प्रत्येक इकाई जीव का अपना अपना मानसिक प्रवाह होता है जिसे ‘स्वरस‘ कहते हैं। जब साधना के अभ्यास और परम पुरुष की कृपा से उसका मानसिक प्रवाह अर्थात् स्वरस परमपुरुष के मानसिक प्रवाह अर्थात् ‘परमरस‘ से एकत्व स्थापित कर लेता है तो वह दिव्य हो जाता है। उस अनन्त सत्ता का अंतहीन लयबद्ध स्पंदन परमरस कहलाता है और किसी इकाई सत्ता का मानसिक स्पंदन स्वरस कहलाता है। साधना करने का महत्व यही है कि व्यक्तिगत स्वरस को परमरस के साथ मिला दिया जाये।
ब्रह्म का स्वरस अन्य संरचनाओं के लिये पररस है, और अन्य संरचनाओं का स्वरस उन्हें अविद्या के चंगुल में पकड़ता है। मनुष्य जितना ही अधिक ब्रह्म के साक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है वह उतना ही अधिक ब्रह्म के प्रवाह को अनुभव करने लगता है। ब्राह्मिक भाव की ओर जितना आगे बढ़ते हैं उतना ही उनके अस्तित्व में निखार आने लगता है और अंधेरापन दूर जाने लगता है। इसलिये अविद्या के प्रभाव को हटाने के लिये ब्रह्म की शरण में जाना होगा। ब्रह्म की ओर मन को ले जाये विना केवल माला के मणिकों को गिनना और कर्मकांडीय क्रियाओं का करना किसी काम का नहीं हैै। बाहर से अच्छे बनने का दिखावा करना और भीतर ही भीतर पापकर्म में लिप्त रहना आडम्बर कहलाता है जिसका कोई मूल्य नहीं है।
परमपुरुष के जिस मानसिक उपादान से यह विश्व बना है वह आनन्ददायी है और परमरस कहलाता है। इकाई मन अपने मानसिक उपादान से सब कुछ करता है और कभी कभी मन में ही धन का निर्माण कर अपने बेंकबेलेंस को याद कर आनन्दित होता है। कभी कभी वह प्रधानमंत्री हो जाता है और आनन्दित होता है कभी मन में ही सभी शत्रुओं का नाश करता हुआ और अधिक आनन्द पाता है । यह सब मन की भूख को तृप्त करने के लिये किया जाता है और अंततः व्यक्तिविशेष के मन के अवयव साॅंसारिक वस्तुओं में परिवर्तित हो जाते हैं। ये सब वैषयिक होते हैं और मन को खुश करने के लिये ही होते हैं। जीवों के मन के अवयवों से निकलने वाला प्रवाह विषयरस कहलाता है और परम मन से निकलने वाला रस परमरस कहलाता है। इकाई मन केवल एक बार भी परम मन के संपर्क में आजाता है तो फिर भौतिक वस्तुओं का आनन्द या विषयरस व्यर्थ लगने लगता है। जैसे नमक विहीन साग खाने पर स्वादहीन लगती है वैसें ही विषयरस निःस्वाद लगने लगते हैं। परंतु भौतिक अस्तित्व के लिये पदार्थों की आवश्यकता होती है इसलिये बुद्धिमान लोग विषयरस का प्रवाह परमरस के समानान्तर ही बनाये रखते हैं। विषय रस की तरंगों को वे परमरस में बदल देते हैं सुरक्षित रास्ता यही है।
इकाई मन को अपना वहिःष्वास परमपुरुष के साथ मिलाकर रखना चाहिये जिससे परमपुरुष की तरंगों के साथ उसकी स्वतरंगों में समानान्तरता बनी रहे। इस प्रकार केवल एक ही सतत प्रवाह अर्थात् ब्राह्मिक प्रवाह बना रहता है जो इकाई मन को मुक्तिदाता बन जाता है। परम मन के भीतर केवल उन्हीं का स्वरस रहता है और अन्य किसी का नहीं अतः अपने आप में किसी भी परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं रहती। परंतु इकाई मन को परम मन में मिलने के लिये अपने आप मे परिवर्तन करना होता है। इकाई मन के तमो और रजो गुण से निकलने वाला प्रवाह परम मन के सतोगुण से मिलकर रूपान्तरित होे जाता है।
इकाई मन और परम मन के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि इकाई मन की कल्पनायें किन्हीं विशेष अवसरों पर ही वाह्य क्रिया का रूप ले पाती हैं जबकि वह केन्द्रीकृत होता है । परम मन के लिये कुछ भी वाह्य नहीं है पूरा ब्रह्माॅंड उसके भीतर ही है अतः उसकी विचार तरंगे हमें बाह्य प्रतीत होती हैं। जिस प्रकार परम मन से निकली तरंगे उनका प्रवाह या स्वरस हैं उसी प्रकार इकाई मन से निकलने वाली वाह्य तरंगे इकाई मन का प्रवाह या स्वरस कहलाती हैं। वे जो अपने को उस परम प्रवाह के साथ जोड़़ लेते हैं उनका अस्तित्व नया अर्थ पा लेता है। वह अनन्त प्रवाह चाहता है कि सभी इकाई मनों का प्रवाह उसी के समानान्तर प्रवाहित हो अतः साधना का वास्तविक महत्व, व्यक्तिगत प्रवाह को उस परमप्रवाह के साथ मिला लेने में ही निहित होता है। पूर्व में ब्रह्म के स्वरस का प्रवाह चैतन्य महाप्रभु ने अनुभव कराया था जिससे लोग उनके पीछे पीछे हंसते नाचते रोते गाते दौड़ते थे इसी से पूर्व कृष्ण ने अपनी बॅांसुरी से ब्रह्मरस का प्रवाह ब्रन्दावन की गोपियों को कराया था जो अपनी सुधबुध खोये , अपने घर की संस्कृति को भुला कर नाचते गाते उनकी ओर दौड़ती थी। आनन्दमार्ग(विद्यातन्त्र ) साधना में यह ब्राह्मिक प्रवाह साधना के विभिन्न पाठों में भर दिया गया है अतः जो भी इन्हें नियमपूर्वक करते हैं या भविष्य में करेंगे वे अवश्य ही आनन्द से नाचेंगे गायेंगे रोयें गे और उस आनन्ददायी परम क्षण की अनुभूति करेंगे। तन्त्र विज्ञान में साधना का एक प्रकार है रससाधना। इस साधना का उद्देश्य होता है कि स्वरस को परमरस में मिला देना। रासलीला की संकल्पना भी यही है कि पुरुषोत्तम को बीच में रखकर चारों ओर से असंख्य भक्त उन्हें घेरे हुए हैं और प्रत्येक भक्त उनमें मिलकर एक हो जाने का प्रयत्न करता है।
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