Sunday, 14 September 2025

437भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का नौवां उपदेश है कि-

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

शिव का नौवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मज्ञानमिदं देवि परं मोक्षैकसाधनम्, सुकृतैर्मानवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात्।’’

अर्थात् हे देवी पार्वती! यह आत्मज्ञान ही मोक्ष पाने का सर्वोत्तम साधन है जिसे अनेक जन्मों के सुकृत्यों के परणिमस्वरूप प्राप्त होने वाले इस मानव शरीर में ही इस आत्मज्ञान की साधना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अन्य शरीरों में नहीं।

स्पष्टीकरण :

(1) शिव के कार्यकाल के समय जनसामान्य के मन की जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करने की प्रतिनिधि थीं शिव की पत्नी पार्वती। वे शिव के समक्ष उन जिज्ञासाओं, परिप्रश्नों (आत्म ज्ञान से संबंधित आध्यात्मिक प्रश्नों) को सबके साने पूछती थी और उनका उत्तर शिव दिया करते थे। पार्वती के प्रश्नों जितने सुंदर होते थे उतने ही सुंदर शिव के उत्तर। पार्वती के इन मूल्यवान प्रश्नों को संग्रहीत कर ‘निगमशास्त्र’ नाम दिया गया तथा शिव के उत्तरों को संग्रहीत कर ‘आगमशास्त्र’ नाम दिया गया है। उत्तम कोटि के इन परिप्रश्नों के उत्तर भले ही शिव की दार्शनिक द्युति से जगमगा रहे हों परन्तु उनके व्यावहारिक मूल्यों ने उनके दार्शनिक मूल्य को ढंक सा लिया है अर्थात् शिव की दार्शनिक व्याख्या व्यावहारिक मूल्यों द्वारा उज्ज्वल हो गई है। निगम और आगम को विद्यातंत्र में हंस के दो पंख कहकर समझाया गया है कि जैसे हंस एक पंख से नहीं उड़ सकता उसे दोनों पंख चाहिए, उसी प्रकार विद्यातंत्र भी निगम और आगम दोनों को मिलाने पर ही सम्पूर्ण होता है। इस श्लोक में शिव, पार्वती के प्रश्न पूछने पर कहते हैं मोक्ष साधना का एकमात्र पथ है उपयुक्त अनुशीलन द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करना। आत्म ज्ञान के बारे में शिवोपदेश क्रमांक 2 में विस्तार से समझाया जा चुका है जहॉं यह सिद्ध किया गया है कि आत्मज्ञान की साधना को छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर पाना असंभवहै। कुछ विद्वान कहते हैं कि आत्मज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट पथ है भक्तिमार्ग। परन्तु शिव ने यहॉं भक्ति मार्ग का नाम ही नहीं लिया जिसका कारण है शिव के कार्यकाल में विद्यातंत्र साधना में ‘भक्ति’ का व्यवहार नहीं होता था। साधना मार्ग का मूल्यवान उपदेश ‘‘मोक्षकारणसमग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’’ आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व (आचार्य शंकर के समय) का ही है अर्थात् शिव के बहुत बाद प्रकाश में आया। शिव ने पहले ही समझाया है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक साधना करना होगी अर्थात् समस्त मन के विचारों को छोड़कर अपने हृदय की मधुरता को परमशिव की मधुरता में पूर्णांजली देने पर मनुष्य को परम श्रेय अर्थात् आत्मज्ञान मिलता है। भक्ति की इससे अधिक अच्छी, मधुर और गंभीर व्याख्या क्या हो सकती है?

(2) इसके बाद पार्वती ने शिव से पूछा अच्छा, तो कौन इस आत्मज्ञान पाने का सबसे अच्छा पात्र है? शिव जाति, पांति, गोत्र, वर्णभेद आदि नहीं मानते थे अतः वे बोले जन्म जन्मान्तर के सुकृत्य अर्थात् अच्छे कर्म करने के फलस्वरूप जब कोई जीवधारी इस दुर्लभ मानव देह को प्राप्त कर लेता है तभी वह इस आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य अर्थात् पात्र होता है। अब कुछ विद्वान प्रश्न कर सकते हैं कि प्रतिसंचर (ब्रह्चक्र का द्वितीय अर्धचक्र ) की गतिधारा में प्रत्येक जीवधारी क्रमानुसार मानव शरीर पा ही जाऐंगे फिर भी यह क्यों कहा गया है कि पूर्व जन्मों के सुकृत्यों से मनुष्य शरीर पा जाने  के बाद ही आत्मज्ञान पाने की पात्रता आती है? शिव ने कहा, सही है प्रतिसंचर धारा में सुविन्यस्त पद्धति से जीव आगे बढ़ता हुआ मनुष्य शरीर पा जाता है, वह मनुष्य ही कहलाता है परन्तु वे जो अभी अभी अन्य जीवधारी का शरीर छोड़कर मानव शरीर में आए हैं उनका मन अभी भी पशुत्व और मनुष्यत्व की सीमा रेखा पर उलझा रहता है। उनका शरीर भले ही मनुष्य जैसा हो पर संस्कार पशुजीवन से भरे होने के कारण प्रारंभिक मानव जन्मों में उन्हें आध्यात्म चेतना का स्वर कम ही सुनाई देता है। अतः हर समय उसकी वृत्तियॉं पशुसुलभ क्रिया कलापों की ओर ही दौड़ती हैं। वह अच्छी बातें सुनना ही नहीं चाहता, सुनता है तो समझना नहीं चाहता और समझना भी चाहे तो समझ नहीं पाता। इस प्रकार के लोग शरीरिक तौर पर मनुष्य ही कहलाते हैं परन्तु बौद्धिक स्तर पर वे पूर्ण मनुष्य नहीं होते। इस प्रकार के लोग कहते हैं धर्म अफीम है, इसके बिना भी रहा जा सकता है। उनके लिए कोई भी कर्म पाप कर्म नहीं है। वे अपने और अपनों के स्वार्थ में ही मस्त रहते हैं। यही लोग जब धीरे धीरे सुअवसर मिलते मिलते विभिन्न मानव जन्म लेकर सुकर्म अर्जित करते हुए बौद्धिक स्तर पर उन्नत हो जाते हैं तो उनके पास विश्वविद्यालयों की डिग्री भले न हों वे आत्मज्ञान के लिए अवश्य योग्य पात्र माने जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अनेक लोगों को देखा गया है कि वे अपने बाल्यकाल से ही आध्यात्म की ओर उन्नति करने लगते हैं क्योंकि उनके पिछले जन्मों के संचित आध्यात्मिक साधना के संस्कार उनके जीवन में प्रारंभ से ही प्रभावी हो जाते हैं। अतः शिव ने ठीक ही कहा है कि अनेक जन्मों के सुकृत्य से जब मनुष्य उन्नत बुद्धि पा लेता है तब वह आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य हो जाता है और जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके त्रिविध तापों (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) की ज्वाला स्थायी रूप से शांत होकर मोक्ष की ओर ले जाती है।


No comments:

Post a Comment