।

अब तक वैदिक ऋषियों ने यजुर्वेद और अथर्ववेद के रूप में कुछ उन्नत विचारों को प्रस्तुत किया, जिसमें कर्मकांडीय आडंबर पर अधिक जोर दिया गया, हालांकि विद्यातंत्र की व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी। यहां यह बताना आवश्यक है कि वेदों में 90 प्रतिशत सैद्धान्तिक वर्णन तथा केवल 10 प्रतिशत व्यावहारिक साधना की विधियॉं मिलती हैं, जबकि विद्यातंत्र में 90 प्रतिशत व्यावहारिक कार्य तथा केवल 10 प्रतिशत सिद्धांत मिलते हैं।
अथर्ववेद के काल तक ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का आविष्कार हो चुका था और लिखने के लिए भोजपत्रों का प्रयोग किया जाता था। ऋषि अर्थवा ने अपने अनुयायियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के साथ वेदों को वैदिक संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में लिखा। इस प्रकार आर्यों की याज्ञिक प्रणाली (कर्मकांड) और शिव की विद्यातंत्र (ज्ञानकांड) दो प्रणालियाँ थीं जिनका पालन भारत के प्राचीन मूलनिवासियों द्वारा किया जाता था लेकिन कहीं भी मूर्ति पूजा नहीं थी।

इसके बाद लगभग 5500 साल पहले (भगवान ‘‘कृष्ण’’ के आगमन से लगभग 500 साल पहले) ‘‘कपिल’’ मुनि अस्तित्व में आए और उन्होंने ‘सांख्य दर्शन’ नाम से अपना दर्शन प्रस्तुत किया, जिसमें इस ब्रह्मांड के निर्माता को कुछ संख्याओं में गिनाने की कोशिश की गई। उन्हें “अदिविद्वान“ अर्थात प्रथम दार्शनिक और ईश्वर को निश्चित संख्याओं में बांधने वाला पहला विद्वान माना जाता था।
‘सांख्य दर्शन’ के काफी समय बाद एक अन्य दार्शनिक महर्षि ‘‘पतंजलि’’ ने ‘‘पातंजल योग दर्शन’’ दिया और सांख्य दर्शन के दोषों को दूर करने का प्रयास किया लेकिन कुछ मामलों में वे पिछड़ गये। उनका सबसे बड़ा दोष यह था कि वह जीवित प्राणियों और ईश्वर के बीच के संबंध को निर्धारित करने में विफल रहे। महर्षि ‘कणाद’ एक अन्य दार्शनिक थे जिन्होंने “कारण और प्रभाव सिद्धांत“ दिया और “वैशेषिक दर्शन“ की स्थापना की। दार्शनिक विचारों के विश्लेषण से उन्होंने यह स्थापित किया कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। वह ईश्वर को साक्षी सत्ता और पदार्थ की सबसे छोटी इकाई को परमाणु मानते हैं लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि ईश्वर एक दार्शनिक कारण है या यांत्रिक इकाई है। उन्होंने ईश्वर और एटम के सम्बन्ध के बारे में भी कुछ नहीं कहा। कालान्तर में वैशेषिक द्वैतवादी हो गये।

इन्हीं दर्शनों के उथलपुथल भरे समय में जबकि कहीं पर शैव, कहीं पर शाक्त, कहीं पर विद्यातंत्र और कहीं पर अविद्यातंत्र का डंका बज रहा था, महासंभूति कृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अपना कोई दर्शन तो नहीं दिया परन्तु शिव प्रणीत विद्यातंत्र के ज्ञानकांड, कपिल के सांख्य और पातंजल दर्शन को समन्वयीकृत कर ज्ञानियों को ज्ञानमार्ग का और कर्मियों को निष्काम कर्म योग का अनुसरण करते हुए भक्ति को पाने की व्यवस्था बनाई। इसमें कहा गया है कि पूर्णप्रपत्ति के बिना आप अपने को जान ही नहीं सकते। इसे ही ‘वैष्णववाद’ कहा गया।

इसके बहुत बाद में दार्शनिक युग के मध्य काल में ‘‘मीमांसा सम्प्रदाय’’ का उदय हुआ जिसने पूर्ववर्ती दर्शनों की विसंगतियों एवं दोषों को दूर करने का प्रयास किया। इसे दो खंडों में विभाजित किया गया था एक को आचार्य बादरायण व्यास, आचार्य गौडपाद, आचार्य गोविंदपाद और श्रीमत शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित उत्तर मीमांसा कहा जाता है और दूसरे खंड को आचार्य जैमिनी द्वारा प्रतिपादित पूर्व मीमांसा कहा जाता है। इन सभी आचार्यों के विचारों और मतों में व्यापक मतभेद थे लेकिन इन सभी ने ‘‘ब्रह्म’’ के अस्तित्व को स्वीकार किया था। दोष यह था कि उन्होंने ब्रह्म के साथ ‘‘माया’’ का परिचय कराया, तदनुसार माया इस संसार का निर्माण कर रही है इसलिए इसे मिथ्या माना गया।

इस प्रकार आचार्यों के विभिन्न विचारों में सामाजिक जीवन ठहरा हुआ था। बाद में, लगभग 2500 वर्ष पूर्व माहर्षि ‘वृहस्पति’ (जिन्हें चार्वाक के नाम से जाना जाता है), वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने समाज में अपने विचारों का प्रतिपादन किया। इस काल में वेदों का कर्मकाण्ड व्यापक रूप से प्रचारित हुआ तथा ज्ञानकाण्ड छिपा हुआ था। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने कर्मकांड का विरोध किया और वेदों को स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने ज्ञानकांड का विरोध नहीं किया। इस प्रकार बुद्ध की नैतिकता और महावीर की अहिंसा पर आधारित नये विचार अस्तित्व में आये। बुद्ध ने ईश्वर या भगवान के अस्तित्व के बारे में कोई बात नहीं कही और यह प्रतिपादित किया कि अंततः सब कुछ शून्य है । जबकि महावीर निर्वाण में विश्वास करते थे, लेकिन रचयिता और सृष्टि तथा उनके परस्पर संबंध के बारे में कई बातें अस्पष्ट थीं। इसी दौरान चार्वाक वेदों, बुद्ध और महावीर के विचारों से कई कदम आगे पहुंच गये क्योंकि उनके दर्शन ने कर्मकांडीय आडंबरों का विरोध करते हुए नैतिक सिद्धांतों और मानवीय मूल्यों को भी नकार दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि जब तक जीवित रहो सुख से रहो चाहे कर्ज भी लेना पड़े फिर भी मक्खन खाते रहो। शब्दों की बाजीगरी का उपयोग करने वाला यह दर्शन प्रत्यक्ष बोध के अलावा किसी भी प्रमाण को स्वीकार नहीं करता था और इसलिए समाज भौतिकवादी हो गया। आज तक हम देखते हैं कि समाज में कर्मकांडीय आडंबर, मूर्ति पूजा और भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रचलित है। जब मुस्लिम और ब्रिटिश आक्रमणकारी भारत में आए, तो उन्होंने इस क्षेत्र (जिसे भारत या मूल रूप से जम्बूद्वीप कहा जाता था) को हिंदुस्तान और मंदिरों में पूजा-पाठ और अनुष्ठान आदि कार्य देखकर इसे ही “हिंदू धर्म“ नाम दे दिया क्योंकि ज्ञानकांड पर आधारित चर्चा इस समय दब चुकी थी। इस समय तक मूलतः ‘शैव’ मतानुयायी, कालक्रम के अनुसार जैन और बौद्ध के प्रभाव में आते जा रहे थे । जैन तन्त्र की अव्यावहारिकता और बौद्ध तन्त्र की दुखवादिता से जनसामान्य अपने जीवन की रसमयता को खोता जा रहा था, इसलिए आज चार्वाक का भौतिकवाद चरम पर जा रहा है।

इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में कैसे दर्शनशास्त्र के विभिन्न रूपों का उदय हुआ और उन्होंने विद्यातंत्र और वेदों के सच्चे ज्ञान को पर्दे के पीछे रखकर आम समाज को शब्दों की बाजीगरी में उलझा दिया। अब यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तथाकथित हिंदू धर्म में वेदों का कितना हिस्सा माना जाता है, शैव, भागवत या सनातन धर्म का तो कहना ही क्या!

यह भी स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य इस ब्रह्माण्ड के रचयिता व निर्माण के पीछे के सत्य व उसके घटकों तथा जीवों के साथ उसके परस्पर सम्बन्ध को जानना था। इससे पता चलता है कि आज भारत को विश्वगुरु बनने के लिए भगवान शिव द्वारा प्रतिपादित विद्यातंत्र आधारित पूजा प्रणाली को स्थापित करने की अत्यंत आवश्यकता है। आज के नेताओं द्वारा भारत को विश्वगुरु बनाने दावा किया जा रहा है, परन्तु विशुद्ध रूप में सनातन/भागवत धर्म की स्थापना के बिना क्या यह संभव है?