Friday, 15 December 2023

420 माया वास्तव में क्या है?


भारतीय दर्शन में समग्र सृष्टि के स्रजनकर्ता को परमपुरुष और जिस शक्ति से वे रचना कार्य करते हैं उसे माया कहा गया है। विद्वानों ने इस माया को सदा हमारी प्रगति का विरोध करने वाला और भ्रम भी कहा है। इतना ही नहीं, उससे बचने के अनेक उपाय भी सुझाए हैं। कबीरदास जी तो माया को महाठगनी कह गए हैं। कृष्ण भी कहते हैं कि ‘मम माया दुरत्यया’ अर्थात् मेरी माया को पार कर पाना बड़ा ही दुष्कर है। आइए इस विषय पर कुछ सोचें।
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष मेंं गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (ब्रेक) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। 
आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में मूलतः ‘माया’ कहा गया है जो  विद्यामाया और अविद्यामाया के रूप में कार्य करती है। किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी उस कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उसपर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्यामाया’’ और सेंट्राफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्यामाया’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेंट्रीफयूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहॉं सेंट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है, भ्रम उत्पन्न करता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो ? और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या दोनों को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हें।

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