Sunday 10 April 2022

376 अनर्थ


योग में यम और नियम साधना करने का विशेष महत्व है। नियम साधना का एक खंड है‘‘स्वाध्याय’’। इसका अर्थ है किसी जटिल आध्यात्मिक तत्व के गूढ़ार्थ को समझकर अध्ययन करना और तदनुसार आचरण करना। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि शास्त्रों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को जिस संदर्भ में प्रयुक्त किया गया है उन्हें उसी के आधार पर उनकी व्युत्पत्ति के साथ समझना। यदि ऐसा न किया जाय तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है और समाज को अपूर्णीय क्षति का सामना करना पड़ता है। वर्तमान में शास्त्रज्ञों और व्याख्याकारों की भरमार देखी जाती है जो शास्त्रों को अत्मसात किये बिना ही धनोपार्जन के लिये मनमानी व्याख्या में लगे हुए हैं। शास्त्र निहित भाषा की दूरूहता को समझे बिना किस्से कहानियों की तरह सुनाकर दूर हो जाने से समाज विभ्रान्त होकर धर्मच्युत हो जाता है। इन तथाकथित विद्वानों की व्याख्याओं के कुछ उदाहरण देखिए जिनसे समाज पर कुप्रभाव पड़ा है-

1. ‘शाक्त’ संप्रदाय के उपासकों में ‘पंच मकार’ साधना में ‘मकार’ को सिद्ध करने के लिये शक्ति  रूपी ‘मॉं’ को संतुष्ट करने के नाम पर बलि देने का प्रावधान किया गया और प्रसाद के रूप में  ‘मांस’ भक्षण  प्रारंभ कर दिया गया। जबकि शब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर ‘मा’ का अर्थ होता है ‘जिव्हा’ अर्थात् जीभ, और मांस का अर्थ हुआ ‘जिव्हा का कार्य’ अर्थात् ‘वचन’। इसका गूढ़ार्थ हुआ ‘‘जो साधक वचन का रोज भक्षण करता है’’ अर्थात् ‘वाक् संयम’ का नियमित अभ्यास करता है वह है ‘मांस साधक’। परन्तु दुख है कि सतही ज्ञान के पोषक तथाकथित व्याख्याकारों ने अनर्थ कर निरीह प्राणियों की हत्या कराना प्रारंभ कर दिया।

2. शब्दों के प्रयोग करने के स्थान आदि के अनुसार शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं परन्तु सतही ज्ञान वाले पंडित स्वाध्याय के अभाव में इसका महत्व नहीं जानते और समाज को गलत दिशा देते पाए जाते हैं। जैसे, ‘‘शोण्डिकः सुरालयं गच्छति’’ में ‘सुरालय’ का स्वाभाविक अर्थ होगा सुरा की दूकान यानि ‘मदिरालय’ (अर्थात् शोण्डिक मदिरालय जाता है) परन्तु ‘नारदः सुरालयं गच्छति’ में यदि इस प्रकार का अर्थ लिया जाएगा तो अनर्थ होगा। यहॉं ‘सुरालय’ का अर्थ होगा ‘सुरों का आलय’ अर्थात् ‘सुर’ माने ‘देव’ इसलिये सुरों का आलय मतलब देवालय, (अर्थात् नारद देवालय जाते हैं) न कि मदिरालय यानि ‘सुरा का आलय’।

3. वैदिक काल में जब लिपि नहीं थी तब सभी तथ्य और मंत्र मौखिक ही गुणीजन अन्यों को समझाया करते थे। उस समय व्यवस्था बनायी गई थी कि पति के मरने पर पत्नी शवयात्रा में कुछ दूर तक आगे आगे जायेगी (विधवा अग्रे गमिष्यति) परन्तु लिपि के आने के बाद इसे लिखा गया (विधवा अग्ने गमिष्यति) और अमानवीय ‘सतीप्रथा’ का दंश यह मानव समाज झेलता रहा।

इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रों के नाम पर धर्मव्यवसायी तथा स्वार्थी तत्वों द्वारा युक्तहीन, तर्कहीन, अवैज्ञानिक  और अव्यावहारिक धारणाओं का प्रचार किया जा रहा है जिनका यथार्थ ज्ञानवेत्ताओं को खंडन करना चाहिए और ‘स्वाध्याय’ को सही अर्थ मैं आत्मसात करने का प्रोत्साहन करना चाहिए।