Monday 24 October 2016

88 बाबा की क्लास ( शिव-13 प्रणाम मंत्र )

मित्रो ! पिछले कुछ दिनों से हम तारकब्रह्म भगवान सदाशिव के सम्बंध में जानने योग्य उन तथ्यों पर वैज्ञानिक आधार पर विचार कर रहे थे जो सामान्यतः उनके संबंध में पाये जाने वाले साहित्य के पढ़ने से अनेक भ्रान्तियाॅं और विचित्रता पैदा करते रहे हैं । वास्तव में, शिव को तत्वतः तो केवल शिव ही जानते हैं, इसलिये वे जैसे भी हों उन्हें उसी प्रकार से हम बार बार केवल प्रणाम ही कर सकते हैं। अतः अब हम आज की क्लास में उनके प्रणाम मंत्र पर विचार करते हुए इस चर्चा को यहीं समाप्त कर रहे हैं । आशा है इस वैज्ञानिक चर्चा से आपकी भ्रान्तियाॅं दूर हो गयी होंगी। आगे की क्लासों में महासम्भूति कृष्ण पर इसी प्रकार की चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा ।  

88 बाबा की क्लास ( शिव-13 प्रणाम मंत्र )

इन्दु- बाबा! जिस प्रकार शिव का ध्यान मंत्र आपने बताया है उसी प्रकार उनका क्या प्रणाम मन्त्र भी है? यदि हो तो उसे भी हमें समझाइये?
बाबा- अवश्य ही शिव का प्रणाम मन्त्र भी है । सुनो,
    ‘‘नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,
     नमः त्रिशूल  हस्ताय दंडपाशासिपानये, नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,
     नमः शिवाय शान्ताय कारणत्रयहेतबे, निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।‘‘

रवि - इसका शब्दिक अर्थ मुझे मालूम है,
‘‘ दिव्यद्रष्टि वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोेकों के स्वामी तुम्हें  प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शान्त शिव  को प्रणाम, परम प्रभो ! मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य ! मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।‘‘

बाबा - हाॅं, बिलकुल ठीक है, परन्तु इसका केवल शाब्दिक अर्थ लेने से कभी कभी गलत संदेश जाता है इसलिये उन शब्दों के पीछे निहित यथार्थ को मैं विस्तार से समझाये देता हॅूं।

शब्द " विरूपाक्ष " के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।
दिव्यचक्षु का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने  की दिव्य द्रष्टि है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।
पिनाक अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा से हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं शुभवज्रधर कहलाते हैं ।
त्रिशूल से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथ में लिये रहते थे इसलिये वे शूलपाणि कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और भले लोगों को शान्ति  से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।
शिव, तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित पालित और पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शान्त  पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया  है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।
जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया हैं। उस परम सत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा ‘। हे परमेश्वर  मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हूूॅं। आपके अलावा मेरा कुछ नहीं ,आपके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं।

Sunday 16 October 2016

87 बाबा की क्लास ( शिव .12 ध्यान मंत्र )

87 बाबा की क्लास ( शिव .12 ध्यान मंत्र  )

राजू- बाबा ! आपने अनेक स्थानों पर तथ्यों के निरूपण में शिव के ध्यानमंत्र का उल्लेख किया है , यह ध्यानमंत्र कैसा है ?
बाबा- शिव का ध्यानमंत्र यह है-
         ध्यायेन्नित्यं महेशं  रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं
        रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
        पद्मासीनम्समन्ताम स्तुतम् अग्रगनैव्याघ्रकृत्तिमवसानम
        विश्वाद्यम्  विश्वबीजं  निखिलभयहरम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्।

रवि- इसका अर्थ क्या है?
बाबा- इसका शाब्दिक अर्थ है- ऐंसे भगवान महेश्वर  का ध्यान करना चाहिये जो चांदी के पर्वत के समान चमक वाले हैं, सुन्दर चंद्रमा का मुकुट पहने हुए हैं, जिनके सभी अंग विभिन्न रत्नों की चमक वाले हैं, सदा प्रसन्न रहते हुये जो सबको वर और अभयदान के लिये आश्वस्त  करते हैं, पशुओं की रक्षा के लिये जो हाथ में फरशा  लिये हैं, व्याघ्रचर्म पहने पदमासन में बैठे हुए जिनकी सब देवता पूजा करते हैं, जो विश्व के बीज और इस विराट ब्रह्माॅंड के कारण हैं और अपने पाॅंच मुखों और तीन नेत्रों से जो  पूरे ब्रह्माॅंड के असीमित भय को दूर करने वाले हैं।

चंदू- तो क्या इसका अन्य अर्थ भी है?
बाबा- हाॅं, जैसे, महेशम्: संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर  कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरद्रष्टा और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर  कहा गया है।

इन्दु- क्या भगवान सदाशिव सचमुच चाॅदी जैसे चमकते थे?
बाबा- हाॅ, रजतगिरिनिभम्: वर्फ की तरह सफेद रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश  पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चाॅंदी की तरह चमकता था।

राजू- तो क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम्: अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इस प्रकार के  9 चक्रों और उपचक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी वेहोशी  का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा  इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा  किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं और इसी से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अद्रश्य  सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसतरह चारुच्रद्रावतंसं कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।

इन्दु- तो रत्नाकल्पोज्ज्वलाॅग का क्या अर्थ है?
बाबा- रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्: क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं , उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों। न केवल चमकदार वरन् उनका श
रीर कोमल और सुगंधित भी था।

रवि- परशुमृगवराभीति से क्या आशय  निकलता है?
बाबा- परशुमृगवराभीतिहस्तं: दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द  को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु  के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु , जैसे, शाखमृग का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु  का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु  का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु  और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट  ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे। इसी प्रकार

* प्रसन्नम्: प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही विकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है।

*पद्मासीनम्समन्ताम्: शिव हमेशा  पद्मासन में ही बैठा करते थे। जिस प्रकार खिले हुए कमल सदैव पानी से ऊपर रहते हैं जबकि उनके तने और जड़े कीचड़ में, उसी प्रकार पद्मासन में बैठा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी अपने मन को बाहरी वातावरण से पूर्णतः मुक्त रख सकता है। यही कारण है कि साधना करने के लिये उचित आसन पद्मासन ही है। इस प्रकार शिव एक ओर भौतिक जगत में मानसिक संतुलन बनाये रहते थे और दूसरी ओर आत्मिक संसार में।

*स्तुतम् अग्रगनै: यह सत्य है कि इस संसार में जो भी निर्मित हुआ है वह परिवर्तनीय और नष्ट होने के लिये है और यह भी सत्य है कि परम सत्ता के विचार स्पंदन के विस्तार जिंन्हें देवता कहते हैं वे भी ब्रह्माॅंडीय नाभिक से निकलकर दूरस्थ भविष्य के अपरिमित षून्य में भागते जा रहे हैं। इससे हम इन दिव्य किरणों या देवताओं को अमर कह सकते हैं क्योंकि वे पास आते हैं और अगणित दूर लाखों प्रकाश वर्ष दूर चले जाते हैं। यह कहा जाता है कि ये देवता भी देवों के देव महादेव के सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि यह सामान्य नियम है कि जब कोई, किसी व्यक्ति में अपने से अधिक अच्छे गुण पाता है तो वह उसे पूजने लगता हैं। शिव के सामने इन सबका तेज और दिव्यगुण बहुत निम्न स्तर का है अतः वे सब मिलकर उनकी स्तुति करते हैं। सच तो यह है कि ये सब देवता तो गुणों से बंधे हुए हैं जबकि षिव सभी बंधनों से मुक्त है अतः स्पष्ट है कि बंधन में रहने वाले बंधन मुक्त की शरण में ही जाना चाहेंगे।

*व्याघ्रकृत्तिमवसानम्: जैन दर्शन  के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है।

विश्वाद्यम् विश्वबीजं : शिव को परमपुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परम सत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे विल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परम पिता कहना न्याय संगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य अर्थात् बृह्माॅंड के उद्गम है। विश्व  के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के विना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व  के मूल कारण आदिशि व हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व  के बीज हैं।

*निखिलभयहरम्: असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं। जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु  भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों  को सुरक्षा देना , पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम से जाना जाता है।

रवि- तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह और तीन नेत्र भी थे?
बाबा-पंचवक्त्रम्: अर्थात् जिसके पांच मुंह हों वह। क्या शिव के सचमुच पांच मुंह थे? नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन  करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याण सुंदरम और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान। सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्यान्सुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर  का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कुराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट करदूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है। और,

त्रिनेत्रम्: मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो इस क्रिया को ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहते हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी  थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।

Sunday 9 October 2016

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)


चन्दू- लेकिन दुर्गा देवी को दस महाविद्याओं में माना गया है या चौसठ योगिनियों में?
बाबा- दुर्गादेवी की पूजा भी पौराणिक शाक्ताचार के समय मार्कंडेय पुराण से लिये गये 700 श्लोकों, जिन्हें दुर्गा सप्तशती  (सप्त = सात, शती = सौ) कहा गया, के आधार पर प्रारंभ की गई और दुर्गा को शिव की पत्नी माना गया है जो पहले बताये गये कारणों से काल्पनिक रचना के अलावा कुछ नहीं है। पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध  यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर अपना, दुर्गा पूजा में नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन  किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।

राजू- कभी कभी चंडिका शक्ति का भी उल्लेख यत्र तत्र मिलता है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में लोग समूहों में रहा करते थे और प्रत्येक समूह की मुखिया महिला ही हुआ करती थी और उसे गोत्रमाता कहा जाता था। माता केे मरने के बाद उसकी प्रापर्टी का अधिकार पुत्री को ही प्राप्त होता था परंतु पुत्रों के नाम माता के नाम से ही रखे जाते जैसे, माता का नाम मोदगल्ली तो पुत्र का नाम मोदगल्यायन, माता का नाम रूपसारी तो पुत्र का नाम सारीपुत्त, माता का नाम महापाटली तो पुत्र का नाम पाटलीपुत्र, माता का नाम पृथा तो पुत्र का नाम पार्थ आदि। इस काल में पुरुषों को कोई संम्पत्ति का अधिकार नहीं था अतः वे प्रत्येक कार्य अथवा सुविधा पाने के लिये गोत्रमाता से ही निवेदन किया करते थे अतः गोत्रमाता की पूजा की जाने लगी जिसे कालान्तर में चंडी या चंडिका पूजा कहा जाने लगा। इसमें यह भाव थे कि जो देवी सभी आकारधारकों में माता और शक्ति के रूप में निवास करती है उसे नमस्कार। यद्यपि यह एक सामाजिक पृथा थी परंतु पौराणिक शाक्ताचार में इसे शिव की पत्नी कहा गया जो निराधार है। कालान्तर में महिला के स्थान पर पुरुष को यह अधिकार दिये गये और गोत्रपिता नाम दिया गया।

रवि- परन्तु शिव को अर्धनारीश्वर शिव के रूप में भी पूजा जाता है, यह कौनसी संकल्पना  है?
बाबा-  शिव  की अतुलनीय प्रतिभा, सरलता , साधुता और तेजस्विता के प्रभाव से प्रबुद्ध वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि शिव और कोई नहीं मानव रूप में तारक ब्रह्म ही हैं और धीरे धीरे इस धारणा ने पूर्णता प्राप्त कर ली। आध्यात्म साधकों ने अनुभव करना प्रारंभ किया कि ब्रह्म वास्तव में  सर्वोच्च ज्ञानात्मक सत्ता ‘‘परमपुरुष‘‘ और सर्वोच्च क्रियात्मक सत्ता ‘‘परमाप्रकृति‘‘ का एकीकृत आकार ही हैं और शिव  यही संयुक्त आकार हैं। इसके बाद शिवोत्तर तंत्र, जैन तंत्र, बौद्ध तंत्रकाल में इस अवधारणा को पूर्ण बल मिला। इस समय शिव और शक्ति को मूर्तिकारों ने दायीं  ओर शिव और बायीं  ओर पार्वती का आकार देकर अर्धनारीश्वर  शिव  की रचना कर ली। ‘‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म अर्थात् ज्ञान और ऊर्जा साथ साथ कार्य करते हैं,‘‘ का यह विचार पौराणिक काल में भी स्वीकार किया गया। यह माना गया कि शिव ही वह आधार हैं जिस पर शक्ति अपना निर्माण कार्य करती है शिव से अलग होकर वह कार्य नहीं कर सकती। शिव एक साक्षी सत्ता हैं और शक्ति की गतिविधियों के नियंत्रणकर्ता भी हैं। परंतु कितना आश्चर्य है कि शीघ्र ही यह दार्शनिक  विचार लोगों के मन से निकल गया।

Sunday 2 October 2016

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

रवि- अनेक प्रकार के देवी देवताओं की उत्पत्ति का आधार और कारण क्या है?
बाबा-  जैन धर्म की शिक्षाओं ने समाज में अपना प्रभाव इस प्रकार डाला कि लोग समाज के लिये घातक, दुष्ट शत्रुओं से भी लड़ने और संघर्ष करने से दूर रहने लगे क्यों कि उन्हें यह शिक्षा दी गयी थी कि साॅंप और विच्छुओं जैसे जानलेवा शत्रुओं को भी क्षमा कर दो और उन पर दया करो। इसके बाद बौद्ध धर्म में लोगों को सिखाया गया कि यह संसार दुखमय है, इससे दूर रहना चाहिये जिससे लोग उदासीन और नीरस जीवन जीने लगे। यद्यपि महावीर और बुद्ध ने किसी भावजड़ता को रोपने के लिये या समाज में उनकी शिक्षा का इस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा इसकी पूर्व धारणा से यह नहीं किया था, परंतु उसका उल्टा प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक था क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और सुसंतुलित नहीं थीं। समाज की इस प्रकार की रूखी और उत्साह रहित जीवन जीने की पद्धति से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से पश्चातवर्ती कुछ बौद्धिक लोगों ने सुख और उत्साह पूर्वक जीवन जीने की कलाओं को स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के देवी देवताओं की काल्पनिक कहानियाॅं बनाईं और उनके अनेक आकार प्रकार देकर पूजा की विधियाॅं भी सिखाईं । ध्यान रहे कि इन सब का आधार शिव को ही बनाया गया क्योंकि बिना शिव से संबंधित किये इन काल्पनिक देवी देवताओं को कोई महत्व न मिल पाता। चूॅंकि भीतर से लोग शैव थे और ऊपर से जैन और बौद्ध धर्म का आवरण , इससे लोगों को लगने लगा कि जीवन में सरसता और सम्पन्नता लाने के लिये इनसे संबंधित देवी देवताओं की उपासना करना ही उचित है इस प्रकार अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियाॅं और देवी देवता उत्पन्न हो गये।

नन्दू- इसका अर्थ यह है कि कुछ समय के बाद शैव, जैन और बौद्ध धर्म परस्पर मिल गये और कोई नया धर्म बन गया?
बाबा- इस काल में लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र का पारस्परिक रूपान्तरण होने लगा। जैन साहित्य प्राकृत में और बौद्ध साहित्य मगधी प्राकृत या पाली भाषा में उस समय की थोड़ी रूपान्तरित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये, परंतु शिवोत्तर तंत्र संस्कृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया। इसके बाद जैन और बौद्ध काल में शिवतंत्र समानान्तर रूप से चलता रहा।

राजू- जिन 64 प्रकार की योगिनियों की चर्चा की जाती है उन्हें तो शिव की पत्नियाॅं कहा जाता है, पर आपने तो शिव के परिवार का परिचय पहले ही बता दिया है, क्या ये योगिनियाँ  इसी समन्वयकाल की हैं?
बाबा- परस्पर समझ बढ़ने पर तीनों तंत्रों में इस बात पर सहमति हुई कि मानव जीवन में 64 प्रकार की अभिव्यक्तियाॅं होतीं हैं अतः तंत्र को 64 शाखाओं में बांटा जाना चाहिये। आन्तरिक रूप से समान परंतु ऊपरी तौर पर कुछ पदों में परिवर्तन कर इसे स्वीकार किया गया। जैसे, जैन तंत्र में मूला प्रज्ञाशक्ति को ‘‘ज्ञाराना‘‘ या ‘ज्ञारत्न‘ कहा गया जबकि शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में क्रमशः  इसे शिव और बुद्ध कहा गया। इस प्रकार तीनों तंत्रों में 64-64 प्रकार की शाखाओं को मान्य करते हुए प्रत्येक की नियंत्रक शक्ति को ‘योगिनी‘ कहा गया तथा प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सबको शिव की पत्नियाॅं घोषित किया गया जबकि सदाशिव आज से 7000 वर्ष पहले और ये योगिनियाॅं मात्र 2000 वर्ष पहले  हुए। जैैन तंत्र पर आधारित 64 योगिनियों के मंदिर जबलपुर म.प्र. में एक पहाड़ी पर बनाये गये देखे जा सकते हैं।  लिपि के प्रभाव से हुए इस रूपान्तरण से अनेक योगिनियों और देवी देवताओं के नामों में कुछ परिवर्तन कर स्वीकार किया गया, जैसे, जैन देवी अंबिका को शिवोत्तर तंत्र  और पौराणिक शाक्ताचार में अंविका और वाराही को बौद्ध तंत्र में वज्रवाराही के नाम से स्वीकृत किया गया। पौराणिक सत्यनारायण की संकल्पना इस्लाम की पीरभक्ति से मिलकर बंगाल में सत्यपीर के नाम से मान्य हुई। बुद्धतंत्र की तारा और शिवोत्तर तंत्र की काली और पौराणिक शाक्ताचार में सरस्वती के नाम से परस्पर रूपान्तरित किया गया।


इन्दू-  और  दस महाविद्या क्या हैं और ये कैसे आईं?
बाबा- एकीकरण के इस काल में तीनों तंत्रों में से कुछ कुछ महत्वपूर्ण देवियों को लेकर दस महाविद्याओं की कल्पना आई जो पौराणिक काल में थोड़े से परिवर्तन के साथ शाक्ताचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, गणपत्याचार, में भी मान्य की गईं हैं, इनके नाम हैं, काली, तारा, शोडसी, भुवनेश्वरी , भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगुलामुखी, मातुंगी और कमला। ये देवियाॅं लगभग सभी तंत्रों में एकसे बीजमंत्र के साथ या थोड़े से परिवर्तन के साथ मान्य की गई हैं और सबको शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़ दिया गया ताकि उन्हें लोग पूजते रहें परंतु, उन्हें दिये गये भौतिक आकार से ही प्रमाणित होता है कि कोई भी मानव आकार चार, आठ और दस हाथों वाला नहीं हो सकता।

रवि- जब ये सभी काल्पनिक हैं तो क्या इनकी पूजा करने से वह सब प्राप्त हो जाता है जिसके लिये लोग इन्हें पूजते हैं, जैसे धन पाने के लिये लक्ष्मी, प्रतिष्ठा और प्रभाव के लिये दुर्गादेवी, विद्या बुद्धि के लिये सरस्वती आदि आदि ?
बाबा- पा भी सकते हैं और नहीं भी पा सकते हैं क्यों कि सिद्धान्त है कि ‘‘ यो यथा माम् प्रपद्ययन्ते ताॅंस्तथैव भजाम्यहम्‘‘ अर्थात् जो कोई भी  मुझे जैसे भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि मानलो कोई भक्त धन को पाने के लिये लक्ष्मी की आराधना करता है तो वह धन को पा सकता है परन्तु परमपुरुष को नहीं, क्योंकि उसने उन्हें चाहा ही नहीं। यही कारण है कि धनलोलुप धन के पीछे इतना पागल होते देखे गये हैं कि अन्त में वे उसका स्वयं कुछ भी उपभोग नहीं कर सके।  श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को, पितरों को पूजने वाले पितरों को ,भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं परंतु मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये परमपुरुष की निष्काम रूप से की गयी उपासना ही सर्वश्रेष्ठ कही गयी है। जिसे परमपुरुष मिल गये उसे धन, पद, प्रतिष्ठा, और अन्य एश्वर्यों की क्या आवश्यकता?

चंदू- यह सब कुछ विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- विचित्र तो बना दिया गया है प्रलोभ देकर। यदि इन देवी देवताओं को पूजने के पीछे उनसे धन, संतान, ऐश्वर्य, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति पाने का लालच न दिया जाता तो शायद उन्हें कोई नहीं पूजता। सभी देवताओं  और देवियों की स्तुतियों में से यदि यह एक लाइन न रहे तो देखना क्या होता है, ‘‘ अमुक अमुक की आरती जो कोई ... .....सुख सम्पत्ति/ वाॅंछित फल पावे‘‘ । इतना ही नहीं सस्कृत में बनाये गये संबंधित के श्लोकों में  भी सभी के साथ कुछ न कुछ पाने का लोभ जुड़ा है इसलिये सभी शिव की उपासना भूल कर उन से जुड़ी कल्पनाओं के पीछे भाग रहे हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी यह प्रमाणित करती है कि जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इसलिये केवल परमपुरुष ही उपास्य हैं, उन्हें पाने की ही इच्छा करना चाहिये, मनुष्य जीवन पाने का यही सदुपयोग है।