Tuesday 27 January 2015

5.85: समाज चक्र और प्रगतिशील उपयोग तत्व

आनन्दसूत्रम् के इन अंतिम सोलह सूत्रों में विश्व में व्याप्त असमानता , भुखमरी , बेरोजगारी, आदि अनेक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक बुराइयों को दूर करने के उपाय सुझाये गए हैं। इसे प्रगतिशील उपयोग तत्व (प्रउत ) सिद्धान्त  कहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि पूंजीवादी युग में इसे प्रयुक्त कैसे किया जाए?
इसका  सरलतम उपाय, आध्यात्म को विज्ञान से और विज्ञान को आध्यात्म से जोड़कर किया जा सकता है। 




5.85: समाज चक्र और प्रगतिशील उपयोग तत्व
1. वर्णप्रधानता चक्रधारायाम। प्रारंभ में सुव्यवस्थित समाज नहीं था सभी श्रमजीवी थे अतः उसे शूद्र युग
 कह सकते हैं। इसके बाद  शक्तिशाली और साहसी सरदारों का युग आया इसे क्षात्र युग कहा गया। तत्पश्चात  बुद्धिजीवियों का युग अर्थात् विप्र युग आया और सब के बाद में व्यवसायियों का युग आया
वैश्ययुग । वैश्य  युग के शोषण के फलस्वरूप जब विप्र और क्षत्रिय, शूद्रत्व में पहुंच जाते हैं तो शूद्र  विप्लव के विस्फोट की आशंका प्रति क्षण बढ़ती जाती है। दमन और शोषण का चक्र अवाध क्रम से चलता रहा तो शूद्र विप्लव भयंकर रूप लेकर सब कुछ जला डालता है और प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष नये समाज की रचना होती है। चूंकि शूद्रों का द्रढ़ समाज और बौद्धिक क्षमता न होने के कारण विप्लव के बाद शासन  उनके हाथ में नहीं रह पाता और साहसी तथा वीर नेता फिर से क्षत्र युग की वापसी करते हैं। इस तरह शूद्रयुग फिर क्षात्र युग फिर वैश्य  युग फिर  विप्र युग और फिर विप्लव। यही क्रम चलता रहता है।
2. चक्रकेन्द्रे सद्विप्राः चक्रनियंत्रकाः। जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्तिसंप्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं वे सद्विप्र कहलाते हैं। चक्र की परिधि में इनका स्थान नहीं है क्यों कि ये चक्र की धुरी या केन्द्र में रहते हैं, यदि चक्र ठीक चलता रहे। परंतु यदि अहंकार से क्षत्रिय युग में क्षत्रिय, विप्र युग में विप्र और वैश्य  युगमें वैश्य  शासक के बदले शोषक हो जावे तो उस समय शक्ति  संप्रयोग के द्वारा सत् और शोषित लोगों की रक्षा और असत् तथा शोषकों के दमन के लिये यही सद्विप्र आगे आते हैं।
3.शक्तिसंपातेन चक्रगतिवर्धनमं क्रान्तिः। जब क्षत्रिय शोषक बन जाते हैं वहाॅं सद्विप्र क्षत्रियों का दमन कर विप्र युग की प्रतिष्ठा करेंगे। अतः युग आगमन की गति को सद्विप्रों के द्वारा शक्तिसंप्रयोग कर तेज कर दिया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन को (evolution) क्रान्ति कहते हैं।
4. तीव्रशक्तिसंपातेन गतिवर्धनम् विप्लवः। अल्प काल में परिवर्ती युग की प्रतिष्ठा करने के लिये या युग के कठोर बंधन को ध्वस्त करने के लिये यदि अत्यधिक शक्ति संप्रयोग की आवश्यकता होती है तब इस प्रकार प्राप्त परिवर्तन को विप्लव (revolution) कहते हैं।
5.क्तिसंपातेन विपरीतधारायां विक्रान्तिः। शक्ति संप्रयोग के द्वारा यदि किसी युग को उससे पीछे वाले युग की ओर ले जाया जाये वैसी दशा  में उस परिवर्तन को विक्रान्ति (counter evolution) कहते हैं। यह विक्रान्ति अल्प स्थायी होती है और उसके बाद का या उसके बाद का युग आ जाता है।
6. तीव्रशक्तिसंपातेन विपरीतधारायां प्रतिविप्लवः। अत्यंत अल्प काल में अथवा अधिक शक्ति  संप्रयोग से यदि किसी युग को पीछे ढकेल दिया जाये तो उसे प्रतिविप्लव (counter revolution) कहते हैं। विक्रान्ति की तुलना में प्रतिविप्लव और भी कम स्थायी है।
7. पूर्णवर्ततनेन परिक्रान्तिः। समाज चक्र एक बार पूरा घूम जाने पर या एक बार शूद्र विप्लव होने पर समाज चक्र की परिक्रान्ति कहते हैं।
8. वैचि़त्र्यं प्राकृतधर्मः समानं न भविष्यति।  विचित्रता ही प्रकृति का धर्म है इसी लिये कोई भी दो वस्तुयें सब प्रकार से समान (identical) नहीं होती। कोई भी दो मन एक से नहीं कोई भी दो अणु एक से नहीं। अतः कोई सभी कुछ को समान करना चाहे तो यह प्राकृत धर्म विरोधी होगा। प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में ही सब एक समान होते हैं अतः जो  सब को समान करने की बात करते हैं वे ध्वंस की ही बात करते हैं।
9. युगस्य सर्वनिम्नप्रयोजनमं सर्वेषां विधेयम्। हर मे पिता गौरी माता स्वदेशः  भुवनत्रयं, इस आधार पर विश्व  की सभी संपदा प्रत्येक व्यक्ति की साधारण संपत्ति है। पर सभी वस्तुयें समान नहीं हैं अतः मनुष्य की जो न्यूनतम आवश्यकतायें हैं  उनकी व्यवस्था सब को करना होगी। अर्थात् अन्न, आवास , वस्त्र , चिकित्सा  और शिक्षा जैसी न्यूनतम आवश्यकताओं की सभी के लिये पूर्ति करना होगी। मनुष्य की ये आश्यकतायें युग के अनुसार बदलती रहेंगी। अतः जिस युग में जैसी आश्यकता होगी वैसी व्यवस्था करना होगी।
10. अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। युग की न्यूनमत आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचने वाली अतिरिक्त संपदा को गुणों के अनुपात में बाॅंट देना होगा। जैसे जिस युग में एक साधारण मनुष्य को साइकिल की आवश्यकता है उस युग के एक चिकित्सक को मोटरगाड़ी की आवश्यकता है तो गुण के आदर के लिये तथा गुणी को समाज सेवा का अधिक अवसर देने के लिये उसे मोटर  गाड़ी देना होगी, serve according to your capacity and earn according to your necessity, यह बात सुनने में तो अच्छी लगती है पर धरती की कड़ी मिट्टी में इससे फसल नहीं मिलेगी।
11. सर्वनिम्नमानवर्धनमं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता का जो स्टेंडर्ड मान है गुणियों को उससे अधिक अवश्य  मिलेगा पर इस न्यूनतम स्टेंडर्ड को ऊपर उठाने का काम भी लगातार करना होगा।
12. समाजादेशेन विना धनसंचयः अकर्तव्यः। समाज की अनुमति के विना किसी को भी संपदा का संचय करने का अवसर नहीं देना चाहिये क्योंकि यदि अतिरिक्त संपदा किसी के द्वारा संचित की जाती है तो वह समाज के  किसी न किसी व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं को ही छीनता है जो समाज विरोधी हैं।
13. स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोगः प्रकर्तव्यः विचार समर्थितं वंटनं च। स्थूल , सूक्ष्म और कारण जगत में जो कुछ भी संपदा निहित है उनका उपयोग जीवों के कल्याण में ही करना चाहिये। पंच तत्वों में जो भी छिपी हुई संपदायें हैं उनका शतप्रतिशत सद्व्यवहार होना चाहिये। जल स्थल और अंतरिक्ष में भी जो कुछ उपयोगी हो उसे खोज लेना चाहिये और सभी को न्यूनतम आवश्यकताओं के अनुसार वितरित करना चाहिये। फिर भी व्यक्ति विशेष के गुणों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।
14. व्यष्टिसमष्टि शारीरमानसाध्यात्मिक सम्भावनायाॅं चरमोपयोगश्च । सामूहिक देह और मनों का सामूहिक आध्यात्मिक विकास करना होगा। समष्टि के कल्याण में ही व्यष्टि का कल्याण निहित है। प्रत्येक व्यक्ति में उपयुक्त समाज बोध, सेवा बोध तथा ज्ञान जगाने की चेष्टा नहीं करने पर सबका मानसिक विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति में आध्यात्मिकता केन्द्रित नैतिकता की ज्योति भी जगाना होगी।
15. स्थूलसूक्ष्मकारणोपयोगाः सुसंतुलिताः विधेयाः। व्यष्टि और समष्टि देह की कल्याण कामना में इस तरह कार्य करना होगा कि शारीरिक मानसिक और आध्यत्मिक तथा स्थूल सूक्ष्म और कारण मन इन तीनों  का उचित सांजस्य रहे। समाज जब सबकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा तो व्यक्तिगत प्रचेष्टायें कम हो जायेंगी और  लोगों के आलसी होने की संभावनायें बढ़ जायेंगी, अतः  इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय यह ध्यान रखना होगा कि वह परिश्रम के आधार पर अर्जित धन के द्वारा ही न्यूनतम आवश्यकताओं का उपार्जन कर सके। समाज द्वारा यह उपाय उन लोगों की क्रय क्षमता को बढ़ा कर किया जा सकता है। समाज के नियंत्रण का भार उनके हाथें में दिया जाना उचित होगा जो एक साथ आध्यात्मिक साधक, बुद्धिमान तथा साहसी हैं।
16. देशकालपात्रैः उपयोगाः परिवर्तन्ते ते उपयोगाः प्रगतिशीला भवेयुः। किसी भी वस्तु का यथार्थ क्या व्यवहार है वह देश  काल और पात्र के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। जो यह सहज नीति नहीं समझ सकते वे लकीर के फकीर बन कर रहना चाहते हैं एंसे लोग प्रगति नहीं कर सकते। अतः देश  काल पात्र के अनुसार सभी वस्तुओं के व्यवहार में परिवर्तन आता है इसे मानना ही होगा, इसे जानकर ही प्रत्येक विषय और भाव के व्यवहार में प्रगतिशील होना होगा।

Saturday 24 January 2015

5.84: स्रष्टिमातृका शिवानी, भैरवी और भवानी

5.84: स्रष्टिमातृका शिवानी, भैरवी और भवानी ( पिछले खंड के सूत्र  से आगे. . .  )

13. त्रिगुणत्मिका सृष्टिमातृका अशेषत्रिकोणधारा। परम पुरुष से सम रज और तम की अनन्त धारायें तरंगों के रूपमें चलते हुए परस्पर मिलकर अनेक कोणात्मक यंत्रों का निर्माण करती हैं जो अन्ततः स्वरूप परिणाम के कारण त्रिकोणयुक्त त्रिभुज में रूपान्तरित होते रहते है । इसे त्रिगुणत्मिका मातृकाशक्ति कहते हैं।
14. त्रिभुजे सास्वरूप.परिणात्मिका। इस त्रिभुज से सत्व रज में, रज तम में, और तम रज में और रज सत्व में असीमित रूपसे रूपान्तरित होता रहता है। उनके इस रूपान्तरण को स्वरूप परिणाम कहते हैं।
15. प्रथमा अव्यक्ते सा शिवानी केन्द्रे च परमशिवः। इस त्रिभुज समूह का मध्यविंदु जिस सूत्र से ग्रथित है वह सूत्र ही पुरुषोत्तम या परम शिव हैं। त्रिभुज जबतक विभन्न शक्तियों के प्रभाव से अपना भारसाम्य नहीं खोता तब तक उसे त्रिकोणाधार की प्रथम अवस्था कह सकते हैं, यही सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था है, अतः यह पूर्णतः सैद्धान्तिक है। इस अवस्था में आधार स्रष्टि प्रकृति शिवानी या कौषिकी कहलाती है जिसके साक्षी पुरुष शिव हैं।
16. द्वितियासकले प्रथमोद्गमे भैरवी भैरवाश्रिता। त्रिभुज का भारसाम्य नष्ट हो जाने पर किसी एक कोंण से सृष्टि का अंकुर निर्गत होता है और गुण भेद से सरलरेखाकार आगे बढ़ता जाता है।  यह अवस्था व्यक्त पुरुष और व्यक्ता प्रकृति की है। पुरुष जहाॅं सगुण का कारण है वहीं प्रकृति  स्वयं को व्यक्त करने का अवसर पाती है। इस अवस्था को भैरवी कहते हैं और इसके साक्षी पुरुष भैरव कहलाते हैं।
17. सदृशपरिणामेन भवानी सा भवदारा।  इस के बाद शक्ति प्रवाह के आभ्यान्तरिक संघर्ष से पुरुष भाव की गंभीरता कम होती जाती है और वकृता दिखाई देती है। यहीं से प्रथम कला का उद्गम होता हैं ।  फिर एक कला के अनुरूप दूसरी और दूसरी के अनुरूप तीसरी  का निर्माण क्रम चलता रहता है। इस प्रकार के कलानुवर्तन का नाम है सद्रश्य  परिणाम। इस सदृश्य  परिणाम के तरंग प्रवाह में ही मानस जगत और भौतिक जगत की रचना होती है।  इसी के फलस्वरूप हम मनुष्य की सन्तान मनुष्य और वृक्ष की सन्तान वृक्ष के रूपमें दिखाई देती  है। कलाये सदृश्य  होते हुए भी विलकुल एकसमान (identical) नहीं होती। कलाओं में पारस्परिक दूरी के बढ़ने पर इनकी पृथकता दिखाई देती है। व्यक्त जगत की इस कलात्मक शक्ति को भवानी कहते हैं, और इसके साक्षी पुरुष हैं भव। भव शब्द का अर्थ है स्रष्टि।
18.म्भूलिंगात् तस्य व्यक्तिः। त्रिकोणाधार के जिस विंदु से प्रथम भैरवी का स्फुरण होता है वहीं से सैद्धान्तिक से व्यावहारिक विकास प्ररंभ होता है। सिद्धान्त और व्यवहार में जो यह सामान्य विंदु होता है उसे शंभुलिंग कहते हैं। वास्तव में शंभू लिंग सकल धनात्मिकता का मूल विंदु है (fundamental positivity)इस प्रारंभिक विंदु के बाद नाद और इसके बाद कला उत्पन्न होती है।
19. स्थूलीभवने निद्रिता सा कुंडलिनी।  व्यक्तिकरण का शेष विंदु भवानीशक्ति का शेष प्रान्त है इसलिये शक्ति विकास की वही चरमतम अवस्था या चरम जड़ अवस्था है। इसी जड़ भाव में निद्रित पराशक्ति जीवभाव की भावना लिये सोयी रहती है। इसका नाम कुलकुंडलिनी है।
20. कुंडलिनी सा मूलीभूता ऋणात्मिका। विकास के शेष विंदु को स्वयंभू लिंग कहा जाता है। यह स्वयंभूलिंग ही परम ऋणात्मक विंदु है और उसी के आधार पर जो सोई हुई कुंडली के आकार की शक्ति रहती है वही कुंडलिनी शक्ति है। शम्भू  लिंग यदि परम धनात्मक भाव हो तो स्वयंभूलिंग में आश्रित कुंडलिनी को परम ऋणात्मिकाशक्ति( fundamental negativity) कह सकते हैं।

Friday 23 January 2015

5.83 : मन की रचना , ब्रह्म मन और गुरु ( पिछले खंड के सूत्र से आगे----)

5.83 : मन की रचना , ब्रह्म मन और गुरु ( पिछले खंड के  सूत्र से आगे----)
1. पञ्चकोषात्मिका जैवीसत्ता कदलीपुष्पवत्। प्रतिसंचर की गति में चित्त की रचना हो जाने के बाद धीरे धीरे मन का व्यापक विकास होता रहता है। विकास की इस धारा में अणु देह का स्थूलतम कोश ( crudest layer)  ‘‘काममय‘‘ उससे सूक्ष्मकोश (subtler layer) ‘‘मनोमय‘‘  उससे सूक्ष्म ‘‘अतिमानस‘‘  उससे सूक्ष्म ‘‘विज्ञानमय‘‘ और उससे भी सूक्ष्म ‘‘हिरण्यमय‘‘ कोश  कहलाते हैं। अणु का स्थूल आधार अन्नमय कोश  संचर गति की संपत्ति है। काममय को स्थूलमन, मनोमय को सूक्ष्म मन और अतिमानस, विज्ञानमय तथा हिरण्यमय तीनों को कारण मन भी कहा जाता है। स्थूल मन के साक्षी पुरुष को प्राज्ञ, सूक्ष्म मन के साक्षी पुरुष को विश्व  कहा जाता है। जैवी सत्ता का स्थूल आधार संचर में स्थित अन्नमय कोश  होता है। इस स्थूल देह में काममय से हिरण्यमय तक पंच कोशों  को सूक्ष्म देह और तथा महत्तत्व और अहंतत्व को सामान्य देह कहा जाता है। यह कोश  समूह केले के फूल की तरह स्थूल और सूक्ष्म परतों के आकार से समझा जा सकता है।
2. सप्तलोकात्मकम् ब्रह्ममनः। ब्रह्म मन  सात लोकों (seven layers of cosmic mind) से निर्मित होता है, ये हैं भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य। ब्रह्म के महत और अहम तत्व का साक्षी केवल पुरुषोत्तम नाम से जाना जाता है यही सत्य लोक है, इसे ब्रह्म की कारण देह भी कहते हैं। ब्रह्म के हिरण्यमय कोश  के साक्षी पुरुष को विराट या वैश्वानर कहा जाता है और यह तपःलोक कहलाता है। इसी प्रकार विज्ञानमय और आतिमानस कोश  के भी साक्षी पुरुष को विराट ही कहा जाता है तथा इनके लोक क्रमशः  जनःलोक और महर्लोक कहलाते हैं। हिरण्यमय, विज्ञानमय और अतिमानस कोश  का सम्मिलित नाम ब्रह्म की सूक्ष्मदेह या कारण मन(causal mind) कहा जाता है। ब्रह्म के मनोमय कोश  को उनका सूक्ष्म मन कहते हैंऔर साक्षी पुरुष को हिरण्यगर्भ इससे संबंधित लोक को स्वर्लोक कहते हैं । ब्रह्म के काममय कोश  को उनका स्थूल मन कहते हैं और इसके साक्षीपुरुष को ईश्वर। यह ब्रह्म की स्थूल देह भी कहलाती है। इसकी सूक्ष्मता और स्थूलता के अनुसार  इन्हें क्रमशः  आंशिक रूपमें भुवः और आंशिक रूपमें भूर्लोक कहते हैं।
3. कारणमनसि दीर्घनिद्रा मरणम्।  जाग्रद अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों मन क्रियाशील रहते हैं। स्वप्नावस्था में केवल स्थूल मन सोया रहता है और शेष दोनों मन क्रियाशील रहते हैं। प्रगाढ़ निद्रा में स्थूल और सूक्ष्म दोनों मन सोये रहते हैं केवल कारण मन क्रियाशील रहता है और वही शेष दोनों मनों का कार्य करता जाता है। जिस समय शरीर और मन की तरंगों में साम्यावस्था समाप्त हो जाती है तब कारण मन भी निष्क्रिय हो जाता है और इसे मृत्यु कहा जाता है।
4. मनोविकृतिः विपाकापेक्षिता संस्कारः। सत् या असत् किसी भी प्रकार का कार्य मन में विकृति पैदा करता है, विपाक अर्थात् इस विकृति के समाप्त हो जाने पर अर्थात् उस कर्म का फल भोग लेने पर मन अपनी स्वाभविक अवस्था में लौट आता है। जिस क्षेत्र में कर्म तो किया जाता है पर फल भोग नहीं हो पाता अर्थात  विपाक अपेक्षित रहता है तो इसे संस्कार (reaction in potential form) कहते हैं। मृत्यु काल में कारण मन में जिस प्रकार के संस्कार भोग करने के लिये रह जाते हैं, प्रकृति उस विदेह मन (bodyless mind) को विभिन्न जीवों के गर्भ में उन्हीं संस्कारों की तरंगों के मेल होने पर जैवी देह से संयुक्त करा देती है।
5. विदेहीमानसे न कतृत्वं न सुखानि न दुखानि। देह से मन के अलग हो जाने पर अर्थात् मृत्यु हो जाने के बाद जीवों को सुख या दुख का बोध नहीं होता क्योंकि इस अवस्था में उनके पास स्नायु कोश  या स्नायु तन्तु नहीं होते जो यह संवेदन उन्हें प्रेषित कर सकें। अतः यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि विदेही आत्मा अमुक कार्य करने से सुखी या दुखी होंगे या प्रतिहिंसा करेंगे आदि।
6. अभिभावनात् चित्ताणुसृष्टप्रेतदर्शनम् । वास्तव में भूत प्रेत नामक कुछ भी नहीं है। भय या क्रोध  या मोह से ग्रस्त अवस्था में जब मन की एकाग्रता सामयिक रूप से हो जाती है तो उसका चित्ताणु ही उसके द्वारा चिंतन किये जा रहे विषय का रूपले लेता है और अपने मन की भावना को बाहर प्रत्यक्ष देखने लगता है। इसे धनात्मक भ्रान्तिदर्शन (positive hallucination कहते हैं। मन में किये जा रहे विचारों से भिन्न आकार दिखाई देने को ऋणात्मक भ्रान्तिदर्शन( negative hallucination) कहते हैं। इसलिये जो कहते हैं कि उन्होंने भूत देखा , वे गलत नहीं हैं उनके मन की भ्रान्ति ही उन्हें दिखाई देने लगती है। स्वप्रेरण से भी यदा कदा आन्तरिक रूपसे गहरा चिंतन प्रेतभ्रम पैदा कर सकता है और वह व्यक्ति इस प्रकार का व्यवहार करते देखा जा सकता है जैसे किसी देवी देवता या प्रेत ने उसके शरीर में प्रवेश  कर लिया हो।
7. हितैषणा प्रेषितोपवर्गः। कर्म समाप्त होने पर जो फल प्राप्त होता है उसमें ब्रह्म की ओर से कल्याण भावना
ही होती है, अन्याय कर्म का दंड मनुष्य को अन्याय से दूर रहने की शिक्षा देता है। सत् कर्म करने से प्राप्त शुभ फल यह शिक्षा देता है कि अशुभ या असत् कर्म से इसे नहीं पाया जा सकता।
8. मुक्त्याकाॅंक्षा सद्गुरुप्राप्तिः। मनुष्य में जब मुक्ति पाने की तीब्र इच्छा उत्पन्न होती है तो उसकी इसी आकाॅंक्षा की शक्ति से ही सद्गुरु मिल जाते हैं।
9. ब्रह्मैव गुरुरेकः नापरः। एकमात्र ब्रह्म ही सद्गुरु हैं, वे ही विभिन्न माध्यमों से जीव को मुक्ति पथ की ओर ले जाते हैं। ब्रह्म के अलावा कोई अन्य गुरु हो ही नहीं सकता।
10. वाधा सा युषमानाशक्तिः सेव्यं स्थापयति लक्ष्ये। साधना के मार्ग में बाधायें शत्रु नहीं वरन् मित्र हैं वह मनुष्य की सेवक हैं। ये बाधायें अपने विरुद्ध संघर्ष करने को प्रेरित करती हैं और संघर्ष की यही चेष्टा साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है।
11. प्रार्थनार्चनामात्रैव भ्रममूलम्। ईश्वर  से याचना प्रार्थना करना व्यर्थ होता है क्योंकि जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है वे उसे यथा समय देंगे ही अतः अर्चना खुशामद करने के अलावा और क्या है?
12. भक्तिर्भगवद्भावना न स्तुतिर्नार्चना। एकनिष्ठ भाव से भगवान की भावना लेने का नाम ही भक्ति है। स्तुति गाना या किसी उपचार के लिये अर्चना करना भक्ति से संबंधित नहीं है। भक्त चाहे तो वह ऐंसा कर सकता है पर भक्ति साधना का वह अंग नहीं है।

Monday 19 January 2015

5.82: सुख दुख , ब्रह्म और जगत (पिछले खंड के सूत्र २५ से आगे)……

5.82:  सुख दुख , ब्रह्म और जगत   (पिछले खंड के सूत्र २५  से आगे)……
26 अनुकूलवेदनीयमं सुखम्। संस्कारों के कारण जिस की मानसिक तरंगें किसी जड़ वस्तु या मानसिक सत्ता से मेल करतीं हैं तो उन्हें वह अनुकूल लगतीं हैं, इन अनुकूल अनुभव होने वाली तरंगों से सुख की अनुभूति होती है।’
27 सुखानुरक्तिः परमा जैवीवृत्तिः। प्रत्येक जीव अपने आप का रक्षण करता है और जीवित रहना चाहता है। सुख के अभाव में उसका सत्ताबोध घटने लगता है अतः वह सुख को कम नहीं होने देना चाहता और सुख को ही परम आश्रय के रूपमें चाहता है।
28 सुखमनन्तमानन्दम। कोई भी जीव थोड़े में संतुष्ट नहीं होता फिर मनुष्य का क्या कहना वह तो अनन्त सुख चाहता है। यह अनन्त सुख वास्तव में सुख और दुख से बाहर की अवस्था है यह इंद्रियों की सीमा से परे है, इस अनन्त सुख का नाम ही आनन्द है।
29 आनन्दं ब्रह्म इत्याहुः। अनन्त वस्तु अनेक नहीं हैं वह एक ही हैं। अनन्तत्व में अनेकत्व नहीं
रह सकता। उस एक आनन्दघनसत्ता का नाम ही परमब्रह्म है जो शिवशक्त्यात्मक है।
30 तस्मिन्नुपलब्धे परमा तृष्णानिवृत्तिः।  अनन्त सत्ता एकमात्र ब्रह्म ही हैं इसलिये उनके भाव में प्रतिष्ठत होने पर जीव की सभी तृष्णायें निवृत हो जाती हैं।
31 बृहदेषणा प्रणिधानम् च धर्मः। जानकर या अनजाने में मनुष्य अनन्तत्व की ओर चलने लगता है। जब जानकर इस ब्रहत् को पाने की चेष्टा की जाती है तो इस हेतु किये जानेवाले ईश्वरप्रणिधान के भाव का ही नाम धर्म है और इसे पाने का प्रयास करना साधना कहलाता है।
32 तस्माद्धर्मः सदाकार्यः। जब सभी सुख ही चाहते हैं और अनन्तत्व को पाये बिना केवल भोगों की कामना करने से तृप्ति होती ही नहीं तो अवश्य  ही सब को धर्म साधना करना ही चाहिये। अन्य जीवों में उन्नत मस्तिष्क न होने से यदि वे धर्मसाधना न करपाये तो कोई बात नहीं पर मनुष्य का मस्तिष्क तो उन्नत है अतः उसे अवश्य  ही धर्म साधना करना चाहिये।
33 विषये पुरुषावभासः जीवात्मा। पारमार्थिक विचार से आत्मा एक ही है । व्यक्त अथवा अव्यक्त जिस किसी भी अवस्था में मन क्यों न हो उसके ऊपर आत्मा का ही प्रतिफलन होता रहता है। मन के ऊपर आत्मा के प्रतिफलन को जीवात्मा कहते हैं और उसके प्रतिफलक को परमात्मा या प्रत्यगातमा। इस प्रतिफलित आत्मा या जीवात्मा  को अणुचैतन्य भी कहते हैं और परमात्मा को भूमाचैतन्य। अणु की समष्टि को भूमा कहते हैं। परमात्मा भूमा मानस की ज्ञातृसत्ता हैं अतः परमात्मा भूमाचैतन्य हैं।
34 आत्मनि सत्तासंस्थितिः। जड़ की सत्ता चित्त के आधार में है चित्त का आधार कर्तृत्वाभिमान में है या स्वामित्वाभिमान में है अर्थात् अहंतत्व में है। कर्तृत्व या स्वामित्व के अभिमान का आधार अस्तित्वबोध में है, ‘‘ मैं हूँ ‘‘ अर्थात् महतत्व में है। यह सत्ता ज्ञान कि ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं‘‘ नहीं रहने पर अस्तित्वबोध कम हो जाता है।  अतः सबके मूल में ‘‘मैं जानता हॅूं‘‘ यह रहता है। उसके बाद द्वितीय सत्ता के रूपमें ‘‘मैं हॅूं‘‘  यह रहता है। इस ‘‘मैं जानता हॅूं‘‘ का जो ‘‘मैं‘‘ है वह ही आत्मा है। अतः सारा सत्ता बोध आत्मा पर ही निर्भर है।
35 ओतः प्रोतः योगाभ्यां संयुक्तः पुरुषोत्तमः। विश्व  के प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम प्रत्यक्ष भाव से प्रत्येक सत्ता के साक्षी और उसके साथ ही संयुक्त रहते हैं, इसी संयुक्त भाव को ओतयोग कहते हैं। यही पुरुषोत्तम विश्व  की समष्टि सत्ता और समष्टि मानस के भी साक्षी हैं इसे प्रोतयोग कहते हैं। इसलिये जो ओत और प्रोत योग द्वारा अपने विषयों से संयुक्त हैं वही पुरुषोत्तम हैं।
36 मानसातीते अनवस्थायां जगद्बीजम्। सृष्ट वस्तुयें कार्य कारण प्रभाव (cause and effect) के अनुसार चलती हैं। प्रतिसंचर में कार्यों को ढूंडते ढूंडते हम पंच भूत की ओर पहुंच जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संचर घारा में कार्यों को खोजते हुए हम ‘महत‘ में पहुंच जाते हैं। महत के ऊपर मन का अधिकार नहीं है अतः उसके लिये वह मनसातीत अवस्था है। इस अवस्था में मन के द्वारा कार्यकारण तत्व का निरूपण कर पाना संभव नहीं है। इसका अर्थ है कि जिस अवस्था में मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है उस में मन है यह मानना दोषपूर्ण है, इसलिये सृष्टि कब उत्पन्न हुई थी , क्यों उत्पन्न हुई थी यह प्रश्न  ही निरर्थक है।
37 सगुणात् सृष्टिरुत्पत्तिः। सृष्ट जगत जब गुणाधिगत रहता है तो यह कहना ठीक ही है कि जगत् की उत्पत्ति सग्रुण ब्रह्म से ही हुई है निर्गुण से नहीं।
38 पुरुषदेहे जगदाभासः। जगत में  व्यक्त या अव्यक्त जो भी है वह ब्राह्मी देह में ही आभास देता है। ब्रह्म के बाहर कुछ भी नहीं है। ब्रह्म से बाहर नाम की कोई चीज है ही नहीं।
39 ब्रह्म सत्यम् जगदपिसत्यमापेक्षिकम्। ब्रह्म सत्य अर्थात् अपरिणामी है परंतु आपात् द्रष्टि से ब्रह्म देह में  जो परिणाम देखा जाता है वह प्रकृति के प्रभाव से देश  काल पात्र तीनों में ही देखा जाता है। इसे हम गलत नहीं कह सकते और शाश्वत  सत्य भी नहीं कह सकते। अतः जगत भी आपेक्षिक सत्य है क्योकि यह देश (space) काल (time) और पात्र(person) पर निर्भर करता है। व्यक्ति सत्ता भी इन तीनों गुणों पर निर्भर है अतः वह भी सापेक्षिक सत्य है। एक सापेक्षिक सत्ता दूसरी सापेक्षिक सत्ता को पारमार्थिक सत्य रूपमें प्रतीत होती
है। इसलिये परिणामयुक्त जीव के लिये परिणामयुक्त जगत भी सत्य रूपमें आभास देता है।
40 पुरुषः अकर्ता फलसाक्षीभूतः भावकेन्द्रस्थितः गुणयन्त्रकश्च । व्यष्टि और समष्टि सभी सत्ताओं के प्राण केन्द्र में पुरुष तत्व की उपस्थिति होती है। समष्टि केन्द्र में स्थित पुरुष ही पुरुषेत्तम हैं। पुरुष अकर्ता हैं क्योंकि गुण प्रवाह के कारण वस्तु देह में जब क्रिया शक्ति उत्पन्न होती है तो उस क्रिया शक्ति को नियंत्रण करने वाले को ही कर्ता कहा जाता है। पुरुष उस गुण समूह का नियंत्रण करते हैं जिनसे क्रिया शक्ति  उत्पन्न होती है अतः वे गुणाधीश  हैं गुणाधीन नहीं।
41 अकत्र्री विषयसंयुक्ता बुद्धिः महद्वा। बुद्धि तत्व या महत्तत्व कुछ कार्य नहीं करता वरन् वह विषय के साथ जुड़ा रहता है।
42 अहं कर्ता प्रत्यक्षफलभोक्ता। अहं तत्व ही प्रकृत रूप में कर्म का कर्ता है और फल का भोग भी वही करता है।
43 कर्मफलम् चित्तम्। जीव का चित्त ही कर्म का फलरूप ग्रहण करता है।
44 विकृतचित्तस्य पूर्वावस्था प्राप्तिर्फलभोगः। कर्म का अर्थ है चित्त की अवस्था में परिवर्तन। यदि इसे विकृति कहा जाये तो इसके बाद चित्त के पूर्वावस्था में लौटने की जो प्रक्रिया है उसे फलभोग कहना होगा।
45 न स्वर्गो न रसातलः। स्वर्ग और नरक नाम की कोई वस्तु नहीं है। मनुष्य जब सत् कर्म करता है या सत् कर्म के फल का भोग करता है तो वह परिवेश  उसके लिये स्वर्ग नाम से जाना जा सकता है और जब कुकर्म करता है या उसका फलभोग करता है तो उसके लिये जो परिवेश  मिलता है उसे नर्क कहा जाता है।
46 भूमाचित्ते संवरधारायां जड़ाभासः। ब्राह्मी चित्त के ऊपर तमोगुणी प्रकृति के अधिक प्रभाव से आकाश  तत्व और आकाश  तत्व के ऊपर तमोगुणी प्रभाव से वायु तत्व और इसी क्रम से अग्नि, जल और भूमि का स्रजन होता है, ये सभी पंच महाभूत कहलाते हैं इन्हीं से अन्य सब जगत की वस्तुयें उत्पन्न होती हैं।
47 भूतलक्षणात्मकं भूतवाहितं भूतसंघर्ष स्पन्दनम् तन्मा़त्रम्। भूतदेह में बाहरी और भीतरी आघातों से जो अलोड़न उत्पन्न होता है , वह तरंग के आकार में सूक्ष्म होकर भूत देह से जीव देह में इंद्रियों के द्वार से प्रवेश  करता है। इंद्रियों के द्वार से अन्य अनेक नाडि़यों की सहायता से या उनके भीतर प्रवाहित रस के माध्यम से मस्तिष्क के उस विंदु में ग्रहण किया जाता है जहाॅं से इन भावों की पहचान होती है। ये भावग्राही तरंगें शब्द ,स्पर्श , रूप, रस और गंध के साथ चित्त को संयुक्त कराती हैं, इस प्रकार की तरंग समूह को
तन्मात्रायें कहते हैं।
48 भूतं तन्मात्रेण परिचीयते। तन्मात्राओं के द्वारा कौन सी वस्तु किस भूत से संबंधित है यह पता किया जा सकता है , आकाश  में केवल शब्द, वायु में शब्द और स्पर्श , तेजस में शब्द स्पर्श  और रूप, जल में शब्द, स्पर्श , रूप और रस तथा पृथ्वी तत्व में शब्द स्पर्श , रूप, रस और गंध इन पाॅंचों तन्मात्राओं को वहन करने का सामर्थ्य  है। आॅंख कान नाक जीभ और त्वचा इन पाॅंच ज्ञानेद्रिंयों का काम है बाहरी भूत समूह से तन्मात्रायें ग्रहण करना। वाक्, पाणि , पाद, पायु, और उपस्थ इन पाॅंच कर्म इंद्रियों के द्वारा आन्तरिक तन्मात्र को बाहर करना और प्राणेन्द्रिय का काम है वस्तु भाव के साथ चित्त भाव को संयुक्त करना तथा छोटा, बड़ा गर्म , ठंडा
आदि का भाव चित्त में निर्मित करना।
49 द्वारः नाडि़रसः पीठात्मकानि इंद्रियानि। जीवदेह के जिस द्वार से तन्मात्र सबसे पहले वस्तु भाव को ले जाता है, वह नाड़ी जो तन्मात्र की तरंग से तरंगायित होती है, तथा नाडि़रस जो तन्मात्रिक स्पंदन को संवाहित करता है और स्नायुकोष के जिस विंदु में तन्मात्र तरंग चित्त से संयुक्त होती है, इन का सामूहिक नाम इंद्रिय है। लौकिक विचार से हम जिसे आॅंख कहते हैं उसके पीछे चक्षु नाड़ी (optic nerve) और चाक्षुस पित्त (optical fluid) है, चाक्षुस रस और स्नायु कोष का चक्षु विंदु या पीठ है, इन सब का संयुक्त नाम नेत्र इंद्रिय है।

Thursday 15 January 2015

5.8 पराज्ञान: आनन्दसूत्रम

पिछले पृष्ठों में अनेक स्थानॉ  पर आपने "आनन्द सूत्रम्" का सन्दर्भ पाया है।  इस खंड में इन्हीं सूत्रों की चर्चा की जाएगी।  वास्तव में जगद्गुरु महासम्भूति श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने सामाजिक- आर्थिक -राजनैतिक  -आध्यात्मिक सभी पक्षों को मानव कल्याण के लिए कुल 85  सूत्रों में बांध कर  मार्गदर्शन दिया है।  यद्यपि उनमे से प्रत्येक की  व्याख्या बहुत लम्बी चौड़ी है पर प्रयास किया गया  है कि इन सभी सूत्रों को ज्यों का त्यों रखते हुए  उनकी सारगर्भित व्याख्या संक्षेप में की जावे।  आगामी लेखों में क्रमशः सभी सूत्रों को प्रस्तुत किया जा रहा है कृपया ध्यान से अध्ययन करें और अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य देवें जिससे इन्हें और अधिक समाजोपयोगी बनाया जा सके। 

5.8 पराज्ञान: आनन्दसूत्रम

5.81: ब्रह्म, स्रष्टि चक्र और अनुभूति:

1 शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म।
    कागज के दो पृष्ठों की तरह ‘ब्रह्म‘  शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है। जिस प्रकार कागज     के पृष्ठों को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शिव और शक्ति भी अविनाभावी हैं वे एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। दार्शनिक  रूपमें इन्हें ही पुरुष और प्रकृति के नाम दिये गये हैं। प्रत्येक सत्ता में जो साक्षीबोध सोया हुआ है उसे ही पुरुष कहते हैं, ‘पुरे शेते यः सः पुरुषः‘। जब मानस तरंगें आत्मिक सत्ता से टकरातीं हैं तो इसके संवेदन से यह अनुभव होता है कि आत्मा अर्थात् शिव और  जीव अविछिन्न हैं। इस सर्वप्रतिसंवेदी आत्मा के रहने से ही  सभी वस्तुओं का अस्तित्व है।
2क्तिः सा शिवस्य शक्तिः।
    प्रत्येक वस्तु के उपादान और निमित्त कारण होते हैं। स्रष्टि के विकास में पुरुषतत्व उपादान कारण है और प्रकृतितत्व, निमित्त के साथ उपादान से संपर्क स्थापन करने की षक्ति है तथा निमित्त कारण से पुरुष भाव मुख्य और प्रकृति भाव गौण है। पुरुष सर्वव्याप्त सत्ता हैं पर प्रकृति पुरुष की आश्रिता है। पुरुष जितना कार्य करने का अवसर प्रकृति को देते हैं वह उतना ही कर सकती है। प्रकृति के तीन गुणों सत रज और तम के बंधनों से सूक्ष्म पुरुष स्थूलता ग्रहण करता है और चरम अवस्था आने पर धीरे धीरे प्रकृति को पूर्व में प्रदान किये गये सुअवसरों और स्वाधीनता को कम करता जाता है। इस प्रकार पुरुष अपनी सूक्ष्मता को प्राप्त करते हुए पुनः चरम अवस्था प्राप्त कर अपने स्वभाव में वापस आ जाता है। प्रकृति के बंधन के कारण पुरुष देह में जो विकासधारा है उसे दार्शनिक  रूप में ‘संचर‘ कहा जाता है और इन बंधनों के कमजोर होने पर पुरुष देह में क्रमिक मुक्ति का भाव आने को ‘प्रति संचर‘ कहा जाता है। स्पष्ट है कि अपने अधिकार में स्वतंत्र होने पर भी
प्रकृति को यह अधिकार देना या न देना पुरुष की इच्छा पर ही निर्भर होता है अतः कहा गया है कि प्रकृति, पुरुष की ही प्रकृति है।
3 तयोः सिद्धिः संचरे प्रतिसंचरे च । किसी भी सत्ता का अस्तित्व उसकी कर्मधारा, भावनाधारा और साक्षीत्व पर निर्भर होता है। साक्षीत्व भाव पुरुष का और अन्य दो प्रकृति के होते है। इसलिये प्रकृति अपने कर्म या भावना का कारण तभी हो सकती है जब वह स्वयं विषय ग्रहण कर उसके साथ एक हो जाये। प्रक्ति जो भाव ग्रहण करती है वह पुरुष के ऊपर क्रमिक रूपसे बढ़ते प्रभाव अर्थात् संचर क्रिया में या क्रमशः  घटते प्रभाव अर्थात् प्रतिसंचर क्रिया में सम्पन्न होता है। प्रकृति के इस कार्य में उपादान कारण पुरुष तो हैं ही , वह सभी अवस्थाओं में साक्षी भी होते हैं।
4 परमः शिवः पुरुषोत्तमः विश्वस्य केन्द्रम। अपने तीनों गुणों की सहायता से संचर क्रिया में प्रकृति, पुरुष भाव को जड़ात्मक और प्रतिसंचर क्रिया में इन्हीं गुणों के प्रभाव को क्रमशः  कम करते हुए उन्हें अपने मूल स्वभाव में लौटा लाती है। संचर की क्रिया सेंट्रीफ्युगल अर्थात् केन्द्र के बाहर की ओर, और प्रतिसंचर क्रिया सेन्ट्रीपीटल अर्थात् केन्द्र की ओर होती है। इन्हीं की मदद से स्रष्टि चक्र चलता है जिसके केन्द्रक होते हैं पुरुष या शिव, (कांशसनेस)। उनके इस प्राण केन्द्र को दार्शनिक  रूप में परमशिव या पुरुषोत्तम कहते हैं।
5 प्रवृत्तिमुखी संचरः गुण धारायाम्। प्रकृति के प्रभाव से पुरुष जब अपने प्राण केन्द्र से बाहर की ओर जड़ाभिमुखी होता है तो इसे प्रवृत्ति कहते हैं। साक्षी स्वरूप पुरुषोत्तम में, प्राकृत शक्ति का जब सत्वगुण सम्पात होता है तो अस्तित्व बोध जागता है, दार्शनिक भाषा में इसे महत्तत्व (existential feeling) कहते हैं। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी।  इसी क्रम में महत्तत्व के ऊपर प्रकृति के रजोगुण का संपात होने पर कर्तृत्वबोध और स्वामित्व बोध जागता है , पुरुष की इस परिवर्तित अभिव्यक्ति को  अहंतत्व (doer I feeling) कहते हैं। इसी क्रम में जब शक्ति के अधिक संपात से पुरुष चरम स्थूलत्व को पा जाता है तो इस अवस्था को चित्त (mind stuff) कहा जाता है और यह तमो गुण के प्रभाव से होता है। अर्थात् एक ही पुरुष से प्रवृत्ति की ओर प्रकृति की क्रमिक गुणधारा में ही संचर क्रिया होती है।
6 निवृत्तिमुखी प्रतिसंचरः गुणावक्षयेण। वृत्ति की वृद्धि होना प्रवृत्ति और वृत्ति का ह्रास होना निवृत्ति कहलाता है। संचर की धारा में प्रकृति के प्रभाव से पुरुष देह में जिस चित्त सत्ता की उत्पत्ति होती है उसे जब जीवात्मा अनुभव करने का प्रयास करता है तब वह पंच महाभूत, दस इंद्रियाॅं, और पंच तन्मात्र के रूपमें आभास देती है। चरम अवस्था आ जाने पर पुरुष प्रकृति के अधिकार को कम करने लगता है और प्रकृति, विश्व  प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम की ओर आकर्षित होने लगती है। इसी क्रम में जड़ पंचमहाभूत, जीव देह, जीव प्राण आदि जीव मन में रूपान्तरित होने लगते हैं और धीरे धीरे गुणों के क्षय हो जाने के कारण अपने मूल कारण पुरुषोत्तम  में लीन हो जाता है । इसी लिये प्रतिसंचर की चरम अवस्था गुणवर्जित अवस्था है व्यक्तिगत जीवन में इसे ही प्रलय कहते हैं।
7 द्रक् पुरुषः दर्शनं शक्तिश्च । क्रिया, भाव दर्शन  है। साक्षी भाव द्रष्टा के न होने पर दर्शन  नहीं होता । मनन, वचन, श्रवण, ग्रहण ये सभी क्रियायें भाव हैं। इन क्रिया भावों का अस्तित्व जिस साक्षित्व से निष्पन्न होता है
वह द्रष्टा भाव ही पुरुष है, और उनके आश्रय से जिस क्रिया भाव की अभिव्यक्ति होती है वही प्राकृत गुण सम्पन्न है। तरंग के अभिव्यक्तिकरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उस दशा  में उसके आपातः साक्षी को चैत्तिक सत्ता कहेंगे। चैत्तिक स्फुरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके आपातः साक्षी को अहंतत्व कहेंगे। अहं के विकास को क्रिया भाव कहें तो उसका आपातः साक्षी महत्तत्व है। ‘‘मैं हूँ ‘‘ के अस्तित्व बोध को या महत्तत्व को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके साक्षी भाव अर्थात् ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं‘‘  यह भाव ही चरम साक्षीरूप से ग्रहणीय है। यह जो ‘‘ मैं जानता हॅूं‘‘ है,  यह किसी का आपातः साक्षी नहीं है। सभी अवस्थाऔं में सब का साक्षी है। अतः अंतिम रूप से यही भाव ही द्र्रष्टा है, और पुरुष का विषययुक्त स्वभाव (attributed consciousness)  है।
8 गुणबंधनेन गुणाभिव्यक्तिः। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी। जिस पर जितना ही द्रढ़ बंधन होता है वह वस्तु उतना ही स्थूलत्व प्राप्त करती है। पुरुष की अनुमति से जब प्रकृति उन्हें बाॅंधती है तब क्रमशः  बढ़ते हुए गुण बंधन के प्रभाव से चेतन पुरुष महत्तत्व, अहंतत्व और चित्त आदि में रूपान्तरित होता रहता है और इसके बाद चैत्तिक सत्ता पर अधिकतम तमोगुण के बंधन से आकाश  तत्व निर्मित होता है, उससे अधिक बंधन से
वायुतत्व, उससे अधिक बंधन से अग्नितत्व, उससे अधिक बंधन से जलतत्व और उससे अधिक बंधन से क्षितितत्व उत्पन्न होते हैं। क्षिति तत्व में भी बंधन की मात्रा के अंतर से भूत देह में तन्मात्राओं के संचार करने की क्षमता आती है और अन्य बहुरूपों का स्रजन होता रहता है।
9 गुणाधिक्ये जडस्फोटः भूतसाम्याभावात्।  क्षितितत्व के बाद आगे भी गुण का प्रयोग चलता रहे तो पंचभूतों की साम्यता नष्ट होने लगती है और जडस्फोट होता है। जडस्फोट के कारण क्षिति तत्व में आन्तरिक रूपसे बहुत संघर्ष होने से वह अति सूक्ष्म भूतों जैसे, जल, अग्नि, वायु ,आकाश  आदि में रूपान्तरित हो जाता है। उस की गति प्रतिसंचरात्मक होने लगती है, पर जडस्फोट से उत्पन्न सूक्ष्म वस्तुसमूह अब भी संचर की ओर ही चलते जाते हैं। इसी प्रकार का क्रम चलता रहता है और जब क्षिति तत्व की मात्रा अन्यान्य भूतों की तुलना में अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है और भूतसमूह की पारस्परिक मात्रा में अधिक न्यूनता या अधिकता न होने के कारण अर्थात् साम्यावस्था आ जाने पर जडस्फोट के बदले जीव देह उत्पन्न होने लगती है।
10 गुणप्रभावेन भूतसंघर्षाद्बलम्। वस्तुदेह पर गुण का बंधन जितना अधिक होता जाता है उतना ही अधिक उनके भीतर संघर्ष बढ़ता जाता है इस संघर्ष को बल या प्राण कहा जाता है। सभी भूतों में प्राण का अस्तित्व कम या अधिक मात्रा में होता है पर उसकी अभिव्यक्ति सबमें समान नहीं होती ।
11 देहेन्द्रिकाणि परिणामभूतानि बलानि प्राणाः। बाहरी और भीतरी शक्तियों के संघर्ष से वस्तु देह में उत्पन्न परिणामी बल को  यदि उसी देह में कोई केन्द्र मिल जाता है तो उस क्षेत्र में क्रियारत बलसमूह को प्राणाः या जीवनी शक्ति कहते हैं।
12 तीव्रसंघर्षेण चूर्णभूतानि जडानि चित्ताणु मानसधातुः वा। वस्तु देह में बल का तीब्र गति से प्रभाव बढ़ते जाने पर जड़ सत्ता का कुछ भाग चूर्णीभूत हो जाता है और आकाश  तत्व से भी सूक्ष्म चित्ताणु या मानस धातु का निर्माण हो जाता है। अर्थात् जड़ से ही मन की उत्पत्ति होती है।
13 व्यष्टिदेहे चित्ताणुसमवायेन चित्त बोधः। व्यक्ति की जड़ देह में उक्त जड़ देह के सामूहिक केन्द्र पर जिस चित्ताणु समूह की स्थिति होती है वह सामूहिक भाव ही उसका चित्त बोध कहलाता है। यह चित्त जीव मन का विषय भाव अर्थात् doer I or objective I है। जब तक व्यक्ति की सभी अनुभूतियाॅं चाहे वे देखी हुई हों या सुनी हुई, चित्त में अपने भाव उत्पन्न नहीं करती,  वे फलित नहीं होती।
14 चित्तात् गुणावक्षये रजोगुणप्राबल्ये अहम्। पुरुषोत्तम के प्रभाव से जब चित्त विद्याशक्ति के प्रभाव में आ जाता है तब उस पर तमोगुण का प्रभाव घटने लगता है और रजो गुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। चित्त के जिस भाग में रजोगुण का अधिक प्रभाव दिखाई देने लगता है उसे अहम तत्व या कर्तृत्वयुक्त मैं, या स्वामित्वयुक्त मैं (doer I feeling) कहा जाता है।
15 सूक्ष्माभिमुखिनीगतिरुदये अहंतत्वान्महत्। विद्याशक्ति के लगातार आकर्षण से रजोगुण का प्रभाव घटने लगता है और सतोगुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। अहंतत्व के जिस भाग में सत्व गुण की प्रबलता हो जाती है उसे महत्तत्व (pure I feeling)  कहते हैं।
16 चित्तदहंप्राबल्ये बुद्धिः। चित्त की परिधि से अहं की परिधि अधिक हो जाने पर उस क्षेत्र में चित्तवर्जित अहं के परिषिष्ठाॅंष को बुद्धि(intellect) कहा जाता है।
17 अहंतत्वात् महद्प्रावल्ये बोधिः। अहंम् तत्व से महत् तत्व का आयतन अधिक हो जाने पर  महत् के उस बढ़े हुए भाग को बोधि या (intuition) कहते हैं।
18 महद्हंवर्जिते अनग्रसरे जीवदेहे लतागुल्मे केवलम् चित्तम्। अनग्रसर जीवदेह अर्थात् लता गुल्म आदि में केवल चित्त ही विकसित होता है महत् या अहं का नहीं।
19 महद् वर्जिते अनग्रसर जीवदेहे लतागुल्मे चित्तयुक्ताहम्। अनग्रसर जीवदेह लता गुल्म में यह भी हो सकता है कि महत् का विकास न हुआ हो और अहम् तथा चित्त का विकास हुआ हो।
20 प्राग्रसरे जीवे लतागुल्मे मानुषे महदहं चित्तानि। अपेक्षाकृत उन्नत जीव में , लता गुल्म में तथा मनुष्य में महततत्व, अहंतत्व, और चित्त तीनों का विकास होता है।
21 भूमाव्याप्ते महति अहंचित्तयोप्र्रणाशे  सगुणास्थितिः सविकल्प समाधिः वा।  लगातार अभ्यास के द्वारा जब महत्तत्व बोध अर्थात् ‘‘मैंपनका बोध‘‘ भूमा के मैंपन बोध में अर्थात् (macro cosmic feeling) में रूपान्तरित होता है तब ‘‘जैव मन‘‘(micro cosmic feeling) का चित्त अहं में तथा अहं महत् में लय हो जाता है। वस्तु जब अपने कारण में लय प्राप्त करती है तब उस लय को प्रणाश  कहा जाता है। प्रतिसंचर धारा में जब चित्त अहं में और अहं महत् में लय प्राप्त करता है तो उसे प्रणाश  कहना उचित है। चित्त और अहं के प्रणाश  और महत् के सर्वव्यापित्व की यह अवस्था ही सगुण स्थिति या सविकल्प समाधि कहलाती है।
22 आत्मनि महद् प्रणाशे  निर्गुणास्थितिः निर्विकल्पसमाधिः वा। मैंपन बोध को पुरुषोत्तम या चितिशक्ति में लीन कर महत् की जो प्रलीनावस्था है उसे ही निर्गुणावस्था या निर्गुण समाधि कहते हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। क्योंकि,
23 तस्यस्थितिः अमानसिकेषु । मन की अतीतावस्था में ही यह निर्गुणा स्थिति होती है अतः मन की अनुभव्य नहीं है।
24 अभावोत्तरानन्दप्रत्ययालम्बनीर्वृत्तिः तस्य प्रमाणम्। जाग्रत अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म और कारण मन की तीनों अवस्थायें क्रियाशील होती हैं परंतु स्वप्न अवस्था में स्थूल मन निरुद्ध हो जाता है अतः सूक्ष्म और कारण ये दो ही क्रियाशील  रहते हैं। निद्रित अवस्था अभाव बोध की अवस्था नहीं है क्यों कि उस अवस्था में कारण मन के द्वारा स्थूल और सूक्ष्म दोनों के कार्य होते रहते हैं। मन लय हो जाने के समय ही उसे प्रकृत अभाव की अवस्था कह सकते हैं। इसीलिये सविकल्प अवस्था अभाव की अवस्था नहीं है, निर्विकल्प अव्स्था ही अभाव की अवस्था है। इस चरम अभाव की अवस्था में  जो आत्मिक आनन्द की लहरें जैवी सत्ता को आच्छादित कर लेती हैं , अभाव के बाद भी मन में उन लहरों का भाव बना रहता है जब तक कि अभुक्त संस्कार मन को पुनः अपनी ओर नहीं खींच लेता। इन लहरों का भाव ही साधक को बताता है कि उनकी मनःशून्य  अवस्था थी एक आनन्दघन अवस्था।
25 भावः भावातीतयोः सेतुः तारकब्रह्म। भावयुक्त और भावातीत निर्गुण के बीच जो सेतु का कार्य करते हैं वह तारक ब्रह्म हैं। महासंभूति तारक ब्रह्म का सगुण रूप होता है।

Monday 12 January 2015

स्वर्ग और नर्क

अनेक मित्रों ने विभिन्न मतवादों में वर्णित ‘‘स्वर्ग और नर्क‘‘ की अवधारणाओं पर विज्ञानसम्मत तार्किक आधार  पर टिप्पणी चाही है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि सच्चाई जानने के लिये उत्सुक आप सभी इन विषयों पर गंभीरता से चिंतन कर रहे हैं। इस विषय पर वाॅंछित जानकारी इस प्रकार है।
                                                      स्वर्ग और नर्क
अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम्‘ में कहा गया है कि ‘‘ न स्वर्गो न रसातलः ‘‘।
अब यदि इसे इस प्रकार सोचें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है अतः स्वर्ग और नर्क दोनोें के स्वामी वही हैं, उपनिषदों में कहा गया है ‘‘ उतामृतस्येशानो " = उत + अमृत + ईशान‘‘ । उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्गका , और ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला ।

अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं??

परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐंसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन अर्थात् मानव मन की विभिन्न पाॅंच पर्तें हैं दार्शनिक  इन्हें कोश  या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पाॅंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन(cosnic mind)  के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों मेें कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः  भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind)  की विभिन्न विचार तरंगों के समूह(wave pattern) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियाॅं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं, को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश  कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसी लिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे  (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा  दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश  ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा  आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियाॅं सुनाकर उनके  अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले जाते हैं।
मन की अपरिपक्व अवस्था ही नर्क का आधार होती है और इसी अपरिपक्वता के स्तर को उसकी गहनता के आधार पर सात स्तरों में समझाया गया है जिन्हें तल, अतल, वितल, तलातल, पाताल, अतिपाताल, और रसातल नाम दिये गये हैं। अविद्या की उपासना से घोर पाप कर्म (inhuman deeds) से जुड़े व्यक्ति से कहा जाता है कि रसातल के अंधकार में  में जाओगे, इसका मतलब यही है मन का स्तर इतना निम्न हो जायेगा  कि वह ज्ञान का प्रकाश  नहीं पा सकेगा अतः अंधकार में रहेगा, मन की निम्नतम(crudest state of mind)  अवस्था में पड़ा रहेगा । इसी तरह उन्नत मन की उच्चतर अवस्थाओं को महः ,जनः ,तपः और सत्यम कहा गया है। सत्यम और हिरण्यमय कोश  एक ही हैं । हिरण्यमय का अर्थ है स्वर्णमय , सोने जैसा । योग और विद्यातन्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि परमपुरुष हिरण्यमय कोश  के पर्दे के पीछे रहते हैं। यथार्थता यह है कि जब साधना के द्वारा मन को इतना पवित्र और स्वच्छ कर लिया जाता है कि उसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता हो तो वह स्वर्ण की भाॅंति काॅंतिमान लगता है और परमसत्ता का पूर्णतः  परावर्तन उसमें होने लगता है और फिर इकाई मन और भूमा मन अर्थात् परमपुरुष के मन में कोई अन्तर नहीं रहता यह अवस्था आत्मसाक्षात्कार कहलाती है।  इसलिये कर्मों के अनुसार ही मन की विभिन्न अवस्थायें होती रहतीं हैं इसलिये कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक अवस्थाओं के अनुसार एक ही दिन में अनेक बार स्वर्ग और नर्क की यात्रा करता रह सकता है। इसलिये विद्यातंत्र वह विधि समझाता है जिससे हमेशा  ब्रह्मभाव में मन को बनाये रखने पर वह स्वर्ग और नर्क दोनों से ऊपर रहने लगता और क्रमशः  परमपुरुष के निकट होता जाता है।

आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनोमय कोश  को अवचेतन मन (subconscious mind) कहते हैं। यह विज्ञान कहता है कि अवचेतन मन में हमारे भूतकाल के अनेक जन्मों और वर्तमान की सभी स्मृतियों का संग्रह होता है। विना अवचेतन मन के हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते क्योंकि सभी ज्ञान और स्मृति इसी में केन्द्रित रहते हैं। मनोविज्ञान में मन के केवल तीन स्तर माने गये हैं चेतन (conscious) अवचेतन (subconscious) और अचेतन (unconscious)जबकि योग विज्ञान में अचेतन को भी तीन और स्तरों में बाॅंटा गया है अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय, जो मन की क्रमानुसार अत्यन्त कम आवृत्तियों की सूचक हैं। अतिमानस पराज्ञान, विज्ञानमय पराशक्तियों  और हिरण्यमय परम उपलव्धियों का क्षेत्र है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक अस्तित्व की मूल आवृत्ति (fundamental frequency) होती है और यह जड़ता (crudity)  की ओर अधिक और सूक्ष्मता (subtlety) की ओर कम होती जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मन की आवृत्ति का अत्यधिक बढ़ जाना जड़ता अर्थात् पर्वत या पत्थर हो जाना या नर्क की ओर जाना, और आवृत्ति का लगभग शून्य  हो जाना अर्थात् स्वयं को जान लेना या परमात्मा अर्थात् स्वर्ग को पा लेना ही है। परमात्मा की तरंगदैध्र्य (wave length) अनन्त कही गई है अर्थात् आवृत्ति शून्य  अर्थात् हिरण्यमय कोश । योग का व्यावहारिक ज्ञान और विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियाॅं अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय क्षेत्रों की यात्रा कराते हुए अन्त में परमात्मा से एकाकार करा देती हैं जो मानव मात्र के जीवन का लक्ष्य है।

यहाॅं यह भी स्पष्ट करना उचित लगता है कि अकेली अविद्या अथवा अकेली विद्या की उपासना से निर्धारित लक्ष्य कभी भी प्राप्त नहीं होगा क्योंकि दोनों एक दूसरे के सापेक्षिक होती हैं। विद्या के क्षेत्र में प्रगति करने के लिये प्रारंभिक रूप से अविद्या उतनी ही सहायक होती है जितना कि पृथ्वी पर आगे गति करने के लिये घर्षण। इसलिये अविद्या की केवल इतनी ही आवश्यकता पर्याप्त होती है। उपनिषदों का स्पष्ट निर्देश  है कि  
‘‘अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततो भूय एव ते तमो य उ विद्यायां रताः।‘‘
अर्थात् अकेले अविद्या की उपासना करने वाले अंधे कुए में जाते हैं और अकेली विद्या की उपासना करने वाले उससे भी अधिक अंधे लोक में जाते हैं। इसका अर्थ भी उपरोक्त वर्णन के अनुसार मन की जड़ोन्मुखी और सूक्ष्मस्तरोन्मुखी गतियाॅं हो जाना ही है।

Saturday 10 January 2015

5.7 तंत्र साधना और भ्रम

5.7  तंत्र  साधना और भ्रम
1. अल्प में संतुष्ट होना आदमी का स्वभाव नहीं है, इसलिये आदि काल से ही वह वृहत् का उपासक रहा है। इसी कारण उसने वृहत् ज्ञान और परोक्ष तथा अपरोक्ष अनुभूति का पथ ढूढ़ निकालने का पराक्रम किया जिससे उसकी जिज्ञासा, तितिक्षा जागी। मनन से प्राप्त उपलब्धियों के कारण ही वह मानव कहलाया। वेदों में संग्रहीत इस उपलब्धि से ज्ञानपिपासा तो मिटी है पर प्राणकी क्षुधा नहीं मिटी, यह साधना की सार्थक अनुभूति के द्वारा ही मिटती है। इस साधना के आदि प्रवक्ता सदाशिव थे। उन्हींने इसे तंत्र के नाम से अभिहित किया जिसकी शास्त्रीय ब्याख्या है,‘‘तं जाड्यात् तरयेत् यस्तु सः तंत्रः परिकीर्तितः’’। अर्थात् जड़ता के बीज ‘‘ तं ’’ से जो त्राण दिलाये वह तंत्र कहलाता है। अन्य अर्थ में भी तन् का मतलब है विस्तार, प्रसार। इसलिये आत्म विस्तार करने की विधि जिससे मोक्ष प्राप्त होता है वह तंत्र कहलाता है। यह एक व्यावहारिक विधि है जिसका सूत्रपात शरीर से होता है और मन से अनुशीलन करते हुए यह आत्मिक चेतना में पहुंचाकर आत्म साक्षात्कार पर समाप्त होती है।
2. व्यावहारिक होने के कारण तन्त्र, गुरु के द्वारा सीधे ही व्यक्ति को सिखाकर सतत पर्यवीक्षण में अभ्यास कराने की पृथा रही है, परंतु कालक्रम में गुरु, आचार्य और उपयुक्त जिज्ञासु के अभाव में यह लिपिबद्ध हुआ ताकि यह विद्या लुप्त ही न हो जावे। वर्तमान में लिपिबद्ध रूप में हम चौसठ तंत्र पाते हैं। इन सबको मूलतः दो विभागों में बांटा गया है, एक है आगम और दूसरा है निगम। आगम व्यावहारिक है जबकि निगम सैद्धान्तिक। वेद निगम के अंतर्गत आते हैं।
3. सधना मार्ग के बारे में कहा गया है कि ‘‘ क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया’’ अर्थात् इस रास्ते में अनेक क्षुर धार बिछे हुए हैं। इसी कारण तन्त्र में गुरु और शिष्य को बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता हैं, गुरु के आदेश  का पालन करने में साधक की थोड़ी सी चूक पतन का कारण बनती है। अतः तान्त्रिक साधना की प्रारंभिक प्रयोजनीयता होती है उपयुक्त गुरु तथा शिष्य के चयन करने की।
4. साधक का हृदय है खेत, साधना है हल चलाना और पानी सींचना तथा गुरु का दीक्षादान है बीजबोना। गुरु की अयोग्यता अर्थात् त्रुटिपूर्ण बीज तथा शिष्य की अयोग्यता अर्थात् अनुर्वर भूमि मानी जाती है।
5. शिष्य तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधोमुख कुभ, जिनमें तभी तक पानी रहता है जब तक वे डूबे रहते हैं, अर्थातृ गुरु के सान्निध्य में रहते हैं तो ठीक अन्यथा ज्यों के त्यों। 2. उत्संगी बदरी, जो बड़े कष्ट पाकर गुरु से कुछ सीखते हैं पर ज्ञान को  अपने पास सुरक्षित रखने की ब्यवस्था नहीं कर पाते । जैसे बेर के पेड़ पर चढ़कर काटों में से बेर तो तोड़ लिये पर उन्हें रखने के लिये केवल हाथ। 3. ऊर्ध्वमुख कुम्भ, जो जल के भीतर रहते हुए भी जल से भरा रहता है तथा बाहर लाने पर भी पूरा भरा रहता है। अर्थात् वे सीखी गई चीज को यत्न पूर्वक संचित रखते हैं।
6. गुरु भी तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधम, ये अच्छी अच्छी बातें सुना और सिखा के दूर हो जाते हैं शिष्य वैसा कर रहा है या नहीं उसे देखने की चिन्ता नहीं करते । 2. मध्यम, ये सिखाते तो हैं ही खोज खबर भी रखते है पर वह कुछ कर भी रहा है या नहीं इसकी छानबीन नहीं करते। 3. उत्तम, ये शिष्य को सिखाते हैं खोज खबर रखते हैं और साधनागत त्रुटियों को सुधारने हेतु बाध्य करते हैं, नहीं सुधारनें पर दंडित भी करते हैं।
7. उत्तम गुरु के लक्षण:
शान्तोदान्तोकुलीनश्च  विनीतशुद्धवेशवान्, शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठष्च तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।

शान्त. जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। दान्त. जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है। कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण  में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हैं । विनीतशुद्धवेशवानआचरण में शुद्ध, शुद्धआजीविका युक्त और मन से शुचिता तथा आध्यात्मजगत में दक्षता गुरु के आन्तरिक गुण हैं। दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा। तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा। मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः, अतःकिसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवष्य ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है। निग्रह माने शासन, अनुग्रह माने कृपा। गुरु शासन और कृपा दोनों से पूर्ण रहेंगें।
8. उत्तम शि ष्य के लक्षण:
शिष्य के लक्षणों में तंत्रसार कहता है,‘‘शान्तो विनीत शुद्धात्मा श्रद्धावान धारणाक्षमः, समर्थश्च  कुलीनश्च  प्रज्ञःसच्चरितो यति एवमादि गुर्णैयुक्तः शिष्यो भवति नान्यथा।’’ अर्थात् जो हर समय प्रत्येक स्थिति में गुरु की आज्ञा का पालन करने को उत्सुक हों, उन्हें समर्थ कहते हैं। जिसमें उपयुक्त ज्ञान और समझ दोनों हो वह है प्राज्ञ। जिसे मानसिक संयम प्राप्त है उसे यति कहते हैं। इसतरह जो शान्त , विनीत, शुद्धात्मा श्रद्धावान ,धैर्यशील, समर्थ , कौल साधना में उत्साही, प्राज्ञ, सच्चरित्र एवं यति हैं वे ही उपयुक्त शिष्य हैं।
9. साधारण अवस्था में हर आदमी के अपने संस्कार होने के कारणवह विवेकशील पशु  (rational animal) कहलाता है। अतः साधना का पहला स्तर पशु  स्वभाव के साथ युद्ध करना सिखाता है उसे पश्वाचार  कहते हैं, इन वृत्तियोंपर विजय प्राप्त करने वाले ही वीर कहलाते हैं। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार ‘‘सर्वे च पशवः सन्ति तलवत भूतले नराः, तेषां ज्ञानप्रकाशाय वीरभाव प्रकाशितः। वीर भाव सदा प्राप्य क्रमेण देवता भवेत्।‘‘ अर्थात् स्वाभाविक अवस्था में सभी पशु  हैं, आध्यात्मिक जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसे वीर कहते हैं और जब यह वीर भाव हृदय में स्थान ले लेता है तब वह देवता कहलाता है। तंत्र का साधना क्रम इसी व्यावहारिक सत्य पर आधारित है इस कारण विज्ञान से इसका कोई विरोध नहीं है।
10. ‘‘पशु , वीर और देवता के भावत्रय के बीच भी समाज में विभिन्न स्तर भेद हैं, गुरु इन्हीं आध्यात्मिक और मानसिक स्तर भेद के अनुसार शिक्षा देते रहते हैं। ‘‘वैदिकं वैष्णवं शैवं दाक्षिणम् पाशवं स्मृतं सिद्धान्ते वागे च वीरे दिव्यं तु कौलमुच्यते।’’ वैदिकाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, और दक्षिणाचार ये सब पशुभाव के विभिन्न स्तर हैं। सिद्धान्ताचार और वामाचार वीरभाव के अंतर्गत हैं तथा कौलाचार दिव्यभाव कहलाता है।
11. तंत्र  में सबसे निम्न स्तर पर वैदिकाचार रखा गया है क्योंकि इसमें सब कुछ सैद्धान्तिक है तथा आडंबरपूर्ण अनुष्ठान के अलावा कुछ नहीं हैं तथा जाति, वर्ण, श्रेणी भेद साधक के मन में रहते हैं।
12.  तंत्र  है आत्म विस्तार की साधना अतः वे जो संकीर्णता में वर्ण और जाति भेद में लिप्त रहकर स्थूल भोगों में ही अपना अंतिम लक्ष्य मानते हैं, इसकी निन्दा करते पाये जाते हैं। पंच मकार अर्थात् ‘‘मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन’’ का अपने अपने ढंग से अर्थ लगाकर भ्रामकता फैलाते हैं। तंत्र मूलतः दो शाखाओं में पाया जाता है, एक स्थूल तथा दूसरी सूक्ष्म। सूक्ष्म शाखा की साधना को योगमार्ग तथा स्थूलशाखा भोगमार्ग कहलाती है। स्थूल और सूक्ष्म का मध्यवर्ती स्तर मध्यममार्ग के नाम से स्वीकृत है। जिनकी स्थूल पशुवृत्ति उग्र होती है वे तामसिक भोगों की ओर तेजी से दौड़ पड़ते हैं। यदि वे जोर देकर मन को भोग से हटाते हैं तो परिणाम भयावह होता है इसके अनेक उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से भी (repression and suppression)   को कभी अच्छा नहीं माना जाता। इसलिये जिनमें स्थूल भोगों की वासना छिपी है उन्हें स्थूल पंचमकार धीरे धीरे नियंत्रित करने की, और सूक्ष्मतर वृत्ति की ओर जिनका आग्रह अधिक है उन्हें सूक्ष्म पंचमकार की अर्थात् योग मार्ग की व्यवस्था  दी गयी है।
13. स्थूल पंचमकार- इसका उद्देश्य  है भोगों के बीच रहकर उन्हें नियंत्रित करते हुये साधना करना। परिमित भाव से भोग्य वस्तु का ब्यवहार करने से साधक के मन में शुद्धि जाग्रत होती है और अंत में वह भोगों से ऊर्ध्व  चला जाता है। जैसे जो अतिशय मद्य और मांस का  सेवन करता है वह धीरे धीरे इनके परिमाण पर नियंत्रण लाकर कमी लायेगा। इस कार्य में उसे ईश्वरीय  भाव जगाये रखने की लगातार चेष्टा करनी होगी ताकि उसे भोगों पर परिमिति प्राप्त कर प्रवृत्ति मूलक पंचमकार से धीरे धीरे निवृत्ति मूलक पंचमकार की ओर जाने में सरलता हो सके। इसी प्रकार मुद्रा, मत्स्य, और मैथुन के संबंध में भी समझना चाहिये।
14. सूक्ष्म पंचमकार- 1..मद्य साधना-‘‘सोमधारा क्षरेद् यातु ब्रह्मरंध्रात् वरानने, पीत्वानन्दमयस्तं स एव मद्य साधकः’’ अर्थात् ब्रह्मरंध्र, (pineal gland) से जो सुधा (hormones) का क्षरण होता है उस सोमधारा का जो पान करता है वही मद्य साधक कहलाता है। वास्तव में ब्रह्म रंध्र से जो हारमोन स्राव होते हैं उनका नियंत्रण आंशिक  रूप से चंद्र अर्थात् सोम (pituitary gland) करता है अतः सोमरस कहलाता है। यह सोमधारा नीचे के ग्रंथी समूह द्वारा ग्रहण करने पर अपार्थिव आनंद का श्रोत बनती है। साधारण लोग इसे अनुभव नहीं कर पाते क्योकि उनके मन ;चपजनपजंतलद्ध  में पापचिन्ता रहने से यहीं नष्ट हो जाती है पर जो ईश्वर  भावनामें विभोर रहते हैं वही इसका आनन्द ले पाते हैं। चूंकि इस आनंद की स्थिति में साधक अपनी सुध बुध भूल जाता है अतः अन्य लोग समझते हैं कि उसने शराब पी होगी क्योंकि उन्हें तो इसका ज्ञान नहीं होता। मद्य की एक और ब्याख्या तान्त्रिक योगियों ने की है ‘‘संयुक्तं परमं ब्रह्म निर्विकार  निरंजनम् तस्मिन प्रमदन ज्ञानं तत्मद्यं परिकीर्तितम्’’ अर्थात् उस निर्विकार ब्रह्म के प्रगाढ़ पेम में जो अपना अहंकार बुद्धि विचार सब कुछ खोकर मत्त हो चुका है वही मद्य साधक है। 2 मांस साधना- तांत्रिक योगियों के लिये मांस का अर्थ है,‘‘मा शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान् रसना प्रिये, यस्तद भक्षयेन्नित्यं स एव मांस साधकः’’ । ‘मा’ का शब्दार्थ है जीभ और मांस का अर्थ जीभ .द्वारा स्रष्ट भाषा। अर्थात् वाक्संयम। एक अन्य अर्थ यह भी है ‘‘एवं मांसनोतिति यत्कर्म तन्मासं परिकीर्तितः , न च काय प्रतीवान्तु योगिभमसि मुच्यते’’ । अर्थात् जो पाप, पुण्य, अशुभ, शुभ, सर्व कर्म इतना तक कि साधना का फल भी मां अर्थात् मुझको समर्पित कर देता है वही मांस साधक है। 3 मत्स्य साधना- ‘‘ गंगा यमुनयोर्मध्ये मत्स्यो द्वौै चरतः सदा, तौ मत्स्यौ भक्ष्येद्यस्तु स भवेन्मत्स्य साधकः। अर्थात् गंगा यमुना नाड़ी, (इड़ा और पिंगला नाड़ी) द्वार के बीच जो दो मत्स्य सदा विचरण करते रहते हैं, (अर्थात् त्रिकुटी पर) उनका जो साधक भक्षण करता है (अर्थात श्वाश  नियंत्रण कर पूर्ण कुम्भक या शून्य कुम्भक प्राणायाम करता है) वही मत्स्य साधक है। ‘ मत्स्यमानं सर्वभूतेसुखदुखमिदम देवि, इति यत्सात्विकम् ज्ञानं तन्मत्स्यः परिकीर्तितः’’। जब सब भूतों का सुख दुख अपने सुखदुख के समान अनुभव हो तब साधक के इस सात्विकी बोध और ज्ञान को मत्स्य साधक कहा जाता है। 4 मुद्रा साधना- सत्संगेन भवेन्मुक्तिरसत्संगेषु बंधनम्, असत्संगमुद्रणं यत् तन्मुद्रा परिकीर्तिता। सत्संग का परिणाम मुक्ति और असत्संग का बंधन, अतः इस परम सत्य को समझ कर जो असत्संग मुद्रण, अर्थात् परित्याग करती है उस का नाम मुद्रा साधना है। 5 मैथुन साधना- इस तत्व के संबंध में नाना प्रकार की अशिष्ट उक्तियां कही जाती रहीं हैं, वास्तव में स्थूल वृत्ति वालों के लिये धीरे धीरे संयम के पथ पर बढ़ने का ही निर्देश  है परंतु सूक्ष्म साधना के लिये कहा गया है कि ‘‘कुलकुंडलिनी शक्र्तिदेहिनां देहधारिणी, तथा शिवस्य संयोगो मैथुनं परिकीर्तितं‘‘। मेरुदंडके सबसे निचले अंश  को कुल कहा जाता है, मूलाधार चक्र के इसी अंश  में कुलकुडलनी या दैवी शक्ति का निवास होता है, साधना के बल से इसे ऊपर उठाकर सहस्रार में परम शिव के संग मिलाना ही तंत्र साधक के इस पंचम तत्व की साधना है। तंत्र में साधन धारा क्रम से बतायी गयी है, देह से मन में, मन से आत्मा में अर्थात् यह (physico-psycho-spiritual)  है। शरीर और मन की शुद्धि के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति संभव है यही तंत्र का अभिमत है। यह युक्ति संगत है, अतः आहार और व्यवहार शुद्धि साधक के लिये अनिवार्यता है। इसके विना
आध्यात्मिक भाव ग्रहण कर पाना असंभव है। भाव के संबंध में कहा गया है कि ‘‘शुद्धं सत्वविशेषाद्वा प्रेमसूर्यांशु  साम्यभाक्, रुचिभिश्चित्तमासृण्य कुदसोभाव उच्यते।’’ इसके अलावा ‘‘भावो हि मानसो धर्म मनसैव सदसाभ्यसेत्’’ अर्थात् भाव एक mental tendency है, बार बार के अभ्यास से ही इसकी व्याप्ति और ऋद्धि होती है। इसी के बार बार अभ्यास करने का नाम जप क्रिया है।अर्थात् (outer and auto suggestion both) , बारबार परमात्मा की भावना लेते रहने से साधक की मानसिक तरंगें अपनी वक्रता त्याग कर सरल रेखकार होने लगतीं हैं। ईश्वर  उपलब्धि का व्यावहारिक  ज्ञान  यह सरल रेखाकार समानान्तरता प्राप्त करना ही है क्योकि भैरवी शक्ति सरलरेखाकार है। वेद में ‘‘ तत्वमसि’’ ‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’ आदि अद्वयवाचक शब्दों का व्यवहार किया गया है, परंतु किस प्रकार भाव लेना है, किस प्रकार मंत्र के प्राण तक पहुंचना है, किस प्रकार मंत्र को जीवन के साथ अछेध्य बंधन में बांधना है, इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है ओैर ‘‘ अनुभूति विना मूढ़ाःवृथाब्रह्मणि मोदते , प्रतिबिंबितशाखग्र फलास्वादन मोदवत्’’के अनुसार  फल का प्रतिबिंव पानी में देखकर उसे खाने का प्रयास करने जैसा कार्य करने की सलाह देना चाहते है।
15. गंधर्वतंत्र के अनुसार- ‘‘अहं ब्रह्मास्मि विज्ञानादिज्ञान विनयी भवेत्, सोहमितयेव संचिंत्य विहरेत्सर्वदा देवि।’’अहं ब्रह्मास्मि इस परम विज्ञान के द्वारा ही अज्ञान का विनाश  होता है अन्य किसी से नहीं। यह केवल शाब्दिक  स्तर पर ही सीमित रहे तो भी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । सोहं मंत्र की परिच्छेदहीन भावना लेना होगी। केवल वाचनिक जप से भी संभव नहीं , मानस तथा आध्यत्म साधना का यह सूक्ष्म विज्ञान, तंत्र का ही आविष्कार है। तंत्र की जप क्रिया और ध्यान क्रिया महाकौल की ही व्यवस्था है। यदि मंत्र की गतिधारा के साथ साथ मन की गतिधारा समान आवृत्ति पर नहीं चले तो केवल जप से कोई काम नहीं होगा। जपक्रिया में सफलता प्राप्त करने के लिये समस्त मानसवृत्ति को मंत्र की ओर चलाना होगा, वायु को स्थिर  कर मंत्र से निबद्ध करना होगा। ‘‘ मनोअन्यत्र शिवोअन्यत्र शक्तिरन्यत्र मारुतः, न सिद्धयति वरानने कल्पकोटि शतैरपि।’’ मन किसी विषय की ओर दौड़ता हो ,ध्येय कहीं और हो ,प्राणशक्ति अन्य जगह लगी हो , वायु सभी दिशाओं में विखरी रहे, इस सार्वदैहिक विश्रंखलता के बीच परमात्मा का चिन्तन संभव नहीं, शतकोटि कल्प में भी नहीं । अतः कहा गया है कि ‘‘इंद्रियाणां मनोनाथः मनोनाथस्तु मारुतः’’ इंद्रियों का नियंत्रक मन है तथा मन का नियंत्रक वायु । इसलिये साधना में इनमें से किसी की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा, सब को संयमित कर परम पुरुष की ओर ले जाना होगा । यह कैसे किया जाता है? यह दीक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। तंत्र दीक्षा अत्यंत विज्ञान संम्मत है। दीक्षा के दो अंग हैं पहला दीपनी और दूसरा मंत्रचैतन्य। दीपनी का अर्थ है आलोकवर्तिका, और भावार्थ है मंत्र का यथार्थ बोध । इस ज्ञान के साथ मनन की संगति है मंत्र चैतन्य निर्धारण करना। अतः दीक्षा के संबंध में कहा गया है, ‘‘ दीपज्ञानंयतोदद्यात् कुर्यात् पापक्ष्यं ततः, तस्मात् दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता’’। अर्थात् जिसके द्वारा दीपज्ञान अर्थात् मंत्र के यथार्थ  भाव को भाव नेत्र से देखने की शक्ति आती है तथा तत्क्षण कर्म क्षय प्रारंभ हो जाता है, उसे दीक्षा कहते है ।
16. दीक्षा के उपरान्त अत्यंन्त सुख बृद्धि या दुख बृद्धि यह प्रकट करती है कि दीक्षा मंत्र का उन पर सही प्रभाव पड़ रहा है। किन्तु मंत्र की यह प्रतिक्रिया केवल मंत्र के सुनने या जप करने से होने वाली नहीं है यथायथ भाव से मंत्र की दीक्षा लेना होगी तभी उसके जप का उपयुक्त फल प्राप्त होगा। मंत्र जप के पूर्वदीपनी के व्यवहार की आवश्यकता  होती है और मंत्रजप के साथ साथ मंत्र चैतन्य का बोध होना अनिवार्य है। जिस प्रकार अंधेरे घर में मूल्यवान वस्तु के रहने पर भी हम उसे नहीं देख पाते उसी प्रकार जिन्होंने  मूल्यवान मंत्र पाया है वे भी दीपनी के बिना उसे ठीक रूपमें ग्रहण नहीं कर पाते।
17. मंत्रचैतन्य- साधना में कुलकुंडलनी की ऊर्ध्व  गति नहीं कर सकने पर मंत्रजप निरर्थक होजाता है। कुंडलिनी को ऊर्ध्व  में ले जाने की क्रिया को पुरष्चरण कहते हैं।  मंत्रचैतन्य का तात्पर्य मंत्र के भाव को सही रूपमें ग्रहण करना है। अर्थ समझकर मंत्र जप करने से मंत्रचैैतन्य की विधी सहज ही संपन्न हो जाती है। ‘‘चैतन्यरहिता मंत्राःप्रोक्तवर्णास्तु केवलाः,फलं नैव प्रयच्छन्ति लक्षकोटि जपैरपि।’’
18. ध्यान- इसमें दीपनी तथा चैतन्य क्रिया की आवश्यकता  नहीं है। इनका प्रयोजन जप क्रिया में है अतः जिनकी जप सिद्धि नहीं हुई है उनके लिये ध्यान साधना अत्यंन्त कठिन है। ध्यान साधना के ध्येय पुरुष एकाधार मंत्र, दीपनी, और मंत्रचैतन्य तीनों हैं। अतः जपक्रिया में अनेक अंगों का समन्वय है जबकि ध्यान क्रिया अपने आपमें संपूर्ण है। ध्यान में प्रतिष्ठित होने पर ही निर्विकल्प समाधि पाना संभव है ।
19. तंत्र की ध्यान साधना पूर्णतः व्यावहारिक ज्ञानसाधना पर आधारित है, इसमें बाहरी अनुष्ठान अथवा लोक दिखावा नहीं है। मूर्ति  पूजा भी वाह्य अनुष्ठान है अतः इसे तंत्र में उत्तम नहीं कहा गया है। तंत्र में प्रवृत्ति, निवृत्ति और मिश्र प्रवृत्तिनिवृत्ति ये तीन प्रकार की साधनायें हैं। पिशाच साधना में जड़ के ऊपर प्रभुत्व पाने के लिये वीभत्स साधनाएं करने का विधान है जो बर्हिमुखी द्रष्टिभंगिमा लेकर ही की जाती है, अतः इसमें सिद्धि होने पर कुछ सुख की अनुभूति भले ही हो पर साधक की अधोगति पशु , काठ, मृत्तिका, या प्रस्तर के रूप में ही होती है। तंत्र का निवृत्तिमार्ग ही श्रेष्ठ साधना है। इसमें साधक प्रत्येक स्तर पर उन्नत होता है। निर्वाण या मोक्ष इसी से संभव है। मिश्र प्रव्रत्तिनिव्रत्ति मार्ग की साधना उपविद्या की  साधना कहलाती है इससे उन्नति या अवनति कुछ नहीं होती। प्रवृत्ति मार्ग या अविद्या की साधना से अधोगति होती है। निवृत्ति मार्ग ही चरम आध्यात्मिक उन्नति करता है।
20. तंत्र कितना मनोवैज्ञानिक है और कुसंस्कार से मुक्त है यह महानिर्वाण तंत्र में इसप्रकार वर्णित है.....‘‘ बालक्रीणावत्सर्वं रूपनामादि कल्पनम्,केवलं ब्रह्मनिष्ठो वः समुक्तोनात्र संशयः। मृच्डिलाधातुदार्वादिमुत्र्तावीश्व  रवद्धय।,क्लिश्यन्तिस्तपसा ज्ञानं विना मोक्षं न यान्ति ते। मनसाकल्पिता मूर्ति  नृणां चेन्मोक्षसाधनी, स्वपन्लब्धेन राज्येन राजानो मानवास्तथा। न मुक्तिर्तपनाद्धोमादुपवासशतैरपि, ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति देहभृत। वायुपर्णकणातोयं ब्रतिनो मोक्षभागिनः, अपिचेत्पन्न्ग्गाः मुक्ताः पशुपक्षीजलेचरा।
21. कुछ लोग सोच सकते हैं कि तंत्र तो बड़े ही कठोर आचरण पर आधारित है, इसमें भक्ति का कोई स्थान नहीं है, परंतु ऐंसा नहीं है। तंत्र की आदर्श  निष्ठा अटूट पराभक्ति पर ही आधारित है। इसी लिये तंत्र में कहा गया है कि ‘‘ ओम् नमस्ते सते सर्वलोकाश्रयाय,नमस्ते चिते विश्वरूपाश्रयाय। नमोअद्वेततत्वाय मुक्ति प्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने निर्गुणाय। तदेकं जगत् कृर्तपातृ प्रहर्तृं, तदेकं परं निश्चलं निर्विकल्पं। भयानां भयं भीषणं भीषणानां, गतिः प्राणिनां पावनं पावनानां। महोच्चैः पादानां नियंत्र तदेकम्, परेशां  परं रक्षकं रक्षकानाम्ं। परेशप्रभुसर्वरूपाविनाशिन्न निर्देश्यसर्वेन्द्रियागम्यसत्य, अचिन्त्याक्षरव्यापकाव्यक्तत्व, जगदृभासकाधीश  पायादपयात्। तदेकं स्मरामस्तदेकं जपामस्तदेकं तगद्साक्षीरूपं नमामःं तदेकं निधानं निरालंबमीशं  भवाम्बोधिपोतं शरणं ब्रजामः।
22. दार्शनिक रूप से समस्त प्रकृति का साक्षी पुरुष चेतन और प्रतिसंवेदनयुक्त है अतः उसे चितिशक्ति या आत्मा कहा जाता है। इसके पांच लक्षण हैं। 1.शुद्धा 2. अप्रतिसंक्रमा 3. अनन्ता 4. अपरिणामी
5. दर्शितविषया। (1) शुद्धता का अर्थ है जिसमें अन्य विपरीतधर्मी वस्तु का मालिन्य न लगा हो। जहां उस पर प्राकृतिक मलिनता का प्रभाव पड़ा है उसे चितिशक्ति नहीं बोल सकते, वहां वह जगत स्रजनी किसी न किसी तत्व में रूपान्तरित हो जाती है। यह जगत जो चितिशक्ति का ही विवर्तित रूप है जो अशुद्ध है, उसे चितिशक्ति में रूपान्तरित करने के लिये विशेष प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, इस रासायनिक प्रक्रिया का नाम है धर्म साधना। साधना में भेदात्मक जगत के सभी तत्व समाप्त हो चुकने के बाद जो एक तत्व बच रहता है,  वही चितिशक्ति है, इस प्रकार साधक प्राकृतशक्ति के ऊर्ध्व  में स्थित होकर चितिशक्ति को साक्षात करता है। (2)अनंतत्व का अर्थ है जिसका अंत या शेष वस्तु का विेषयित्व न हो, इसीलिये कभी भी अनन्त मानसिक परिधि में नहीं आ सकता अन्यथा ‘‘अन्त नहीं ’’ इस प्रकार का विकल्प भाव लेने से अनन्त साधारण मन में विेषय के रूप में रह सकता है। वस्तुतः जिस अर्थ में चितिशक्ति अनन्ता है, वह अनन्त
लौकिक जगत का शब्द मात्र है, इसके अर्थ की उपलब्धि से मन प्रनष्ट हो जाता है। अन्त  की कल्पना मन ले सकता है ‘‘अनन्त की नहीं ’’ इस अर्थ में भी अन्त की जो कल्पना ली जाती है, उसे एक प्रकार का अनन्त की कल्पना लिया जाना बोल सकते है परंतु चितिशक्ति इसप्रकार की अनन्ता नहीं है। व्यक्त भूमा मानस इसी प्रकार के अनन्त हैं इसीलिये व्यक्त जगत अति वृहत होने पर भी उसमें विेषयित्व दोेष रह ही जायेगा। अनन्त, अन्त का विपरीतार्थक शब्द मात्र है, चितिशक्ति इस अर्थ में अनन्ता नहीं । चितिशक्ति जिस अर्थ में अनन्त है उसका अर्थावगाही बोध मनन के बाहर है। इसका तात्पर्य यह है कि चितिशक्ति जिन सब वस्तुओं का साक्षी है, उनका कोई भी शेष वस्तुरूप में स्वीकृत नहीं हो सकता। वस्तु का परिचय उससे विकीर्णित होने वाले तन्मात्र समूह से होता है, किन्हीं दो वस्तुओं से एक ही प्रकार का तन्मात्र निर्गत नहीं होता अतः उनमें अपनी विषशेषता होती है। इसलिये यह जगत तन्मात्राधर कहलाता है आकार की क्षुद्रता या वृहत्व जिसके द्वारा निर्धारित होता है उसे व्यवधि कहते हैं। इन्द्रियों के द्वारा हम तन्मात्राओं को ग्रहण करते हैं और प्राण की सहायता से मन, व्यवधि की धारणा करता है। चितिशक्ति में तन्मात्राधार या व्यवधि नहीं रहने के कारण उसे निर्विशेष कहते है। अतः जो निर्विशेष  है वही अनन्त है, चितिशक्ति केवल शुद्धा ही नहीं अनन्ता भी है। (3 ) अपरिणामित्व अर्थात् जिसमें कोई परिणाम या परिवर्तन नहीं होता। जगत की प्रत्येक वस्तु में लगातार परिवर्तन होता रहता है, देश  गत परिवर्तन को ‘गति’ और उसके मानसिक परिमाप को ‘काल’ कहते है। यही कार्य कारण को जन्म देते हैं सृष्टि  चक्र के अनुवर्तन में जो कार्य कारण है वह चितिशक्ति की स्वरूपावस्था में संभव नहीं, केवल प्रकृतिबद्ध अवस्थामें ही संभव है। प्रकृतिबद्ध अवस्थामें ही विभिन्न परिणामशील वस्तुओं का उद्भव होता है। जैसे, मनुष्य देह में बाल्य, किशोर, युवा बुढ़ापा अेोर परिणामतः मृत्यु होती है किन्तु मृत्यु
में ही परिणाम का शेष नहीं है, जड़ देह का पंच भौतिक समूह परिणाम स्वरूप आगे बढ़ता है। सभी परिणाम के मध्य ही आगे बढ़ते हैं केवल चितिशक्ति नहीं चलती अतः यह अपरिणामी है। चितिशक्ति में देश  काल पात्र गत भेद नहीं हैं अतः देशांतर  कालान्तर या पात्रान्तर की सम्भावना नहीं है इसलिये वह अपरिणामीया निर्वैयक्तिक है। (4) अप्रतिसंक्रमा संक्रमा का अर्थ है संचरण(extrovert)  और प्रतिसंक्रमा  माने प्रतिसंचर (introvert) चितिशक्ति में दैशिक व्यवधान नहीं है अतः आभ्यंतरीण और वाह्य भेद नहीं है। जिसके बाहर कोई द्वितीय सत्ता नहीं है, उसका संक्रमण कैसे हो सकता है। वह कोई वाह्य वस्तु के संक्रमण से दूषित नहीं हो सकता है अतः इससे बचने के लिये उसे प्राकृत वस्तु की तरह प्रतिसंक्रमण की धारा में प्रवाहित होने की आवश्यकता नहीं । इसीलिये चितिशक्ति अप्रतिसंक्रमा कहलाती है। (5) दर्शितविषया  विषया चितिशक्ति को इन्द्रियग्राह्यता नहीं है मात्र वस्तु का सद्ज्ञान है,जो उसीमें अवस्थित रहने के कारण प्राकृतिक तरंगसमूह की सहायता से वस्तुज्ञान अर्जन की उसे आवश्यकता भी नहीं है। वस्तु समूह से जिस भी प्रकार की  तन्मात्र तरंग क्यों न निर्गत हो, वस्तु का मूल भाव उसमें आधृत रहने के कारण उसमें तरंग पर निर्भरशीलता नहीं है। परंतु सगुणभाव में बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि होते हैं। यह बुद्धि कहीं अहंकार के रूप में कहीं चित्त रूप में कहीं पंचभूतात्मक जड़रूप में चितिशक्ति की संवेदना के अनुसार रह जाती है। सगुण सत्ता का मन, चितिशक्ति में जिस वस्तु को दिखाता है, वह उसे ही देखती है अतः उसे दर्शितविषया कहते हैं।
23. श्रेष्ठ जीवरूप में मनुष्य का जो अहंकार है, यह भी बुद्धितत्व को चितिशक्ति समझने की भूल करने के फलस्वरूप होता रहता है किन्तु यथार्थ में चितिशक्ति तो बुद्धि का विषय नहीं ही है, वरन् बुद्धि स्वयं चितिशक्ति का गुणान्वित रूप है। मानस साधना के द्वारा वह समझ पाता है कि आत्मा, चितिशक्ति और बुद्धि एक चीज नहीं हैं। आत्मा बुद्धि का प्रतिसंवेदी है। साधना से प्राप्त इसप्रकार की वृत्ति को अक्लिष्टा वृत्ति कहते है परंतु पुस्तक से या सद्व्यक्ति के मुख से सुनकर यदि यह उपलब्धि होती है तो उसे गौणाअक्लिष्टा वृत्ति कहते हैं। आत्मा जो बुद्धि तत्व से पृथक है, यह बोध, अर्थात् मुख्य अक्लिष्टावृत्ति का जो परिणाम है, उसे ही कहा जाता है विवेकख्याति या विषयक समापत्ति। इस विवेकख्याति के निरंतर होने को धर्ममेघ समाधि कहते हैं। इस स्थायी विवेकख्याति के लिये ‘‘वैराज्ञ और अभ्यास’’ की आवश्यकता  होती है। वैराज्ञ का अर्थ है विषय के रंग में मन को रंजित न करना और अभ्यास का अर्थ है नियमित रूप से एक ही तरंग का अनुशीलन करना। असाधक का मन अत्यंत चंचल होता है और प्रत्येक क्षण उसकी विचारधारा में परिवर्तन आता रहता है अतः चैत्तिक तरंग में भेद दिखाई देता है अभ्यास से इस भेद को दूर करना होता है जिससे एक ही तरंग का अनुवर्धन हों। इस प्रकार प्राप्त धर्ममेघ समाधि चरम उपलब्धि नहीं है, यत्न से , दीर्घकाल के अभ्यास से, जब चित्त में स्थायी रूपसे एक ही तरंग प्रवाहित होती रहती है और विश्व  के अन्य सभी तरंग उसी में लीन हो जाते हैं तब संप्रज्ञात समाधि होती है। इसके बाद जब सभी तरंगें निरुद्ध होकर चितिशक्ति के साथ एक हो जाते हैं तब निर्विकल्प (असम्प्रज्ञात) समाधि होती है। आध्यात्म मार्ग की यह जो साधना है यह प्राथमिक चित्त के द्वारा ही आरंभ होती रहती है, चित्त, त्रिगुण के द्वारा उत्पन्न होता है, चितिशक्ति में सत्वगुण की प्रधानता से बुद्धि, बुद्धि  के ऊपर रजोगुण के प्रधान हो जाने पर अहंकार और अहंकार के ऊपर तमो गुण की प्रधानता से चित्त उत्पन्न होता है। इस प्रकार चित्त में तीनों गुण हैं अतः अभ्यास के द्वारा चित्त तमः को चित्तरजः में, चिततरजः को चित्तसत्व में और चित्तसत्व को चितिशक्ति में समाहित करना पड़ता है। ‘‘सत्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत,प्रस्वाप्नं तु तमसा तुरीयं त्रिषु सन्ततम्।’
24. साधना के अभ्यास करते समय मन इन पांच स्तरो से होता हुआ प्रत्येक स्तर पर एक एक प्रकार की समाधि का अनुभव करा सकता हेै.. क्षिप्त , मूढ़, एकाग्र और निरोध। क्षिप्त स्तर पर चित्त में अतिरिक्त क्रोध उत्पन्न होने के कारण मन विषय से हटकर सामयिक रूप में एक ही विषय में मन बैठ सकता है। व्यक्तिगत जीवन में किसी के साथ कलह करने पर सारा दिन मन बार बार उसी और दौड़ जाता है, भले ही उसे संयत करने की चेष्टा की जाये। मूढ़ स्तर पर भी यही अवस्था होती है, किसी विशेष विषय के प्रति मोह होने से मन घूम फिर कर वहीं पहुंच जाता है, उसी की चिन्ता करता रहता है। अर्थ लोलुप का मन अर्थ की चिन्ता करते काते अर्थमें ही समाहित हो जाता है, और इसी प्रकार यश  लोभी का मन घूम फिर कर यश  की ओर लौट जाता है और विषय लोभी का विषय की ओर। क्षिप्त औेर मूढ़ मन एकाग्र भाव से तत् तत् विषय की चिन्ता करते करते उन्ही विषयों में समाहित हो जड़त्व अर्थात् ऋणात्मक प्रतिसंचर का पथ चुन लेता है। अधिकांश  लोगों का मन विक्षप्त स्तर पर होता है, कभी स्थिर कभी इधर उधर। साधना इसी स्तर से प्रारंभ होकर अभ्यास के द्वारा चंचलता दूर होकर मानसिक क्षेत्र में क्रमशः  एकतानता दिखाई देती है। यही एकाग्र स्तर बाद में साधना के द्वारा निरोध अवस्था में रूपान्तरित हो जाती है। एकाग्रता के विना यह संभव नहीं होती। एकाग्र भूमि के चित्त की अवस्था में मन कभी पवित्रता और कभी नारकीय कीटवत् आचरण करता है, कभी साधु संग कभी कपट का संग करता है इस अच्छे बुरे के बीच झूलते हुए जब वह साधना द्वारा अपने आदर्श  के रूप  में श्रेय को रखकर द्रढ़ता से उसी पथ पर चलता रहता है तब चित्त पर एक प्रकार की तरंग उत्पन्न होती है इसे एकाग्र भूमि कहते है। ‘‘शान्तदितौ तुलाप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रता परिणामः’’
25. चित्त की एकाग्रता जड़ पदार्थ अथवा भाव किसी में भी हो सकती है, मन कैवल्य की ओर भी जा सकता है और संसार की ओर भी। इसीलिये कहा गया है कि चित्त नदी उभयतः प्रवाहणी है। जब कैवल्य की ओर वहती है तो कल्याणवहा और जड़ की ओर बहने पर पापवहा कहलाती है। चित्त का कल्याणवहा भाव स्थायी हो जाने पर यही अवस्था सविकल्प समाधि कहलाती है। दार्शनिक  भाषा में यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है, इसके कई लक्षण हैं। (1) सत्य वस्तु का आत्मसात्.. जगत की सभी बस्तुओं के मूल उपादान के रूप में जो सद्वस्तु है, उससे जब अपना अभेद्य ज्ञान जागता हेै तभी सभी पदार्थों के संबंध में साधक को चरम सत्य प्राप्त होता रहता है किसी पुस्तक के पाठ या अन्य किसी प्रयास की आवश्य कता नहीं होती। (2) क्लेश  क्षय .. विपर्यय से प्राप्त (defective cognition) क्लेश  समूह, इस समाधि के फलस्वरूप द्रुत गति से क्षय हेाते हैं। (3) कर्मबंधन ढीला होना.. प्रत्येक जीव में कर्मबंधन रहता है, संप्रज्ञात समाधि के बाद भी वह कार्य करता जाता है, पर वह और बंधन में जकड़ता नहीं है बल्कि मन कह उठता है ‘‘कामतो अकामतो वापि यत् करोमि शुभाशुभम् तत्तसर्वम् त्वयी सन्न्यस्तं तत्प्रयुक्तः करोम्यहम्’’। (4) असंप्रज्ञात भाव की ओर गति. प्रज्ञा के सम्यक विकास होने पर यह भाव जाग्रत होकर द्रढ़ता लाता है, यह संप्रज्ञात समाधि है।
26. विपर्यय से क्लेश  उत्पन्न करने वाली वृत्तियां दो प्रकार की हैं, क्लिष्टा और अक्लिष्टा। आध्यात्म की ओर ले जाने वाली अक्लिष्टा, बाकी सब क्लिष्टा। इन्हें मूलतः पांच भागों, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति में बांटा गया है। प्रमाण के द्वारा विश्लेषण की सहायता से जैव सत्ता जड़त्व में परिर्विर्तत हो सकती है तो इस अवस्था में वह क्लिष्टा कहलायेगी पर युक्ति तर्क द्वारा आत्मा तथा परमात्मा की प्रतिष्ठा संबंधी विचार किया जाता है तो वह अक्लिष्टा वृत्ति कहलायेगी। प्रमाण भी तीन प्रकार के हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। इंद्रिय समूह जब विषय का तन्मात्र ग्रहण करता है, चित्त तमः को तमोभाव में अनुरंजित कर देता है, इसे आलोचन ज्ञान (sensation) कहते हैं। इस आलोचन ज्ञान की प्रगाढ़ता से जब चित्त, सत्व को अनुरंजित करने लगता है तब यह प्रत्यक्ष प्रमाण (perception or coordinated sensation)  कहलाता है। किसी वाह्य वस्तु के प्रत्यक्ष होने पर कोई पूर्व संस्कार जनित भाव उत्पन्न हो परंतु दोनों का एकीकरण न हो तब पूर्वग्रहीत भाव के संबंध में जो सिद्धान्त ग्रहण किया जाता है उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं, परंतु यदि चैत्तिक प्रत्यक्ष के बाद पूर्व संस्कार का अर्थभाव और चैत्तिक प्रत्यक्ष एकीभूत हों तब उसे प्रत्यक्ष धारणा (conception) कहते हैं। जिनके ऊपर विश्वास है उनके प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान को स्वीकार कर लेने का ही नाम आगमिक प्रमाण है। परतु यह जिन पर आधारित है उनमें दोष होने पर यह भी दोषयुक्त हो जाता है। साधारणतः किसी व्यक्ति या पुस्तक पर अत्यधिक विश्वास  होने पर उसमें दोष दिखाई नहीं देते अतः आगमिक प्रमाण इनसे प्रभावित होता है।
27. प्रमाण वृत्ति के बाद दूसरी है विपर्यय। विपर्ययो मिथ्याज्ञानम तद्रूपो प्रतिष्ठितम्। अर्थात् यह स्वरूप से भिन्न एक मिथ्या ज्ञान है। जैसे सरोवर के चंद्रमा को असल चंद्रमा मानना। प्रमाण यदि ‘तद्रूप प्रतिष्ठम्’ है तो विपर्यय ‘अतद्रूप प्रतिष्ठम्’ है। विपर्यय के फलस्वरूप ही एक अद्वितीय परमतत्व को अनेक प्रकार के विस्तारित लौकिक जगत के रूप में देखते रहते हैं। मरुभूमि में मृगतृष्णा भी विपर्यय है। अनेक मनों में उद्भासित एक परमात्मा को भी अनेक आत्मा रूप मानलेना भी विपर्यय है। इस के पांच स्तरों को पंचपर्वा कहा गया है, अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेष अथवा अन्य प्रकार से तमः, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिश्र। अतः विपर्यग्रस्त मन क्लिष्टा और अक्लिष्टा के बीच झूलता रहता है। विकल्प किसी बस्तु का वैकल्पिक स्वरूप इंद्रियों के द्वारा ग्रहण अथवा शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमलोग इसका प्रयास अवश्य  करते रहते हैं परमतत्व के बारे में हम लोग कहते हैं कि वह विकृतिशून्य हैं इस शून्य का अर्थबोध हमें नहीं रहता फिर भी हम उसका उपयोग करते रहते हैं। ट्रेन में जाने हुए बोलते हैं  अमुक स्टेशन आ गया या गोली चल रही है, क्या ऐंसा होता है? असल में विकल्प वस्तु है ‘शब्दगुणानुपाती वस्तु शून्ये विकल्पः’ शब्द  का प्रकृत अर्थ लेने से बात बिगड़ जाती है तब भी हम भाव प्रकट करने के लिये इसे कार्य में लाते हैं। यह तीन प्रकार का है, क्रिया, वस्तु और अभाव विकल्प। पहले का उदहरण जैसे ‘सागर‘ आ गया, दूसरे का जैसे शहर की छाती पर, तीसरा जैसे वे अहंकार शून्य हैं।


28. निद्रा- जिस वृत्ति के फलस्वरूप अतीत के एक मानसिक अभाव का बोध होता है ‘‘अभावप्रत्यालंबनीवृत्तिनिद्रा’’।अर्थात उसके मन ने पहले भी कार्य किया था, वर्तमान में भी करता है केवल मध्य में ही कार्य नहीं किया था मन की यह अवस्था कि कार्य नहीं किया था या अभाव अवस्था इस पर जो वृत्ति निर्भर है उसे कहते हैं निद्रा। क्लिष्टा निद्रा साधना में बाधा है पर स्वप्न , सुषुप्ति में भी जब साधना क्रिया का बोध रहे तब वह निश्चय  ही आध्यात्मिक प्रगति की विरोधी नहीं है। साधनाकाल में एक प्रकार की आलस्यपूर्ण निद्रा की अवस्था आती है इसे योग निद्रा कहते हैं। साधना के प्रारंभिक काल में अधिकांश  साधकों को ही निद्रा आजाती है यदि इस काल में संवित् नष्ट नहीं होता अर्थात् स्मृति रह जाय तो इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। धु्रवास्मृति के प्रतिष्ठित होने पर उसे सत्व संवेदन कहते हैं। स्मृति ‘‘ अनुभूत विषयासम्प्रमोषः स्मृति।’’ यह भी दोनों प्रकार की हो सकती है, जड़ाश्रयी क्लिष्टा है और पराविद्या संबंधी स्मृति ग्रहण और ग्राह्य दोनों पर निर्भर है। बुद्धि के साथ स्मृति का अंतर यह है कि स्मृति ग्रह्याकार पूर्वा है और बुद्धिग्रहणाकार पूर्वा है, बुद्धि कोई वृत्ति नहीं है पर स्मृति वृत्ति है। संप्रज्ञात समाधि के फलस्वरूप किलष्टा वृत्ति समूह शक्तिहीन होता रहता है और चित्ततमः धीरे धीरे चित्तरजः में तथा चित्तरजः चित्तसत्व में रूपान्तरित होता रहता है। सत्व का धर्म है प्रज्ञा, रज का प्रवृत्ति और तम का स्थिति। अक्लिष्टा वृत्ति के अनुशीलन से रजः धीरे धीरे सत्व में रूपान्तरित होता रहता है और शक्तिशाली  चित्तसत्व के बीच चित्तरजः और चित्ततमः लीन होता रहता है अन्त में रह जाता है एक तरंगीकृत चित्तसत्व, इस अवस्था का नाम है सम्प्रज्ञात समाधि। शक्तिशाली  चित्तसत्व जब पुरुष सत्ता में लौट आता है तब उसका नाम होता है असंप्रज्ञात समाधि। इस अवस्था में धूल धरणी के प्रत्येक परमाणु को आत्मिक चेतना में रूपान्तरित कर साधक एक परम अद्वैत भाव में स्थिति लाभ करता है।

Tuesday 6 January 2015

5.6 अविद्या और विद्या माया

5.6  अविद्या और विद्या माया
        ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष का सम्मिलित रूप हैं। प्रकृति है कर्मशक्ति और पुरुष हैं ज्ञानशक्ति। ब्रह्म का अणु चिकास है जीव, वह भी प्रकृति पुरुषात्मक है। मनुष्य के प्रत्येक कार्य के पीछे कर्तापन का बोध अर्थात् ‘‘मैं हूँ ‘‘ का बोध प्रकृति  स्रष्ट है और इसमें ‘‘मैं हूँ ‘‘ के बोध के पीछे  ‘‘मैं जानता हूँ  कि मैं हूँ ‘‘ यह चरम ज्ञान रूपमें जो ‘मैं‘ है वही मनुष्य की ज्ञानशक्ति है अविकृत पुरुष सत्ता। यर्थाथतः प्रत्येक सत्ता, प्रकृति पुरुषात्मक है, जड़ या चेतन केवल आपेक्षिक भाव हैं। जड़ वह है जहाॅं पुरुष अप्रकट हैं या प्रकृति का प्रभाव अधिक होने के कारण पुरुष प्रकट नहीं हो पाया है वह निद्रित अवस्था में हैं। सूर्य में प्रकृति प्रकट भाव में है और पुरुष अप्रकट। इसी लिये सौर जगत के अधिवासी मनुष्य सहित सभी जीव और वनस्पति अपने को ‘मैं‘ इस रूप में जानते हैं। सौर जगत का प्राणकेन्द्र होने पर भी सूर्य नहीं जानता कि वह सूर्य है। सूर्य में भी चैतन्य सत्ता का प्रकृति के प्रभाव से स्थूल विकास मात्र है परंतु वह चैतन्य अपने ज्ञातत्व का प्रकाश  नहीं कर पाता। प्रकृति विभिन्न प्रकार स्रजन करने वाली शक्ति है, प्रकृति के प्रभाव से ही मनुष्य में जड़ता का भाव आ जाता है। अखंड ब्रह्म देह में विभिन्न प्रकारों को प्रकट करने के लिये प्रकृति उन्हें सीमा वद्ध कर देती है। प्रकृति में तीन गुण सत, रज और तम होते हैं। प्रकृति और माया दोनों एक ही हैं परंतु व्यवहार में थोड़ी भिन्नता है। जहाॅं सत रज और तम में साम्यता होती है वहाॅं प्रकृति कहलाती है पर जहाॅं यह साम्य भाव नहीं है वहाॅं माया कहलाती है।
          इसतरह जब सत्व गुणकी प्रधानता होती है उसे विद्यामाया और जहाॅं तमोगुण की प्रधानता होती है उसे अविद्यामाया कहते है। सभी गुणों की साम्यावस्था में प्रकृति अव्यक्त रहती है वह पुरुष में ही समाहित रहती है परंतु असाम्यावस्था में वह गतिशील हो जाती है और व्यक्त होकर अनेक रूप धारण करती है। माया ही जीव
और समस्त स्रष्टि की जननी है। माया के अभाव में जीव भाव की संम्भावना शिवत्व में ही सुप्त रहती है। इस प्रपंचात्मक जगत का कारण माया ही है। ‘‘ सर्वरूपमयी देवी सर्वदेवीमयं जगत, ततोहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्‘‘ । अर्थात् माया ही सर्व रूपमयी है और समस्त जगत का सबकुछ माया ही है। उस विश्व  रूपधारणी माया को मैं प्रणाम करता हॅूं। ब्रह्म भाव और जीव भाव के बीच माया का घना अंधेरा रहने के कारण उसकी आॅंखें यथार्थ नहीं देख पातीं। यथार्थ वस्तु ज्ञान और सत् के दर्शन  के लिये माया के इस अंधकार को हटाना पड़ता है। अतः ‘‘ दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।‘‘ जिनके जीवन के लक्ष्य हैं ब्रह्म केवल वही इस माया के पार जा सकता है। इसलिये साधना का अर्थ है माया के विरुद्ध संग्राम और सिद्धि का अर्थ है माया को पराजित करना। जीव जब साधना के द्वारा मायाधीश  हो जाता है तब उसकी आत्म ज्योति ब्रह्म ज्योति में मिलकर एकाकार हो जाती है। इसलिये जीवन में लक्ष्य निर्धारित करने पर समय और परिश्रम का अपव्यय नहीं होता और समूह क्षति की संभावना भी नहीं रहती।
        सुषुप्तावस्था ही जड़ता की चरम अवस्था है और इस अवस्था में अणुचैतन्य अभिमानी होते हैं तो उन्हें प्राज्ञ कहा जाता है अतः प्राज्ञ भाव को ही जड़ता के विरुद्ध लड़ना होता है। प्राज्ञ का अर्थ है जीवात्मा पारमार्थिक द्रष्टि से सोया हुआ है, वह भेदात्मक सत्ताओं को जानने , समझने की पूरी योग्यता रखने के बाद भी अविद्या के अंधकार में वह जान नहीं पाता और भेद ज्ञान लिये बैठा रहता है अतः अपनी प्रज्ञा को तमोगुण के हाथों से बचाने के लिये प्राज्ञ को ही अविद्या के विरुद्ध संग्राम करना होगा। लड़ाई अपनी कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध भीतर ही भीतर करना होगी। दिखावटी लड़ाई में माला चंदन तिलक में ही सारी कसरत समाप्त हो जाती है इसमें जीत माया की होगी अतः इसके चक्कर में न पड़कर भीतरी लड़ाई से जब विजय माला गले में पड़ेगी तब लगेगा कि उसमें और परमात्मा में कोई अंतर ही नहीं है। वास्तव में तमोगुणी अवस्था में जीवभाव में ज्ञान तो रहता है पर वह निर्विषयक होता है। जैसे अंधेरे में वैठा व्यक्ति आॅंखें होते हुए ,देखने की शक्ति होते हुए भी बाहर का कुछ नहीं देख पाता क्योंकि सभी बाहरी वस्तुएं अंधकार में मिलकर एकाकार हो गईं हैं अतः उसका ज्ञान निर्विषयक है। अविद्या के कारण वह सही सही रूप समझ नहीं पाता और मनमाना मन्तव्य बनाकर भटकता रहता है। अविद्यामाया, ‘‘विक्षेप और आवरणी शक्ति‘‘ से अपना जाल फैलाती है, विक्षेपशक्ति  के प्रभाव से जीव ब्रह्मज्ञान से दूर हटता जाता है और आवरणी शक्ति के प्रभाव से ब्रह्म से निकटता रहने के बाद भी अज्ञान के कारण उससे मेल नही हो पाता, बुद्धि पर आवरण या परदा पड़ा रहता है।
        विद्यामाया में जिन दो अविद्या विरोधी शक्तियों का समावेश  रहता है वे ‘‘संवित शक्ति और ह्लादनी शक्ति‘‘ कहलाती है। संवित शक्ति के द्वारा साधक में अचानक होश  आता है कि उसे अविद्या की आवरणी और विक्षेप शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना है, और जब संघर्ष कर वह जिस शक्ति से आगे बढ़कर आनन्दित होने लगता है वह ह्लादिनी शक्ति कहलाती है। जब विद्या और अविद्या का संतुलन होता है तो जीव की तटस्था अवस्था कहलाती है इस स्थिति में थोडा सा भी असंतुलन होता है तो या तो अविद्या या विद्या के प्रभाव में आ जाता है, जैसे नदी के किनारे एक कदम आगे बढाने पर पानी और पीछे हटाने पर जमीन होती है इसी लिये इसे तट कहते हैं और जो इस पर होता है उसे तटस्थ। इसीलिये विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना होगा। इसे कहते हैं मध्यमाचार। एक विधि यह भी है कि लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा। इसे वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व  की ओर गति कर बैठता हैं। अन्य विधि दक्षिणाचार कहलाती है जिसमें साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश  में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।
        स्पष्ट है कि माया स्रष्ट यह जगत आपेक्षिक सत्य है जिसमें लगातार परिवर्तन हो रहा है , इसकी कोई भी वस्तु स्थायी नहीं । इसका एक रूप अवलुप्त होता है तब दूसरा स्रष्ट होता है। माया के प्रभाव से ही पुरुष का प्रकाशमान रूप दिखाई देता है, जैसे अग्नि और घृत। अग्नि सगुण पुरुष है और घृत प्रकृति। अग्नि के ज्योतिष्मान स्वरूप को देखने के लिये उसमें घृत का संयोग करना होता हैं इसी प्रकार पुरुष को रूपगत भाव में प्रकट करने के लिये मायिक क्रियाशील शक्ति का होना अपरिहार्य है। यह माया संबंधित पुरुष ही सगुण पुरुष है अन्यथा घृतविहीन अग्नि की तरह वह शान्त हो जाता है। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि अग्नि को प्रज्जवलित रखने के लिये घृत को स्वयं जलना होता है। ठीक इसी प्रकार जगत की स्रष्टिलीला है सगुण ब्रह्म के स्रष्टिभाव को बचाये रख्ने के लिये प्रकृति की क्रियाशीलता का प्रतिक्षण नाश  होता रहता है। धीरे धीरे वह पुरुष में समाहित होती जाती हैं और सगुण ब्रह्म धीरे धीरे मोक्ष पद की ओर अग्रसर होते चलते हैं, इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कर्मयोग के माध्यम से संस्कार क्षय कैसे होते जाते हैं।
       प्रकृति के नित्यनिवृत्त रूप को जो नहीं मानना चाहते वे अपने को धोखा देते हैं और जो इसको समझ गये हैं वे प्रकृति के आधीन नहीं रहते, जब तक पुरुष भाव का जागरण नहीं होता तब तक साधक के लिये प्रकृति को जान पाना संभव नहीं है। इसी लिये पुरुष भाव को जगाने के लिये ही साधना की आवश्यकता  होती है। जीव भाव अविद्या को लेकर ही बचा रहता है, अविद्या के द्वारा ही वह स्रष्ट होता है और अविद्या के दूर हट जाने पर भेदात्मक जगत भी दूर हो जाता है। जीव भाव और ब्रह्म भाव में अंतर यह है कि जीव प्रकृति के आधीन है और ब्रह्म भाव प्रकृति का आधीश । अविद्या को हराकर जब जीव, ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठत होता है तो वह अनुभव करता है कि माया ही एक से अनेक रूप बनाती है जैसे व्यवस्थित दर्पणों के बीच रखा एक फूॅल अनेक फूलों में बदल जाता है। माया रूपी दर्पण में प्रतिबिंवन शक्ति समाप्त होने पर अकेला फूल ही रह जाता है उसी प्रकार माया नहीं रहने पर अप्रकाश  ब्रह्म ही रह जाते हैं उनका कोई सगुण विकास नहीं होता। जीवभाव माया दर्पण में प्रतिफलित ब्रह्म का ही आभास है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये उसे दर्पण की प्रधानता माननी ही होगी। परंतु पुरुष रूपी नित्य सत्ता कभी प्रकृति के आधीन रहने को वाध्य नहीं है, प्रकृति को ही उसके आधीन रहना पड़ता है क्योंकि पुरुष के अभाव में प्रकृति की क्रिया नहीं हो सकती। जिस प्रकार छोटा सा बटबीज अपने में विशाल बट बृक्ष की संभावना लिये रहता है जिसके फलस्वरूप अनेक बट बृक्ष उत्पन्न हो सकते हैं उसी प्रकार माया अपनी अनन्त प्रतिविम्बन शक्ति से एक ही पुरुष में अनेक जीव स्रष्ट कर पाती है। इसलिये प्रकृति है लगातार बदलते रहने वाली और अपने रूपों में द्रढ़ता रखने वाली । इसीलिये लोग उसकी ओर आकर्षित होते है, मोहग्रस्त होते हैं।
       यह परिवर्तनशीला प्रकृति बड़ी विचित्र है, भोगों के बीच रहकर भोगों को नहीं छोड़ा जा सकता, पर भोंगों का भाव लिये बिना उन्हें भोगा जा सकता है। बुद्धितत्व को मलिनता से मुक्त करने की चेष्टा करना ही साधना है। पुरुष को जानना होगा, मूल पुरुष को जानने के लिये साधना को छोड़कर दूसरी गति नहीं। यह भी याद रखना चाहिये कि छाया को लेकर मत्त रहने से काम नहीं चलेगा क्योंकि शुद्ध दर्पण में छाया को स्पष्ट रूप से
देख सकते हैं पर उससे मूल वस्तु को पा नहीं सकते। स्पष्ट है कि छायामय इस संसार की किसी भी छायावस्तु को सैकड़ों कोशिशों  के बाद भी अपने अधिकार में नहीं लाया जा सकता। छाया को देखकर आनन्द पाते हो क्योंकि वह आनन्द स्वरूप ब्रह्म का ही अवभास है। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘ न वा अरे पतुः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति। न वा अरे पुत्रस्य कामाय पुत्रः प्रियो भवति आत्मनस्तु कामाय पुत्रः प्रियो भवति। न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।‘‘  पति के लिये पति प्रिय नहीं होता, पति को पाकर अपने में आनन्द होता है इसलिये पति प्रिय होता है। पुत्र के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता पुत्र को पाकर अपने में आनन्दका स्फुरण होता है इसलिये पुत्र प्रिय होता है। दुराचारी पुत्र को पाकर प्रसन्नता नहीं होती अतः माता पिता उसे त्यागने में नहीं हिचकिचाते। प्रकृति के सत्व, रज और तमोगुण के क्रमषः प्रधान प्रभाव से संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार होते रहते हैं और इन अवस्थाओं में इनके अभिमानी पुरुष क्रमशः  ब्रह्मा विष्णु और महेश  कहलाते हैं। स्पष्ट है कि जब तक प्रकृति क्रियाशीला रहती है तभी तक ब्रह्मा विष्णु और महेश  का भी अस्तित्व है ये प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में ईश्वरग्रास या निर्गुण ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। सगुण ब्रह्म, ब्रह्मा विष्णु और महेश  इन तीन अवस्थागत नामों से अपना अपना काम कर रहे हैं इसलिये यह जगत हरि हरात्मक है, प्रत्येक वस्तु में हरि और हर की लीला चल रही है। भार साम्य अवस्था में किसी की रचना नहीं होती यह साम्य नष्ट हो जाने पर ही अभिव्यक्त होती है। हम लोगों का जीवन भी इसी प्रकार का है, जीवन एक अस्थिर साम्य को पुनः प्राप्त करने के लिये नियत प्रयास ही है।
       हमारे जीवन में ‘हरि‘ और ‘हर‘ का संग्राम चल रहा है जब तक ‘हरि‘ की जीत हो रही है तब तक ही प्राणों की उच्छलता है ज्योंही ‘हर‘ की जीत शुरु होती है जीवन का छन्द भी मन्द हो जाता है। ‘हर‘ की प्रतिष्ठा के
साथ ही सारी चपलता, विद्या , बुद्धि नाम यश  कुल गोत्र सारा अहंकार और छटपटाहट खत्म हो मृत्यु के दारुण हिम में जड़ीभूत हो जाती है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश  तीनों पृथक पृथक सत्तायें नहीं है। बल्कि अवस्था भेद से उस एक परमपुरुष का ही विविध प्रकाश  मात्र है। अब यदि यह कहा जाये कि जब जीवभाव ब्रह्मभाव की ही छाया है और उसी तरह चैतन्य है तो फिर उसे पूर्ण ब्रह्म के रूप में क्यों नहीं पाते? ‘‘ सर्वं सर्वमयं सर्वे जीवाः सर्वमयाः सर्वावस्थासु तथाप्यल्पाः स वा एष भूतानीद्रियाणि विराजं देवताः कोशां च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढ़ो मूढ़ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव।‘‘ यथार्थतः जीव भाव भी सदा ‘स्वभाव‘ में ही स्थित है तथा स्वभावगत रूप से वह मुक्त ही है परंतु जीव के बुद्धितत्व में ब्रह्त की पूर्ण छाया नहीं पड़ती, इसका कारण है ‘क्षुद्र मैं‘ के बुद्धि पट का। जैसे छोटे दर्पण में पूरे हाथी का प्रतिफलन न दिखकर वह खंभे जैसा दिखे तो हाथी का दोष होगा कि दर्पण की छुद्रता का? इसलिये साधक को अपना बुद्धि पट बढ़ाना होगा ताकि वह उसमें समग्र ब्रह्माॅंड का प्रतिफलन कर पाये। मनोमय कोश  की परिधि बढ़ाना होगी जिससे पूर्ण ब्रह्म भाव को आत्मस्थ किया जा सके। इसलिये किसी सीमित वस्तु को बुद्धि के विषय से हटाना होगा। स्पष्ट है कि जीव भाव भी चैतन्यस्वारूप्य के अवभास हेतु सब अवस्थाओं में सर्वत्र, सर्वगत और सर्वज्ञ है परंतु मायारूपी दर्पण में सीमित बुद्धि के कारण पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता। निर्विकल्प समाधि में अविद्या माया के स्तंभित हो जाने से कार्य कारण भाव का वहन करने वाला मन भी नहीं रहता इसलिये किसी बोध शक्ति के द्वारा बोध ग्रहण की संभावना भी नहीं रहती।


सामाधि भंग होने पर बोध भाव के जागने पर लगता है कि एक अपरिचित देश  के अज्ञात आनन्द श्रोत ने  उसकी सर्व सत्ता को आलुप्त कर दिया  है और उसे किसी अतीन्द्रिय चेतना स्पंदित सुरलोक में लिये जा रहा है। इसलिये कहा जाता है कि निर्विकल्प समाधि में साधक नहीं जान पाता कि वह निर्विकल्प समाधि में था। अविद्या के नागपाश  तोड़ कर जो जितनी अपने पौरुष की प्रतिष्ठा कर पाता है वह उतना ही आनन्दस्वरूप को अपना बना कर पकड़ सका है, आनन्दस्वरूप हो सका है।

Thursday 1 January 2015

5.5 कर्मविज्ञान (Theory of action)
                       इस सिद्धांत को समझने के लिए कुछ दार्शनिक शब्दों को पहले समझ लेने से सुबिधा रहेगी      अतः इन्हें नीचे पारभाषित किया गया है।
शम्भूलिंग:-  संसार के निर्माता की अलौकिक इच्छा से यह संसार चल रहा है। दर्शनशास्त्र  में
           परमपुरुष  की इच्छा को शम्भूलिंग कहा गया है।
प्रत्ययमूलक कर्म:- स्वतंत्रता पूर्वक किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य या(original action).
संस्कारमूलक कर्म:- परिस्थितियों के दबाव में आभारी होकर किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य
         की प्रतिक्रिया, (reaction to the original action)व्यक्ति की परोक्ष इच्छा उसे,
         ब्रह्माॅड में मूल क्रिया के कारण उत्पन्न असंतुलन को संतुलित करने के लिये, साधन बन
         जाती है।
अभिलाषा:- अविद्या माया के प्रभाव से जब मन पर सांसारिकता की तरंगें प्रभावी होती हैं तो वह
         अपनी जड़ता में सीमित रहता है, इस स्थिति को अभिलाषा कहते हैं।
संकल्प:- जब अभिलाषा की जड़ें  गहरी हो जातीं हैं और मानसिक तरंगें द्रढ़तापूर्वक कार्य रूप में
         बदलना चाहतीं हैं, उसे संकल्प कहते हैं।
कृति:- जब मन प्राणेन्द्रिय और कर्मेंद्रिय के साथ जुड़कर कार्य करने लगता है तो उसे कृति कहते हैं।
अवधान:- जब मन प्राणेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय के साथ मिलकर विस्तारित होने लगता है तो उसे अवधान
        या एडवर्टेंस कहते हैं।
        अभिलाषा, संकल्प, कृति, और अवधान सभी क्रियायें ही हैं।
अवधान को तीन भागों में बाॅंटा गया है। अनवधान (inadvertence)] चैत्तिकप्रत्यक्ष (perception)]
और प्रत्यय (conception)। जब भूतकालीन प्रत्यय स्मरणशक्ति के आधार पर पुनः मन में आ जाता है उसे तत्व ज्ञान कहते हैं। तत्वज्ञान कई प्रकार के हो सकते हैं। जब साधना करते हुए जड़ मन सूक्ष्म और सूक्ष्म मन कारण मन में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है तो इससे उत्पन्न नयापन वस्तुओं को पूर्णतः भिन्न प्रकार से अनुभव करने लगता है, इस नये प्रकार से अनुभव किये गये चैत्तिक  प्रत्यक्ष को तत्वज्ञान या सिद्धज्ञान कहते हैं।
सुख और दुख की अनुभूति केवल मानसिक क्षेत्र में ही होती है क्योंकि वहीं पर मानसिक अनुभवों के कंपन संचित होते हैं। इस सुख और दुख की अनुभूति से ही संस्कार (reactive momenta) उत्पन्न होते हैं। इसी से वासना या इच्छाएं भी जन्म लेती हैं और इन्हीं इच्छाओं के कारण कर्म करना पड़ता है। क्रिया और इच्छा को पृथक नहीं किया जा सकता। यदि मिट्टी का घड़ा, इच्छा को प्रकट करे तो  उसमें भरा पानी, प्रत्ययमूलक कर्म को प्रकट करेगा। पानी घड़े का ही रूप ले लेता है। पानी रूपी कर्म को इच्छा रूपी घड़े से बाहर निकालने की पद्धति साधना कहलाती है, वह क्रिया जिसमें इच्छारूपी घड़े का आकार बनता है कर्माशय (bundle of reactive momenta)    कहलाता है। मनुष्य का जीवन कैसा होगा यह उसके संस्कारों के बंडल की प्रकृति पर निर्भर करता है।
आध्यात्मिक क्रियाएं या प्रतिक्रियायें जैसे समाधि और साधना, सुख और दुख से ऊपर होती हैं अतः उनसे कर्मबंधन नहीं होता। जब कर्मकम्पन इच्छा के क्षेत्र में घुस जाते हैं तो इसे संस्कार अर्थात् रीएक्शन  इन पोटेशियलिटी कहते हैं। संस्कारों का क्षय, मूल क्रियाओं के कंपनों के समान शक्तिशाली और  विपरीत कम्पन उत्पन्न किये जाने  पर ही हो सकता हैं। एक जन्म के संस्कार अगले जन्म के संस्कारमूलक कर्म के द्वारा क्षय होते हैं क्योंकि किसी के संस्कार उसके जीवनकाल में परिपक्व तब तक नहीं होते जब तक इंद्रियाॅं प्राण और मन अलग नहीं हो जाते। यही कारण है कि किसी के संस्कारों का भोग उसी जीवन में नहीं होता।
क्रिया प्रवाह की समाप्ति पर ही प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है और क्रिया की समाप्ति वासनाभाॅंड अर्थात् (pot of desires) के संपर्क में आने और प्रतिक्रिया प्रारंभ होने के क्षण होती है, यही कारण है कि वर्तमान जीवन में संस्कार भोगते समय हम यह नहीं पहचान पाते कि यह पिछले किस कार्य का परिणाम हैं।
अद्रष्टवेदनीय कर्म:- जब पूर्व जन्म के कर्मों की प्रकृति जाने बिना प्रतिक्रिया अनुभव होती है उसे अद्रष्टवेदनीय कर्म या भाग्य कहते हैं। जैसे कोई सद्गुणी व्यक्ति प्रचंड दुख भोगने लगे या कोई दुष्ट व्यक्ति अत्यंत सुखी जीवन जीने लगे।
द्रष्टवेदनीय कर्म:- जब किसी गंभीर बीमारी, छल, या किसी महापुरुष के संपर्क से कुंडलनी के जागृत होने, आदि से मन अस्थिर रूप से ज्ञानेन्द्रियों कर्मेंन्द्रियों और प्राणेन्द्रिय से अलग हो जाता है तो संस्कारों का बंडल पक जाता है और व्यक्ति इसी जन्म में अपने किये का परिणाम भोगने लगता है इसे द्रष्टवेदनीय कर्म कहते हैं। परंतु यह विरला ही होता है, सामान्यतः हम अपने पूर्व जन्म के संस्कार ही इस जन्म में भोगते हैं।
यदि किसी के पिछले जन्म के और वर्तमान जन्म के संस्कार समान हैं तो वह पिछले और इस जन्म के संस्कार साथ साथ भोगने लगता है पर यदि पिछले जन्म से इस जन्म के संस्कार भिन्न होते हैं तो पहले पिछले जन्म के फिर इस जन्म के संस्कार भोगना पड़ते हैं। मूल कर्माें की प्रकृति के अनुसार ही प्रतिक्रिया होती है, यदि कोई व्यक्ति किसी बीमार, ईमानदार , किसी के आश्रित या सन्त को कष्ट देता है तो वह उसी तीव्रता की प्रतिक्रिया तत्काल भोगेगा क्योंकि बीमार, सन्त, आश्रित आदि, गलत कर्म करने वाले के मूलकार्यों को कभी भी विरोध नहीं करते। चाहे अच्छे हों या बुरे जबतक सभी संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता मुक्ति मिलना संभव नहीं है।
जबतक शरीर है तब तक कर्म रहेगा अतः आध्यात्मिक साधक को सावधान रहकर नये संस्कारों को वासनाभांड में प्रवेश  नहीं होने देना चाहिए। उचित और लगातार ब्रह्म चिंतन और साधना से वासनाभाॅंड को विशुद्ध चेतना से भरे रहने पर नये संस्कारों को प्रवेश  करने से रोका जा सकता है। लगातार ईशचिंतन करते रहने से नये संस्कारों का जन्म नहीं होगा और पुराने जल्दी ही क्षय हो जावेंगे। सच्चा साधक सुख और दुख दोनों से अप्रभावित रहता है।
अष्टाॅंगयोग की साधना से अपनी सभी इंद्रियों और इच्छाओं को परमचेतना की ओर प्रेषित करते रहने पर कर्माशय में चेतना का प्राधान्य हो जाता है और आसन, प्राणायाम आदि करने से मन और प्राणों पर उचित नियंत्रण हो जाता है, इस तरह मन शुद्ध हो जाता है। इसे अनुभव कहते हैं। मन के शुद्ध हो जाने पर वह धीरे धीरे अनुभव करने लगता है कि वह शरीर नहीं है, इस सजगता के लिये प्रज्ञा कहा जाता है, प्रज्ञा को सात्विक बनाये हुए जब वासनाभांड में चेतना लबालब भर जाती है तो साधक के पुनः जन्म लेने की संभावना कम हो जाती है वह दग्ध बीजवत हो जाता है। कर्माशय के चेतना से भरे होने पर वासनाभाॅड फिर भी रह जाता है जिसे परम पुरुष के चरणों में पूर्णतः समर्पित होकर उन्हें ही सौंपना पड़ता है जो लगातार उन्हीं के चिंतन करते रहने से संभव होता है। उनका इस प्रकार से लगातार चिंतन करते रहना पुरुषख्याति कहलाता है। इसप्रकार जब वासनाभाॅंड सहित सबकुछ परम पुरुष को सौप दिया जाता है तो साधक पूर्णरूप से परम पुरुष में ही मिल जाता है। इसे ही मुक्ति, मोक्ष कहते हैं।