Friday 22 December 2023

421 रामायण/रामचरितमानस में कमियॉं निकालना?

 

प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना की विषयवस्तु में किसी एक चरित्र को केन्द्रित कर अपने विचार व्यक्त करता है। अन्य चरित्र कथानक की आवश्यकता के अनुसार यथा स्थान पर अपनी भूमिका पाते जाते हैं। रामायण या रामचरितमानस जैसे महाकाव्यों में जिस चरित्र को प्रधानता दी गई है वह है ‘‘राम’’। इसलिए स्वाभाविक है कि अन्य सभी पात्रों की भूमिका ‘‘राम’’ के चारों ओर ही सीमित रहेगी। ‘रामायण’ माने ‘राम का घर’ और ‘रामचरितमानस’ माने ‘मेरे मन के अनुसार राम का चरित्र’ अतः स्पष्ट है कि रचनाकार किसी चरित्र का चित्रण करते समय जितना आवश्यक होगा उतना विवरण ही देगा। इससे उस रचयिता पर किसी चरित्र की उपेक्षा किए जाने का दोषारोपण करना उचित प्रतीत नहीं होता। पूर्वोक्त ग्रंथों के रचियताओं ने अपने इष्ट ‘‘राम’’’ के प्रति अनन्य निष्ठा प्रदर्शित की है और उनसे जुड़े सभी पात्रों के चरित्रों में भी उसी निष्ठा को निरूपित किया है फिर चाहे वह लक्ष्मण और भरत हो या दशरथ और सुमित्रा अथवा वशिष्ठ और मंथरा। रचनाकार भक्तों का पूर्णतः उद्देश्य यह है कि हर प्रकार से वे अपने इष्ट ‘राम’ के प्रति ‘‘ओत प्रोत’ भाव से जुड़े रहें। भक्ति की पराकाष्ठा में भक्त अपने इष्ट से क्षण भर भी दूर नहीं रह सकता। बार बार वन के कष्टों का विवरण देकर राम द्वारा रोके जाने पर भी लक्ष्मण और सीता इसीलिए उनके साथ साथ वन चल दिये। उन दोनों की भावना यह थी कि मुझे चाहे जितना कष्ट हो पर मैं अपने इष्ट को अपने प्रत्येक कार्य से प्रसन्नता देना चाहता हंॅू। यह रागात्मिका भक्ति कहलाती है। दशरथ अपने इष्ट से दूर रह ही नहीं सकते थे इसलिए राम के वन जाते ही उन्होंने अपने शरीर को ही तिनके की भांति त्याग दिया। तुलसीदास जी का कहना है, ‘‘वन्दौ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहिं राम पद। विछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृण इव परिहरेउ। इसलिए पौराणिक कथाओं को शब्दशः न लेकर उनके पीछे दी गई शिक्षा ही ग्रहण करना चाहिए परन्तु तथाकथित विद्वान मनमानी व्याख्या कर उनके महत्व को कम करते देखे जाते हैं!



Friday 15 December 2023

420 माया वास्तव में क्या है?


भारतीय दर्शन में समग्र सृष्टि के स्रजनकर्ता को परमपुरुष और जिस शक्ति से वे रचना कार्य करते हैं उसे माया कहा गया है। विद्वानों ने इस माया को सदा हमारी प्रगति का विरोध करने वाला और भ्रम भी कहा है। इतना ही नहीं, उससे बचने के अनेक उपाय भी सुझाए हैं। कबीरदास जी तो माया को महाठगनी कह गए हैं। कृष्ण भी कहते हैं कि ‘मम माया दुरत्यया’ अर्थात् मेरी माया को पार कर पाना बड़ा ही दुष्कर है। आइए इस विषय पर कुछ सोचें।
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष मेंं गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (ब्रेक) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। 
आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में मूलतः ‘माया’ कहा गया है जो  विद्यामाया और अविद्यामाया के रूप में कार्य करती है। किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी उस कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उसपर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्यामाया’’ और सेंट्राफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्यामाया’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेंट्रीफयूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहॉं सेंट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है, भ्रम उत्पन्न करता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो ? और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या दोनों को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हें।

Sunday 3 December 2023

419 अक्षरामृत कौन है?

 

विद्वान ऋषियों ने यह जानने के लिए एक संगोष्ठी की कि वह कौन है जो इस समग्र ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करता है जिसकी उपासना कर हम इस विश्वमाया से मुक्त हो सकें। इस पर अनेक मत इस तर्क पर स्थिर हो गए कि ‘प्रकृति’ ही वह सत्ता है जो सभी पर नियंत्रण करती है और सभी का संचालन करती है, इतना ही नहीं प्रकृति ने ही अपनी विश्वमाया में सबको भ्रमित कर रखा है अतः उसी की उपासना करना चाहिए। एक ऋषि इससे सहमत नहीं हुए। उन्होंने तर्क दिया कि ‘‘ ‘प्र’ करोति या सा प्रकृतिः’’ अर्थात् जो अपने को विभिन्न प्रकारों में रूपान्तरित करती रहती है वह प्रकृति है अतः जो बदलता रहे वह परम सत्य नहीं माना जा सकता। चूंकि प्रकृति का क्षरण होता रहता है इसलिए वह अमर नहीं है अतः उसे उपास्य भी नहीं माना जा सकता। उपास्य वही हो सकता है जो अमर हो। तो वह अमर सत्ता कौन है जिसकी उपासना की जा सकती है? एक ऋषि बोले ‘‘हर’’ ‘ह’ माने अन्तरिक्ष और ‘र’ माने ऊर्जा इसलिए अन्तरिक्षीय ऊर्जा ही अक्षय है वह नष्ट नहीं होती अतः ‘हर’ ही अमर हैं और वही अक्षर भी इसलिए वही उपास्य हैं।

अन्य ऋषि ने तर्क दिया कि ऊर्जा भले ही नष्ट न हो परन्तु रूप तो बदलती रहती है अतः वह भी प्रकृति की भॉंति है इसलिए जब प्रकृति उपास्य नहीं है तो ऊर्जा को भी उपास्य नहीं माना जा सकता। बहुत डिस्कशन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि ‘‘प्रकृति का क्षरण होता है और ऊर्जा भले अक्षर है परन्तु इसे उपासना का लक्ष्य नहीं माना जा सकता। परन्तु इन दोनों का ही नियंत्रणकर्ता कोई एक ही सत्ता है जिसके अभिध्यान करने, जिससे जुड़ने और जिसके सर्वत्र व्याप्त होने का अनुभव करने पर ही हम इस विश्वमाया से मुक्ति पा सकते हैं।

सूत्र के रूप में इसे उपनिषद इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 

‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः, 

तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमाया निवृतिः।’’


Tuesday 28 November 2023

418 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।
ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाला मन ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।
यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है। यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गरवे नमः।’’ ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।

Thursday 9 November 2023

417 हमारी सनातन संस्कृति का लक्ष्य : पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाना है।


जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, वे मनुष्य रूप में पशु ही हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं। इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए, हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपतिनाथ हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
यह विचित्र सा लग सकता है परन्तु यह सत्य है। इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उसे वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में जिस स्तर पर पहुंचती है उसे देवता कहेंगे। ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
स्पष्टीकरण -
एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। श्शयद आप जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता हैं । हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीरभाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

416 ईश्वर से बात कैसे करें?

 

ईश्वर के संबंध में विभिन्न मतों में विभिन्न अवधारणाओं को बल दिया गया है। आपने किस मत की कौन सी अवधारणा को पालन करना स्वीकार किया है इस पर ही उनसे बात करना या न कर पाना निर्भर करता है।
सच्चाई यह है कि किसी ने भी ईश्वर को उनके निर्गुण स्वरूप में नहीं देखा है और न देख सकता है। इसलिए 90 प्रशित से अधिक भक्त पौराणिक कथाओं के आधार पर अपनी अवधारणाएं दृढ़़ करते हुए आगे बढ़ते हुए देखे जाते हैं। इन कथाओं में ईश्वर के अवतारों और आकार प्रकारों पर बताया गया है परन्तु उनको भी किसी ने साक्षात देखा नहीं है, जो भी पुस्तकों में भक्तों ने अपने अनुभव लिखे हैं उसी प्रकार उनके अनुयायी भी देखने का प्रयास करते हैं। अब समस्या यह है कि कोई भक्त कैसे यह जाने कि उस अद्वितीय अरूप अमाप्य अनन्त और अवर्णनीय को अपने छोटे से मन के द्वारा अनुभव करे, बात करे, अपने सुखदुख को बताकर शिकायत करे, उनका असीम प्रेम अनुभव करे?
इसका समाधान केवल विद्यातंत्र में ही मिलता है कर्मकांड में नहीं। शायद आप को पता होगा कि भगवान कृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- तपस्वीभ्योधिको योगी ज्ञानीभ्योपि मतोधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन।।
अर्थात् ‘योगी’ कर्मकांडियों, ज्ञानियों और तपस्वियों आदि से सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अर्जुन तुम योगी बनो।
आजकल योगी होने का मतलब योगासनें करने और सिखाने वाले को माना जाता है। पर यह सही नहीं है। विद्यातंत्र में मान्य योग की परिभाषा है‘ ‘‘संयागो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’’ अर्थात् "परम आत्मा" को अपनी जीवात्मा के साथ जोड़ने की प्रक्रिया को योग कहते हैं।
अब यहॉं आपके प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना बनती है। परन्तु फिर प्रतिप्रश्न उठता है कि कैसे?
इसका उत्तर है विद्यातंत्र में विशारद कौल गुरु जो पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण हो उससे अपने इष्ट मंत्र को प्राप्त करना। जब आपको अपने इष्ट और इष्टमंत्र का सही सही ज्ञान कौल गुरु के द्वारा करा दिया जाता है और अपने निर्देशन में साधना का अभ्यास करा कर योग्य बना दिया जाता है तब आपका मन और बुद्धि उस अरूप का रूप अपनी आत्मा के भीतर देख सकती है, अनुभव कर सकती है, उससे बात कर सकती है और उसके साथ एकाकार हो सकती है। वहीं आपको अनुभव होगा कि यही मेरे सर्वस्व हैं। यों तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव’ पर उन सबके व्यवहार में बहुत भिन्नता देखी जाती है। आप हतोत्साहित न हों, मन में कौल गुरु की अवधारणा को जीवन्त रखें वे आपको स्वयं इष्टमंत्र देने आएंगे और आपकी वार्ता अपने इष्ट से करायेंगे।

Monday 2 October 2023

देश की अपूर्णीय क्षति!

415 देश की अपूर्णीय क्षति!

आजकल प्रायः अनेक विद्वान चर्चा करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों के पास बहुत पहले से चिकित्सा, इंजीनियरिंग, एअरोनाटिक्स आदि का ज्ञान था। यह सत्य भी है परन्तु प्रश्न यह है कि वह ज्ञान कहॉं चला गया, हम उसे संरक्षित क्यों नहीं रख पाए? आइए इसका कारण खोजें।
जब मूल सिद्धान्तों को भूलकर अपने वर्चस्व के लिए मनमाने सिद्धान्तों को प्रधानता दी जाने लगती है तो स्वाभाविक रूप से आडम्बर जन्म लेता है और मूल सिद्धान्तों के पालनकर्ताओं को हेय समझा जाने लगता है। भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति अपने तीन गुणों सत्व, रज और तम में पारस्परिक संतुलन के आधार पर अपनी गतिविधियां जारी रखती है जिससे कहीं पर सत्व की अधिकता हो तो अन्य दोनों रज और तम की आनुपातिक रूप से कमी होती है और इस प्रकार के जीव सात्विक कहलाते हैं जबकि अन्य गुणों की प्रधानता जिनमें होती है वे क्रमशः राजसिक और तामसिक कहलाते हैं। सपष्ट है कि एक ही परिवार में कोई राजसिक कोई तामसिक और कोई सात्विक हो सकता है परन्तु उनमें आपस में घृणा नहीं होती। पूर्वकाल में कुछ अहंकार ग्रस्त लोगों ने तामसिक गुणों के लोगों को घृणित मानकर उन्हें सामाजिक महत्व से वंचित कर दिया और ‘राक्षस’ कहकर पुकारने लगे। अब यदि राक्षस कुल के किसी व्यक्ति ने कोई अच्छा कार्य किया तब भी वह समाज के तथाकथित सात्विकों द्वारा ग्राह्य नहीं माना जाता था अतः हमारे देश में इन तथाकथित राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के द्वारा प्राप्त विद्याओं और किये गए अनुसंधानों को भुलाया जाता रहा है।
हमारा पुराना साहित्य इस प्रकार के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है। यह उदाहरण देखिए, पूर्वकाल में बंगाल और झारखंड के एक भूभाग के राजा अनुभवसेन की पत्नी कर्कटी तमोगुणी अर्थात् तथाकथित राक्षसी थी परन्तु वह चिकित्सा के क्षेत्र में लगातार अनुसंधान करती रहती थी। उनका पुत्र सुतनुक आदर्श चरित्र का जनहितकारी वैद्य था। इस प्रकार राजा और उनका पुत्र सात्विक परन्तु पत्नी राक्षसी प्रवृत्तियों की मानी गई। कर्कटी ने अपनी प्रयोगशाला में कर्कट रोग जिसे आज केंसर कहा जाता है की खोज कर ली थी परन्तु तत्कालीन संकीर्ण सोच के सात्विकों ने उसे मान्यता नहीं दी इतना ही नहीं जब वह अपनी प्रयोगशाला में शवों का परीक्षण कर रही थी तो इस समूह के लोगों ने उसे यह कहकर वहीं जला दिया कि वह नरमांस भक्षण के लिये शवों को एकत्रित करती रहती है। अर्थात् उसे राक्षसी कहकर मार डाला गया। कहा जाता है कि कर्कटी की प्रयोगशाला में रखे शवों और अन्य रसायनों के साथ उसके जलने से जो भी गैसें उत्पन्न हुई उनसे ‘कॉलेरा’ अर्थात् हैजा (संस्कृत में विसूचिका) और ‘डायबिटीज’ अर्थात् मधुमेह रोग फैला। इसके साथ ही कॉलेरा और केंसर की औषधि भी विलुप्त हो गई। आयुर्वेद, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में पुराने भारत का ज्ञान इसी निरर्थक सोच के कारण नष्ट होता गया ।
यह सर्वविदित है कि लिपि का ज्ञान न होने के कारण उस समय वेदों के ज्ञान को सुन सुन कर एक दूसरे को दिया जाता था इसीलिये उन्हें श्रुति भी कहा जाता है। परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तब भी परम्परावादी तत्कालीन विद्वानों ने लिखने नहीं दिया क्योंकि वेदों को सुनकर ही एक दूसरे को सिखाने की परम्परा को वे बदलना नहीं चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि बहुत सा ज्ञान याद ही नहीं रखा जा सका और जानकार पृथ्वी छोड़कर चले गए। ऋषि अथर्वा ने बड़ी कठिनाई से इन लोगों से छिप छिप कर अपने साथियों और शिष्यों अंगिरा, अंगिरस, वैदर्भि आदि के साथ वेदों को लिखा जिसे बाद में वेदव्यास ने कालक्रम के अनुसार चार भागों में विभाजित किया।
इसी प्रकार की दकियानूसी विचारधारा का वर्तमान समय का ही उदाहरण है, वह घटना जब अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ा तब उसी अवधि में अड़ियल मुल्लाओं के एक समूह ने अंग्रेजी भाषा के खिलाफ एक फतवा जारी किया कि ‘‘यह एक अपवित्र भाषा है क्योंकि यह बाएं से दाएं लिखी जाती है। अगर मुसलमानों ने इसे सीख लिया तो वे अपनी धार्मिक पहचान खो देंगे और ईसाई बन जाएंगे।’’ मुस्लिम विद्वानों के इस रवैये का भारतीय मुसलमानों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ा। बाद में उन्हें क्षति पूर्ति करने के लिए ही अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करनी पड़ी।
स्पष्ट है कि जब तक हम तर्क और विज्ञान पर आधारित विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का समुचित उपयोग कर ऊंचनीच की भावना को दूर करना नहीं सीख लेते हमारे इस प्रकार के दम्भ का कोई मूल्य नहीं कि हम पूर्वकाल में कितने ज्ञान सम्पन्न थे।