Saturday 27 October 2018

220 मित्र और शत्रु

220 मित्र और शत्रु
सामाजिक जीवन में हमें ‘मित्र’ और ‘शत्रु’ इन दो शब्दों से प्रायः सामना करना होता है। मित्र होने से लाभ और शत्रु होने से हानि का विचार अपने आप आ जाता है। यह भी देखा जाता है कि किसी समय के अभिन्न मित्र अचानक जानी दुश्मन हो जाते हैं। एक बार किसी से शत्रुता हो गई तो फिर जीवन में पहले जैसी मित्रता हो पाना असंभव ही होता है । कभी कभी छोटी छोटी सी बातों के कारण पीढ़ियों से स्थापित संबंध समाप्त होकर शत्रुता में बदल जाते हैं जिसके पीछे ‘ स्वार्थ ’ या ‘अहंकार’ एक कारण पाया जाता है। चाणक्य नीति में कहा गया है कि मित्र नहीं बनाना चाहिए परन्तु यदि बनाना ही पड़े तो कुमित्र को कभी भी मित्र नहीं बनाना चाहिए ( वरं न मित्रम् न कुमित्र मित्रम् ) । परन्तु शास्त्रों का मत इस विषय में कुछ दूसरा ही है, वे कहते हैं: न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु, वह तो अपना अपना व्यवहार ही होता है जो शत्रु या मित्र बनाता है। जैसे,
‘‘न कश्य कश्यचित मित्रम् न कश्य कश्यचित रिपुम् , व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा।’’
श्रीमद्भग्वदगीता में यही भावधारा कुछ इस प्रकार प्रस्स्तुत की गई हैः अपने आप का उत्थान करना चाहिए पतन नहीं क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र और अपना आप ही अपना शत्रु होता है।

‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम् वसादयेत्, आत्मैः आत्मनो बन्धु आत्मैव रिपुरात्मना।’’
इससे यही स्पष्ट होता है कि कुशलता पूर्वक अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना चाहिए कि आत्मोत्थान में किसी प्रकार की बाधा न आ सके । कुछ मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों ने बन्धु, सुहृद, मित्र और सखा की व्याख्या इस प्रकार की हैः
‘‘अत्यागसहनो बन्धुः सदैवानुमतः सुहृद, एकक्रियम् भवेन्मित्रं समप्राण सखा स्मृतः।’’
अर्थात् इस धरती पर जिसे छोड़कर जीवित नहीं रहा जा सकता अर्थात् प्रेमबन्धन इतना अधिक है कि तोड़ा नहीं जा सकता वह है बन्धु। जिनके बीच कभी भी कोई मतभेद न हो वह है सुहृद। जिनका काम धंधा एकसा हो वह कहलाता है मित्र, जैसे दो बकील, दो डाक्टर आदि। जहाॅं प्रेम इतना अधिक होता है कि सभी अनुभव करते हैं कि दोनों में एक ही प्राण हैं वे कहलाते हैं सखा। कृष्ण के सखा अर्जुन और अर्जुन के सखा कृष्ण थे।

Friday 19 October 2018

219 विजयोत्सव

 जय का अर्थ है भौतिक या मानसिक स्तर पर अस्थायी सफलता पाना।
 जैसे, (1) कुश्ती में, चुनाव में या किसी भी प्रतियोगिता में आपने अपने प्रतिद्वन्द्वी को पराजित कर दिया, यह हुई अस्थायी सफलता क्योंकि वह प्रतिद्वन्द्वी भविष्य में कुछ और अभ्यास कर स्वयं सफल हो सकता है और आप असफल।
अथवा, (2) मानसिक स्तर पर यदि आपने अभ्यास कर क्रोधवृत्ति पर नियंत्रण पा लिया परन्तु किसी अन्य परिस्थिति में वह क्रोध फिर से मन में आ सकता है; इसलिए जीवन में शत्रुओं अर्थात् विरोधी बलों पर इस प्रकार की अस्थायी सफलता को संस्कृत में ‘‘जय’’ कहा जाता है।

विजय का संस्कृत में अर्थ है विरोधी बलों अर्थात् शत्रुओं पर स्थायी सफलता पाना; शत्रु को पूर्णतः नष्ट कर देना ताकि वह फिर से आक्रमण न कर सके। परन्तु यह तो सर्वसाधारण की बात हुई। आध्यात्मिक साधना करने वालों का चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, सामूहिक जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या आध्यात्मिक जीवन सभी स्तरों पर उनका युद्ध तो विद्या और अविद्या के साथ होता है । उसे सामाजिक बुराइयों के साथ साथ अपने जन्मजात छः शत्रुाओं  (काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य और मोह) और आठ प्रकार के बंधनों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, कुल, यश, शील और दम्भ ) से भी संघर्ष कर उन्हें समूल नष्ट करना होता है। इसलिए जिस क्षण अविद्या की स्थायी पराजय हो जाती है तब साधक को ‘‘विजयी’’ कहा जाता है और वह अवस्था कहलाती है मोक्ष।

‘विजयादशमी’ का अर्थ है वह तिथि जब धर्म की अधर्म पर स्थायी जीत, ज्ञान की अज्ञान पर स्थायी जीत, सात्विक वृत्तियों की असात्विक वृत्तियों पर स्थायी जीत, नीति की अनीति पर स्थायी जीत अर्थात् ‘‘विजय’’ हुई है।

‘उत्सव’ का अर्थ है जीवन में नई चेतना की प्रेरणा देना। उत्+अल्+सव =उत्सव। उत्=ऊपर की ओर। सु= पुनः जन्म लेना। सु+अल्=सव अर्थात् नया जोश या स्फूर्ति भरना, इसीलिए आसव= नयी ऊर्जा देने वाला पदार्थ, प्रसव=जन्म देना। अतः स्पष्ट है कि उत्सव वह है जो जीवन में नया जोश भर कर उन्नत होने की प्रेरणा देता है। अतः विजयादशमी या दशहरा वास्तव में ‘विजयोत्सव’ है जो अधर्म पर धर्म की विजय का सूचक है, इससे स्फूर्ति पाकर हमें अज्ञान, असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष कर आत्मोन्नति करते हुए विजय प्राप्त करने का व्रत लेना चाहिए।

Tuesday 16 October 2018

218 बड़ों के मूल्य

218 बड़ों के मूल्य

यह एक तथ्य है कि हर दिन हम  बड़े होते  जाते हैं - हमारे भौतिक शरीर की  उम्र, शिकन,  भूरे बाल आदि बड़े होने की सूचना देते  हैं। यह एक सामान्य घटना है। फिर भी कोई भी "बूढ़ा होना पसंद नहीं करता।" साथ ही योग में  विभिन्न पद्धतियां हैं जो इस उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जूझकर  शरीर को युवा और जीवंत रखने के लिए प्रयुक्त की जा  सकती हैं।  इसके अलावा , अधिक उम्र अर्थात बुजुर्ग होना एक सम्मानित विशेषता है। और एक अन्य बिंदु यह है कि हमारा  अंतर्ज्ञान संकाय कालातीत रहता है ; पूरी तरह से काल अर्थात टाइम  से अप्रभावित।

भौतिकवाद और उम्र बढ़ना

विभिन्न देशों में बुजुर्ग या वरिष्ठ नागरिकों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन दुनिया भर में आम भावना यह है कि कोई भी "पुराने" के रूप में वर्णित होना पसंद नहीं करता है। यही कारण है कि यदि कोई , किसी व्यक्ति को "बूढ़ा" कहता है, तो वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है या अंदरूनी परेशानी  महसूस कर सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बड़े व्यक्ति के प्रति सम्मान करना चाहता है, तो एक बहुत ही विनम्र और सम्मानजनक तरीके से "वरिष्ठ  नागरिक"  इस तरह के शब्द का उपयोग करना होता है । सामान्य समाज के सदस्यों के साथ काम करते समय यह  विशेष रूप से आवश्यक होता है ।
उन जगहों पर जहां भौतिकवाद अधिक हावी है, बूढा होना,  बहुत तनाव और निराशा लाता है क्योंकि ऐसी जगहों में अक्सर, परिवार अपने वृद्ध सदस्यों को साथ में रखना पसंद नहीं करता है।  नतीजतन, उन बुजुर्ग व्यक्तियों के  जीवन का  अवमूल्यन हो जाता है। इसलिए, बुजुर्गों को "पुराना" कहा जाना पसंद नहीं है क्योंकि  यह "पुराना" बेकार समझा जाता  है। भौतिकवादी समाज में आम लोगों की यह दुखद और दोषपूर्ण मानसिकता है
इसके अलावा, भौतिकवादी देशों में जहां "सेक्स " प्रभावशाली होता है, बुढ़ापा  यौन अपील की हानि का प्रतीक है, जिससे उसका अस्तित्व  लगभग बेमानी हो जाता है। भौतिकवादी समुदायों में महिलायें  इस रोग से पीड़ित हैं। इसके  सीधे विपरीत, हमारी  आध्यात्मिक जीवन शैली में, परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। "एजिंग" सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता  है।  भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हुए, हम पाते हैं कि "वरिष्ठ नागरिकों" का बहुत सम्मान था - युवाओं की तुलना में कहीं ज्यादा। यह परंपरा एक तांत्रिक परंपरा है और विभिन्न महासम्भूतियों ने  भी इसी गुण का सम्मान किया है । यही कारण है कि हमारे भागवत जीवन  दर्शन के विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में चर्याचर्य  में उल्लिखित निर्देशों के अनुसार , वरिष्ठ व्यक्तियों को अधिक से अधिक सम्मान दिया जाता है ।


योगाचारी व्यक्तियों की उम्र आम लोगों से भिन्न होती है

"बाबा" के अनुसार, जब कोई भी साधना करता है और षोडश विधि  का अनुसरण करता है तो उसके गुण लगातार  बढ़ते जाते हैं। वे अधिक से अधिक मानवीय गुणों से पूर्ण  हो जाते हैं। यह अद्वितीय समीकरण है, क्योंकि ब्रह्मांडीय विचारधारा की मदद से, मन की परिधि बढ़ती है- उन्हें अधिक समझदार और गतिशील बनाती  है। इस तरह से, वरिष्ठ नागरिक स्वार्थ से  अपनी इकाई "मैं " में  ही सीमित नहीं रहते । यही कारण है कि अधिकांश मामलों में, अपने बुढ़ापे में अच्छे साधक समाज की सेवा के लिए अधिक से अधिक समय समर्पित करते हैं। लेकिन जब लोग  भौतिकवाद  की मानसिकता  से भर जाते हैं , तो बुढ़ापे का मतलब है दूसरों के लिए 'सिरदर्द' होना। यही कारण है कि यूरोपीय और कई पश्चिमी देशों में, बड़े होकर बच्चे अक्सर अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते । क्योंकि, जब प्रारम्भ से ही वे  वरिष्ठ नागरिकों को  सिर्फ अपनी ही स्वार्थी गतिविधियों में शामिल होते देखते रहे होते हैं तब निश्चित रूप से वे उनके बुढ़ापे में  उनके  कल्याण के बारे में सोचना नहीं चाहते। उनके मन और मस्तिष्क  भौतिकवाद के आत्म-केंद्रित दर्शन में  डूब चुके होते हैं। हालांकि, ऐसे कई अन्य देशों में जो इतने भौतिकवादी नहीं हैं, यह स्थिति नहीं है। उन समुदाय उन्मुख समाजों में वृद्ध लोग अन्य  सभी के  विकास का ध्यान  रखते हैं अतः  उस समाज में हर कोई वृद्ध सदस्यों का सम्मान करता है।
और, एक साधक का जीवन तो और भी अधिक उन्नत होता  है क्योंकि कई  वर्षों से मन को आध्यात्मिक तरीके से प्रशिक्षण देने के बाद, उनके उन्नत वर्षों में वह  पूरी तरह से परमपुरुष  के विचारों और अपने बच्चों के  कल्याण करने में लीन हो जाता है।  इस वातावरण में रहने वाले  पुराने साधक निस्स्वार्थ  होते हैं  सभी के प्रति उदार होते हैं। स्वाभाविक रूप से  हर कोई  उनकी  कंपनी में रहना पसंद करता है।

उम्र बढ़ने की प्रक्रिया की रोक : आसन और नृत्य

मानव अस्तित्व के तीन पहलू हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 39 सालों के बाद, भौतिक शरीर धीरे धीरे बुढ़ापे  की ओर बढ़ने लगता  है। लेकिन आसन, कौशिकी , और तांडव नृत्य  करके यह अधिकांशतः   नियंत्रित या कम किया जा  सकता है।जो लोग अपने आसन, कौशिकी और तांडव  का अभ्यास अनेक वर्षों से करते  रहे हैं, वे उसे  अपने आगे के वर्षों में भी जारी रख सकते हैं। यह उनके शरीर को सुचारू, लचीला और ऊर्जावान रखता है।  साधक  अपनी  वास्तविक उम्र से अपने को ज्यादा युवा अनुभव करते  हैं। पर  उन लोगों के लिए ऐसा नहीं होता है, जिन्होंने इस तरह के योग अभ्यास कभी नहीं किया होता है । उनके शरीर अधिक  कठोर हो जाते हैं और यहां तक कि अगर उनकी  ऐसा करने  की इच्छा भी होती है तो वे 65 या 75 वर्ष की उम्र में तांडव शुरू नहीं कर सकते हैं - निश्चित रूप से 95 साल में तो और भी नहीं, क्योंकि उनके शरीर इस क्षेत्र में  अभ्यस्त नहीं होते हैं । जबकि साधक तो 100  की उम्र में भी कौशिकी और  तांडव कर सकते हैं और अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

मस्तिष्क पुराना हो जाता है - अंतर्ज्ञान कालातीत होता है

बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी जो  कि हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे  एक दिन खो देते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह कई गैर साधकों  के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, भक्तों के मामले में, यह नहीं है। इसलिए  "आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज की  बेहतर से  बेहतर सेवा करने में सक्षम हो सकेंगे । " इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं - और यह कभी भी क्षय नहीं होता। क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचार है और जब मन को सुदृढ़ किया जाता है , उस सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  "पुराना हो रहा है" इसका प्रश्न ही नहीं उठता । मन अपना विस्तार करना  जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  हो जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं।  क्योंकि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जायेगा, जब तक कि आखिरकार उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना न हो जाय । जबकि जो लोग अपने दिल में भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।
अतः  अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता । उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक  सरल होगी । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।

Wednesday 10 October 2018

217 सतयुग

217 सतयुग

पौराणिक कथाओं में समय का बड़ा मापक  ‘‘युग’’ के नाम से कहा  गया है। जिस समय में किसी महापुरुष ने अपने ज्ञान और पराक्रम से समाज को कुछ नया दिया वह काल उसी के नाम पर याद रखा जाने लगा। अनेक कथाओं में समय के प्रभाव से होने वाली अच्छी या बुरी घटनाओं को ध्यान में रखकर प्रायः चार कालों का नाम दिया जाता है; सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग।  वेदों के अन्तिम भाग उपनिषदों में इस काल विशेष को समझाने के लिए  ऋषियोें ने एक दृष्टान्त की सहायता से इस प्रकार स्पष्ट किया है।
"रोहित के पिता पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु वे पढ़ने का महत्व जानते थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे रोहित को उच्च ज्ञान पाने के लिए प्रतिष्ठित गुरुकुल में भेज दिया। समयानुसार ‘बालक रोहित’ वेदान्त की विशेषज्ञता प्राप्त कर डिग्रीधारी ‘नवयुवक रोहित’ के रूप में अपने घर वापस आया। रोहित के पिता अपने पुत्र के उच्च ज्ञान की डिग्री लेकर आने से प्रसन्न थे कि अब उनके परिवार का नाम भी ज्ञानी लोगों के साथ लिया जाएगा और रोहित कुछ अच्छा काम करेगा। समय बीतने लगा, रोहित कुछ काम न करता। काम के संबंध में पूछे जाने पर यही कहता कि सब कुछ भगवान की इच्छा से ही होता है, यह सभी प्रपंच उन्हीं का रचा हुआ है, वही सब कुछ करते हैं, हमें कुछ करने की आवश्यकता ही क्या है, एकमात्र उन्हीं का चिन्तन और आराधन करना चाहिए, मैं वही करता हॅूं।
समय यों ही बीतता जाता और रोहित के पिता की चिन्ता बढ़ती जाती। अन्ततः एक दिन वे बोले, देखो रोहित ! मैंने तुम्हारे जैसे वेदान्त को तो पढ़ा लिखा नहीं है, पर इतना जानता हॅूं कि मनुष्य को सक्रिय रहना चाहिए निष्क्रिय नहीं;
‘‘कलौ शयानो भवति, संदिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठति त्रेता भवति, कृतौ सम्पाद्यते चरण।’’
अर्थात् , जो सोया है समझ लो वह ‘कलियुग’ में है, जो जाग गया वह ‘द्वापरयुग’  में आ गया, जो उठकर खड़ा हो गया वह ‘त्रेतायुग’ में पहुँच  गया और जिसने चलना प्रारंभ कर दिया वह समझो ‘सतयुग’ में है। इसलिए मैं कहता हॅूं , गतिशील बनो, स्थिरता हानिकारक है। चरैवेति, चरैवेति। चलते रहो , चलते रहो, रुको नहीं।"
कठिन तत्वज्ञान की विषयवस्तु को वेदों में इसी प्रकार के दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है। परन्तु दुख यह है कि सभी लोग कहानियाॅ तो कहते सुनते पाए जाते हैं परन्तु उनके पीछे दी गई शिक्षा पर चिन्तन नहीं करते।   

Sunday 7 October 2018

216 भक्ति की पराकाष्ठा ‘‘राधा’’

216 भक्ति की पराकाष्ठा ‘‘राधा’’
 श्रीमद्भगवद्गीता  में सकाम और निष्काम भक्तों के बारे में बताया गया है कि जो ईश्वर को किसी कामना (अर्थात् धन, यश, पद और भौतिक सुविधाओं को पाने) के लिए ही पूजते हैं वे ‘सकाम’ परन्तु जो केवल प्रभु को आनन्द देना चाहते हैं बदले में कुछ नहीं चाहते वे ‘निष्काम’ भक्त कहलाते हैं और निष्काम भक्त ही भगवान को प्रिय होते हैं। कहा गया है ‘‘भक्तिः भक्तस्य जीवनम्’’ अर्थात् भक्त का पूरा जीवन भक्तिमय होता है। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्ट’ को पहचान लेता है तब वह उससे प्रेम करने लगता है। यही प्रेम फिर, उसके ही अध्ययन, चिन्तन, मनन, ध्यान और निदिध्यासन में लगाए रखता है इसीलिए कहा गया है कि ‘भक्तिः प्रेम स्वरूपिणी’। भक्ति का असली स्वरूप यही है न कि चन्दन, माला और गेरुए वस्त्र पहिनकर बाहरी दिखावा करना।

अपने इष्ट का नियमित अविभक्त मन से चिन्तन करने वाला प्रगति करते हुए जब पराकाष्ठा पर पहॅुंच जाता है तब वह ‘‘राधा’’ भाव में प्रतिष्ठित हुआ कहा जाता है। इस अवस्था में वह सभी जड़ और चेतन में अपने इष्ट को ही देखता है और अपने इष्ट के लिए वह स्वयं किसी भी कष्ट को उठाने के लिए तत्पर रहता है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने ‘राधा भाव’ को अनुभव करने वालों को भी दो भागों में बाॅंटा है एक है ‘रागानुगा भक्ति’ करने वाले और दूसरे हैं ‘रागात्मिका भक्ति’ करने वाले । रागानुगा भक्तों का मानना है कि भगवान का भजन, पूजा अर्चना वे इसलिए करते हैं कि भगवान को प्रसन्नता हो, चूॅकि भगवान उनके इस कार्य से प्रसन्न होंगे इसलिए उन्हें भी प्रसन्नता मिलेगी। अर्थात् वे भगवान से प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु रागात्मिका भक्त कहते हैं कि वे सब कुछ केवल भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही करते हैं भले ही स्वयं को अपार कष्ट उठाना पड़े। अर्थात् वे हर हालत में भगवान को प्रसन्न ही देखना चाहते हैं उनका दुख उन्हें सहन नहीं होता।

भारतीय दर्शन में ब्रह्मा को सृष्टि का उत्पन्नकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और सर्वसुखदाता तथा महेश को अपने में लयकर्ता माना गया है और यह एक ही परमसत्ता को उनके कार्य क्षे़त्र के अनुसार दिये गए नाम हैं। प्रत्येक अणु की सुधि रखने वाले सर्वव्याप्त विष्णु को प्रसन्न करने से मिले सुख में ही आनन्दित रहने वाले रागानुगा भक्त उच्च स्तर पर पहुॅंचकर कहते हैं कि ‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता, यदि मैं शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन चखेगा?’ अर्थात् वे अपने मूल उद्गम  में वापस जाना ही नहीं चाहते । वे सदैव द्वैत बनाए रखना चाहते हैं; एक भगवान और दूसरा भक्त।
रागात्मिका भक्त के उदाहरण, महाभारत के इन दो सर्वविदित दृष्टान्तों से समझाये जा सकते हैं ।
(1) एक बार भगवान कृष्ण के सिर में अचानक बहुत दर्द होने लगा, अनेक उपलब्ध उपचार किए गये ,सब जगह के विशेषज्ञ राजवैद्य भी थक गए तब भक्त नारद ने उन्हीं से पूछ लिया कि वे ही इसका उपचार बताएं। भगवान बोले, कोई भक्त अपने पैरों की धूल मेरे माथे पर लगा दे तो तत्काल यह सिरदर्द देर हो जाएगा। भक्तराज नारद अचरज में पड़ गए, जहाॅं जहाॅं बड़े बड़े भक्त थे उन सबने यह कहकर मना कर दिया कि भगवान के सिर पर अपने पैरों की धूल रखकर वे रौरव नरक में नहीं जाना चाहते। अन्त में बृजगोपियों को जब पता चला तो वे व्यथित हुई कि उनके प्रभु कष्ट में हैं और नारद जी को सबने अपने अपने पैरों की धूल, पोटली में बाॅंध कर दे दी। नारद जी ने जब यह कहा कि अपने पैर की धूल भगवान के माथे पर लगाने से तुम लोग रौरव नर्क में जाओगी, तब वे बोलीं हम सौ बार रौरव नर्क में जाने को तैयार हैं यदि हमारे पैर की धूल से हमारे प्रभु का कष्ट दूर हो जाए।
(2) महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद, एकबार कृष्ण और अर्जुन सामान्य नागरिक जैसी वेशभूषा में नगर से दूर एकान्त में चले जा रहे थे तभी खेतों में एक सज्जन लॅंगोटी लगाए, कमर में तलवार लटकाए और पीठ पर बाॅंस की टोकनी बाॅंधे खेतों की फसल कटने के बाद गिरी हुई गेहूॅं की बालों को ढूॅूड़ रहे थे । अर्जुन से न रहा गया अतः उनसे पूछा, महोदय ! अन्न के थोड़े से दानों के लिए खेतों में घूमना, यह कृश काया, और फिर भी कमर में यह तलवार किसलिए? वे बोले, महोदय ! इस तलवार से मुझे तीन लोगों को मारना है, एक सुदामा, दूसरी द्रौपदी और तीसरा अर्जुन । अर्जुन ने कहा, लेकिन जहाॅं तक मुझे जानकारी है ये तीनों तो भगवान के अच्छे भक्त हैं,  इन्हें क्यों मारना चाहते हो ? इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? वे बोले, क्या कहा अच्छे भक्त ! !  इन तीनों ने मेरे भगवान को बड़ा कष्ट पहुॅंचाया है, सुदामा ने अपने पैर धुलवाने मेरे प्रभु को नंगे पैर प्रवेश द्वार तक दौड़ाया; द्रोपदी ने तो हद ही कर दी, मेरे प्रभु भोजन करने के लिए पहला कौर भी मुॅंह तक न ले जा पाए कि उसने रो रो कर अपनी मदद के लिए पुकार लिया; और, अर्जुन ने मेरे प्रभु से रथ चलवाया, घोड़ों की लगाम थामे उनके हाथों में फफोले पड़ गए , ओह! मैं इसीलिए इन्हें लगातार ढूॅंड़ रहा हॅूं ।
इन दृष्टान्तों में जिस तथ्य को समझाने का प्रयास किया गया है वह है ‘एकीकृत भाव की प्रखरता’, जिसे दार्शनिकगण ‘‘राधा भाव’’ कहते हैं। पौराणिक कथाओं में इसी तथ्य को सुन्दर महिला आकृति में ‘राधा’ नाम देकर श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । राधा का प्रेम रागात्मिका भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें वह स्वयं आजीवन कष्ट उठाती है परन्तु अपने सुख के लिए अपने आराध्य कृष्ण को उनके समाजोत्थान और धर्म संस्थापन के लक्ष्य से हटने नहीं देती। इसलिए कहानियों के शब्दों और भाषा पर न जाकर कथ्य के भीतर छिपे रहस्य को जानने का प्रयास करने से ही आध्यात्म का रसपान किया जा सकता है । अपने इष्ट से निर्पेक्ष प्रेम और बिना शर्त पूर्ण समर्पण ही अभीष्ट की प्राप्ति कराता है; यही सभी प्रकार की आराधना का फल है। ध्यान रहे राधा का अस्तित्व कोई महिला का रूप नहीं, वह है भक्त का सर्वोच्च भक्ति भाव जिसकी आराधना करना सार्थक है । इसलिए राधा भाव से की गई आराधना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।

Tuesday 2 October 2018

215 ‘नामी’ और ‘नाम’

215 ‘नामी’ और  ‘नाम’

दृष्टान्त -1 एक सज्जन ने तोता पालकर उसे ‘राम राम’ कहना सिखा दिया। वह सभी आगन्तुकों से राम राम कहता। सभी लोग यह सुनकर तोते की तारीफ करते और उन सज्जन की भी। एक दिन मौका पाकर बिल्ली, तोते के पिंजरे पर झपटी। तोता, राम राम कहना भूल टें टें टें करने लगा।

दृष्टान्त -2 श्रीराम ने जब सुना कि हनुमान पत्थरों पर ‘राम’, ‘राम’ लिखकर पानी में डालते हैं तो वे तैरने लगते हैं डूबते नहीं हैं, अतः इनसे पुल बनाकर वानर सेना को समुद्र पार कराने की योजना है। तब श्रीराम ने सोचा, यदि ऐसा ही है तो मैं क्यों न पत्थर छूकर पानी में तैरा दॅू जिससे समय बचेगा और पुल जल्दी तैयार हो जाएगा। ज्योंही राम ने पत्थर उठा कर पानी में डाले वे डूबते गए, नहीं तैरे।

पहले दृष्टान्त में तोता, राम राम कहना सीख तो गया पर उसका वास्तव में अर्थ क्या है और उसका कितना महत्व है यह नहीं जान पाया। इसलिए जब अपने शत्रु को सामने देखा तो डर गया और सबकुछ भूलकर अपनी भाषा में चिल्लाने लगा। दूसरे दृष्टान्त में हनुमान ने अपने बीजमंत्र ‘राम’ के महत्व को आत्मसात कर पत्थर तैराया जिससे पत्थर तैरता रहा, परन्तु स्वयं राम ने उसे केवल अपना नाम होने के कारण साधारण माना जिससे पत्थर डूब गया।
इन उदाहरणों में क्रमशः ‘बीजमंत्र’ का और ‘नामी’ से भी ‘नाम’ का अधिक महत्व होना दर्शाया गया है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार ‘बीजमंत्र अथवा इष्टमंत्र’ का महत्व बताने के लिए एक और दृष्टान्त प्रचलित है।
नारदजी ने हनुमानजी से कहा, ‘‘मित्र ! श्रीनाथ अर्थात् नारायण और जानकीनाथ अर्थात् राम, दोनों एक ही सत्ता का नाम है कि नहीं ?’’ हनुमानजी बोले , ‘‘ इसमें क्या सन्देह, दोनों एक ही हैं।’’
‘‘तो फिर आप हमेशा राम राम राम ही कहते रहते हो, नारायण का नाम आपके मुॅंह से कभी नहीं सुना?’’ नारद जी ने पूछा।
हनुमानजी बोले, ‘‘ ठीक है भैया, पर मेेरे लिए तो कमललोचन श्रीराम ही सब कुछ हैं, मैं किसी नारायण को नहीं जानता।’’

‘‘राम’’ अन्य शब्दों जैसा साधारण शब्द है, परन्तु जब वह शक्ति सम्पन्न कर दिया जाता है तो मन्त्र बन जाता है। और जब, जिस किसी व्यक्ति को ‘‘कौल गुरु’’ के द्वारा बीजमंत्र के रूप में इसे दिया जाता है तो उसे यही सब कुछ हो जाता है। बीजमंत्र प्राप्त व्यक्ति के लिए उसके बीजमंत्र के अलावा अन्य सभी मंत्र केवल शब्द मात्र ही होते हैं। बीजमंत्र का अर्थ समझते हुए उसकी आवृत्तियों के साथ अपनी आस्तित्विक आवृत्ति का अनुनाद कर लेने वाला व्यक्ति उसी के सहारे अपने छोटे बड़े,  सरल कठिन, संभव असंभव सभी कार्य सहज ही कर डालता है।

जब, न तो मंत्र का सही सही अर्थ समझा और न ही उसकी आवृत्तियों से अपने मन को अनुनादित करने की विधि का पालन किया परन्तु , दूसरों से देख सुनकर जो लोग तोते की तरह रटन्त विद्या का अनुसरण करने लगते हैं वे सदा भयग्रस्त ही रहते हैं; कभी अपने लक्ष्य को भी नहीं पाते। परन्तु हनुमान की तरह जिन्होंने अपने बीजमंत्र का रसास्वादन करते हुए उसे अपनी मूल आवृत्ति के साथ अनुनादित कर लिया होता है उसे किसी से कोई भय नहीं होता और उनका लक्ष्य भी उनकी मुट्ठी में ही होता है।
यहाॅं स्मरणीय है कि पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्रीराम और रावण दोनों का बीजमंत्र ‘‘शिव’’ तथा भगवान शिव और हनुमान का बीजमंत्र ‘‘राम’’ था। इस पर गम्भीरता से चिन्तन कीजिए।