Thursday 29 June 2017

134 वैराग्य

 बहुत ही घने जंगल में पहॅुंचकर मंत्री ने रथ रोक दिया और म्यान से तलवार निकालकर बोला,
 ‘‘ वत्स ! मरने के लिए तैयार हो जाओ, मुझे राजाज्ञा का पालन करना है ‘‘
बालक को आश्चर्य तो हुआ परन्तु सोचते हुए कि राजाराम को वनवास , राजाबलि का बंधन,  पान्डुपुत्रों का वनवास, कृष्ण के वंशजों की मृत्यु , यह सभी तो कालवश हुई है इसलिए बोला,
‘‘ मंत्री ! यदि राजाज्ञा यही है तो आप उसका पालन कीजिए ‘‘

मंत्री ने बालक से पूछा,
‘‘ लेकिन वह राजा ही नहीं तुम्हारे चाचा भी हैं, अतः यदि मरने के पूर्व उनसे कुछ कहना चाहते हो तो बताओ मैं अवश्य ही उन्हें वैसा कह दूंगा‘‘
बालक ने अपने अंगूठे के खून से भोजपत्र पर लिखा, और मंत्री के हाथ में देते हुए अपनी गर्दन उनके सामने झुकाकर कहा
‘‘ राजाज्ञा का पालन करो मंत्री !‘‘

मंत्री  ने पत्र पढ़कर विचार बदला। उसने बालक को ले जाकर अपने महल में छिपा दिया । बकरे की आॅंखो को सबूत के तौर पर राजा को दिखाते हुए मंत्री ने कहा
‘‘ राजन ! आदेश का पालन हो चुका ‘‘

राजा ने पूछा ‘‘ क्यों मंत्री ! मरने से पहले उसने कुछ कहा या नहीं ?‘‘
मंत्री ने वह खून से लिखा पत्र दिखाया। पत्र में लिखा था ‘‘ सतयुग के अलंकार मान्धाता, दसमुख रावण का अन्त करनेवाले राम, और युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी सम्राट भी धरती पर आए और चले गए, परन्तु यह धरती किसी के साथ नहीं गई। लगता है मुंज! कि यह तुम्हारे साथ अवश्य जाएगी। ‘‘
 पढ़ते ही राजा के होश उड़ गए, वे जोर से रोने लगे, और मंत्री से कहने लगे ‘‘ मुझे मेरा भोज चाहिए, मुझे मेरा भोज वापस चाहिए ।‘‘
मुंज के पर्याप्त विलाप कर चुकने के बाद मंत्री बोला ,

‘‘ राजन ! मैं जानता था कि भोज साधारण बालक नहीं है, वह मेरे घर पर सुरक्षित है‘‘

अगले ही क्षण मुंज, बालक भोज का राज्याभिषेक करते हुए बोले ‘‘ भोज ! आज तुमने मुझे इस मुकुट के भार से ही नहीं अज्ञान के बोझ से भी मुक्त कर दिया‘‘  और वन की ओर प्रस्थान कर गए  ।


Tuesday 27 June 2017

133 बाबा की क्लास ( शून्य और मन )

133 बाबा की क्लास ( शून्य और मन ) 

इन्दु- अभी तक की सभी क्लासों का सार निकाला जाय तो केवल मन की भूमिका ही प्रधान लगती है, सभी का कर्ताधर्ता यह मन ही है?
बाबा- बिलकुल सही कहा, सभी मनुष्य उन विचारों के उत्पाद होते हैं जो वे अपने मन में बोते हैं। मन बड़ा ही विचित्र होता है, इसलिए कहा गया है कि ‘‘मन एव मनुष्याणां बन्धन मोक्ष कारणो।‘‘ अर्थात् वह मन ही है जो किसी को बंधन अथवा मोक्ष दोनों दे सकता है।

रवि- आपने बताया है कि मन तो दोलनकारी है और क्षण क्षण अपनी दशाएं और दिशाएं बदलता रहता है तो उसका कोई ऐसा लक्षण बताइए जिसके ज्ञान से उसकी क्षमताओं का पूरा पूरा लाभ लिया जा सकता हो?
बाबा- मन जिस प्रकार सोचता है वैसा ही आकर ले लेता है, ‘‘ यादृशि भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशि‘‘ इसलिए संकीर्ण विचार उसे संकीर्ण बनाते हैं और विस्तारित विचार उसका विस्तार कर देते हैं। चूंकि परमपुरुष से बड़ा कोई नहीं है इसलिए उसके संबंध में सतत विचार करने से उसका विस्तार होकर उन्हीं जैसा हो जाता है। इसलिए जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है, अतः मन की इस विशेषता का उपयोग करना चाहिए।

राजू- परन्तु संसार के कुछ प्रतिष्ठित मत तो कहते हैं कि सब कुछ शून्य  अर्थात् (nothingness or emptiness) है इसलिए मन को शून्य के चिन्तन की ओर ले जाना चाहिए?
बाबा- तो अब तुम्ही सोचो? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ अर्थात् शून्य का ध्यान चिन्तन करते हुए मन की बताई गई इस विशेषता के अनुसार तुम क्या हो जाओगे? भारतीय दर्शन में इस प्रकार के साधक मृत्यु के बाद ‘विदेहलीन‘ कहलाते हैं जिनके पुनः जन्म लेने की संभावना रहती है। वे साधक जो शून्य का ध्यान करते हैं वे अपने चित्त में शून्य को ही उत्पन्न कर लेते हैं क्योंकि उनका निर्पेक्ष लक्ष्य वही होता है । चूंकि उनके मन में परमपुरुष की अवधारणा होती ही नहीं है अतः वे मुक्त नहीं हो सकते।

इन्दु- विदेहलीन अवस्था क्या है?
बाबा- जिनका भौतिक शरीर न हो परन्तु मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सुप्तावस्था में आ जाएं वे विदेहलीन कहलाते हैं। अन्तरिक्ष में भटकते हुए जब कभी प्रकृति अनुकूल वातावरण दे पाती है तभी उनको पुनः अपने संस्कारों को भोगने योग्य शरीर मिल पाता है। इसलिए शून्य का ध्यान करने का सुझाव देने वाले मत असहनीय रूप से कष्टदायी हैं अतः मान्य करने योग्य नहीं हैं।

चन्दु- लेकिन आपने तो कहा था कि मुक्ति या मोक्ष पाने के लिये मंत्र का मनन करना ही उपयोगी है?
बाबा- हाॅं, परन्तु इस ब्रह्माॅंड में अनेक ध्वनियाॅं हैं, अनेक अक्षर और शब्द हैं परन्तु वे सभी मंत्र नहीं हो सकते। वह ध्वनि जिसकी तरंगों में यह सामर्थ्य  होता है कि मानव मन के सूक्ष्मतम भाग को परमसत्ता की ओर मोड़ सके तभी वह मंत्र कहला सकतीं  है अन्यथा नहीं। चूंकि शून्यवादियों का मंत्र जैसा कोई साधन नहीं होता और न ही उनका लक्ष्य मुक्त सत्ता को पाना, अतः उन्हें विदेहलीन होने से कोई रोक नहीं सकता जो कि असह्य स्थिति है।

नन्दू- तो सच्चा योगी किसे अपना लक्ष्य माने?
बाबा- ‘‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् योग वह प्रक्रिया है जो अपने आपको परमसत्ता से जोड़ने में सहायक हो । इसलिए स्पष्ट है कि योगी वह है जो इस पद्धति से अपने को परमात्मा से जोड़ना चाहता है। अतः सच्चे योगी का लक्ष्य परमसत्ता से जुड़ने का होना चाहिए। यह पहले ही बताया जा चुका है कि योगिक विधियों में ‘प्रत्याहार‘ क्रिया के अन्तर्गत मन को बाहरी सभी विषयों से खींचकर उसे परमपुरुष की ओर मोड़ने का अभ्यास किया जाता है।

रवि- क्या विदेहलीन अवस्था और माइक्रोवाइटा में कोई संबंध है?
बाबा- विदेहलीन अवस्था, माइक्रोवाइटा की ही अवस्था है जो मन के चिंतन के अनुसार धनात्मक, ऋणात्मक या उदासीन कुछ भी हो सकती है परन्तु यह अटल सत्य है कि विदेहलीन और प्रकृतिलीन अवस्थाएं माइक्रोवाइटा की सबसे अधिक कष्टदायी स्थितियाॅं हैं।

इन्दु- यह प्रकृतिलीन अवस्था क्या है और किन्हें प्राप्त होती है?
बाबा- वह लोग जो परमपुरुष से भौतिक जगत की वस्तुएं, जैसे धन, भूमि या भवन, अथवा भौतिक पदार्थों को पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करते हैं तब हमेशा ही उनके मन का चिन्तन परमपुरुष के स्थान पर उन्हीं वस्तुओं और पदार्थों का होता रहता है जिससे मन अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार शरीर त्याग करने के बाद उन्हें प्रकृतिलीन अवस्था में ले जाता है।

राजू- क्या माइक्रोवाइटा हमें हानि ही पहुंचाते हैं?
बाबा- नेगेटिव माइक्रोवाइटा हानि पहुंचाते हैं, पाजीटिव माइक्रोवाइटा सहायक होते हैं और उदासीन माइक्रोवाइटा उदासीन रहते हैं। परन्तु तुम लोग इनका चिन्तन क्यों करते हो अपना उद्देश्य है परमपुरुष को पाना इसलिए उन्हीं का चिंतन अपने अपने इष्ट मंत्रों की सहायता से करते रहो, इसी में भलाई है।

Tuesday 20 June 2017

132 बाबा की क्लास ( स्वरस, विषयरस और परमरस )

132 बाबा की क्लास ( स्वरस, विषयरस और परमरस )

राजू- देखा गया है, कि कुछ लोग पहले तो भजन पूजन में विश्वास नहीं करते पर जब बहुत वृद्ध हो जाते हैं तब वे यह सोचकर कि लोग आलोचना न करें, अधार्मिक न कहें,  इसलिए दूसरों को देखकर ही कुछ मंत्र बगैरह पढ़ने की फार्मेलिटी करने लगते हैं, इन लोगों के बारे में आप क्या कहते हैं?
बाबा- इस प्रकार के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं की मांग भले न करें पर वे इस अवस्था में अपनी मुक्ति की चाहत अवश्य रखते हैं । परमपुरुष उन्हें मुक्ति दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते परन्तु एक बात तो निश्चित है कि उन्हें परमपुरुष की प्राप्ति नहीं होगी क्योंकि वे उन्हें अर्थात् परमपुरुष को नहीं चाहते। प्रथम श्रेणी के भक्त परमपुरुष के अलावा किसी को नहीं चाहते।

इन्दु- ऐसा क्यों होता है कि लोग ईश्वर की पूजा करने का विचार वृद्धावस्था में ही मन में लाते हैं?
बाबा- मनुष्य का मन हमेशा किसी न किसी काम में लगा रहता है, वह उन्हीं विचारों में बाद में भी डूबा रहता है जो दिन भर उसे घेरे रहे होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक का मन उन्हीं कामों के प्रति क्रियाशील रहता है जो बार बार उसके संपर्क में आते हैं। यही कारण है कि यदि किसी अन्य विषय पर विचार करने को कहा जाता है तो उस व्यक्ति का मन उसी ओर जाता है जहाॅं पहले से जुड़ा रहा है । उसे वहीं अच्छा लगता है जहाॅं जीवन भर लगा रहा अतः अन्त में नए विचारों से उसे कष्ट होता है परन्तु दूसरों को देखकर या सुनकर ही अधिकांश लोग वृद्धावस्था में भजन करते देखे जाते हैं ताकि कोई उन्हें नास्तिक न कहे।

रवि- लेकिन क्या यह संभव है कि जीवनोपयोगी संसार के काम करते हुए मन, उन कामों की  छाप अपने ऊपर पड़ने ही न दे? उसका बार बार उनसे प्रभावित होना तो स्वाभाविक है?
बाबा- हाॅं । यदि मन बार बार भौतिक जगत के कामों की ओर भागता है तो साधना करना कठिन है । इन बाधाओं से बचने का एक ही फार्मूला है, वह है, श्रवण, मनन, और निदिध्यासन। अर्थात् परमपुरुष के नाम को बार बार सुनना, उसी का मनन करना और उन्हीं पर ध्यान लगाना।  इनकी सहायता से मन के द्वारा अन्य कार्य करते हुए भी दिन रात आध्यात्मिक प्रवाह में उसे बनाए रखा जा सकता है ।

चन्दू- यह कैसे संभव है? मन जब किसी भौतिक काम में लगा हो तब वह दूसरा काम कैसे कर सकता है, वह भी ईश्वर चिन्तन जैसे कठिन काम?
बाबा- धीरे धीरे क्रमशः अभ्यास करने से सब कुछ संभव हो जाता है । रास्ते में आते , जाते या चलते समय श्वास के साथ अपने इष्ट मंत्र को संतुलित कर उससे जुड़े रहा जा सकता है, कार्य करते हुए ईश्वर के नाम कीर्तन को सुना जा सकता है, प्रत्येक कार्य को प्रारंभ करने के पहले ही अपने गुरुमंत्र की सहायता से यह भाव लिया जा सकता है कि सभी कार्य परमपुरुष ही कर रहे हैं। इस प्रकार मन को सदा ही आध्यात्मिक प्रवाह से जोड़े रखा जा सकता है इतना ही नहीं इस कार्य से साधना की गुणवत्ता भी बढ़ती जाती है।

नन्दू- यह क्यों होता है कि चोर से चोर मिलने पर मित्र हो जाते है , शराबी से शराबी मिलकर एक हो जाते हैं, परन्तु साधु से चोर के मिलने पर बिलकुल विपरीत ही होता है?
बाबा- सभी लोगों का अपना अपना मानसिक प्रवाह होता है। परस्पर निकटता अथवा दूरी बनाने के लिए यह मानसिक प्रवाह ही उत्तरदायी होता है। किन्हीं दो व्यक्तियों का आकार, रंग, शिक्षा और भौतिक स्तर एक समान होने पर भी यदि उनका मानसिक प्रवाह भिन्न है तो उनमें मित्रता नहीं हो सकती, वे एक साथ समय नहीं बिता सकते। यदि दो व्यक्तियों में अन्य भौतिक असमानताएं हों परन्तु मानसिक प्रवाह समान है तो उनमें मित्रता हो जाएगी।

रवि- तो क्या मानसिक प्रवाह को ही ‘स्वरस‘ कहा जा सकता है?
बाबा- हाॅं, संस्कृत में ‘स्वरस‘ का अर्थ है (स्व + रस) अर्थात् स्वयं का प्रवाह। अर्थात् इकाई  अस्तित्व के मन का प्रवाह। और, ‘पररस‘ का अर्थ है (पर + रस) अर्थात् दूसरे के मन का प्रवाह। स्पष्ट है कि जब किन्हीं दो अस्तित्वों में स्वरस की लगभग समानता होगी वे एक दूसरे से सौहार्द बनाना चाहेंगे परन्तु स्वरस और पररस भिन्न होंगे तो उनमें कभी भी साम्य नहीं रह सकता , वे एक दूसरे से दूर ही रहना चाहेंगे मित्रता नहीं करेंगे।

चन्दू- क्या किन्हीं दो व्यक्तियों का स्वरस शत प्रतिशत समान हो सकता है?
बाबा- नहीं। यही कारण है कि कोई भी दो व्यक्ति बिलकुल एक समान नहीं होते। यदि किसी विधि से दोनों के स्वरस एकसमान कर दिए  जाॅंएं तो वे अपना पृथकता का अस्तित्व खो देंगे और दोनों एक ही हो जाएंगे। इसलिए मित्रता या शत्रुता होना अपने अपने स्वरसों पर ही आधारित  है।

इन्दु- परमपुरुष के साथ साक्षात्कार के समय स्वरस का कोई योगदान होता है या नहीं?
बाबा- परमपुरुष अर्थात् (cosmic mind ) का प्रवाह ‘‘परमरस‘‘ कहलाता है। यह ‘स्वरस और पररस‘ दोनों से भिन्न होता है परन्तु इकाई अस्तित्व का ‘स्वरस‘, साधना करने , निस्वार्थ सेवा करने और त्याग करने से परमरस के समानान्तर लाया जा सकता है। इस अवस्था में यदि इकाई अस्तित्व समाप्त होकर परमरस के साथ एक्य स्थापित कर लेता है तो उसे ‘‘मोक्ष पाना‘‘ कहा जाता है अन्यथा ‘‘मुक्त अवस्था‘‘ कहा जाता है जिसके पुनः शरीर धारण करने की संभावना बनी रहती है।

राजू- आपने ‘समानान्तर होना‘ और ‘एक्य स्थापित होना‘ कहा है , ये दोनों कुछ और अधिक स्पष्ट किए जा सकें तो उत्तम होगा?
बाबा- इससे पहले अनेक बार बताया जा चुका है कि यह दृश्यप्रपंच अर्थात् समग्र सृष्टि उस एक ही परमसत्ता की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जिसमें हम सब सीमित तरंगों से बद्ध होकर अपने को पृथक अनुभव करते हैं। (cosmic entity) की तरंगों की तरंग लम्बाई अनन्त होती है अर्थात् वे  सरल रेखा में होती है उसमें कहीं भी वकृता नहीं होती जबकि हम सबकी मानसिक तरंगों की तरंग लम्बाई सीमित होती है और विभिन्न संस्कारों के कारण अनेक वकृताएं लिए होती है । अतः जब किसी इकाई अस्तित्व की मानसिक तरंगें साधना करने से अपनी वकृता समाप्त कर देती हैं तो वे भी सरल रेखिक हो  जाती हैं और परमसत्ता की तरंगों के साथ ‘समानान्तर‘ कही जाती हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी भी उस इकाई अस्तित्व के मन में पृथकता का आभास बना रहता है भले ही प्रवाह की दिशा एक समान हो। परन्तु जब यह पृथकता का भाव शून्य होकर एकमेव परमसत्ता का ही भाव व्याप्त  हो जाता है तब परमरस और स्वरस में कोई अन्तर नहीं रहता और दोनों में ‘एक्य स्थापित हो गया‘ ,ऐसा  कहा जाता है।

रवि- क्या परमपुरुष का ‘परमरस‘ किसी इकाई अस्तित्व के लिए ‘पररस‘ कहला सकता है?
बाबा- हाॅं, यही कारण है कि अधिकांश लोग भगवद् चर्चा में अरुचि रखते हैं , उनकी मानसिक तरंगें अधिक वकृता वाली होती हैं अतः जब भी उनके सामने ईश्वर चर्चा की जाती है तो सरल रेखिक तरंगों का तनाव पड़ने से उनकी वकृता कम होने लगती है जिससे उन्हें अच्छा नहीं लगता और वे शीघ्र ही दूर हो जाना चाहते हैं।

नन्दू- बहुत पहले ली गई किसी क्लास में आपने ‘‘रासलीला‘ पर चर्चा की थी, क्या उसका आज के विषय से कुछ संबंध है?
बाबा- हाॅं, जब इकाई अस्तित्व अपने स्वरस के प्रभाव में भौतिक जगत की वस्तुओं या व्यक्तियों के बारे में सोचता है तो उस स्वरस में चिन्तन किए गए विषय के अनुरुप अन्य तरंगें भी अपनी अपनी वकृता को सम्मिलित करती हैं और इकाई अस्तित्व उसी में आनन्दित होने लगता है, इसे ‘‘विषयरस‘‘ कहते हैं । परमपुरुष के द्वारा केवल ‘परमरस‘ ही उत्सर्जित होता है, जिसे एक बार भी इसका आस्वादन हो गया फिर उसे भौतिक जगत का ‘विषयरस ‘ स्वादहीन लगने लगता है। पूर्व काल में चैतन्य महाप्रभु ने अपने ‘स्वरस‘ को ‘परमरस‘ के साथ मिलाकर उसे अन्य भक्तों की ओर प्रवाहित किया था जिससे वे नाचते गाते, रोते चिल्लाते, उछलते कूदते उनकी ओर दौड़ पड़ते थे । इसी प्रकार कृष्ण ने अपनी बांसुरी के द्वारा ‘परमरस‘ को उन भक्तों तक पहुॅंचाया जो ‘स्वरस‘ को ‘परमरस‘ में मिलाना चाहते थे, गोप गोपियाॅं और अन्य सभी अपना सब कुछ छोड़कर उन्हीं की ओर दौड़ पड़ते थे। इसे ही रस साधना या रासलीला कहा गया है । रासलीला के पीछे दार्शनिक तत्व यह है कि सृष्टि के नियंता ‘पुरुषोत्तम‘(nuclear consciousness)  केन्द्र में हैं और असंख्य भक्त (unit consciousnesses) उनकी परिक्रमा करते हुए अपने अपने स्वरस को उनमें मिलाकर एक होना चाहते हैं।

Friday 16 June 2017

131 बाबा की क्लास ( भक्त, प्रेमी, ज्ञानी और योगी )

131 बाबा की क्लास ( भक्त, प्रेमी, ज्ञानी और योगी )

नन्दू- बाबा! कुछ विद्वान कहते हैं कि भक्त वही हो सकता है जो प्रेम करना जानता है, अन्यथा नहीं ?
बाबा- वे सही कहते हैं।

रवि- तो प्रेमी और भक्त एक समान ही हुए ?
बाबा- नहीं, बहुत अन्तर है।

इन्दु- क्या अन्तर है?
बाबा- प्रेम व्यापक शब्द है इसलिए वे सभी प्रेमी कहलाते हैं जो भौतिक वस्तुओं को, भौतिक संबंधियों को, पालतू जानवरों को, स्थानों को या अपनी आदतों को प्रेम करते हैं। भक्त भी प्रेम करता है परन्तु केवल अपने भगवान अर्थात् इष्ट से।

चन्दू- तो भक्त को इस भौतिक जगत से अर्थात् संसार की किसी वस्तु, व्यक्ति , स्थान से कोई प्रेम नहीं होता?
बाबा- अवश्य होता है परन्तु वह सभी में अपने इष्ट का विग्रह ही देखता है, उससे पृथक कुछ नहीं देखता। जहाॅं सामान्य प्रेमी भौतिक जगत की वस्तुओं , सम्पदाओं, व्यक्तियों को प्रेम करने के मामले में पृथक पृथक मानता है वहीं भक्त इन सभी में अपने इष्ट के अलावा कुछ नहीं देखता अतः प्रेम न करने का प्रश्न ही नहीं है।

रवि- तो ज्ञानी को आप क्या कहेंगे?
बाबा- ज्ञानी यदि केवल पाण्डित्य का प्रदर्शन मात्र करता है तो वह मूर्ख से भी निम्न स्तर का माना जाता है परन्तु यदि वह ज्ञानपूर्वक कर्म करता है तो अवश्य ही उसे भक्ति मार्ग का यात्री कहा जा सकता है।

राजू- आपके अनुसार ज्ञान क्या है?
बाबा- आत्मज्ञान ही सर्वोपरि है, अन्य ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं केवल ज्ञान का अवभास अर्थात् छाया ही हैं। ज्ञान की छाया देखकर कोई वास्तविक सार तत्व को नहीं जान सकता।

इन्दु- तो फिर भक्ति को ज्ञान से निम्न स्थान प्राप्त हुआ?
बाबा- अभी मैंने कहा है कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति प्राप्त होती है इसलिए भक्ति को जिसने पा लिया उसे फिर किसी को पाने की आवश्यकता नहीं होती । मोक्ष पाने के जितने भी साधन हैं उनमें भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। एक बार भक्ति प्राप्त हो गई तो फिर ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती।

चन्दू- ठीक है, पर ज्ञान और भक्ति में कुछ सम्बंध है या नहीं?
बाबा- अच्छा , इसे इस प्रकार समझने का प्रयास करो। ज्ञान है बड़ा भाई और भक्ति है उसकी छोटी बहिन। बड़ा भाई ज्ञान आपनी छोटी बहिन भक्ति की अंगुली पकड़ कर रास्ते में चल रहा है, आने जाने वाले राही ज्ञान से पूछते हैं कि क्या यह तुम्हारी बहिन है? वे ज्ञान से आश्वस्त हो जाने पर फिर ज्ञान से नहीं उसी बहिन से बात करने लगते हैं , वाह! कितनी सुन्दर है, कहाॅं जा रही हो, पढ़ती हो, किस क्लास में पढ़ती हो, आदि आदि । ज्ञान, भक्ति को पाने का साधन है, एक बार वांछित लक्ष्य पा लेने के बाद ज्ञान का फिर कोई उपयोग नहीं रहता।

नन्दू- क्या यह व्याख्या विचित्र नहीं लगती?
बाबा- अरे! कागज की प्लेट में खाने की सामग्री रखकर खाने के समय क्या उद्देश्य रहता है? यही न कि भोजन स्वाद पूर्वक कर लिया जाय। ज्ञान है कागज की प्लेट और भोजन खाकर तृप्त होना है भक्ति । जब भोजन प्राप्त कर लिया तब उस प्लेट का क्या करते हो? वह फेक देने के अलावा किस काम की रहती है?

राजू- कुछ विद्वान कहते हैं कि जीवन का लक्ष्य "मुक्त होना" है, जबकि कुछ कहते हैं  कि "मोक्ष "? क्या दोनों  बाते समान हैं?
बाबा- नहीं, एक समान नहीं हैं। मानव जीवन का लक्ष्य है मोक्ष पाना।

रवि- तो मुक्ति और मोक्ष में क्या अन्तर है?
बाबा- मुक्ति का अर्थ है सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होना। बंधन मुक्त हो जाने के बाद मनोभावों के अनुसार पुनः शरीर में बंध जाने की सम्भावना रहती है । मोक्ष का अर्थ है अपने उद्गम के बिन्दु परमपुरुष से मिलकर एक हो जाना । इसके बाद फिर से शरीरों में आने जाने का क्रम सदा के लिए समाप्त हो जाता है।

इन्दु- परमपुरुष से मिलकर एक हो जाने का कार्य जब ‘भक्ति‘ करती है तो ‘योग‘ क्या करता है?
बाबा- योग, भक्ति प्राप्त करने के  लिए ज्ञान की तरह साधन ही है इसलिए कहा गया है ‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् जीवात्मा का परमात्मा के साथ शक्कर और पानी की तरह मिलकर एक हो जाना ही योग कहलाता है।

चन्दू- परन्तु कुछ विद्वान कहते हैं ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः‘‘ और अन्य ‘‘योगः कर्मसु कौशलम‘‘ ?
बाबा- सही है, यह दोनों कथन भी पूर्वोक्त परिभाषा की सहायक ही हैं। चित्त की वृत्तियों को किस प्रकार निरोध किया जाना चाहिए ? ज्ञान पूर्वक न? इसी प्रकार कर्म करने की कुशलता किस प्रकार आएगी ? ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही न ? तो अभी बताया गया कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से मोक्ष जो कि इकाई चेतना का परमचेतना अर्थात परमपुरुष  के साथ योग करा देता है।

Sunday 4 June 2017

130 बाबा की क्लास ( साधना, साधनाॅंग और सहायक )

130 बाबा की क्लास ( साधना, साधनाॅंग और सहायक ) 

नन्दू- आपने साधना की अनेक पद्धतियों के बारे में बताया है परन्तु अष्टाॅंग योग की पद्धति को उत्तम कहा है । जब यह पद्धति एक ही है तब इसके आठ भाग क्यों बनाए गए हैं?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि हम सभी जानते हुए या अन्जाने में उस एक ही परमसत्ता के चारों ओर विभिन्न कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं और उसके पास जाने का प्रयास कर रहे हैं।  इन चक्राकार गतियों में मन कभी आगे कभी पीछे और कभी विपथगामी होता रहता है अतः इसे उचित दिशा और रास्ते पर चलाए रखने का प्रयास करना ही साधना है। इसके लिए ऋषियों का कहना है कि हमें अपने पिछले जन्मों के सभी संस्कारों का क्षय करना और नए संस्कारों को उत्पन्न न होने देने का प्रयास करना ही प्रमुख होता है। इष्ट मंत्र के नियमित जाप से पिछले और प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में ब्राह्मिक भाव को बनाए रखने से यह दोनों कार्य सम्पन्न हो जाते हैं परन्तु यह कर पाना बहुत ही कठिन होता है इसलिए इसकी सहायता के लिए ही अन्य अंग बनाए गए हैं ।

राजू- तो इस पद्धति के शेष भागों को क्या साधना करने के अन्तर्गत नहीं माना जाता?
बाबा- यह सभी मुख्य साधना के अंग कहलाते हैं जो मूल लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करते हैं। जैसे, यम और नियम के पालन करने से मन में लक्ष्य के प्रति जागरूकता और संकल्प शक्ति को दृढ़ बनाये रखने में , आसन करने से शरीर को निरोग और स्वस्थ रखने में, प्राणायाम से मन पर नियंत्रण करने में , प्रत्याहार से मन को लक्ष्य पर केन्द्रित करने में , धारणा से मन को विपथन से बचाने में और ध्यान से लक्ष्य के साथ अपना निकट संबंध बनाने में सहायता मिलती है। यही कारण है कि यह सभी साधनाॅंग कहलाते हैं यह अपने आप में पूर्ण साधना नहीं हैं।

रवि- परन्तु अनेक विद्वान तो बौद्धिक स्तर पर की गई प्रगति को ही सब कुछ मानते हैं ?
बाबा- वे , जो आध्यात्मिक साधना किए बिना केवल बौद्धिक उन्नति में ही रुचि लेते हैं वे प्रकृति के प्रभाव में आकर न तो भौतिक जगत में और न ही आध्यात्मिक जगत में प्रगति कर पाते हैं। जो लोग भौतिक जगत की उन्नति को ही सब कुछ मानते हैं वह अपने आप को धोखा देने का कार्य ही करते हैं। इस प्रकार के लोगों से कभी पूछना कि क्या वे इस भौतिक प्रगति से आनन्द पाते हैं? वे कहेंगे नहीं । किसी अच्छे व्यापारी से पूछना कि क्या उसे बहुत लाभ हो रहा है? भले आप इनकम टेक्स विभाग के व्यक्ति न हों परन्तु उसका उत्तर यही होगा कि, नहीं मैं तो बहुत ही नुकसान में हॅूं। इसलिए भौतिकता के क्षेत्र में हो या बौद्धिकता के क्षेत्र में की जाने वाली प्रगति को वास्तविक प्रगति नहीं कहा जा सकता वरन् वह तो समय को व्यर्थ ही व्यय करने के बराबर ही है।

इन्दु- पर हम यह कैसे जान सकते हैं कि आध्यात्मिक प्रगति ही असली प्रगति है?
बाबा- जब तुम उस परमसत्ता की निकटता का अनुभव करोगी तब लगेगा कि भक्तिभाव की सम्पदा जिस के पास है उससे बड़ी संसार की कोई दौलत नहीं है। उस सत्ता के निकट संपर्क में जाने के लिए केवल भक्ति ही काम आती है जो कि मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य है। यही असली प्रगति है । हम सभी अनेक जन्मों से इस प्रकार के जीवनों में उलझे रहे हैं और जानकर या अन्जाने ही इनसे आगे जाने के प्रयास करते रहे हैं। उस सत्ता के आकर्षण में सभी बंधे हुए हैं उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । जब तक इस बात का अनुभव नहीं कर लिया जाता है जीवन में सिद्धि अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।

चन्दू- परन्तु कुछ विद्वान तो साधना करने का कार्य बुढ़ापे के लिए स्थगित करते जाते हैं क्योंकि उनके अनुसार उस अवस्था में ही फुर्सत का अधिक समय रहता है?
बाबा- यह तो ध्रुव सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है वह अवश्य ही मरेगा, इतना ही नहीं वह प्रत्येक क्षण मृत्यु की ओर ही बढ़ता जा रहा है, अन्तर केवल यही है  कि  वह नहीं जानता कि वह क्षण कब आएगा। इसलिए यह भी निश्चित नहीं है कि कोई बुढ़ापा आने तक जीवित रहेगा भी या नही। इसलिए बुढ़ापे में जब शरीर दुर्बल हो जाता है और मन मोह माया में फंसता जाता है तब उस समय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम ‘‘आध्यात्मिक साधना करना ‘‘ वह कैसे कर सकेगा? सोचो! जब मन कमजोरी और बीमारियों के कारण अपने कर्मों और संस्कारों के चिंन्तन में ही उलझा रहेगा, बार बार पुरानी घटनाओं और स्मृतियों में डूबकर मौत से घबरा रहा होगा तब मन को ईश्वर की ओर केन्द्रित करना संभव ही नहीं होगा।

रवि- तो शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति पाने के लिए साधनाॅंगों के स्थान पर सीधे ही शीर्ष चक्र पर ही ध्यान लगाना उचित नहीं होगा?
बाबा- नहीं। यह बार बार ध्यान रखना चाहिए कि निम्न उर्जा केन्द अर्थात् चक्र शीर्ष चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने में बाधा पहुंचाते हैं इस लिए साधनाॅंगों की सहायता से पहले इन्हें ही स्वच्छ बनाकर नियंत्रित किया जाता है। इसलिए कोई यदि सीधे ही सहस्त्रार पर ध्यान करने लगता है तो उसे अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है और प्रगति कुछ नहीं होती। इसलिए क्रमशः आगे बढ़ना ही उचित होता है।

नन्दू- कुछ विद्वानों को भजन और कीर्तन को महत्व देते देखा जाता है उसका क्या अर्थ है?
बाबा- भजन और कीर्तन भी दोनो ही आध्यात्मिक साधना करने में सहायक होते हैं क्योंकि यह उस परम सत्ता का ही यशोगान करने का साधन हैं। भजन जहाॅं व्यक्तिगत होता है वहीं कीर्तन सामूहिक । अपने इष्ट से सीधे ही जुड़ने का प्रयास भजन द्वारा किया जाता है इसमें भक्ति भाव से उत्पन्न मानसिक तरंगों द्वारा उस परम सत्ता की निकटता की अनुभूति करने का प्रयास किया जाता है। यह धीमे स्वर में ही किया जाता है। कीर्तन में ईश्वर की निकटता का अनुभव करने का प्रयास सामूहिक मानसिक तरंगों द्वारा किया जाता है। इसे जोर से उच्चारण करके किया जाता है ताकि अन्य लोग भी इसे सुनकर लाभ पा सकें। परन्तु दोनों की उपायों में उस परम सत्ता के नाम के गान के अलावा अन्य कुछ नहीं होना चाहिए।

इन्दु- क्या इस आधार पर भक्ति भी अनेक प्रकार की हो जाती है या नहीं?
बाबा- भक्ति तो एक ही प्रकार की होती है परन्तु भक्त की भावना के अनुसार उसके तीन स्तर होते हैं । पहले स्तर पर अहंकेन्द्रित लोग होते हैं जो यह मानते हैं कि ‘‘ मैं हॅूं और मेरे भगवान भी हैं।‘‘ इसमें मुख्य बिन्दु अपने को प्राथमिकता देना है और भगवान को दूसरा। दूसरे स्तर पर भक्त का मन समाज सेवा और साधना के प्रभाव से ईश्वर के अधिक पास आ जाता है और वह उनकी कृपा से उनके ही बारे में अधिक सोचता है और अपने बारे में कम। यह तभी होता है जब वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है ठीक उसी प्रकार जैसे माॅं अपने शिशु के बारे में अपने से अधिक सोचने लगती है। वह अनुभव करने लगता है कि , मेरे प्रभु हैं और मैं भी हॅूं। जब साधना करते करते ध्यान में स्थिरता आ जाती है तब भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और अनुभव करता है कि केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है। यही भक्ति का अंतिम तीसरा स्तर है। तीनों ही स्थितियों में परमपुरुष का होना अनिवार्य होता है। जहाॅं पहले स्तर पर अहंभाव को प्रथमिकता दी गई होती है वहीं दूसरे स्तर पर अनुभव होता है कि परमपुरुष ही मुख्य हैं और चरम स्तर पर परमात्मा के प्रति असीम प्रेम स्थापित हो जाने के कारण भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और परमपुरुष के साथ एक हो जाता है।