Tuesday 28 June 2022

380 भूलना प्राकृतिक वरदान

 

यदि भूलना एक वरदान न होता तो, मनुष्य जबकि एक जन्म के बोझ में ही इतना दबा रहता है अनेक जन्मों का बोझ एक साथ  इस जीवन में  कैसे उठाता? मनुष्य का इतिहास,  आशायें , शोक निराशायें सब कुछ सूक्ष्म मन में संचित रहते है । ‘क्रूडमन और सूक्ष्ममन’ (crude and subtle mind) के बेचैन बने रहने के पर कारणमन(causal mind) अपना दावा नहीं करता परन्तु, पिछले सभी जन्मों का पूरा पूरा लेखा क्रमागत रूप से ‘कारणमन’ (causal mind) में संचित होता जाता है। इस प्रकार मन में संचित प्रत्येक सतह अपने अपने जीवन की होती है और चित्रमाला की तरह बनी रहती है जब तक कि वे सब संस्कार भोगकर समाप्त नहीं हो जाते हैं। साधना के द्वारा जब क्रूडमन को सूक्ष्ममन में और सूक्ष्ममन को कारणमन में निलंबित करने का अभ्यास हो जाता है तो साधक अपने पिछले जन्मों का क्रमशः द्रश्य देख सकता है बिलकुल सिनेमा की तरह। दूसरों के पिछले जन्म को देख पाना स्वयं के पिछले जन्मों को देख पाने से सरल होता है, पर क्या यह करना उचित होगा? नहीं । यह भी ईश्वरीय विधान है, पिछले जन्म को जानने पर आगे बढ़ने के लिये मिल रहे अवसरों का लाभ नहीं मिल पाता और अवसाद में ही जीवन निकल जाता है।

पिछले जन्मों की स्पष्ट स्मृति केवल तीन प्रकार की स्थितियों में ही हो सकती है, 1, जिनका व्यक्तित्व अच्छी तरह उन्नत हो, 2, जो स्वेछा से पूर्ण सचेत होकर मरे हों, 3, जो दुर्घटना में मरे हों। इस स्थिति में भी 12 या 13 वर्ष की आयु तक ही यह स्मरण रह पाता है अन्यथा उस व्यक्ति को दुहरा व्यक्तित्व जीना पड़ता है जो पुनः मृत्यु का कारण बनता है। जो व्यक्ति 12/13 साल तक पिछले जन्म की घटनाओं को याद रख पाते हैं वे संस्कृत में यतिस्मर कहलाते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने मन को  एक विंदु पर केन्द्रित कर दे तो उसे अपने पिछले जन्म का सब कुछ याद आ सकता है यदि उसके पिछले संस्कार अपूर्ण रहे हों। पर इस प्रकार का परिश्रम करने का कोई उपयोग नहीं बल्कि उस पराक्रम को परमपुरुष को अनुभव करने में ही लगाना चाहिये उसे जान लेने पर सब कुछ ज्ञात और प्राप्त हो जाता है, पिछले इतिहास को जान लेने से क्या मिलेगा?


Monday 13 June 2022

379 राज्य, देश, राष्ट्र, राष्ट्रवाद और आध्यात्म


यह विश्वास कि लोगों का एक समूह इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है, राष्ट्रवाद (nationalism) कहलाता है। इन सीमाओं के कारण निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लोगों को अपने निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात् ’राष्ट्र’ स्थापित करने का अधिकार है। परन्तु दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इस कसौटी पर खरा उतरता हो। इस आधार पर यदि दुनिया का नक्शा लिया जाए, तो पृथ्वी का हर इंच राष्ट्र की सीमाओं के भीतर विभाजित हो जाएगा। राष्ट्रवाद के आधार पर बना राष्ट्र कल्पना में तब तक बना रहता है जब तक कि वह राष्ट्र, राज्य में नहीं बदल जाता। पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान किया है। इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।

‘‘प्रउत दर्शन’’ के अनुसार हमारा न तो राष्ट्र है और न राष्ट्रधर्म। इसका कारण जानने के लिये सबसे पहले हमें अपने इतिहास में जाकर यह समझना होगा कि राष्ट्र और राष्ट्रधर्म होता क्या है। राष्ट्र न तो किसी राज्य के निवासियों से, न भाषा से और न ही रीतिरिवाजों, जीवन शैलियों, जाति , धर्म आदि में से किन्हीं दो या दो से अधिक घटकों के होने से बनता है। ‘‘राष्ट्र’’ है एक अवधारणा एक सेन्टीमेन्ट। भारत में इस प्रकार के सेन्टीमेन्ट्स बनते और नष्ट होते रहे हैं जैसे, आर्यों के आने पर आर्य और अनार्य दो सेन्टीमेंन्ट थे और परस्पर संघर्ष में दोनों मिल गये और भारत, सेन्टीमेन्ट के बिना राष्ट्र नहीं बन पाया। बौद्ध और अबौद्धों के सेन्टीमेन्ट्स के संघर्ष से शंकराचार्य का ब्राह्मण सेन्टीमेन्ट आया परन्तु बौद्धों की पराजय के साथ ब्राह्मण सेन्टीमेन्ट भी परस्पर विभाजित हो जाने से अधिक नहीं जी पाया और भारत फिर राष्ट्र बनते बनते रह गया। जब तक इनके बीच सेन्टीमेन्ट था बाहर से मुस्लिम नहीं आ पाये। मुस्लिमों का अपना जीने का ढंग, भाषा, पहनावा, धर्म और रीतिरिवाजों से नया मुस्लिम सेन्टीमेन्ट आया परन्तु उन्होंने भी आर्यो जैसी अनार्यो पर शोषण की नीति, या जैसे ब्राह्मणों ने बौद्धों के विरुद्ध शोषण की नीति, ही अपनाई । अतः इसके विरुद्ध मुस्लिम विरोधी सेन्टीमेन्ट जागा और दो प्रकार के राष्ट्र बनने लगे एक पर्सियन पर आधारित मुस्लिम और दूसरा संस्कृत पर आधारित हिन्दु। इस प्रकार प्रबल मुस्लिम बिरोधी सेन्टीमेन्ट उत्पन्न हुआ और हिन्दु राष्ट्र बना। परन्तु एकसाथ दो दो राष्ट्र अधिक समय तक नहीं चल सकते अतः आर्यो और अनार्यों की तरह इनमें भी पारस्परिक भाषा, पहनावा और रहन सहन आदि में परिवर्तन आने लगा और फिर से सेन्टीमेन्ट की कमी आ गयी। इसी प्रकार भारत में तीसरी बार सेन्टीमेन्ट की कमी आई जिसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया और उन्होंने भी पूर्व में आगन्तुक विदेशियों की तरह शोषण की ही नीति अपनाई जिसके बिरुद्ध पूरे भारत ने नया सेन्टीमेन्ट अंग्रेजों को हटाने के लिये उत्पन्न किया जिससे स्वतन्त्र राष्ट्र के लिये आन्दोलन प्रारम्भ हुआ और नये राष्ट्र का निर्माण हुआ। 

स्पष्ट है कि हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र अवश्य हुए हैं पर अर्थिक रूप से नहीं। राजनैतिक आजादी का सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि इसमें भेदभाव और आर्थिक शोषण की पराकाष्ठा होने से जनसामान्य सुखी नहीं रह पाता। वर्तमान में सबसे खतरनाक प्रकार का शोषण है बौद्धिक और मनोआर्थिक शोषण। इसमें पहले लोगों को मानसिक रूपसे कमजोर करते हुए अपंग बनाया जाता है, फिर आर्थिक शोषण किया जाता है। जैसे, सबसे पहले स्थानीय लोगों की भाषा और संस्कृति को दबाया जाता है, इसके बाद बड़े पैमाने पर छद्मसंस्कृति को गंदे साहित्य में प्रचारित प्रसारित किया जाता है जिससे युवावर्ग का मन उस ओर विशेष प्रकार से आकर्षित होता है। इसके बाद महिलाओं पर अनेक प्रकार के बंधन लगाकर उन्हें आर्थिक रूपसे पुरुषों पर आश्रित बनाये रखा जाता है। अमनोवैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली जिसमें निहित स्वार्थों की भागीदारी होती है उसको चुना जाता हैं। धर्म को नकारा जाता है। समाज को अनेक जातियों और समूहों में विभाजित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के संचार और प्रचार साधनों जैसे न्यूजपेपर, टेलीविजन, रेडियो आदि पर पूँजीपतियों का नियंत्रण होता है। इन परिस्थितियों में धर्मान्धता का अस्त्र फेककर नागरिकों में सच्चे राष्ट्रवाद का सेंटीमेंट कैसे जगाया जा सकता है?

परन्तु यदि स्वतन्त्रता संग्राम, राजनैतिक स्वतंत्रता के स्थान पर आर्थिक स्वतंत्रता के लिये लड़ा जाता तो भारत का विभाजन नहीं होता। अब, हिन्दु और मुस्लिम दो अलग अलग सेन्टीमेन्ट्स फिर आ गये हैं। इस गलती के बाद भाषा के आधार पर राज्यों को सीमांकित करना, राष्ट्रभाषा के प्रश्न को हल न करना, और उच्च अध्ययन में स्थानीय भाषा को माध्यम के रूप में स्वीकार करना, जैसी अनेक गलतियों का परिणाम यह है कि पूर्वकाल से चली आ रही शोषण की प्रवृत्ति और बढ़ती जा रही है तथा भ्रष्टाचार अपनी चरमसीमा पर जा चुका है। इस अवस्था में एक बार राष्ट्र फिर खो गया है और नया सेन्टीमेन्ट मॉंगता है। वह सेन्टीमेन्ट हो सकता है शोषण और भ्रष्टाचार के बिरुद्ध। इसलिये भारत के लोग यदि अपने बौद्धिक दिवालियापन को पाले रहने का लालच छोड़कर सभी प्रकार के शोषण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सेन्टीमेन्ट जनसामान्य में जगाते हैं तो यह सम्भव है कि एक नये राष्ट्र, ‘‘शोषणरहित भारत राष्ट्र’’ का निर्माण हो । परन्तु ध्यान रहे, यह भी सदैव स्थायी नहीं रह सकेगा क्योंकि शोषणमुक्त राष्ट्र बन जाने के बाद शोषण के विरुद्ध कार्यरत सेंटीमेंट समाप्त हो जाएगा अतः समाज को एकीकृत बनाए रखने के लिये नया सेंटीमेंट ‘‘आध्यात्मिक विरासत और ब्रहमांडीय आदर्श विचारधारा’’ लाना होगा वही मनुष्यों को एकता के सूत्र में बांधे रह सकेगा और ‘‘भारत राष्ट्र’’ सही अर्थ में विश्वगुरु कहलाने का हकदार हो सकेगा।