Friday 23 January 2015

5.83 : मन की रचना , ब्रह्म मन और गुरु ( पिछले खंड के सूत्र से आगे----)

5.83 : मन की रचना , ब्रह्म मन और गुरु ( पिछले खंड के  सूत्र से आगे----)
1. पञ्चकोषात्मिका जैवीसत्ता कदलीपुष्पवत्। प्रतिसंचर की गति में चित्त की रचना हो जाने के बाद धीरे धीरे मन का व्यापक विकास होता रहता है। विकास की इस धारा में अणु देह का स्थूलतम कोश ( crudest layer)  ‘‘काममय‘‘ उससे सूक्ष्मकोश (subtler layer) ‘‘मनोमय‘‘  उससे सूक्ष्म ‘‘अतिमानस‘‘  उससे सूक्ष्म ‘‘विज्ञानमय‘‘ और उससे भी सूक्ष्म ‘‘हिरण्यमय‘‘ कोश  कहलाते हैं। अणु का स्थूल आधार अन्नमय कोश  संचर गति की संपत्ति है। काममय को स्थूलमन, मनोमय को सूक्ष्म मन और अतिमानस, विज्ञानमय तथा हिरण्यमय तीनों को कारण मन भी कहा जाता है। स्थूल मन के साक्षी पुरुष को प्राज्ञ, सूक्ष्म मन के साक्षी पुरुष को विश्व  कहा जाता है। जैवी सत्ता का स्थूल आधार संचर में स्थित अन्नमय कोश  होता है। इस स्थूल देह में काममय से हिरण्यमय तक पंच कोशों  को सूक्ष्म देह और तथा महत्तत्व और अहंतत्व को सामान्य देह कहा जाता है। यह कोश  समूह केले के फूल की तरह स्थूल और सूक्ष्म परतों के आकार से समझा जा सकता है।
2. सप्तलोकात्मकम् ब्रह्ममनः। ब्रह्म मन  सात लोकों (seven layers of cosmic mind) से निर्मित होता है, ये हैं भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य। ब्रह्म के महत और अहम तत्व का साक्षी केवल पुरुषोत्तम नाम से जाना जाता है यही सत्य लोक है, इसे ब्रह्म की कारण देह भी कहते हैं। ब्रह्म के हिरण्यमय कोश  के साक्षी पुरुष को विराट या वैश्वानर कहा जाता है और यह तपःलोक कहलाता है। इसी प्रकार विज्ञानमय और आतिमानस कोश  के भी साक्षी पुरुष को विराट ही कहा जाता है तथा इनके लोक क्रमशः  जनःलोक और महर्लोक कहलाते हैं। हिरण्यमय, विज्ञानमय और अतिमानस कोश  का सम्मिलित नाम ब्रह्म की सूक्ष्मदेह या कारण मन(causal mind) कहा जाता है। ब्रह्म के मनोमय कोश  को उनका सूक्ष्म मन कहते हैंऔर साक्षी पुरुष को हिरण्यगर्भ इससे संबंधित लोक को स्वर्लोक कहते हैं । ब्रह्म के काममय कोश  को उनका स्थूल मन कहते हैं और इसके साक्षीपुरुष को ईश्वर। यह ब्रह्म की स्थूल देह भी कहलाती है। इसकी सूक्ष्मता और स्थूलता के अनुसार  इन्हें क्रमशः  आंशिक रूपमें भुवः और आंशिक रूपमें भूर्लोक कहते हैं।
3. कारणमनसि दीर्घनिद्रा मरणम्।  जाग्रद अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों मन क्रियाशील रहते हैं। स्वप्नावस्था में केवल स्थूल मन सोया रहता है और शेष दोनों मन क्रियाशील रहते हैं। प्रगाढ़ निद्रा में स्थूल और सूक्ष्म दोनों मन सोये रहते हैं केवल कारण मन क्रियाशील रहता है और वही शेष दोनों मनों का कार्य करता जाता है। जिस समय शरीर और मन की तरंगों में साम्यावस्था समाप्त हो जाती है तब कारण मन भी निष्क्रिय हो जाता है और इसे मृत्यु कहा जाता है।
4. मनोविकृतिः विपाकापेक्षिता संस्कारः। सत् या असत् किसी भी प्रकार का कार्य मन में विकृति पैदा करता है, विपाक अर्थात् इस विकृति के समाप्त हो जाने पर अर्थात् उस कर्म का फल भोग लेने पर मन अपनी स्वाभविक अवस्था में लौट आता है। जिस क्षेत्र में कर्म तो किया जाता है पर फल भोग नहीं हो पाता अर्थात  विपाक अपेक्षित रहता है तो इसे संस्कार (reaction in potential form) कहते हैं। मृत्यु काल में कारण मन में जिस प्रकार के संस्कार भोग करने के लिये रह जाते हैं, प्रकृति उस विदेह मन (bodyless mind) को विभिन्न जीवों के गर्भ में उन्हीं संस्कारों की तरंगों के मेल होने पर जैवी देह से संयुक्त करा देती है।
5. विदेहीमानसे न कतृत्वं न सुखानि न दुखानि। देह से मन के अलग हो जाने पर अर्थात् मृत्यु हो जाने के बाद जीवों को सुख या दुख का बोध नहीं होता क्योंकि इस अवस्था में उनके पास स्नायु कोश  या स्नायु तन्तु नहीं होते जो यह संवेदन उन्हें प्रेषित कर सकें। अतः यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि विदेही आत्मा अमुक कार्य करने से सुखी या दुखी होंगे या प्रतिहिंसा करेंगे आदि।
6. अभिभावनात् चित्ताणुसृष्टप्रेतदर्शनम् । वास्तव में भूत प्रेत नामक कुछ भी नहीं है। भय या क्रोध  या मोह से ग्रस्त अवस्था में जब मन की एकाग्रता सामयिक रूप से हो जाती है तो उसका चित्ताणु ही उसके द्वारा चिंतन किये जा रहे विषय का रूपले लेता है और अपने मन की भावना को बाहर प्रत्यक्ष देखने लगता है। इसे धनात्मक भ्रान्तिदर्शन (positive hallucination कहते हैं। मन में किये जा रहे विचारों से भिन्न आकार दिखाई देने को ऋणात्मक भ्रान्तिदर्शन( negative hallucination) कहते हैं। इसलिये जो कहते हैं कि उन्होंने भूत देखा , वे गलत नहीं हैं उनके मन की भ्रान्ति ही उन्हें दिखाई देने लगती है। स्वप्रेरण से भी यदा कदा आन्तरिक रूपसे गहरा चिंतन प्रेतभ्रम पैदा कर सकता है और वह व्यक्ति इस प्रकार का व्यवहार करते देखा जा सकता है जैसे किसी देवी देवता या प्रेत ने उसके शरीर में प्रवेश  कर लिया हो।
7. हितैषणा प्रेषितोपवर्गः। कर्म समाप्त होने पर जो फल प्राप्त होता है उसमें ब्रह्म की ओर से कल्याण भावना
ही होती है, अन्याय कर्म का दंड मनुष्य को अन्याय से दूर रहने की शिक्षा देता है। सत् कर्म करने से प्राप्त शुभ फल यह शिक्षा देता है कि अशुभ या असत् कर्म से इसे नहीं पाया जा सकता।
8. मुक्त्याकाॅंक्षा सद्गुरुप्राप्तिः। मनुष्य में जब मुक्ति पाने की तीब्र इच्छा उत्पन्न होती है तो उसकी इसी आकाॅंक्षा की शक्ति से ही सद्गुरु मिल जाते हैं।
9. ब्रह्मैव गुरुरेकः नापरः। एकमात्र ब्रह्म ही सद्गुरु हैं, वे ही विभिन्न माध्यमों से जीव को मुक्ति पथ की ओर ले जाते हैं। ब्रह्म के अलावा कोई अन्य गुरु हो ही नहीं सकता।
10. वाधा सा युषमानाशक्तिः सेव्यं स्थापयति लक्ष्ये। साधना के मार्ग में बाधायें शत्रु नहीं वरन् मित्र हैं वह मनुष्य की सेवक हैं। ये बाधायें अपने विरुद्ध संघर्ष करने को प्रेरित करती हैं और संघर्ष की यही चेष्टा साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है।
11. प्रार्थनार्चनामात्रैव भ्रममूलम्। ईश्वर  से याचना प्रार्थना करना व्यर्थ होता है क्योंकि जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है वे उसे यथा समय देंगे ही अतः अर्चना खुशामद करने के अलावा और क्या है?
12. भक्तिर्भगवद्भावना न स्तुतिर्नार्चना। एकनिष्ठ भाव से भगवान की भावना लेने का नाम ही भक्ति है। स्तुति गाना या किसी उपचार के लिये अर्चना करना भक्ति से संबंधित नहीं है। भक्त चाहे तो वह ऐंसा कर सकता है पर भक्ति साधना का वह अंग नहीं है।

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