भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -1 : (शिवोक्तियॉं)
1. शिव का कहना है कि गतिशीलता का अर्थ है समय के सापेक्ष एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर जाना। इस अर्थ में भूतकाल और भविष्यकाल दोनों ही सापेक्षिक सत्य हुए परन्तु वर्तमान काल है भूतकाल का वह भाग जो भविष्यकाल से किसी व्यक्ति विशेष की समझ के अनुसार संयोजित है। सामान्यतः दार्शनिक, ऐतिहासज्ञ और भौतिकवादी इस संबंध में गलती करते हैं। शिव का कहना है कि आप वर्तमान काल में रहते हैं अतः आप अपने भूतकाल के अनुभव को वर्तमान को उन्नत बनाने और भविष्य की योजना में यह मानकर लगाओ कि पूर्ण मानव वैभव एकत्रित होकर आपके ऊपर अपार ऊर्जा को विकीर्णित कर रहा है। इसलिए ‘‘वर्तमानेषु वर्तेत’’ अर्थात् वर्तमान के अनुसार सक्रिय रहो।
2. शिव का कहना है कि हमारा मन दो प्रकार से कार्य करता है पहला सोचना और दूसरा याद रखना। परन्तु हमें सही ज्ञान की प्राप्ति होती है तीन साधनों से पहला धारणा, दूसरा अनुमान और तीसरा योग्यता धारक विद्वान। सामान्यतः मनुष्य धारणा और अनुमान को भूलकर केवल किसी तथाकथित पंडित के प्रभाव में आकर अपनी मान्यताएं बना लेते हैं यह उचित नहीं है। क्योंकि बिना विचार किए गए कार्य बंधनों में बांधते हैं और सच्चा ज्ञान बंधन मुक्त करता है। ‘‘कर्मणा बद्धते जीवा, विद्याया तु प्रमुच्यते।’’ इसलिए ज्ञान के उचित श्रोत से ज्ञान प्राप्त कर अपनी धारणा और विवेक का उपयोग कर जो भाग उस ज्ञान का ग्रहण करने योग्य है उसे ही याद रखना और तदनुकूल चलना विवेक संम्मत माना जाता है। शिव का कहना है कि तथाकथित ज्ञानी लोग जो अपने प्रभाव से जन सामान्य को अपनी अतार्किक बातें मानने के लिए दबाव बनाते हैं वे ‘‘लोकव्यामोहकारक’’ होते हैं अर्थात् वे मानसिक बीमारियों और डोगमा को समाज में स्थापित करते ह,ैं उनसे दूर रहना चाहिए।
3. प्रारंभिक काल से ही सभी प्राणी दो ग्रुपों में रहते आए हैं ‘अकेले’ और ‘समूह’ में। प्रारंभ में पुरुषों को अपनी जिम्मेवारी का आभास नहीं था अतः शिव ने उन्हें परिवार और विवाह नामक व्यवस्था में रहते हुए अपना जीवन यापन करने की व्यवस्था बनाई। शिव ने कहा कि वे लोग जो समाज में उच्च आदर्श की स्थापना के लिए आगे आना चाहें वे ब्रह्मचर्य जीवन विताएं और सच्चा ज्ञान प्राप्त कर आदर्श के ध्वज वाहक बने। तथा वे जो पारिवारिक जिम्मेवारी निभाते हुए समूह में रहना चाहते हैं वे स्त्री और पुरुष समानाधिकार पूर्वक साथ रहें और दोनों एक दूसरे के पूरक रहें। समानता के आधार पर ही शिव ने महिला को स्त्रीलिंग न कहकर पुल्लिंग में ही संबोधित किया। संस्कृत में महिला को ‘नारी’ कहा गया पर शिव ने उसे ‘कलत्र’ कहा और जिम्मेवार पुरुष को भर्ता, जो पुल्लिंग शब्द हैं। उन्होंने स्वयं इस व्यवस्था का अपने परिवार में पालन किया और दूसरों से भी कराया। इसलिए शिव ने शिक्षा दी कि ‘‘यद भरत्तुरेव हितमिच्छति तद कलत्रम्।’’ अर्थात् ‘कलत्र’ वह है जो अपने ‘भर्तार्' के हित के लिए उसे सहयोग करे।
4. जब किसी व्यक्ति के संस्कारजन्य आवेगों को प्रतिकूल वातावरण मिलता है तो उसे क्रोध आ जाता है। कहा गया है कि ‘‘ प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्’’। जब क्रोध आता है तो अचानक मन के कंपन छोटे छोटे स्नायु तंतुओं पर इतना अधिक दबाव डालते हैं कि थोड़े से समय में ही उसके सोचने विचार करने की क्षमता प्रभावित हो जाती है। उसका ध्यान, मनन और चिंतन करना सभी अव्यवस्थित हो जाता है और साधना प्रभावित हो जाती है। इसलिए क्रोध करने से सदा बचें क्योंकि ’’ क्रोध एव महान शत्रुः।’’ अर्थात् क्रोध ही हमारा परम शत्रु है।
5. शिव का कहना है कि व्यक्ति अपने भीतर भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संसार की चीजों को आत्मसात करना चाहते हैं कभी जानते हुए, कभी अनजाने। आध्यत्मिक क्षेत्र में किसी सत्ता को आत्मसात करते समय उसकी प्रक्रिया में ही वे अपने आपको उस सत्ता में मिला लेते हैं वैसे ही, जैसे नदियॉं अपनी अंतिम सत्ता महासागर में मिला देती है। जब कोई बौद्धिक जगत में अपने का मिलाना चाहता है तो वह भौतिक जगत को भूल जाता है या भूला रहना चाहता है। यही कारण है कि इस प्रकार के विद्वान व्यावहारिकता से दूर ही रहने लगते हैं। परन्तु यह देखा गया है कि यदि किसी को बौद्धिक स्तर पर कुछ उपलब्धियां हुई हैं तो उसका मन घमंड से भर जाता है। सामान्यतः भौतिक उपलब्धियों की ओर लोगों का रुझान आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। भौतिक उपलब्धियों का अविवेकपूर्ण संग्रह लोभ कहलाता है जबकि आध्यात्मिक क्षेत्र में यह संग्रह नुकसानदायक नहीं माना जाता। बौद्धिक क्षेत्र में संचित की गई उपलब्ध्यिं को यदि मानवता के कल्याण में लगाया जाय तो वह भी नुकसान नहीं करता। अन्यथा वे लोग डोग्मा फैलाकर लोगों के मन में प्रदूषण करते हैं और जन सामान्य के स्तर को पशुजीवन तक गिरा देते है। इसलिए संचय की प्रवृत्ति चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, यदि विवेकपूर्वक नियंत्रित नहीं की जाती तो यह लोभ में बदल जाती है जो उन्हें असामयिक मृत्यु की ओर ले जाती है। इसलिए शिव ने चेताया है कि ‘‘लोभः पापस्य हेतुभूतः’’। लोभ पाप का मूल कारण है।
6. शिव का कहना है कि कुछ लोगों में प्रदर्शन की जन्मजात प्रवृत्ति होती है चाहे उनमें कुछ योग्यता हो या न हो। इस प्रकार के लोग अन्यों को नीचा और हेय समझते हैं जिसका कारण अहंमन्यता का मनोविज्ञान है। वे यह भूल जाते हैं कि अच्छे या बुरे सभी कर्म प्रकृति द्वारा साक्ष्यकारी सत्ता की अनुमति से किए जाते हैं। इससे प्रदर्शन करने का मनोविज्ञान उन पर हावी हो जाता है। सच्चाई यह है कि कोई भी तथ्यात्मकता बिना विषयगत सहयोगी के नहीं रह सकती। वे, जो इस दार्शनिक सत्य को भूल जाते हैं और केवल तथ्यात्मकता को ही याद रखते है वे सबसे खराब मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जाते है जिसे ‘अस्मिता’ कहते है। ‘‘द्रकदर्शनाशक्तर्योकात्मातेवाहास्मितां’’। चूंकि अस्मिता के कारण लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते अतः वे अपने सामने किसी को भी तुच्छ समझने लगते हैं। वे कोई नई बात सुनना और समझना नहीं चाहते और आक्रामक हो जाते है। इस प्रकार अस्मिता से जन्म लेने वाली आक्रामकता अहंकार के प्रभाव से उन्हें पतन की ओर ले जाती है । शिव ने इस प्रकार के अहंकार ग्रस्त लोगों से दूर रहने की सलाह दी है, और चेताया है कि ‘‘ अहंकारः पतनस्य मूलम्।’’
7. भौतिक जगत में स्थान में सापेक्षिक परिवर्तन लाने वाला कारक क्रिया कहलाता है। भौतिक जगत में जब इस स्थान परिवर्तन का अधिक प्रभाव बढ़ने लगता है तो मानसिक संसार भी प्रभावित होने लगता है परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में स्थान में कोई परिवर्तन नहीं होता। आध्यात्मिक संवेग तो केवल उस परमसत्ता के लगातार आनन्दमय स्मरण और उसके प्रति जागरूकता से प्राप्त होता है जो उस व्यक्ति के जीवन और अस्तित्व को संतृप्त कर देता है। आध्यत्मिक क्षेत्र में किया गया कर्म सचमुच ‘याग’ कहलाता है जिसका अर्थ है बिना किसी रुकावट और डर के लगातार अभ्यास करते जाना। भौतिक जगत की बाधाओं से संघर्ष करना ‘जड़साधना ’ और बौद्धिक क्षेत्र में संघर्ष करना ‘‘भावसाधना’’ कहलाता है । आध्यत्मिक क्षेत्र में साधना और साधना का लक्ष्य एक ही हो जाता है। इसीलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि ‘भक्ति’ साधन और साध्य दोनों ही है। आध्यात्मिक क्षेत्र में की गई साधना विशेष अर्थ में ‘अभिध्यान’ कहलाती है और सामान्य अर्थ में ‘परिश्रम’। बौद्धिक क्षेत्र में की गई साधना विशेष अर्थ में ‘धारणा’ कहलाती है और परिश्रम समान्य अर्थ में। भौतिक क्षेत्र में की गई साधना को ‘श्रम’ विशेष अर्थ में और ‘परिश्रम’ सामान्य अर्थ में कहते हैं। हमारे अस्तित्व को अर्थवान बनाने के लिए अभिध्यान, धारणा, श्रम और परिश्रम सभी घटकों का महत्व है इनके ही संयुक्त रूप को ‘‘योग’’ कहते हैं अर्थात् कार्य करने का कौशल। अतः स्पष्ट है कि यदि कोई हर प्रकार की उन्नति करना चाहता है तो उसे परिश्रम करना ही होगा यदि कोई आम के पेड़ को पकड़ ़कर बैठ जाए और कहे कि आम मेरे मुंह में चला जाएगा तो यह संभव नहीं है, उसे आम को तोड़ना पड़ेगा और फिर काटना पड़ेगा तभी वह खा सकेगा। इसलिए शिव की शिक्षा है कि ‘‘परिश्रम विनाकार्यसिद्धिर्भवति दुर्लभा’’। परिश्रम के बिना किसी भी कार्यक्षेत्र में सफलता पाना दुर्लभ है।
8. शिव ने बताया कि लोग दो कारणों से असत्य बोलते है, अपने स्वार्थ और जन्मजात प्रवृत्ति से।यह संसार तो सत्य सेभरा हुआ है, जैसे पशु, पेड़पौधे, आदि। छोटे बच्चे भी सत्य बोलते हैं जब तक कि उन्हें अन्यथा न सिखाया जाए। तथाकथित उन्नत और विकसित मनुष्य ही असत्य बोलते अविकसित मनुष्य नहीं। जो यथार्थ है, जो अपरिवर्तित रहता है उसे ‘ऋत’ कहते हैं, यह पौधों और अविकसित मनुष्यों में देखा जा सकता है। यह समाज के लिए प्रेरणादायक घटक है और समाज के कल्याण के लिए उपयोगी है। ‘ऋत’ जब समाज कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है तब वह ‘सत्य’ कहलाता है। सत्य की मजबूत नीव पर ही धर्म की अनेक धाराऐं आकार पाती हैं। वे जो सत्य का पालन नहीं करते उनके साथ धर्म नहीं रहता। अपने व्यक्तिगत हित के लिए जो असत्य का पालन करता है वह प्शु और पेड़ पौधों से भी निम्न स्तर पर होता है। इसलिए अपनी असत्य बोलने की आदत को दूर करने के लिए लम्बी अवधि तक प्रयास करना पड़ता है। यह कहा गया है कि असत्य का संसार ही विभिन्न प्रकार के अपराधों की जड़ है। इसलिए कोई कितना ही व्रत उपवास कर ले, धार्मिक यात्राएं कर ले, अनुष्ठान कर ले परन्तु यदि वह असत्य का पालन करता है तो धर्म उसका साथ कभी नहीं देगा।
9. शिव ने कहा है ‘‘प्रतिकूल वेदनीयम् दुखम’’ अर्थात् मन जब प्रतिकूलता का अनुभव करता है तो दुख का अनुभव करता है। जो आदतन झूठ बोलने वाला होता है वह अपने मन की तरंगों को बार के वातावरण के साथ एडजस्ट नहीं कर पाता क्योंकि ईंट, पत्थर, लकड़ी, पहाड़, पशु असत्य नहीं बोलते वे सभी सत्य मे आश्रित रहते हैं। जैसे पाम के पेड़ के तने पर चिंन्ह उसकी आयु बता देते हैं, भेड़िए अपने शिकार से बचने के लिए कभी अपनी आवाज नहीं बदलते आदि। स्पष्ट है कि उनके संस्कार सत्य के साथ एकीकृत रहते हैं जबकि झूठे व्यक्ति के मानसिक कम्पन झूठ के साथ। नियम यह है कि प्रतिकूल वातावरण के पाने पर मन दुखी होता है अतः झूठ बोलने वाले सत्य के संसार में अनुकूलता अनुभव नहीं कर सकते उन्हें दुखी होना ही पड़ेगा। दसलिए शिव का कहना है कि ‘‘मिथ्यावादी सदा दुखी’’।
10. सभी प्राणी स्वभावतः सरल रास्ते पर सीधे चलते हैं परन्तु जो पापी, दुष्ट, स्वार्थी और डरपोंक होते हैं वे अपना रास्ता कुटिलता पूर्वक तय करते है। उनकी यह कुटिलता उनके वैचारिक संसार में वकृताएं पैदा कर देती है। वे अपने विचारों से पारस्परिक शंकाओं को जन्म देते हैं जो निरपराध लोगों को भी नहीं छोड़ते। वे अपने किए पर न तो पछताते हैं और न ही शर्मिंदा होते है। यह लक्षण ही पापकर्मियों का मनोविज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के लोग दूसरों की आवाज को दबा कर उन्हें न्याय से वंचित कर देते है परन्तु अन्त में वे भी प्रकृति के न्याय से वंचित रहते हैं। शिव इन स्थितियों से परिचत थे अतः उन्होंने भक्तों को सचेत किया है कि ‘‘ पापस्य कुटिला गतिः’’। अर्थात् पाप की चाल टेड़ीमेड़ी होती है।
11. वह धर्म ही है जो पेड़ पौधों, पशुपक्षियो, मनुष्यों जीवित या अजीवित सभी के अस्तित्व को स्थापित करता है। यदि किसी का धर्म भुला दिया जाय तो समझा जाता है कि उसका अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। इसलिए विचारशील, बुद्धिमान और जागरूक लोगों को सावणान रहना चाहिए यदि कोई अपने धर्म अर्थात् आभ्यान्तिरिक गुणों को खोने लगा है। वास्तव में सभी जीवधारियों के भीतर नियंत्रण करने वाली सत्ता ही धर्म है इसी लिए कहा गया है कि ‘‘ध्रियते धर्म इत्याहुः सा एव परमं प्रभुः’’ अर्थात् जो सत्ता किसी के अस्तित्व को जकड़े रहती है और उसे सफलता की ओर ले जाने को प्रेरित करती ह,ै वह धर्म है। इसलिए सभी वस्तुएं, जीवित या गैरजीवित अपने अपने धर्म में महान हैं। यहॉं धर्म का अर्थ कोई ‘रिलीजन’ से नहीं वरन् उसके अस्तित्व की सूक्ष्म सत्ता से है। मनुष्य भी इस लिए मनुष्य हुआ है कि वह अपने को मानव धर्म में स्थापित करते हुए अपने धर्म में भव्यता से मृत्यु पाए न कि अपने को पशुजीवन की ओर ले जाए। तो यह मानव धर्म क्या है? शिव ने बताया कि इसके चार स्तर हैं-
विस्तार(अर्थात् स्वयं का अधिक से अधिक प्रभावी होने का सिद्धान्त) : इसका अर्थ यह है कि दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित किए विना अपने को समग्र विश्व में विस्तारित करना और प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर मधुरता की भावनाओं का संचार करना। रस(परमपुरुष के प्रति सम्पूर्ण सर्मिर्पत होने का सिद्धान्त) : इसका अर्थ है कि मानव अस्तित्व में सदा ही आनंदित अवस्था में संतृप्त रहते हुए ताजगी की मधुरता अनुभव करना और, यह तभी हो सकता है जब हम अपने को परमपुरुष से अपना सतत संपर्क बनाए रखेंगे। सेवा(परमपुरुष और उनकी स्रष्टि की निस्वार्थ सेवा): इसका अर्थ है कि संसार में ‘देने और लेने’ का चलन है। सभी लेना तो चाहते हैं परन्तु देना नहीं। यह लेनदेन की प्रवृत्ति ही मनुष्य को राग और द्वेष में फंसाती है इसलिए उससे ऊपर उठना होगा और निस्वार्थ सेवा को अपनाना होगा जिसमें यह भावना रखना होगी कि मैं तो परमपु्रुष की सेवा कर रहा हॅूं उसकी इच्छा के अनुरूप कार्य कर रहा हॅूं। इसलिए विस्तार , रस और सेवा यह तीनों साधना के अन्तर्गत आते हैं और इन सबका परिणाम होता है चौथा स्तर अर्थात् तदस्थिति। तदस्थिति(परमपुरुष के भीतर अन्तिम आश्रय पाना)। इसलिए मानव धर्म इन सभी चारों स्तरों का समाहार है। यह धर्म ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है इसके लिए किसी भी प्रकार का त्याग करना कठिन नहीं है, इसे ही ‘भागवत धर्म’ कहते हैं (अर्थात् वह धर्म जिससे परमसत्ता को पाया जाता है)। अतः शिव ने अनुभव किया कि ‘‘घर्मः रक्षति रक्षितः।’’ अर्थात् जो अपने धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए कहा गया है कि ‘‘धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः’’ अर्थात् धर्म को अनुभव करने के तरीके बहुत सूक्ष्म हैं।
12 भगवान शिव कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि चाहे कि वह चतुर्थ अवस्था अर्थात् तदस्थिति को सीधे ही पहुंच जाय तो यह संभव नहीं है उसे विस्तार, रस, सेवा इन तीनों को पार करना ही होगा। क्योंकि इस प्रकार ही वह समझ सकेगा कि जो अन्त है वही प्रारंभ भी है। इसीलिए कहा कहा गया है कि सभी को चाहे वह शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय या विप्र कोई भी हो, धर्माचरण करना ही होगा। मानव जीवन पाने का एकमात्र उद्देश्य है परमपुरुष को पाना(तदस्थिति)। शिव कहते है कि ‘‘ तस्मात् धर्मः सदा कार्यः सर्ववर्णै प्रयत्नतात्’’। कोई चाहे कि वह हिमालय की गुफा में बैठकर साधना करके तदस्थिति को पा लेगा तो शिव का कहना है कि नहीं उससे तो अच्छा एक ग्रहस्थ होगा जो ईमानदारी से अपने भौतिक कर्तव्य को करते हुए दुखी जीवों की निस्वार्थ सेवा भी करता है; वह सही भागवत धर्म का पालन करता है। संन्यासी वह श्रेष्ठ है जो पारिवारिक जीवन से दूर रहकर भागवत धर्म का पालन करते हुए दुखियों को उनके कष्टों पर शांति और प्रगति की मरहम लगाते हुए भागवत धर्म की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित करता है। इसलिए शिव का स्पष्ट कहना है कि आपके धर्म पालन का उद्देश्य होना चाहिए ‘‘ आत्म मोक्षार्थं जगदहिताय च’’। अर्थात् मोक्षमार्ग की ओर चलते हुए विश्व का कल्याण करना।
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