Thursday 23 July 2015

12 : बाबा की   क्लास  ( कुटिलता )
====================

क्यों राजू ! कुछ उदास हो ,क्या  बात है ? 
---- क्यों चंदू !  है न ? बाबा ने पूंछा। 
- बाबा! इसे वादविवाद प्रतियोगिता में सेकेण्ड प्राइज मिली जबकि उसका प्रेजेंटेशन सबसे अच्छा था सभी श्रोताओं का अनुमान  था कि रवि को ही फर्स्ट प्राइज मिलेगा , इसीलिए दुखी है। 
- मैंने तुम लोगों को एक बार समझाया था कि इस जगत  का "प्रमा त्रिकोण " असंतुलित हो गया है अतः   प्रथम स्तर के योग्य लोगों को द्वितीय स्तर ही मिल पाता है।  इसलिए दुखी होना व्यर्थ है क्योंकि यह सब प्रायोजित होता है। आओ तुम्हें  इस सम्बन्ध में  एक घटना सुनाता हूँ। 

एक कर्मकाॅंडी विद्वान जब दार्शनिक  विद्वान से तर्क में नहीं जीते तब उन्होंने कपट पूर्वक अपने गाॅंव में ही शास्त्रार्थ का आयोजन कर कुछ समर्थकों को अपने पक्ष में बार बार हस्तक्षेप करने और वाहवाही करने के लिये सहमत कर लिया और निर्णयक भी उन्हें ही बना दिया।  
उसने मंच पर पहुंचते ही कहा, जनता जनार्दन! मैं तो  हूँ बहुत ही छोटा और सब प्रकार से कमजोर   , इसलिये चाहॅूंगा कि मैं ही पहले बोलॅूं। श्रोताओं में पृथक पृथक बैठे उसके प्रशंसकों ने कहा हाॅं ! अवश्य  ही तुम्हें पहले प्रश्न  पूछने का अवसर मिलना चाहिये।
  
उसने प्रतिद्वन्द्वी विद्वान से पूछा ‘‘ मैं नहीं जानता‘‘ इसका मतलब क्या है? 
विद्वान ने कहा ‘‘ मैं नहीं जानता‘‘ ।
उस चालाक  के समर्थक भीड़ में से चिल्ला उठे , हः  हः हः!  कितना सरल प्रश्न  था, पर कैसा विद्वान है! कहता है, मैं नहीं जानता।
फिर उस चालाक ने श्रोताओं से कहा, भद्र महिलाओ और पुरुषो! मुझे लगता है कि हमारे आदरणीय महोदय को एक अवसर और मिलना चाहिये क्यों कि कभी कभी सरल प्रश्नों  पर प्रकाॅंड महानुभाव ध्यान ही नहीं देते , अतः यदि अब आप लोग अनुमति दें तो उनकी प्रतिभा के अनुकूल प्रश्न  पूछता हॅूं।
श्रोता बोले अवश्य ..... अवश्य ....... । 

उसने फिर पूछा, अच्छा ‘‘विवाह‘‘ के लिये क्या होना आवश्यक  है? असली विद्वान बोला, प्रश्न  बहुत ही सरल है‘, उपसर्ग ‘वि‘ + ‘वाह‘ ध+ प्रत्यय ‘घई‘ = विवाह‘ । अतः स्पष्ट है कि ‘घई‘ के विना विवाह नहीं बन सकता।
कुटिल के समर्थक चिल्ला उठे, कैसी विचित्र बात है! हमने तो कभी भी विवाह के समय ‘घई‘ को नहीं देखा! न सुना ? 
कुटिल विद्वान ने श्रोताओं से कहा,  देखिये महानुभावो! सभी जानते हैं कि विवाह में वर ,वधु ,पंडित, बराती , घराती, देवता की मूर्ति, नये कपड़े, टाविल , टोकनियाॅं ....  आदि का होना आवश्यक  है ,  इनके विना विवाह नहीं हो सकता। पर ये महाशय ‘घई‘ को अनिवार्य मान रहे हैं? ? ?
श्रोता बोले वाह!....वाह!... वाह!
और, कुटिल विद्वान को विजेता घोषित कर दिया गया। समझे? आजकल सभी  स्थानों पर यही देखने को मिलता है। 

Saturday 18 July 2015

11 : दृष्टि
===
एक आकर्षक नवयौवना अपने घर से गन्तव्य तक जाने के लिये निकली। 
रास्ते में अनेक लोगों ने उसे दूर/पास से देखा।
समवयस्क नवयुवतियों ने उसके श्रंगार को, नवयुवकों ने  उसके शारीरिक सौष्ठव की तीक्ष्णता को, व्युटीशियन ने चेहरे और केश  सज्जा को, फैशन डिजायनर ने वस्त्रों को, चोरों ने आभूषणों को, मोची ने चप्पलों को।
समीप से जाते हुए एक फक्कड़ संन्यासी ने भी उसे देखा परंतु वैसे, जैसे वह कोई मिट्टी का ढेर हो।

Thursday 16 July 2015

10 कड़ुआ व्रत

10  कड़ुआ व्रत
=========
नगर की प्रसिद्ध मिठाई की दूकान पर एक दिन महिलाओं की भीड़ देख उत्सुकता वश  उस ओर मेरी आॅंखें और कान त्वरित गति से जा पहुंचे । हलवाई और उसके दो ग्राहक मित्र चर्चा कर रहे थे।
- शायद आज कोई महिलाओं का व्रत है इसी लिये दूकान पर इतनी भीड़ है।
- अरे ! आज नहीं कल कडुआ चौथ है न। क्यों भाईसाहब?
- अबे कड़ुआ नहीं करवा चौथ!
- अरे...! मेरे लिये तो कड़ुआ ही है।
- क्यों?
- इसलिये कि आठ दस हजार की दच्च लगेगी।
- अजीब बात है व्रत तो महिलाओं का है उसमें तुझे क्या?
यह सुनकर हलवाई बोला, तुम क्या जानों ये प्रपंच, अकेले हो न? जब पत्नी आयेगी तब समझोगे, महिलायें यह व्रत अपने अपने पतियों की दीर्घायु के लिये करतीं है हः हः हः। तो? ?... पति का फर्ज भी कुछ बनता है कि नहीं, कम से कम एक बढि़या साड़ी और एक सोने की अंगूठी तो उपहार में देना ही पड़ेगी? तभी तो प्रकट होगा कि दोनों  के प्रेम में कितनी प्रगाढ़ता है। .....ये भाई साहब, इसी दच्च की बात कर रहे हैं......।
- अरे! यह भी कोई बात हुई? मेरे भोजन न करने से हो सकता है कि मेरे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़े और मेरी आयु भी बढ़ जाये परंतु किसी और की आयु कैसे बढ़ सकती है?
- यार ! बात तो तूने सही कही है पर जब से इन टीव्ही सीरियलों ने धूम मचाई है तब से किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित रहने वाली स्थानीय रूढि़वादी परंपराओं का लगातार प्रसार हो रहा है, और महिलायें अपने को उनमें ढाल रही हैं।.... पहले ये सब अपने एरिया में कहाॅं होते थे?
- लेकिन यार! यह बात अवश्य  सोचने विचारने की है कि साल में प्रत्येक माह में अनेक इस प्रकार के व्रत, उपवास और पूजापाठ के प्रदर्शन  महिलाओं में ही क्यों देखे जाते हैं? ? ?... ...
इन बातों को सुनकर हलवाई बोला, सब आडंबर है.... जो अंतरंग प्रेमी होते हैं वे हृदय से इसे अनुभव करते हैं और अपने आचरण, स्नेह और समर्पण से सब को मोह लेते हैं चाहे वे पति पत्नी हों, भाई बहिन या माता पिता। उन्हें परस्पर यह कहना नहीं पड़ता कि ‘‘आई लव यू‘‘ / ‘‘ आई लव यू टू‘‘। इस के प्रदर्शन  के लिये उन्हें कोई व्रत या उपवास भी, कभी नहीं करना पड़ता....।
यह सुन कर मेरे मन में उस निर्माणाधीन मकान में मजदूरी कर रहे जग्गू ,उसकी  पत्नी और दो बच्चों के बीच पारस्परिक समन्वय और समर्पण का द्रश्य  कौंध गया।

Sunday 12 July 2015

9 बाबा की क्लास : (अभिवादन )

9 बाबा की क्लास : (अभिवादन )
===================

बाबा! कोई नमस्ते करता है और कोई नमस्कार, कोई राम राम करता है कोई दंण्डवत प्रणाम, कोई हाथ मिलाता है कोई दूर से हाथ हिलाता है, आखिर अभिवादन का कोई सबसे अच्छा तरीका है या नहीं?  नन्दू ने पूछा,
इस पर बाबा बोले-
छोटे बड़े का विचार किये विना, पहले से ही नमस्कार करने का प्रयास होना चाहिये और यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह प्रत्युत्तर देता है या नहीं या पहले सामने वाला नमस्कार करता है या नहीं ।
सभी से, दोनों हाथ जोड़कर दोनों अंगूठों को आज्ञाचक्र अर्थात् त्रिकुटि के पास ले जाकर स्पर्श  करके फिर हाथ जोड़े हुए ही अनाहतचक्र अर्थात् हृदय के पास लाते हुए ‘नमस्कार‘ यह शब्द ही उच्चारित करना चाहिये और यह भावना रखना चाहिये कि मैं आपके रूप में उन परमब्रह्म को ही अपने शुद्ध मन और हृदय से प्रणाम करता हॅूं। नमस्कार, ‘ नमः करोमि ‘ संस्कृत के इस वाक्य का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘प्रणाम करता हॅूं।‘‘ नमस्ते का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘, जो कि केवल परमपुरुष के लिये उनके निकटतम भक्तगण ध्यान में ही करते हैं। 
तो, क्या जो हम लोग अपने से वरिष्ठों के लिये नमस्ते करते हैं वह उचित नहीं है? चंदु ने तर्क किया।
... तुम्हारा तर्क ठीक है पर नमस्ते (अर्थात् ‘तुमको प्रणाम‘) कहने पर दिखाई देने वाले शरीर का ही बोध होता है अतः उसके भीतर परमसत्ता के साक्षी होने का स्मरण नहीं रह पाता है, परंतु नमस्कार (अर्थात् ‘‘प्रणाम करता हॅूं‘‘) कहने पर यह त्रुटि नहीं हो पाती क्योंकि वास्तव में किसी को नमस्कार कहने का अर्थ ‘प्रणाम करता हूँ ' होता है पर किसे? यह भाव अलग से लेना पड़ता है जबकि नमस्ते का अर्थ ‘तुमको प्रणाम‘ में दिखाई देने वाला शरीर ही प्रधान हो जाता है।  हर समय यह भावना होना चाहिये कि मैं तुम्हारे भीतर उस साक्षीस्वरूप परमब्रह्म को प्रणाम करता हॅूं परंतु यह बड़े अभ्यास करने पर ही संभव होता है।  वर्तमान में इस भावना से कोई भी प्रणाम नहीं करता, केवल करना चाहिये इसलिये नमस्कार, नमस्ते या प्रणाम कह लेते हैं। 
रवि बोला, बाबा! आजकल तो हाथ मिलाने और गले मिलने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है? 
बाबा बोले-
हाथ मिलाने से बचना चाहिये। शारीरिक संपर्क से संस्कारों का आदान प्रदान होता है। हमें यदि यह पूर्व से ज्ञात है कि अमुक व्यक्ति हमसे आघ्यात्मिक स्तर पर उन्नत है तो उसे चरणस्पर्श  प्रणाम करना चाहिये। वह मौखिक या सिर पर हाथ रखकर आशीष देता है तो दोनों प्रकारों का एक समान प्रभाव होता है। ‘‘शुभमस्तु‘‘ कहने पर सभी तीनों प्रकार की उन्नति भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक और  ‘‘कल्याणमस्तु‘‘ कहने  में केवल भौतिक और मानसिक तथा ‘‘क्षेम‘‘ ; अर्थात् प्रसन्न रहो या सुखी रहो आदि... में केवल भौतिक प्रगति करने का भाव निहित होता है।
एक बात यह याद रखना चाहिये कि जब कोई महापुरुष किसी को आशीर्वाद देता है तो सामान्यतः वह संबंधित के सिर पर हाथ रखकर यह करता है। सिर पर सहस्त्रार चक्र होता है जिस पर सूक्ष्म धनात्मक दबाव पड़ने पर सभी अन्य चक्रों पर भी धनात्मक प्रभाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि सभी उच्चतर वृत्तियाॅं बढ़ने लगती हैं और निम्नतर वृत्तियाॅं घटने लगती हैं। इस प्रकार का प्रभाव स्पर्श  से ही नहीं ध्वनि द्वारा भी होता है। जब किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को कोई साष्टाॅंग प्रणाम करता है तो मौखिक रूप से आशीष देने का या उसके हाथ से सिर को स्पर्श  करने का एक समान प्रभाव  आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये होता है।  इसमें यह ध्यान रखना चाहिये कि आप उसी को आशीष दें जिसे चाहते हैं क्योंकि जिसे नहीं चाहते उसके प्रणाम को स्वीकार करने पर उसके नकारात्मक संस्कार आपके मन में आ सकते हैं जो आपकी शुभ प्रवृत्तियों को घटा कर अशुभ वृत्तियों में वृद्धि कर सकते हैं। इस प्रकार न तो जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये और न ही जिस चाहे को साष्टाॅंग प्रणाम करना चाहिये।

Friday 10 July 2015

8 आस्था

8 आस्था
   आस्था, आदर और श्रद्धा बहुत ही सूक्ष्म अंतर से समानार्थक होते हैं। माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाले छात्र के लिये हायर सेकेंडरी/कालेज  में पढ़ने वाला छात्र, सामान्यतः आदरणीय होता है और यदि वह अपनी जिज्ञासाओं का समय समय पर उससे समुचित समाधान पा सकता हो तो श्रद्धावान, परंतु यदि वह यह भी अनुभव करता है कि जिज्ञासाओं के समाधान करने के साथ साथ उसकी उन्नति के प्रति वह जागरूक भी है तो आस्थावान हो जाता है। बाल्यकाल में सभी बच्चे अपने माता पिता के प्रति आस्थावान होते हैं। 
मानव मन का मुख्य कार्य सोचना और याद रखना होता है। जब मन किसी व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त पर सोचता है तो उसका कुछ भाग उस व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त का आकार ले लेता है और कुछ भाग इस क्रियाकलाप का साक्ष्य देता है। जब कोई व्यक्ति अपने से अधिक गुणों , प्रभाव या आकर्षण के संपर्कं आता है तो उससे जुड़े रहने के लिये मन में जो भाव सक्रिय होता है उसे आस्था कहते हैं। 
सामान्यतः हम अपने मस्तिष्क के बहुत कम एक्टोप्लाज्मिक सैलों की सक्रियता से ही वाॅछित साॅंसारिक कार्य करने में संतुष्ठ हो जाते हैं परंतु जिसके मस्तिष्क के सामान्य से अधिक सैल सक्रिय रहते हैं वह समाज में अपने विशेष प्रभाव डालते हैं और उनके प्रति अन्य लोग आस्थावान हो जाते हैं । बीसवीं सदी के सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक अलवर्ट आइंस्टीन के मरने के बाद उनके ब्रेन सैल्स का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया है कि उनके केवल 9 प्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय पाये गये हैं। इससे अन्य बुद्धिमानों के बारे में सहज ही जाना जा सकता है कि उनके सक्रिय ब्रेल सैल्स का प्रतिशत क्या होगा। भौतिकवेत्ता और जीववैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क में ब्रेनसैलों की संख्या ब्रह्माॅंड के समस्त तारों की संख्या से अधिक है, और आपकी जानकारी के लिये बता दें कि यदि सभी तारों को अपने सूर्य के बराबर का मान लिया जावे तो ब्रह्माॅंड में उन सब की संख्या (1022होती है। अर्थात् 1 के आगे 22 शून्य रखने पर बनने वाली संख्या के बराबर। 


       स्पष्ट है कि किसी ने अपने जितने अधिक एक्टोप्लात्मिक सैलों को सक्रिय कर लिया है वह अन्य सामान्य जनों के लिये उतना ही अधिक आस्थाभाजन हो जायेगा। एक अन्य सरल उदाहरण यह है कि डिक्सनरी में लाखों शब्द होते हैं पर हम अपने समस्त कार्य व्यवहार केवल दो से पाॅंच हजार शब्दों में ही सम्पन्न कर लेते हैं, शेष डिक्शनरी  में ही रहते हैं आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रयुक्त करते हैं अन्यथा नहीं। कल्पना कीजियेे कि यदि किसी को पूरी डिक्शनरी  ही याद हो जाये तो उसे क्या कहेंगे? इसी प्रकार यदि किसी के शतप्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें तो उसे क्या कहेंगे? इन शतप्रतिशत ब्रेन सैलों की सक्रियता वालों और पूरी डिक्शनरी  याद रखने वालों को ही हम अत्यंत आस्था के केन्द्र मानते हैं जिस पर अभी तक ज्ञात महाविभूतियों में शिव  और कृष्ण को ही माना गया है अन्य किसी को नहीं। स्पष्ट है कि ये महासम्भूतियां भी हमारी तरह ही संसार में आये,  रहे और अपने सुकृत्यों से हम सबके आस्था के केन्द्र , श्रोत और प्रेरक बने हुए हैं। हम भी उन्हीं के अनुसार योगमार्ग पर चलकर अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक सक्रिय बना सकते हैं और सबकी आस्था के पात्र बन सकते हैं। यहाॅं यह भी स्पष्ट है कि तथाकथित जादू, चमत्कार, स्थान,  आदि के प्रति आकर्षण आस्था नहीं कहला सकता क्योंकि यह कुछ धूर्तों के द्वारा सामान्य स्तर के लोगों को मूर्ख बनाकर अपना लाभ पाने के साधन के अलावा और कुछ नहीं होते, उनसे प्रभावित होना मानसिक बीमारियों को निमंत्रण देना ही है।   

Wednesday 8 July 2015

7 --- जी ----

  7 ---  जी ----
मेरे पड़ोस में रहने वाले राजपूत जी की माँ और अन्य बुजुर्ग इसी सप्ताह तीर्थ यात्रा से लौटे हैं। छठवीं में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने उन से मिलकर पूंछा कि माताजी ! आप कहाँ कहाँ घूम आयीं ? वे बोलीं , अजुद्याजी , काशीजी ,मथुराजी, द्वारकाजी।  अब , जगन्नाथपुरी जी के दर्शन और करना हैं।  थोड़ी देर में वह वापस आकर मुझ से पूछने लगी , पापा! ये अयोध्या , काशी, मथुरा , जगन्नाथपुरी आदि स्थानों के नाम हैं या आदमियों के? मैंने कहा , ये सब  स्थानों के नाम हैं और कहीं कहीं  आदमियों के भी , क्यों? क्या बात है ?
वह बोली मैं भी भूगोल में इन्हें पढ़ती हूँ कि ये तो स्थान हैं ,पर यह समझ में नहीं आता कि माताजी इन स्थानों के नाम के साथ "जी " क्यों लगातीं हैं , कोई व्यक्ति हो तो फिर भी आदर के लिए जी कहना ठीक है जैसे, मेरी सहेली दिविंदर कौर हर बात में हाँ जी , हाँ जी करती है। परन्तु  कल मेरी सहेली असीमा जैन कक्षा में लेट आई , मेडम ने इसका कारण पूछा तो कहती है "मंदिरजी "में रुकना पड़ा, इसलिए देर हुई।  कितनी अजीब बात है ? है न ? 

मैंने कहा ये स्थान पवित्र होते हैं  इसलिए आदर से जी लगाते हैं।  वह बोली आदमियों तक तो ठीक है पर स्थानों , पत्त्थरों, भवनों को "जी" कहना अटपटा लगता है , पता नहीं यह कहाँ से प्रचलन शुरु हुआ। 
उससे नहीं रहा गया और वह अपने बाबा से यही पश्न करने लगी।  वह, अधिक नहीं बोलते पर उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बोले, वैदक युग में किसी पढेलिखे वरिष्ठ व्यक्ति को आदर देने केलिए "आर्य" कहा जाता था , फिर यजुर्वेदीय काल में  उच्चारण में "आर्ज " कहने लगे { क्योंकि इसमें य को ज उच्चारित किया जाता है जैसे यज्ञ को जग्य, योग को जोग} फिर अरबी फ़ारसी का जमाना आया तो आर्ज बदलकर  "अजी " हो गया  , अब और अपभ्रंश होकर केवल "जी " बचा है , पर यह हमेशा व्यक्तियों के लिए ही आदरसूचक शब्द रहा है।  मंदिरों , पत्थरों , किताबों  या स्थानों के लिए इस प्रकार सम्बोधित करना अव्यावहारिक है। 
पास ही बैठा मैं , इस व्याख्या को सुनकर आश्चर्य मिश्रित हर्ष में डूब गया और घंटों यह सोचता रहा कि क्या  सच में किसी  शब्द विशेष के प्रचलन के पीछे लम्बा इतिहास और लघु कथा  छिपी  होती है।?

==

Friday 3 July 2015

6. बाबा की क्लास (योगासन)

6. बाबा की क्लास (योगासन)
==================
क्यों नन्दू तुम दीवार के सहारे सिर के बल क्यों खड़े हो, रवि ने पूछा। नन्दू कुछ कहता कि पहले ही चन्दू बोली, भैया! इसने टीव्ही में प्रोग्राम देख कर बुद्धि को बढ़ाने के लिये शीर्षासन करने का मन बना लिया है।
रवि को बात समझ में नहीं आई, उसने नन्दू को एक चपत लगाई और बोला चल, पहले ‘बाबा‘ से तो पूंछ ले कि इसका अभ्यास करना तेरे लिये  जरूरी भी है या नहीं?

‘बाबा‘ ने उनकी पूरी प्रश्नावली को सुनकर यह उत्तर दिया।

मानवशरीर विज्ञानी कहते हैं कि शरीर के स्वस्थ संचालन हेतु प्रकृति ने इसमें अनेक ग्रंथियाॅं और उपग्रंथियाॅं ‘‘अर्थात् ग्लेंडस् और सबग्लेंडस्‘‘ बनाई हैं जिनसे निकलने वाले ग्रंथिरस ‘‘अर्थात् हार्मोन्स‘‘ के माध्यम से यह शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन बनाये रखता है। संस्कृत में इन्हें चक्र और लेटिन में प्लेक्सस कहते हैं। 

योगासन वे सरल भौतिक स्थितियाॅं हैं जो ग्रंथियों और ऊर्जा केन्द्रों को हारमोन्स का स्राव करने हेतु अनुकूल परिस्थितियाॅं पैदा करती हैं। इनसे ग्रंथियों का दोष दूर होता है और वृत्तियों पर नियंत्रण होता है। आसन ग्रंथियों को, ग्रंथियाॅं हारमोन्स को और हारमोन्स वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। ये शरीर में लचीलापन लातीं हैं। शरीर और मन में संतुलन रखती हैं। मन को जड़ चिंतन से दूर करती हैं। उच्च और सूक्ष्म साधना करने के लिये मन को तैयार करतीं हैं। 

आसनों के प्रकार प्रमुखतः ये हैं-
 1 सर्वांगासन -शारीरिक स्वास्थ्य के लिये। 2 ध्यानासन- मन को नियंत्रित करने और ध्यान के लिये जैसे पद्मासन, बद्धपद्मासन, सिद्धासन और वीरासन। 3 मुद्रा- यह कठिन आसन होते हैं जो उचित साॅंस लेने और नियंत्रण के लिये किये जाते हैं। 4 बन्ध- ये केवल शरीर के दस वायुओं को प्रभावित करते हैं। 5 वेध- ये सभी नाडि़यों और वायुओं को प्रभावित करते हैं।

प्रत्येक चक्र से मनुष्य के संस्कार या ‘प्रोपेन्सिटीज‘ भी जुड़े रहते हैं जो योगासनों के नियमित अभ्यास करने से नियंत्रित होते हैं। संस्कारों के नियंत्रण से विचार भी नियंत्रित होने लगते हैं, क्योंकि सभी योगासनें या तो ग्लेंडस् पर दवाव डालती हैं या दवाव कम करती हैं। जैसे मयूरासन में मणीपुर चक्र के चारों और दवाव बनने से उसपर और संबंधित उपग्रंथियों पर भी धनात्मक प्रभाव पड़ता है अतः वे सब संतुलित हारमोन्स का स्राव कारने लगती हैं जिससे जन्मजात प्रवृत्तियाॅं भी नियंत्रित होने लगती हैं। उदाहरणार्थ,  किसी को सभाओं में या वाद विवाद प्रतियोगिता में बोलने में डर लगता है और यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो यह भय समाप्त हो जायेगा। 

हारमोन्स का अधिक स्राव होने से प्रोपेन्सिटीज अधिक सक्रिय होती हैं और कम स्राव होने पर कम, इसलिये योगासनों के नियमित अभ्यास करने पर हारमोन्स के स्राव को आवश्यकतानुसार कम या अधिक किया जा सकता है। थायराइड और पैराथायराइड ग्लेंडस्  अर्थात् ‘‘विशुद्धचक‘‘ एवं आज्ञा चक्र अर्थात् ‘‘पिट्युटरी ग्लेंड‘‘ दोनों बौद्धिक विकास के लिये,  और लिंफेटिक ग्लेंडस्  अर्थात् मूलाधार , स्वाधिष्ठान और मणीपुर चक्र भौतिक विकास के लिये उत्तरदायी होते हैं। इसलिए जो भी व्यक्ति जिस  क्षेत्र विशेष की उन्नति करना चाहता है उसे उसी चक्र से सम्बंधित योगासन करना चाहिए।  शीर्षासन सभी के लिये हानिकारक है, शीर्ष पर सहस्त्रार चक्र या पीनियल ग्लेंड होता है जो ध्यान की उचित विधियों के अनुसार अभ्यास करके सक्रिय किया जाता है न कि शीर्षासन से। इसके सक्रिय होने से सभी प्रोपेन्सिटीज और पूरा शरीर नियंत्रण में आ जाता है।
चक्रों और प्रोपेन्सिटीज पर नियंत्रण करने की यौगिक पद्धति का अनुसंधान 2000 वर्ष पूर्व  महान संन्त अष्टावक्र ने किया था और अपने निष्कर्षों को अष्टावक्रसंहिता नामक ग्रंथ में लिखा था। हमें मनमाने तरीके से इन्हें नहीं करना चाहिये वरन् जानकार व्यक्ति के मार्गदर्शन  में ही अभ्यास करना चाहिये अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
चंदू बोली, बाबा! हमें कौन से आसन करना चाहिये? बाबा ने कहा सर्वांगासन छात्रों के लिये सर्वश्रेष्ठ है। इसके अलावा भुजंगासन, शशकासन, बज्रासन और वीरासन भी यथा समय करना चाहिये।
....... 

5 आत्म संयम

5 आत्म संयम 
एक संपन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया।  वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा, उसकी योग्यता के कारण एक अत्यंत सम्पन्न घराने की सुंदर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए शहर से दूर जाना पड़ा, दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली आप इतने दिन के लिये हमसे  दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? वह बोला घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोई  कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊंगा। उसकी पत्नी  कामुक प्रकृति की थी और  उसपर नई नई शादी , फिर इतना लंबा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। 
वह बोली, जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या संभव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी? लड़का बोला चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा  में देखना जो व्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना , यह मेरी सहमति है। यह कहकर सेठ पुत्र यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नी  कामाग्नि से पीडि़त हुई। बहुत प्रयत्न करने पर भी  जब रहा न गया तो उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँचकर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई, उसे एक अत्यंत बृद्ध आदमी केबल लंगोटी पहने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा (लोटा) लिए तेजी से जाता दिखाई दिया। उसने फौरन दो नौकरों के लिये उस ओर दौड़ाया और कहा कि उन सज्जन को आदर पूर्वक यहां आने के लिये मेरा निवेदन पहुंचा दो। तत्काल दोनों नौकर उस आदमी के पास पहुंचे और सेठ जी की बहु  का संदेश  पहुंचाया, वह भी तत्काल नौकरों के साथ आ गये, बहु  ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढि़यों की ओर इशारा किया, वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पांच सीढि़यां चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टीका छोटाघड़ा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया। 
 वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहु  बोली, महोदय क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया, मैं आपको सोने ,चांदी जिसका कहें बढि़या लोटा दे दूंगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये। सज्जन बोले, उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे सांगोपांग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले ही मैं अपना अस्तित्व करवे की भांति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूं। 
इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहु  का मस्तिष्क सक्रिय कर गये, वह सोचने लगी कि जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी? उसने अपने को धिक्कारा और ईश्वर  को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर मेरा  पतन होने से बचा लिया।