Tuesday, 23 September 2025

440 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का बारहवां उपदेश है कि-

 

‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रहमाद्वयमस्म्यहम्।’’

अर्थात् ब्रह्मांड की सभी चीजें मुझ से ही उत्पन्न होती हैं, मुझ में ही जीवित रहती हैं, अंत में मुझ में ही मिल जाती हैं और मैं ही वह अद्वितीय ब्रह्म हॅूं।

स्पष्टीकरण :

(1) सर्वोच्च चेतना के अवतार चिदानन्दघनसत्ता शिव कहते हैं कि परमपुरुष का नाभिक ही इस ब्रह्मांड का नाभिक है। अतः सभी सत्ताएं उन्हीं के नाभिक से जन्म पाती हैं और अपने अपने संस्कारों के लय के अनुकूल उन्हीं के विराट ब्राह्मिक शरीर में युगों तक घूमते हुए अंत में उसी नाभिक के मूल बिंदु में मिल जाती हैं। अर्थात् पुरुषोत्तम ही सभी के परम श्रोत हैं। पर यह कहना पर्याप्त नहीं है कि सभी उस परम अस्तित्व के नाभिक से निकलते हैं, वास्तव में उनके इस विराट शरीर ब्रह्मांड में चारों ओर जिस ‘समय’ के साथ लयबद्ध ढंग से घूमते हैं वह ‘समय’ भी इसी नाभिक से उत्पन्न होता है। अर्थात् यह नाभिक न केवल सभी का उद्गम केन्द्र है वरन् सभी के प्रकाशित होने के लिए एकमात्र प्रेरक बल भी है। यह वैसा ही है जैसे कोई लड़का पतंग को उड़ाता है, पहले वह रील से धागे को ढीला छोड़ता जाता है और पतंग हवा में स्वच्छंद उड़ती जाती है। वह सोचती है कि अब मैं बिलकुल स्वतंत्र हॅूं , कहीं पर भी उड सकती हॅूं।़ परन्तु उसी समय वह लड़का धागे में एक झटका देता है और धागे को रील में लपेटने लगता है तथा पतंग उसी रील के पास वापस आ जाती है। इसीलिए शिव ने कहा है कि सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होते हैं मुझ में ही जीवित रहते हैं और अंत में वापस मुझमें ही समा जाते है। कुछ लोग इसे जानते हैं कुछ नहीं और कुछ लोग तो इसे जानना ही नहीं चाहते। सोचिए, जिनका निर्माण हुआ है वे उस निर्माण करने वाली सत्ता के बाहर कैसे रह सकते हैं? उनके बाहर तो ‘‘समय, स्थान या कोई अस्तित्व’’ है ही नहीं। इसलिए सभी अस्तित्व चाहे वे छोटे हों या बड़े उन्हीं एकमेव निर्माणकर्ता के विराट शरीर के भीतर चलते, खिसकते, दौड़ते और कूदते रहते हैं।

(2) जिसमें सरलता है, सत्य कहने की क्षमता है वह साहस के साथ अपनी छाती ठोक कर कहेगा- मैंने असीम पुरुष की विराट गोद में आश्रय पाया है अन्य कहीं भी मेरा आश्रय नहीं है। जो भीरु है, कापुरुष है, सत्य कहने में जिसकी जीभ जड़ता से स्थिर हो जाती है वह कहेगा - मैंने जिस आश्रय को पाया है और जिसकी स्नेहच्छाया में लालित, पालित और वर्धित हो रहा हॅूं उसे अस्वीकार कर रहा हॅूं। लेकिन शिव का कहना है कि मेरी स्नेहपूर्ण सन्तानें सदा ही मेरी गोद में थीं, हैं और रहेंगी। कोई कितना ही पापी हो, मूर्ख हो, हीनाचारी हो, अपनी संतान को मैं अपनी गोद से अलग कैसे कर सकता हॅूं, ‘‘मयि सर्वं लयं याति’’। शिव कहते हैं कि ‘‘जागतिक कर्तव्य के अन्त में जीव मुझ में ही लौट आता है, मुझ में मिलकर एक हो जाता है और उसके द्वित्वभाव की आनन्दमय परिसमाप्ति हो जाती है।’’ शिव का आगे और भी कहना है कि ‘यह जो जीव की सृष्टि है, उसका माधुर्यमय अस्तित्व है, कर्मतत्परता है और जो उसका आनन्दघन प्रशान्तिमय विश्राम है, यह सभी मुझे ही केन्द्र बनाए हुए हैं और मैं ही अद्वय ब्रह्म हॅूं।’

(3) अद्वय क्यों कहा गया है? इस ब्रह्मांड में परमपुरुष एकमात्र अकेली सत्ता हैं कोई दूसरा है ही नहीं। जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए परमपुरुष की कृपा से मुक्ति पा जाता है तो सभी प्रकार का द्वैत समाप्त हो जाता है। इस समय होता यह है कि उसका छुद्र ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और कुछ नहीं। छुद्र मैं के चारों ओर मंडराने वाली उसकी तुच्छता विराटता में रूपान्तरित हो जाती है। सभी का अपना अपना छुद्र ‘मैं’ है परन्तु  सभी के लिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है। ‘छुद्र मैं’ में द्वैत है पर ‘बड़े मैं’ में नहीं । इसलिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है अद्वय है। इसलिए मुक्ति की अवस्था में व्यक्ति का छोटा मैं परमपुरुष के ‘बड़े मैं’ में मिलकर एक ही हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे नदियॉं ऊॅंचे पहाड़ों , घाटियों, जंगलां, हरे भरे समतलों में से होते हुए अंत में महासागर में मिल जाती हैं। किसी की भी स्थायी मृत्यु नहीं होती। नदियों की लयवद्ध मधुरता महासागर की लहरों में अलौकिक रूप से स्पंदित होती रहती है। लोग इसे जानते हुए भी भूले रहना चाहते हैं। वे इसे भूले रहना चाहते हैं अतः विछोह के डर से सदा दुखित रहते हैं। यथार्थतः सभी सत्ताएं अनादि काल से अनन्त काल तक उस विराट् के वक्ष में परमशान्ति से चिरकाल के लिए समा जाती हैं, कोई भी विलुप्त नहीं होती न ही कभी नष्ट।


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