Monday 24 February 2020

299 घातक मानसिक बीमारी

299
घातक मानसिक बीमारी
दूसरों को शोषित कर स्वयं को धनी बनाने की इच्छा एक प्रकार की मानसिक बीमारी है। यथार्थ यह है कि यदि मानव मन अपनी ‘अनन्त’ लालसा को उचित मानसिक नेतृत्व और आध्यात्मिक संतुष्ठी प्राप्त न करा सके तो वह दूसरों के अधिकार को छीनकर भौतिक सम्पदा को संग्रह करने में जुट जाता है। जब किसी संयुक्त परिवार का सदस्य बल या बुद्धि का प्रयोग कर घर के किचिन से खाद्य सामग्री छीन लेता है तो वह अन्य सदस्यों को भूखा रखने का कारण बनता है। इसी प्रकार जब पूंजीपति कहते हैं कि हमने अपनी बुद्धि और पराक्रम से धनार्जन किया है; यदि अन्य लोग भी अपनी क्षमता और पराक्रम का उपयोग कर धनार्जन कर संग्रह करते हैं तो वे करें, उन्हें कौन रोकता है? तब वे यह अनुभव नहीं करते कि धरती पर आवश्यक वस्तुओं और संसाधनों का भंडार सीमित ही है जबकि आवश्यकताएं सबकी समान हैं। अत्यधिक व्यक्तिगत सम्पन्नता, अधिकांश मामलों में दूसरों को उनके जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से वंचित करती है। भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा और सुरक्षा ये सामान्य जीवन की मौलिक आवश्यकताएं हैं। जैसे जैसे चेतना की सक्रियता बढ़ती जाती है इन मौलिक आवश्यकताओं के प्रति जागरूकता भी बढ़ती जाती है। इस वैज्ञानिक युग में अब लोग इन सब के प्रति जागरूक हो चुके हैं अतः अब वे ही राजनैतिक पार्टियाॅं शासन करने में सफल हो सकेंगी जो भृष्ट आचरण को छोड़कर जन सामान्य की इन मौतिक आवश्यकताओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने का व्रत लेने का साहस कर सकेंगी।

Friday 21 February 2020

298 व्यथा


आँखों में भय लिये
आज्ञाकारिता तय किये,
क्षुधोदर की भूले
बड़ी देर के बाद बैठ पाया था।

कंपायमान हाथों से
चलायमान श्वासों  से ,
भूंजे हुए महुओं की छोटी सी
पोटली, बस खोल ही पाया था।

जीवन समर्पित कर
मालिक को अपना कर,
स्मृत अहसानों ने
छोटा सा उलहना दे पाया था।

ज्वाॅर की वह बासी रोटी
गिजगिजी और मोटी,
महुओं सहित इस अनोखे भोजन को
कर ही न पाया था।

मालिक ने पुकारा... कड़ोरे?
बैठा है? ला जल्दी बोरे,
अकुला के झटपट उठबैठा वह
मुॅंह का बस मुॅंह में रह पाया था।

यह "जीवन व्यथा" है
या करुण कथा है?
कर्मफल बताकर इसे
दुनिया ने भाग्य भी बताया था।

डाॅ टी आर शुक्ल, सागर ।
24 जुलाई 1974

Monday 17 February 2020

297 बहुत कठिन है डगर .. ..



बहुत कठिन है डगर .. ..

 दादी माॅं को मृत्युशैया पर देख परिवार के सभी सदस्य उनके चारों ओर एकत्रित हो गए। और वे, उन सबसे यह पूछने में व्यस्त थी कि ‘‘आज क्या पकाया गया है? घर के सभी कमरों को ठीक ढंग से धोया गया है कि नहीं? सभी ने स्नान कर लिया या नहीं ?‘‘  
  सदस्यों ने निवेदन किया कि, ‘‘ माॅं काम की चिन्ता मत करो, सब होता जा रहा है, तुम तो हरि हरि बोलो‘‘ ।
उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया और बोलीं, ‘‘ अरे ! गायों को चारा डाला है या नहीं ?‘‘ 
 धार्मिक मान्यता के अनुसार सभी सदस्य चाहते थे कि उनकी मुक्ति हो, इसलिए वे उन्हें बार बार हरि हरि बोलने के लिए समझा रहे थे, 
‘‘ माॅं ! घर के सभी कामकाज सही समय पर उचित ढंग से किये जा रहे हैं तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम तो केवल हरि हरि बोलो ।‘‘ 
दादी ने इसे फिर से अनसुना कर दिया और पूछने लगी, ‘‘ अरे ! कुत्ते को कुछ खिलाया या भूखा ही बैठा है ?‘‘ 
सदस्यों ने उनसे हरि हरि बोलने के लिए फिर से प्रार्थना की। इस बार वह झल्लाते हुए बोली, 
‘‘  सब लोग यहाॅं से बाहर जाओ ! क्या मैं मर रही हॅूं ? एक ही नाम की बार बार रट लगाए हो ? ए छोटी बहु !आँगन  में जाकर देख कपड़े सूख गए होंगे, उठा ला।  ‘‘  
बाहर आकर उनके छोटे बेटे ने अपने बड़े भाई से पूछा, 
‘‘भैया ! माॅं को यह क्या हो गया है ? हरि हरि बोलने में उन्हें कठिनाई क्यों हो रही है ?‘‘ वह बोले,
‘‘ परिवार पर हमेशा अपना वर्चस्व बनाते बनाते उनके विचार घर गृहस्थी तक ही सीमित हो गए हैं इसके आगे भी कुछ होता है, वे नहीं जानती।‘‘

Thursday 13 February 2020

296 स्वरस, पररस, परमरस और विषयरस


प्रत्येक इकाई जीव का अपना अपना मानसिक प्रवाह होता है जिसे ‘स्वरस‘ कहते हैं। जब साधना के अभ्यास और परम पुरुष की कृपा से उसका मानसिक प्रवाह अर्थात् स्वरस परमपुरुष के मानसिक प्रवाह अर्थात् ‘परमरस‘ से  एकत्व स्थापित कर लेता है तो वह दिव्य हो जाता है। उस अनन्त सत्ता का अंतहीन लयबद्ध स्पंदन परमरस कहलाता है और किसी इकाई सत्ता का मानसिक स्पंदन स्वरस कहलाता है। साधना करने का महत्व यही है कि व्यक्तिगत स्वरस को परमरस के साथ मिला दिया जाये।
ब्रह्म का स्वरस अन्य संरचनाओं के लिये पररस है,  और अन्य संरचनाओं का स्वरस उन्हें अविद्या के चंगुल में पकड़ता है। मनुष्य जितना ही अधिक ब्रह्म के साक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है वह उतना ही अधिक ब्रह्म के प्रवाह को अनुभव करने लगता है। ब्राह्मिक भाव की ओर जितना आगे बढ़ते हैं उतना ही उनके अस्तित्व में निखार आने लगता है और अंधेरापन दूर जाने लगता है। इसलिये अविद्या के प्रभाव को हटाने के लिये ब्रह्म की शरण  में जाना होगा। ब्रह्म की ओर मन को ले जाये विना केवल माला के मणिकों को गिनना और कर्मकांडीय क्रियाओं का करना किसी काम का नहीं हैै। बाहर से अच्छे बनने का दिखावा करना और भीतर ही भीतर पापकर्म में लिप्त रहना आडम्बर कहलाता है जिसका कोई मूल्य नहीं है।
परमपुरुष के जिस मानसिक उपादान से यह विश्व  बना है वह आनन्ददायी है और परमरस कहलाता है। इकाई मन अपने मानसिक उपादान से सब कुछ करता है और कभी कभी मन में ही धन का निर्माण कर अपने बेंकबेलेंस को याद कर आनन्दित होता है। कभी कभी वह प्रधानमंत्री हो जाता है और आनन्दित होता है कभी मन में ही सभी शत्रुओं का नाश  करता हुआ और अधिक आनन्द पाता है । यह सब मन की भूख को तृप्त करने के लिये किया जाता है और अंततः व्यक्तिविशेष के मन के अवयव साॅंसारिक वस्तुओं में परिवर्तित हो जाते हैं। ये सब वैषयिक होते हैं और मन को खुश  करने के लिये ही होते हैं। जीवों के मन के अवयवों से निकलने वाला प्रवाह विषयरस कहलाता है और परम मन से निकलने वाला रस परमरस कहलाता है। इकाई मन केवल एक बार भी परम मन के संपर्क में आजाता है तो फिर भौतिक वस्तुओं का आनन्द या विषयरस व्यर्थ लगने लगता है। जैसे नमक विहीन साग खाने पर स्वादहीन लगती है वैसें ही विषयरस निःस्वाद लगने लगते हैं। परंतु भौतिक अस्तित्व के लिये पदार्थों की आवश्यकता  होती है इसलिये बुद्धिमान लोग विषयरस का प्रवाह परमरस के समानान्तर ही बनाये रखते हैं। विषय रस की तरंगों को वे परमरस में बदल देते हैं सुरक्षित रास्ता यही है।
इकाई मन को अपना वहिःष्वास परमपुरुष के साथ मिलाकर रखना चाहिये जिससे परमपुरुष की तरंगों के साथ उसकी स्वतरंगों में समानान्तरता बनी रहे। इस प्रकार केवल एक ही सतत प्रवाह अर्थात् ब्राह्मिक प्रवाह बना रहता है जो इकाई मन को मुक्तिदाता बन जाता है। परम मन के भीतर केवल उन्हीं का स्वरस रहता है और अन्य किसी का नहीं अतः अपने आप में किसी भी परिवर्तन करने की आवश्यकता  नहीं रहती। परंतु इकाई मन को परम मन में मिलने के लिये अपने आप मे परिवर्तन करना होता है। इकाई मन के तमो और रजो गुण से निकलने वाला प्रवाह परम मन के सतोगुण से मिलकर रूपान्तरित होे जाता है।
इकाई मन और परम मन के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि इकाई मन की कल्पनायें किन्हीं विशेष अवसरों पर ही वाह्य क्रिया का रूप ले पाती हैं जबकि वह केन्द्रीकृत होता है । परम मन के लिये कुछ भी वाह्य नहीं है पूरा ब्रह्माॅंड  उसके भीतर ही है अतः उसकी विचार तरंगे हमें बाह्य प्रतीत होती हैं। जिस प्रकार परम मन से निकली तरंगे  उनका प्रवाह या स्वरस हैं उसी प्रकार इकाई मन से निकलने वाली वाह्य तरंगे  इकाई मन का प्रवाह या स्वरस कहलाती हैं। वे जो अपने को उस परम प्रवाह के साथ जोड़़ लेते हैं उनका अस्तित्व नया अर्थ पा लेता है। वह अनन्त प्रवाह चाहता है कि सभी इकाई मनों का प्रवाह उसी के समानान्तर प्रवाहित हो अतः साधना का वास्तविक महत्व, व्यक्तिगत प्रवाह को उस परमप्रवाह के साथ मिला लेने में ही निहित होता  है। पूर्व में ब्रह्म के स्वरस का प्रवाह चैतन्य महाप्रभु ने अनुभव कराया था जिससे लोग उनके पीछे पीछे हंसते नाचते  रोते गाते दौड़ते थे इसी से पूर्व कृष्ण ने अपनी बॅांसुरी से ब्रह्मरस का प्रवाह ब्रन्दावन की गोपियों को कराया था जो अपनी सुधबुध खोये , अपने घर की संस्कृति को भुला कर नाचते गाते उनकी ओर दौड़ती थी।  आनन्दमार्ग(विद्यातन्त्र ) साधना में यह ब्राह्मिक प्रवाह साधना के विभिन्न पाठों में भर दिया गया है अतः जो भी इन्हें नियमपूर्वक करते हैं या भविष्य में करेंगे वे अवश्य  ही आनन्द से नाचेंगे गायेंगे रोयें गे और उस आनन्ददायी परम क्षण की अनुभूति करेंगे। तन्त्र विज्ञान में साधना का एक प्रकार है रससाधना। इस साधना का उद्देश्य  होता है कि स्वरस को परमरस में मिला देना। रासलीला की संकल्पना भी  यही है कि पुरुषोत्तम को बीच में रखकर चारों ओर से असंख्य भक्त उन्हें घेरे हुए हैं और प्रत्येक भक्त उनमें मिलकर एक हो जाने का प्रयत्न करता है।

Thursday 6 February 2020

295 परमपुरुष की विशेषता

 परमपुरुष की विशेषता

परमात्मा को किसी वस्तु की आवश्यकता  नहीं है क्योंकि यह ब्रह्माॅंड उन्होंने ही बनाया है। परमा प्रकृति को उनका थोड़ा सा भी संकेत मिलते ही वह उसे मूर्तरूप दे देती है।  इसलिये जो लोग उनकी प्रशंसा  करते हैं या उन्हें प्रसन्न करने के लिये भौतिक जगत की वस्तुयें भेंट करते हैं वह उनके किसी काम नहीं आता। परमपुरुष सदा नित्यानन्द अवस्था में रहते हैं और परमाप्रकृति उनकी सेवा में तत्पर रहती है। उनके भंडार में कभी भी किसी वस्तु की कमी नहीं रह सकती समग्र ब्रह्माॅंड ही उनकी विचार तरंगों का व्यक्त रूप है अतः सब कुछ उनके मन में ही रहता है।
कुछ लोग पूछ सकते हैं कि यदि उन्हें किसी प्रकार की प्रशंसा  या वस्तु की आवश्यकता  नहीं है तो वे अपना नाम क्यों जाप कराना चाहते हैं, अपना ध्यान क्यों कराना चाहते हैं ?
इसका उत्तर यह है -
नहीं, वह अपनी प्रशंसा  के भूखे नहीं हैं, पर उनकी यह इच्छा अवश्य  रहती है कि हम सब उनकी संताने  आध्यात्म की ओर लगातार बढ़ते जायें, वे सभी  बंधनों से मुक्त हो, और इसका सरल तरीका यही है कि उनका नाम स्मरण किया जाये।
इसके पीछे जो विज्ञान कार्य करती है वह है ‘‘यादृशी  भावना यस्य, सिर्द्धिभवति तादृशी ‘‘ अर्थात् जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इसलिये अध्यात्मिक उन्नति के लिये ही उन्हें और उनकी महानता का स्मरण करने के लिये नाम कीर्तन करना आवश्यक  हो जाता है। परमपुरुष का लक्षण यह है कि वह विराट हैं, ब्रह्म हैं और जो उनका ध्यान चिंतन करता है वह भी ब्रह्म अर्थात् विराट होता जाता है । इसीलिये कहा गया है कि ‘‘ब्रह्म’’ का अर्थ है ‘‘ब्रहत्वाद् ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद् ब्रह्म’’ अर्थात् वह जो स्वयं विराट है और दूसरों को भी विराट बना सकता है। इसलिये मनुष्य यदि उनका ध्यान करता है तो उसका मन भी उन्हीं की तरह विराट हो जाता है। उनका यही रहस्य है।

Sunday 2 February 2020

294 भारत में भावजड़ता के प्रकार


- धार्मिक मनोविज्ञान के अनुसार भारत में गेरुआ रंग के वस्त्र बहुत कुछ अर्थ रखते हैं। इस रंग को बहुत ही आदर से देखा जाता है इतना ही नहीं इसके संबंध में कहा जाता है कि जो भी इस रंग के कपड़े पहिने हो उसके गुणों और अवगुणों पर ध्यान नहीं देना चाहिये। इस प्रकार के व्यक्ति को महान समझकर आदर देना चाहिये क्योंकि वह तुम्हें वरदान दे सकता है। यह भावजड़ता है।
- भारतीय समाज में सामान्यतः जिसके बाल सफेद हो गये हों, दाढ़ी मूछे सफेद हो गये हों त्वचा सिकुड़ गयी हो, इसे भी योग्यता मानी जाती है भले ही वह पाखंडी हो।
- जिसके पास धन होता है उसे भी विशेष योग्यता माना जाता है। शहरों में सबसे अधिक धनी होने वाले को महत्वपूर्ण माना जाता है।
परन्तु ध्यान रखना चाहिये कि इस विषय में तर्क नहीं कर्म ही किसी की उत्कृष्टता को निर्धारित करते हैं । चरित्र ही धर्म का प्रधान घटक है, इसलिये जो सदाचारी और चरित्रवान हैं  वे निश्चय ही परमात्मा को पा सकेंगे। तुम्हारा आदर्श, तुम्हारे चरित्र से ही प्रकट होता है उसके लिये तुम्हारी शिक्षा और सामाजिक आर्थिक स्तर कोई महत्व नहीं रखता। इसलिये वे, जो समाज को रास्ता दिखाने की जिम्मेवारी लेते हैं उनका चरित्र सर्वोच्च स्तर का होना चाहिये। उन्हें अपने सभी साथियों को साथ लेकर सार्वभौमिक विकास और श्रेय की ओर चलना चाहिये। वे लोग जो अपने आचरण से इस प्रकार का व्यवस्थित व्यवहार दूसरों को सिखाते हैं उन्हें ही आचार्य कहते हैं।