पिछले पृष्ठों में अनेक स्थानॉ पर आपने "आनन्द सूत्रम्" का सन्दर्भ पाया है। इस खंड में इन्हीं सूत्रों की चर्चा की जाएगी। वास्तव में जगद्गुरु महासम्भूति श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने सामाजिक- आर्थिक -राजनैतिक -आध्यात्मिक सभी पक्षों को मानव कल्याण के लिए कुल 85 सूत्रों में बांध कर मार्गदर्शन दिया है। यद्यपि उनमे से प्रत्येक की व्याख्या बहुत लम्बी चौड़ी है पर प्रयास किया गया है कि इन सभी सूत्रों को ज्यों का त्यों रखते हुए उनकी सारगर्भित व्याख्या संक्षेप में की जावे। आगामी लेखों में क्रमशः सभी सूत्रों को प्रस्तुत किया जा रहा है कृपया ध्यान से अध्ययन करें और अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य देवें जिससे इन्हें और अधिक समाजोपयोगी बनाया जा सके।
5.8 पराज्ञान: आनन्दसूत्रम
5.81: ब्रह्म, स्रष्टि चक्र और अनुभूति:
1 शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म।
कागज के दो पृष्ठों की तरह ‘ब्रह्म‘ शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है। जिस प्रकार कागज के पृष्ठों को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शिव और शक्ति भी अविनाभावी हैं वे एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। दार्शनिक रूपमें इन्हें ही पुरुष और प्रकृति के नाम दिये गये हैं। प्रत्येक सत्ता में जो साक्षीबोध सोया हुआ है उसे ही पुरुष कहते हैं, ‘पुरे शेते यः सः पुरुषः‘। जब मानस तरंगें आत्मिक सत्ता से टकरातीं हैं तो इसके संवेदन से यह अनुभव होता है कि आत्मा अर्थात् शिव और जीव अविछिन्न हैं। इस सर्वप्रतिसंवेदी आत्मा के रहने से ही सभी वस्तुओं का अस्तित्व है।
2 शक्तिः सा शिवस्य शक्तिः।
प्रत्येक वस्तु के उपादान और निमित्त कारण होते हैं। स्रष्टि के विकास में पुरुषतत्व उपादान कारण है और प्रकृतितत्व, निमित्त के साथ उपादान से संपर्क स्थापन करने की षक्ति है तथा निमित्त कारण से पुरुष भाव मुख्य और प्रकृति भाव गौण है। पुरुष सर्वव्याप्त सत्ता हैं पर प्रकृति पुरुष की आश्रिता है। पुरुष जितना कार्य करने का अवसर प्रकृति को देते हैं वह उतना ही कर सकती है। प्रकृति के तीन गुणों सत रज और तम के बंधनों से सूक्ष्म पुरुष स्थूलता ग्रहण करता है और चरम अवस्था आने पर धीरे धीरे प्रकृति को पूर्व में प्रदान किये गये सुअवसरों और स्वाधीनता को कम करता जाता है। इस प्रकार पुरुष अपनी सूक्ष्मता को प्राप्त करते हुए पुनः चरम अवस्था प्राप्त कर अपने स्वभाव में वापस आ जाता है। प्रकृति के बंधन के कारण पुरुष देह में जो विकासधारा है उसे दार्शनिक रूप में ‘संचर‘ कहा जाता है और इन बंधनों के कमजोर होने पर पुरुष देह में क्रमिक मुक्ति का भाव आने को ‘प्रति संचर‘ कहा जाता है। स्पष्ट है कि अपने अधिकार में स्वतंत्र होने पर भी
प्रकृति को यह अधिकार देना या न देना पुरुष की इच्छा पर ही निर्भर होता है अतः कहा गया है कि प्रकृति, पुरुष की ही प्रकृति है।
3 तयोः सिद्धिः संचरे प्रतिसंचरे च । किसी भी सत्ता का अस्तित्व उसकी कर्मधारा, भावनाधारा और साक्षीत्व पर निर्भर होता है। साक्षीत्व भाव पुरुष का और अन्य दो प्रकृति के होते है। इसलिये प्रकृति अपने कर्म या भावना का कारण तभी हो सकती है जब वह स्वयं विषय ग्रहण कर उसके साथ एक हो जाये। प्रक्ति जो भाव ग्रहण करती है वह पुरुष के ऊपर क्रमिक रूपसे बढ़ते प्रभाव अर्थात् संचर क्रिया में या क्रमशः घटते प्रभाव अर्थात् प्रतिसंचर क्रिया में सम्पन्न होता है। प्रकृति के इस कार्य में उपादान कारण पुरुष तो हैं ही , वह सभी अवस्थाओं में साक्षी भी होते हैं।
4 परमः शिवः पुरुषोत्तमः विश्वस्य केन्द्रम। अपने तीनों गुणों की सहायता से संचर क्रिया में प्रकृति, पुरुष भाव को जड़ात्मक और प्रतिसंचर क्रिया में इन्हीं गुणों के प्रभाव को क्रमशः कम करते हुए उन्हें अपने मूल स्वभाव में लौटा लाती है। संचर की क्रिया सेंट्रीफ्युगल अर्थात् केन्द्र के बाहर की ओर, और प्रतिसंचर क्रिया सेन्ट्रीपीटल अर्थात् केन्द्र की ओर होती है। इन्हीं की मदद से स्रष्टि चक्र चलता है जिसके केन्द्रक होते हैं पुरुष या शिव, (कांशसनेस)। उनके इस प्राण केन्द्र को दार्शनिक रूप में परमशिव या पुरुषोत्तम कहते हैं।
5 प्रवृत्तिमुखी संचरः गुण धारायाम्। प्रकृति के प्रभाव से पुरुष जब अपने प्राण केन्द्र से बाहर की ओर जड़ाभिमुखी होता है तो इसे प्रवृत्ति कहते हैं। साक्षी स्वरूप पुरुषोत्तम में, प्राकृत शक्ति का जब सत्वगुण सम्पात होता है तो अस्तित्व बोध जागता है, दार्शनिक भाषा में इसे महत्तत्व (existential feeling) कहते हैं। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी। इसी क्रम में महत्तत्व के ऊपर प्रकृति के रजोगुण का संपात होने पर कर्तृत्वबोध और स्वामित्व बोध जागता है , पुरुष की इस परिवर्तित अभिव्यक्ति को अहंतत्व (doer I feeling) कहते हैं। इसी क्रम में जब शक्ति के अधिक संपात से पुरुष चरम स्थूलत्व को पा जाता है तो इस अवस्था को चित्त (mind stuff) कहा जाता है और यह तमो गुण के प्रभाव से होता है। अर्थात् एक ही पुरुष से प्रवृत्ति की ओर प्रकृति की क्रमिक गुणधारा में ही संचर क्रिया होती है।
6 निवृत्तिमुखी प्रतिसंचरः गुणावक्षयेण। वृत्ति की वृद्धि होना प्रवृत्ति और वृत्ति का ह्रास होना निवृत्ति कहलाता है। संचर की धारा में प्रकृति के प्रभाव से पुरुष देह में जिस चित्त सत्ता की उत्पत्ति होती है उसे जब जीवात्मा अनुभव करने का प्रयास करता है तब वह पंच महाभूत, दस इंद्रियाॅं, और पंच तन्मात्र के रूपमें आभास देती है। चरम अवस्था आ जाने पर पुरुष प्रकृति के अधिकार को कम करने लगता है और प्रकृति, विश्व प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम की ओर आकर्षित होने लगती है। इसी क्रम में जड़ पंचमहाभूत, जीव देह, जीव प्राण आदि जीव मन में रूपान्तरित होने लगते हैं और धीरे धीरे गुणों के क्षय हो जाने के कारण अपने मूल कारण पुरुषोत्तम में लीन हो जाता है । इसी लिये प्रतिसंचर की चरम अवस्था गुणवर्जित अवस्था है व्यक्तिगत जीवन में इसे ही प्रलय कहते हैं।
7 द्रक् पुरुषः दर्शनं शक्तिश्च । क्रिया, भाव दर्शन है। साक्षी भाव द्रष्टा के न होने पर दर्शन नहीं होता । मनन, वचन, श्रवण, ग्रहण ये सभी क्रियायें भाव हैं। इन क्रिया भावों का अस्तित्व जिस साक्षित्व से निष्पन्न होता है
वह द्रष्टा भाव ही पुरुष है, और उनके आश्रय से जिस क्रिया भाव की अभिव्यक्ति होती है वही प्राकृत गुण सम्पन्न है। तरंग के अभिव्यक्तिकरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उस दशा में उसके आपातः साक्षी को चैत्तिक सत्ता कहेंगे। चैत्तिक स्फुरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके आपातः साक्षी को अहंतत्व कहेंगे। अहं के विकास को क्रिया भाव कहें तो उसका आपातः साक्षी महत्तत्व है। ‘‘मैं हूँ ‘‘ के अस्तित्व बोध को या महत्तत्व को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके साक्षी भाव अर्थात् ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं‘‘ यह भाव ही चरम साक्षीरूप से ग्रहणीय है। यह जो ‘‘ मैं जानता हॅूं‘‘ है, यह किसी का आपातः साक्षी नहीं है। सभी अवस्थाऔं में सब का साक्षी है। अतः अंतिम रूप से यही भाव ही द्र्रष्टा है, और पुरुष का विषययुक्त स्वभाव (attributed consciousness) है।
8 गुणबंधनेन गुणाभिव्यक्तिः। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी। जिस पर जितना ही द्रढ़ बंधन होता है वह वस्तु उतना ही स्थूलत्व प्राप्त करती है। पुरुष की अनुमति से जब प्रकृति उन्हें बाॅंधती है तब क्रमशः बढ़ते हुए गुण बंधन के प्रभाव से चेतन पुरुष महत्तत्व, अहंतत्व और चित्त आदि में रूपान्तरित होता रहता है और इसके बाद चैत्तिक सत्ता पर अधिकतम तमोगुण के बंधन से आकाश तत्व निर्मित होता है, उससे अधिक बंधन से
वायुतत्व, उससे अधिक बंधन से अग्नितत्व, उससे अधिक बंधन से जलतत्व और उससे अधिक बंधन से क्षितितत्व उत्पन्न होते हैं। क्षिति तत्व में भी बंधन की मात्रा के अंतर से भूत देह में तन्मात्राओं के संचार करने की क्षमता आती है और अन्य बहुरूपों का स्रजन होता रहता है।
9 गुणाधिक्ये जडस्फोटः भूतसाम्याभावात्। क्षितितत्व के बाद आगे भी गुण का प्रयोग चलता रहे तो पंचभूतों की साम्यता नष्ट होने लगती है और जडस्फोट होता है। जडस्फोट के कारण क्षिति तत्व में आन्तरिक रूपसे बहुत संघर्ष होने से वह अति सूक्ष्म भूतों जैसे, जल, अग्नि, वायु ,आकाश आदि में रूपान्तरित हो जाता है। उस की गति प्रतिसंचरात्मक होने लगती है, पर जडस्फोट से उत्पन्न सूक्ष्म वस्तुसमूह अब भी संचर की ओर ही चलते जाते हैं। इसी प्रकार का क्रम चलता रहता है और जब क्षिति तत्व की मात्रा अन्यान्य भूतों की तुलना में अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है और भूतसमूह की पारस्परिक मात्रा में अधिक न्यूनता या अधिकता न होने के कारण अर्थात् साम्यावस्था आ जाने पर जडस्फोट के बदले जीव देह उत्पन्न होने लगती है।
10 गुणप्रभावेन भूतसंघर्षाद्बलम्। वस्तुदेह पर गुण का बंधन जितना अधिक होता जाता है उतना ही अधिक उनके भीतर संघर्ष बढ़ता जाता है इस संघर्ष को बल या प्राण कहा जाता है। सभी भूतों में प्राण का अस्तित्व कम या अधिक मात्रा में होता है पर उसकी अभिव्यक्ति सबमें समान नहीं होती ।
11 देहेन्द्रिकाणि परिणामभूतानि बलानि प्राणाः। बाहरी और भीतरी शक्तियों के संघर्ष से वस्तु देह में उत्पन्न परिणामी बल को यदि उसी देह में कोई केन्द्र मिल जाता है तो उस क्षेत्र में क्रियारत बलसमूह को प्राणाः या जीवनी शक्ति कहते हैं।
12 तीव्रसंघर्षेण चूर्णभूतानि जडानि चित्ताणु मानसधातुः वा। वस्तु देह में बल का तीब्र गति से प्रभाव बढ़ते जाने पर जड़ सत्ता का कुछ भाग चूर्णीभूत हो जाता है और आकाश तत्व से भी सूक्ष्म चित्ताणु या मानस धातु का निर्माण हो जाता है। अर्थात् जड़ से ही मन की उत्पत्ति होती है।
13 व्यष्टिदेहे चित्ताणुसमवायेन चित्त बोधः। व्यक्ति की जड़ देह में उक्त जड़ देह के सामूहिक केन्द्र पर जिस चित्ताणु समूह की स्थिति होती है वह सामूहिक भाव ही उसका चित्त बोध कहलाता है। यह चित्त जीव मन का विषय भाव अर्थात् doer I or objective I है। जब तक व्यक्ति की सभी अनुभूतियाॅं चाहे वे देखी हुई हों या सुनी हुई, चित्त में अपने भाव उत्पन्न नहीं करती, वे फलित नहीं होती।
14 चित्तात् गुणावक्षये रजोगुणप्राबल्ये अहम्। पुरुषोत्तम के प्रभाव से जब चित्त विद्याशक्ति के प्रभाव में आ जाता है तब उस पर तमोगुण का प्रभाव घटने लगता है और रजो गुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। चित्त के जिस भाग में रजोगुण का अधिक प्रभाव दिखाई देने लगता है उसे अहम तत्व या कर्तृत्वयुक्त मैं, या स्वामित्वयुक्त मैं (doer I feeling) कहा जाता है।
15 सूक्ष्माभिमुखिनीगतिरुदये अहंतत्वान्महत्। विद्याशक्ति के लगातार आकर्षण से रजोगुण का प्रभाव घटने लगता है और सतोगुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। अहंतत्व के जिस भाग में सत्व गुण की प्रबलता हो जाती है उसे महत्तत्व (pure I feeling) कहते हैं।
16 चित्तदहंप्राबल्ये बुद्धिः। चित्त की परिधि से अहं की परिधि अधिक हो जाने पर उस क्षेत्र में चित्तवर्जित अहं के परिषिष्ठाॅंष को बुद्धि(intellect) कहा जाता है।
17 अहंतत्वात् महद्प्रावल्ये बोधिः। अहंम् तत्व से महत् तत्व का आयतन अधिक हो जाने पर महत् के उस बढ़े हुए भाग को बोधि या (intuition) कहते हैं।
18 महद्हंवर्जिते अनग्रसरे जीवदेहे लतागुल्मे केवलम् चित्तम्। अनग्रसर जीवदेह अर्थात् लता गुल्म आदि में केवल चित्त ही विकसित होता है महत् या अहं का नहीं।
19 महद् वर्जिते अनग्रसर जीवदेहे लतागुल्मे चित्तयुक्ताहम्। अनग्रसर जीवदेह लता गुल्म में यह भी हो सकता है कि महत् का विकास न हुआ हो और अहम् तथा चित्त का विकास हुआ हो।
20 प्राग्रसरे जीवे लतागुल्मे मानुषे महदहं चित्तानि। अपेक्षाकृत उन्नत जीव में , लता गुल्म में तथा मनुष्य में महततत्व, अहंतत्व, और चित्त तीनों का विकास होता है।
21 भूमाव्याप्ते महति अहंचित्तयोप्र्रणाशे सगुणास्थितिः सविकल्प समाधिः वा। लगातार अभ्यास के द्वारा जब महत्तत्व बोध अर्थात् ‘‘मैंपनका बोध‘‘ भूमा के मैंपन बोध में अर्थात् (macro cosmic feeling) में रूपान्तरित होता है तब ‘‘जैव मन‘‘(micro cosmic feeling) का चित्त अहं में तथा अहं महत् में लय हो जाता है। वस्तु जब अपने कारण में लय प्राप्त करती है तब उस लय को प्रणाश कहा जाता है। प्रतिसंचर धारा में जब चित्त अहं में और अहं महत् में लय प्राप्त करता है तो उसे प्रणाश कहना उचित है। चित्त और अहं के प्रणाश और महत् के सर्वव्यापित्व की यह अवस्था ही सगुण स्थिति या सविकल्प समाधि कहलाती है।
22 आत्मनि महद् प्रणाशे निर्गुणास्थितिः निर्विकल्पसमाधिः वा। मैंपन बोध को पुरुषोत्तम या चितिशक्ति में लीन कर महत् की जो प्रलीनावस्था है उसे ही निर्गुणावस्था या निर्गुण समाधि कहते हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। क्योंकि,
23 तस्यस्थितिः अमानसिकेषु । मन की अतीतावस्था में ही यह निर्गुणा स्थिति होती है अतः मन की अनुभव्य नहीं है।
24 अभावोत्तरानन्दप्रत्ययालम्बनीर्वृत्तिः तस्य प्रमाणम्। जाग्रत अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म और कारण मन की तीनों अवस्थायें क्रियाशील होती हैं परंतु स्वप्न अवस्था में स्थूल मन निरुद्ध हो जाता है अतः सूक्ष्म और कारण ये दो ही क्रियाशील रहते हैं। निद्रित अवस्था अभाव बोध की अवस्था नहीं है क्यों कि उस अवस्था में कारण मन के द्वारा स्थूल और सूक्ष्म दोनों के कार्य होते रहते हैं। मन लय हो जाने के समय ही उसे प्रकृत अभाव की अवस्था कह सकते हैं। इसीलिये सविकल्प अवस्था अभाव की अवस्था नहीं है, निर्विकल्प अव्स्था ही अभाव की अवस्था है। इस चरम अभाव की अवस्था में जो आत्मिक आनन्द की लहरें जैवी सत्ता को आच्छादित कर लेती हैं , अभाव के बाद भी मन में उन लहरों का भाव बना रहता है जब तक कि अभुक्त संस्कार मन को पुनः अपनी ओर नहीं खींच लेता। इन लहरों का भाव ही साधक को बताता है कि उनकी मनःशून्य अवस्था थी एक आनन्दघन अवस्था।
25 भावः भावातीतयोः सेतुः तारकब्रह्म। भावयुक्त और भावातीत निर्गुण के बीच जो सेतु का कार्य करते हैं वह तारक ब्रह्म हैं। महासंभूति तारक ब्रह्म का सगुण रूप होता है।
5.8 पराज्ञान: आनन्दसूत्रम
5.81: ब्रह्म, स्रष्टि चक्र और अनुभूति:
1 शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म।
कागज के दो पृष्ठों की तरह ‘ब्रह्म‘ शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है। जिस प्रकार कागज के पृष्ठों को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शिव और शक्ति भी अविनाभावी हैं वे एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। दार्शनिक रूपमें इन्हें ही पुरुष और प्रकृति के नाम दिये गये हैं। प्रत्येक सत्ता में जो साक्षीबोध सोया हुआ है उसे ही पुरुष कहते हैं, ‘पुरे शेते यः सः पुरुषः‘। जब मानस तरंगें आत्मिक सत्ता से टकरातीं हैं तो इसके संवेदन से यह अनुभव होता है कि आत्मा अर्थात् शिव और जीव अविछिन्न हैं। इस सर्वप्रतिसंवेदी आत्मा के रहने से ही सभी वस्तुओं का अस्तित्व है।
2 शक्तिः सा शिवस्य शक्तिः।
प्रत्येक वस्तु के उपादान और निमित्त कारण होते हैं। स्रष्टि के विकास में पुरुषतत्व उपादान कारण है और प्रकृतितत्व, निमित्त के साथ उपादान से संपर्क स्थापन करने की षक्ति है तथा निमित्त कारण से पुरुष भाव मुख्य और प्रकृति भाव गौण है। पुरुष सर्वव्याप्त सत्ता हैं पर प्रकृति पुरुष की आश्रिता है। पुरुष जितना कार्य करने का अवसर प्रकृति को देते हैं वह उतना ही कर सकती है। प्रकृति के तीन गुणों सत रज और तम के बंधनों से सूक्ष्म पुरुष स्थूलता ग्रहण करता है और चरम अवस्था आने पर धीरे धीरे प्रकृति को पूर्व में प्रदान किये गये सुअवसरों और स्वाधीनता को कम करता जाता है। इस प्रकार पुरुष अपनी सूक्ष्मता को प्राप्त करते हुए पुनः चरम अवस्था प्राप्त कर अपने स्वभाव में वापस आ जाता है। प्रकृति के बंधन के कारण पुरुष देह में जो विकासधारा है उसे दार्शनिक रूप में ‘संचर‘ कहा जाता है और इन बंधनों के कमजोर होने पर पुरुष देह में क्रमिक मुक्ति का भाव आने को ‘प्रति संचर‘ कहा जाता है। स्पष्ट है कि अपने अधिकार में स्वतंत्र होने पर भी
प्रकृति को यह अधिकार देना या न देना पुरुष की इच्छा पर ही निर्भर होता है अतः कहा गया है कि प्रकृति, पुरुष की ही प्रकृति है।
3 तयोः सिद्धिः संचरे प्रतिसंचरे च । किसी भी सत्ता का अस्तित्व उसकी कर्मधारा, भावनाधारा और साक्षीत्व पर निर्भर होता है। साक्षीत्व भाव पुरुष का और अन्य दो प्रकृति के होते है। इसलिये प्रकृति अपने कर्म या भावना का कारण तभी हो सकती है जब वह स्वयं विषय ग्रहण कर उसके साथ एक हो जाये। प्रक्ति जो भाव ग्रहण करती है वह पुरुष के ऊपर क्रमिक रूपसे बढ़ते प्रभाव अर्थात् संचर क्रिया में या क्रमशः घटते प्रभाव अर्थात् प्रतिसंचर क्रिया में सम्पन्न होता है। प्रकृति के इस कार्य में उपादान कारण पुरुष तो हैं ही , वह सभी अवस्थाओं में साक्षी भी होते हैं।
4 परमः शिवः पुरुषोत्तमः विश्वस्य केन्द्रम। अपने तीनों गुणों की सहायता से संचर क्रिया में प्रकृति, पुरुष भाव को जड़ात्मक और प्रतिसंचर क्रिया में इन्हीं गुणों के प्रभाव को क्रमशः कम करते हुए उन्हें अपने मूल स्वभाव में लौटा लाती है। संचर की क्रिया सेंट्रीफ्युगल अर्थात् केन्द्र के बाहर की ओर, और प्रतिसंचर क्रिया सेन्ट्रीपीटल अर्थात् केन्द्र की ओर होती है। इन्हीं की मदद से स्रष्टि चक्र चलता है जिसके केन्द्रक होते हैं पुरुष या शिव, (कांशसनेस)। उनके इस प्राण केन्द्र को दार्शनिक रूप में परमशिव या पुरुषोत्तम कहते हैं।
5 प्रवृत्तिमुखी संचरः गुण धारायाम्। प्रकृति के प्रभाव से पुरुष जब अपने प्राण केन्द्र से बाहर की ओर जड़ाभिमुखी होता है तो इसे प्रवृत्ति कहते हैं। साक्षी स्वरूप पुरुषोत्तम में, प्राकृत शक्ति का जब सत्वगुण सम्पात होता है तो अस्तित्व बोध जागता है, दार्शनिक भाषा में इसे महत्तत्व (existential feeling) कहते हैं। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी। इसी क्रम में महत्तत्व के ऊपर प्रकृति के रजोगुण का संपात होने पर कर्तृत्वबोध और स्वामित्व बोध जागता है , पुरुष की इस परिवर्तित अभिव्यक्ति को अहंतत्व (doer I feeling) कहते हैं। इसी क्रम में जब शक्ति के अधिक संपात से पुरुष चरम स्थूलत्व को पा जाता है तो इस अवस्था को चित्त (mind stuff) कहा जाता है और यह तमो गुण के प्रभाव से होता है। अर्थात् एक ही पुरुष से प्रवृत्ति की ओर प्रकृति की क्रमिक गुणधारा में ही संचर क्रिया होती है।
6 निवृत्तिमुखी प्रतिसंचरः गुणावक्षयेण। वृत्ति की वृद्धि होना प्रवृत्ति और वृत्ति का ह्रास होना निवृत्ति कहलाता है। संचर की धारा में प्रकृति के प्रभाव से पुरुष देह में जिस चित्त सत्ता की उत्पत्ति होती है उसे जब जीवात्मा अनुभव करने का प्रयास करता है तब वह पंच महाभूत, दस इंद्रियाॅं, और पंच तन्मात्र के रूपमें आभास देती है। चरम अवस्था आ जाने पर पुरुष प्रकृति के अधिकार को कम करने लगता है और प्रकृति, विश्व प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम की ओर आकर्षित होने लगती है। इसी क्रम में जड़ पंचमहाभूत, जीव देह, जीव प्राण आदि जीव मन में रूपान्तरित होने लगते हैं और धीरे धीरे गुणों के क्षय हो जाने के कारण अपने मूल कारण पुरुषोत्तम में लीन हो जाता है । इसी लिये प्रतिसंचर की चरम अवस्था गुणवर्जित अवस्था है व्यक्तिगत जीवन में इसे ही प्रलय कहते हैं।
7 द्रक् पुरुषः दर्शनं शक्तिश्च । क्रिया, भाव दर्शन है। साक्षी भाव द्रष्टा के न होने पर दर्शन नहीं होता । मनन, वचन, श्रवण, ग्रहण ये सभी क्रियायें भाव हैं। इन क्रिया भावों का अस्तित्व जिस साक्षित्व से निष्पन्न होता है
वह द्रष्टा भाव ही पुरुष है, और उनके आश्रय से जिस क्रिया भाव की अभिव्यक्ति होती है वही प्राकृत गुण सम्पन्न है। तरंग के अभिव्यक्तिकरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उस दशा में उसके आपातः साक्षी को चैत्तिक सत्ता कहेंगे। चैत्तिक स्फुरण को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके आपातः साक्षी को अहंतत्व कहेंगे। अहं के विकास को क्रिया भाव कहें तो उसका आपातः साक्षी महत्तत्व है। ‘‘मैं हूँ ‘‘ के अस्तित्व बोध को या महत्तत्व को यदि क्रिया भाव कहें तो उसके साक्षी भाव अर्थात् ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं‘‘ यह भाव ही चरम साक्षीरूप से ग्रहणीय है। यह जो ‘‘ मैं जानता हॅूं‘‘ है, यह किसी का आपातः साक्षी नहीं है। सभी अवस्थाऔं में सब का साक्षी है। अतः अंतिम रूप से यही भाव ही द्र्रष्टा है, और पुरुष का विषययुक्त स्वभाव (attributed consciousness) है।
8 गुणबंधनेन गुणाभिव्यक्तिः। गुण का अर्थ है बाॅंधने की रस्सी। जिस पर जितना ही द्रढ़ बंधन होता है वह वस्तु उतना ही स्थूलत्व प्राप्त करती है। पुरुष की अनुमति से जब प्रकृति उन्हें बाॅंधती है तब क्रमशः बढ़ते हुए गुण बंधन के प्रभाव से चेतन पुरुष महत्तत्व, अहंतत्व और चित्त आदि में रूपान्तरित होता रहता है और इसके बाद चैत्तिक सत्ता पर अधिकतम तमोगुण के बंधन से आकाश तत्व निर्मित होता है, उससे अधिक बंधन से
वायुतत्व, उससे अधिक बंधन से अग्नितत्व, उससे अधिक बंधन से जलतत्व और उससे अधिक बंधन से क्षितितत्व उत्पन्न होते हैं। क्षिति तत्व में भी बंधन की मात्रा के अंतर से भूत देह में तन्मात्राओं के संचार करने की क्षमता आती है और अन्य बहुरूपों का स्रजन होता रहता है।
9 गुणाधिक्ये जडस्फोटः भूतसाम्याभावात्। क्षितितत्व के बाद आगे भी गुण का प्रयोग चलता रहे तो पंचभूतों की साम्यता नष्ट होने लगती है और जडस्फोट होता है। जडस्फोट के कारण क्षिति तत्व में आन्तरिक रूपसे बहुत संघर्ष होने से वह अति सूक्ष्म भूतों जैसे, जल, अग्नि, वायु ,आकाश आदि में रूपान्तरित हो जाता है। उस की गति प्रतिसंचरात्मक होने लगती है, पर जडस्फोट से उत्पन्न सूक्ष्म वस्तुसमूह अब भी संचर की ओर ही चलते जाते हैं। इसी प्रकार का क्रम चलता रहता है और जब क्षिति तत्व की मात्रा अन्यान्य भूतों की तुलना में अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है और भूतसमूह की पारस्परिक मात्रा में अधिक न्यूनता या अधिकता न होने के कारण अर्थात् साम्यावस्था आ जाने पर जडस्फोट के बदले जीव देह उत्पन्न होने लगती है।
10 गुणप्रभावेन भूतसंघर्षाद्बलम्। वस्तुदेह पर गुण का बंधन जितना अधिक होता जाता है उतना ही अधिक उनके भीतर संघर्ष बढ़ता जाता है इस संघर्ष को बल या प्राण कहा जाता है। सभी भूतों में प्राण का अस्तित्व कम या अधिक मात्रा में होता है पर उसकी अभिव्यक्ति सबमें समान नहीं होती ।
11 देहेन्द्रिकाणि परिणामभूतानि बलानि प्राणाः। बाहरी और भीतरी शक्तियों के संघर्ष से वस्तु देह में उत्पन्न परिणामी बल को यदि उसी देह में कोई केन्द्र मिल जाता है तो उस क्षेत्र में क्रियारत बलसमूह को प्राणाः या जीवनी शक्ति कहते हैं।
12 तीव्रसंघर्षेण चूर्णभूतानि जडानि चित्ताणु मानसधातुः वा। वस्तु देह में बल का तीब्र गति से प्रभाव बढ़ते जाने पर जड़ सत्ता का कुछ भाग चूर्णीभूत हो जाता है और आकाश तत्व से भी सूक्ष्म चित्ताणु या मानस धातु का निर्माण हो जाता है। अर्थात् जड़ से ही मन की उत्पत्ति होती है।
13 व्यष्टिदेहे चित्ताणुसमवायेन चित्त बोधः। व्यक्ति की जड़ देह में उक्त जड़ देह के सामूहिक केन्द्र पर जिस चित्ताणु समूह की स्थिति होती है वह सामूहिक भाव ही उसका चित्त बोध कहलाता है। यह चित्त जीव मन का विषय भाव अर्थात् doer I or objective I है। जब तक व्यक्ति की सभी अनुभूतियाॅं चाहे वे देखी हुई हों या सुनी हुई, चित्त में अपने भाव उत्पन्न नहीं करती, वे फलित नहीं होती।
14 चित्तात् गुणावक्षये रजोगुणप्राबल्ये अहम्। पुरुषोत्तम के प्रभाव से जब चित्त विद्याशक्ति के प्रभाव में आ जाता है तब उस पर तमोगुण का प्रभाव घटने लगता है और रजो गुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। चित्त के जिस भाग में रजोगुण का अधिक प्रभाव दिखाई देने लगता है उसे अहम तत्व या कर्तृत्वयुक्त मैं, या स्वामित्वयुक्त मैं (doer I feeling) कहा जाता है।
15 सूक्ष्माभिमुखिनीगतिरुदये अहंतत्वान्महत्। विद्याशक्ति के लगातार आकर्षण से रजोगुण का प्रभाव घटने लगता है और सतोगुण का प्रभाव बढ़ने लगता है। अहंतत्व के जिस भाग में सत्व गुण की प्रबलता हो जाती है उसे महत्तत्व (pure I feeling) कहते हैं।
16 चित्तदहंप्राबल्ये बुद्धिः। चित्त की परिधि से अहं की परिधि अधिक हो जाने पर उस क्षेत्र में चित्तवर्जित अहं के परिषिष्ठाॅंष को बुद्धि(intellect) कहा जाता है।
17 अहंतत्वात् महद्प्रावल्ये बोधिः। अहंम् तत्व से महत् तत्व का आयतन अधिक हो जाने पर महत् के उस बढ़े हुए भाग को बोधि या (intuition) कहते हैं।
18 महद्हंवर्जिते अनग्रसरे जीवदेहे लतागुल्मे केवलम् चित्तम्। अनग्रसर जीवदेह अर्थात् लता गुल्म आदि में केवल चित्त ही विकसित होता है महत् या अहं का नहीं।
19 महद् वर्जिते अनग्रसर जीवदेहे लतागुल्मे चित्तयुक्ताहम्। अनग्रसर जीवदेह लता गुल्म में यह भी हो सकता है कि महत् का विकास न हुआ हो और अहम् तथा चित्त का विकास हुआ हो।
20 प्राग्रसरे जीवे लतागुल्मे मानुषे महदहं चित्तानि। अपेक्षाकृत उन्नत जीव में , लता गुल्म में तथा मनुष्य में महततत्व, अहंतत्व, और चित्त तीनों का विकास होता है।
21 भूमाव्याप्ते महति अहंचित्तयोप्र्रणाशे सगुणास्थितिः सविकल्प समाधिः वा। लगातार अभ्यास के द्वारा जब महत्तत्व बोध अर्थात् ‘‘मैंपनका बोध‘‘ भूमा के मैंपन बोध में अर्थात् (macro cosmic feeling) में रूपान्तरित होता है तब ‘‘जैव मन‘‘(micro cosmic feeling) का चित्त अहं में तथा अहं महत् में लय हो जाता है। वस्तु जब अपने कारण में लय प्राप्त करती है तब उस लय को प्रणाश कहा जाता है। प्रतिसंचर धारा में जब चित्त अहं में और अहं महत् में लय प्राप्त करता है तो उसे प्रणाश कहना उचित है। चित्त और अहं के प्रणाश और महत् के सर्वव्यापित्व की यह अवस्था ही सगुण स्थिति या सविकल्प समाधि कहलाती है।
22 आत्मनि महद् प्रणाशे निर्गुणास्थितिः निर्विकल्पसमाधिः वा। मैंपन बोध को पुरुषोत्तम या चितिशक्ति में लीन कर महत् की जो प्रलीनावस्था है उसे ही निर्गुणावस्था या निर्गुण समाधि कहते हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। क्योंकि,
23 तस्यस्थितिः अमानसिकेषु । मन की अतीतावस्था में ही यह निर्गुणा स्थिति होती है अतः मन की अनुभव्य नहीं है।
24 अभावोत्तरानन्दप्रत्ययालम्बनीर्वृत्तिः तस्य प्रमाणम्। जाग्रत अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म और कारण मन की तीनों अवस्थायें क्रियाशील होती हैं परंतु स्वप्न अवस्था में स्थूल मन निरुद्ध हो जाता है अतः सूक्ष्म और कारण ये दो ही क्रियाशील रहते हैं। निद्रित अवस्था अभाव बोध की अवस्था नहीं है क्यों कि उस अवस्था में कारण मन के द्वारा स्थूल और सूक्ष्म दोनों के कार्य होते रहते हैं। मन लय हो जाने के समय ही उसे प्रकृत अभाव की अवस्था कह सकते हैं। इसीलिये सविकल्प अवस्था अभाव की अवस्था नहीं है, निर्विकल्प अव्स्था ही अभाव की अवस्था है। इस चरम अभाव की अवस्था में जो आत्मिक आनन्द की लहरें जैवी सत्ता को आच्छादित कर लेती हैं , अभाव के बाद भी मन में उन लहरों का भाव बना रहता है जब तक कि अभुक्त संस्कार मन को पुनः अपनी ओर नहीं खींच लेता। इन लहरों का भाव ही साधक को बताता है कि उनकी मनःशून्य अवस्था थी एक आनन्दघन अवस्था।
25 भावः भावातीतयोः सेतुः तारकब्रह्म। भावयुक्त और भावातीत निर्गुण के बीच जो सेतु का कार्य करते हैं वह तारक ब्रह्म हैं। महासंभूति तारक ब्रह्म का सगुण रूप होता है।
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