Sunday, 12 July 2015

9 बाबा की क्लास : (अभिवादन )

9 बाबा की क्लास : (अभिवादन )
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बाबा! कोई नमस्ते करता है और कोई नमस्कार, कोई राम राम करता है कोई दंण्डवत प्रणाम, कोई हाथ मिलाता है कोई दूर से हाथ हिलाता है, आखिर अभिवादन का कोई सबसे अच्छा तरीका है या नहीं?  नन्दू ने पूछा,
इस पर बाबा बोले-
छोटे बड़े का विचार किये विना, पहले से ही नमस्कार करने का प्रयास होना चाहिये और यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह प्रत्युत्तर देता है या नहीं या पहले सामने वाला नमस्कार करता है या नहीं ।
सभी से, दोनों हाथ जोड़कर दोनों अंगूठों को आज्ञाचक्र अर्थात् त्रिकुटि के पास ले जाकर स्पर्श  करके फिर हाथ जोड़े हुए ही अनाहतचक्र अर्थात् हृदय के पास लाते हुए ‘नमस्कार‘ यह शब्द ही उच्चारित करना चाहिये और यह भावना रखना चाहिये कि मैं आपके रूप में उन परमब्रह्म को ही अपने शुद्ध मन और हृदय से प्रणाम करता हॅूं। नमस्कार, ‘ नमः करोमि ‘ संस्कृत के इस वाक्य का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘प्रणाम करता हॅूं।‘‘ नमस्ते का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘, जो कि केवल परमपुरुष के लिये उनके निकटतम भक्तगण ध्यान में ही करते हैं। 
तो, क्या जो हम लोग अपने से वरिष्ठों के लिये नमस्ते करते हैं वह उचित नहीं है? चंदु ने तर्क किया।
... तुम्हारा तर्क ठीक है पर नमस्ते (अर्थात् ‘तुमको प्रणाम‘) कहने पर दिखाई देने वाले शरीर का ही बोध होता है अतः उसके भीतर परमसत्ता के साक्षी होने का स्मरण नहीं रह पाता है, परंतु नमस्कार (अर्थात् ‘‘प्रणाम करता हॅूं‘‘) कहने पर यह त्रुटि नहीं हो पाती क्योंकि वास्तव में किसी को नमस्कार कहने का अर्थ ‘प्रणाम करता हूँ ' होता है पर किसे? यह भाव अलग से लेना पड़ता है जबकि नमस्ते का अर्थ ‘तुमको प्रणाम‘ में दिखाई देने वाला शरीर ही प्रधान हो जाता है।  हर समय यह भावना होना चाहिये कि मैं तुम्हारे भीतर उस साक्षीस्वरूप परमब्रह्म को प्रणाम करता हॅूं परंतु यह बड़े अभ्यास करने पर ही संभव होता है।  वर्तमान में इस भावना से कोई भी प्रणाम नहीं करता, केवल करना चाहिये इसलिये नमस्कार, नमस्ते या प्रणाम कह लेते हैं। 
रवि बोला, बाबा! आजकल तो हाथ मिलाने और गले मिलने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है? 
बाबा बोले-
हाथ मिलाने से बचना चाहिये। शारीरिक संपर्क से संस्कारों का आदान प्रदान होता है। हमें यदि यह पूर्व से ज्ञात है कि अमुक व्यक्ति हमसे आघ्यात्मिक स्तर पर उन्नत है तो उसे चरणस्पर्श  प्रणाम करना चाहिये। वह मौखिक या सिर पर हाथ रखकर आशीष देता है तो दोनों प्रकारों का एक समान प्रभाव होता है। ‘‘शुभमस्तु‘‘ कहने पर सभी तीनों प्रकार की उन्नति भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक और  ‘‘कल्याणमस्तु‘‘ कहने  में केवल भौतिक और मानसिक तथा ‘‘क्षेम‘‘ ; अर्थात् प्रसन्न रहो या सुखी रहो आदि... में केवल भौतिक प्रगति करने का भाव निहित होता है।
एक बात यह याद रखना चाहिये कि जब कोई महापुरुष किसी को आशीर्वाद देता है तो सामान्यतः वह संबंधित के सिर पर हाथ रखकर यह करता है। सिर पर सहस्त्रार चक्र होता है जिस पर सूक्ष्म धनात्मक दबाव पड़ने पर सभी अन्य चक्रों पर भी धनात्मक प्रभाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि सभी उच्चतर वृत्तियाॅं बढ़ने लगती हैं और निम्नतर वृत्तियाॅं घटने लगती हैं। इस प्रकार का प्रभाव स्पर्श  से ही नहीं ध्वनि द्वारा भी होता है। जब किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को कोई साष्टाॅंग प्रणाम करता है तो मौखिक रूप से आशीष देने का या उसके हाथ से सिर को स्पर्श  करने का एक समान प्रभाव  आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये होता है।  इसमें यह ध्यान रखना चाहिये कि आप उसी को आशीष दें जिसे चाहते हैं क्योंकि जिसे नहीं चाहते उसके प्रणाम को स्वीकार करने पर उसके नकारात्मक संस्कार आपके मन में आ सकते हैं जो आपकी शुभ प्रवृत्तियों को घटा कर अशुभ वृत्तियों में वृद्धि कर सकते हैं। इस प्रकार न तो जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये और न ही जिस चाहे को साष्टाॅंग प्रणाम करना चाहिये।

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