133 बाबा की क्लास ( शून्य और मन )
इन्दु- अभी तक की सभी क्लासों का सार निकाला जाय तो केवल मन की भूमिका ही प्रधान लगती है, सभी का कर्ताधर्ता यह मन ही है?
बाबा- बिलकुल सही कहा, सभी मनुष्य उन विचारों के उत्पाद होते हैं जो वे अपने मन में बोते हैं। मन बड़ा ही विचित्र होता है, इसलिए कहा गया है कि ‘‘मन एव मनुष्याणां बन्धन मोक्ष कारणो।‘‘ अर्थात् वह मन ही है जो किसी को बंधन अथवा मोक्ष दोनों दे सकता है।
रवि- आपने बताया है कि मन तो दोलनकारी है और क्षण क्षण अपनी दशाएं और दिशाएं बदलता रहता है तो उसका कोई ऐसा लक्षण बताइए जिसके ज्ञान से उसकी क्षमताओं का पूरा पूरा लाभ लिया जा सकता हो?
बाबा- मन जिस प्रकार सोचता है वैसा ही आकर ले लेता है, ‘‘ यादृशि भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशि‘‘ इसलिए संकीर्ण विचार उसे संकीर्ण बनाते हैं और विस्तारित विचार उसका विस्तार कर देते हैं। चूंकि परमपुरुष से बड़ा कोई नहीं है इसलिए उसके संबंध में सतत विचार करने से उसका विस्तार होकर उन्हीं जैसा हो जाता है। इसलिए जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है, अतः मन की इस विशेषता का उपयोग करना चाहिए।
राजू- परन्तु संसार के कुछ प्रतिष्ठित मत तो कहते हैं कि सब कुछ शून्य अर्थात् (nothingness or emptiness) है इसलिए मन को शून्य के चिन्तन की ओर ले जाना चाहिए?
बाबा- तो अब तुम्ही सोचो? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ अर्थात् शून्य का ध्यान चिन्तन करते हुए मन की बताई गई इस विशेषता के अनुसार तुम क्या हो जाओगे? भारतीय दर्शन में इस प्रकार के साधक मृत्यु के बाद ‘विदेहलीन‘ कहलाते हैं जिनके पुनः जन्म लेने की संभावना रहती है। वे साधक जो शून्य का ध्यान करते हैं वे अपने चित्त में शून्य को ही उत्पन्न कर लेते हैं क्योंकि उनका निर्पेक्ष लक्ष्य वही होता है । चूंकि उनके मन में परमपुरुष की अवधारणा होती ही नहीं है अतः वे मुक्त नहीं हो सकते।
इन्दु- विदेहलीन अवस्था क्या है?
बाबा- जिनका भौतिक शरीर न हो परन्तु मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सुप्तावस्था में आ जाएं वे विदेहलीन कहलाते हैं। अन्तरिक्ष में भटकते हुए जब कभी प्रकृति अनुकूल वातावरण दे पाती है तभी उनको पुनः अपने संस्कारों को भोगने योग्य शरीर मिल पाता है। इसलिए शून्य का ध्यान करने का सुझाव देने वाले मत असहनीय रूप से कष्टदायी हैं अतः मान्य करने योग्य नहीं हैं।
चन्दु- लेकिन आपने तो कहा था कि मुक्ति या मोक्ष पाने के लिये मंत्र का मनन करना ही उपयोगी है?
बाबा- हाॅं, परन्तु इस ब्रह्माॅंड में अनेक ध्वनियाॅं हैं, अनेक अक्षर और शब्द हैं परन्तु वे सभी मंत्र नहीं हो सकते। वह ध्वनि जिसकी तरंगों में यह सामर्थ्य होता है कि मानव मन के सूक्ष्मतम भाग को परमसत्ता की ओर मोड़ सके तभी वह मंत्र कहला सकतीं है अन्यथा नहीं। चूंकि शून्यवादियों का मंत्र जैसा कोई साधन नहीं होता और न ही उनका लक्ष्य मुक्त सत्ता को पाना, अतः उन्हें विदेहलीन होने से कोई रोक नहीं सकता जो कि असह्य स्थिति है।
नन्दू- तो सच्चा योगी किसे अपना लक्ष्य माने?
बाबा- ‘‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् योग वह प्रक्रिया है जो अपने आपको परमसत्ता से जोड़ने में सहायक हो । इसलिए स्पष्ट है कि योगी वह है जो इस पद्धति से अपने को परमात्मा से जोड़ना चाहता है। अतः सच्चे योगी का लक्ष्य परमसत्ता से जुड़ने का होना चाहिए। यह पहले ही बताया जा चुका है कि योगिक विधियों में ‘प्रत्याहार‘ क्रिया के अन्तर्गत मन को बाहरी सभी विषयों से खींचकर उसे परमपुरुष की ओर मोड़ने का अभ्यास किया जाता है।
रवि- क्या विदेहलीन अवस्था और माइक्रोवाइटा में कोई संबंध है?
बाबा- विदेहलीन अवस्था, माइक्रोवाइटा की ही अवस्था है जो मन के चिंतन के अनुसार धनात्मक, ऋणात्मक या उदासीन कुछ भी हो सकती है परन्तु यह अटल सत्य है कि विदेहलीन और प्रकृतिलीन अवस्थाएं माइक्रोवाइटा की सबसे अधिक कष्टदायी स्थितियाॅं हैं।
इन्दु- यह प्रकृतिलीन अवस्था क्या है और किन्हें प्राप्त होती है?
बाबा- वह लोग जो परमपुरुष से भौतिक जगत की वस्तुएं, जैसे धन, भूमि या भवन, अथवा भौतिक पदार्थों को पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करते हैं तब हमेशा ही उनके मन का चिन्तन परमपुरुष के स्थान पर उन्हीं वस्तुओं और पदार्थों का होता रहता है जिससे मन अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार शरीर त्याग करने के बाद उन्हें प्रकृतिलीन अवस्था में ले जाता है।
राजू- क्या माइक्रोवाइटा हमें हानि ही पहुंचाते हैं?
बाबा- नेगेटिव माइक्रोवाइटा हानि पहुंचाते हैं, पाजीटिव माइक्रोवाइटा सहायक होते हैं और उदासीन माइक्रोवाइटा उदासीन रहते हैं। परन्तु तुम लोग इनका चिन्तन क्यों करते हो अपना उद्देश्य है परमपुरुष को पाना इसलिए उन्हीं का चिंतन अपने अपने इष्ट मंत्रों की सहायता से करते रहो, इसी में भलाई है।
इन्दु- अभी तक की सभी क्लासों का सार निकाला जाय तो केवल मन की भूमिका ही प्रधान लगती है, सभी का कर्ताधर्ता यह मन ही है?
बाबा- बिलकुल सही कहा, सभी मनुष्य उन विचारों के उत्पाद होते हैं जो वे अपने मन में बोते हैं। मन बड़ा ही विचित्र होता है, इसलिए कहा गया है कि ‘‘मन एव मनुष्याणां बन्धन मोक्ष कारणो।‘‘ अर्थात् वह मन ही है जो किसी को बंधन अथवा मोक्ष दोनों दे सकता है।
रवि- आपने बताया है कि मन तो दोलनकारी है और क्षण क्षण अपनी दशाएं और दिशाएं बदलता रहता है तो उसका कोई ऐसा लक्षण बताइए जिसके ज्ञान से उसकी क्षमताओं का पूरा पूरा लाभ लिया जा सकता हो?
बाबा- मन जिस प्रकार सोचता है वैसा ही आकर ले लेता है, ‘‘ यादृशि भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशि‘‘ इसलिए संकीर्ण विचार उसे संकीर्ण बनाते हैं और विस्तारित विचार उसका विस्तार कर देते हैं। चूंकि परमपुरुष से बड़ा कोई नहीं है इसलिए उसके संबंध में सतत विचार करने से उसका विस्तार होकर उन्हीं जैसा हो जाता है। इसलिए जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है, अतः मन की इस विशेषता का उपयोग करना चाहिए।
राजू- परन्तु संसार के कुछ प्रतिष्ठित मत तो कहते हैं कि सब कुछ शून्य अर्थात् (nothingness or emptiness) है इसलिए मन को शून्य के चिन्तन की ओर ले जाना चाहिए?
बाबा- तो अब तुम्ही सोचो? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ अर्थात् शून्य का ध्यान चिन्तन करते हुए मन की बताई गई इस विशेषता के अनुसार तुम क्या हो जाओगे? भारतीय दर्शन में इस प्रकार के साधक मृत्यु के बाद ‘विदेहलीन‘ कहलाते हैं जिनके पुनः जन्म लेने की संभावना रहती है। वे साधक जो शून्य का ध्यान करते हैं वे अपने चित्त में शून्य को ही उत्पन्न कर लेते हैं क्योंकि उनका निर्पेक्ष लक्ष्य वही होता है । चूंकि उनके मन में परमपुरुष की अवधारणा होती ही नहीं है अतः वे मुक्त नहीं हो सकते।
इन्दु- विदेहलीन अवस्था क्या है?
बाबा- जिनका भौतिक शरीर न हो परन्तु मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सुप्तावस्था में आ जाएं वे विदेहलीन कहलाते हैं। अन्तरिक्ष में भटकते हुए जब कभी प्रकृति अनुकूल वातावरण दे पाती है तभी उनको पुनः अपने संस्कारों को भोगने योग्य शरीर मिल पाता है। इसलिए शून्य का ध्यान करने का सुझाव देने वाले मत असहनीय रूप से कष्टदायी हैं अतः मान्य करने योग्य नहीं हैं।
चन्दु- लेकिन आपने तो कहा था कि मुक्ति या मोक्ष पाने के लिये मंत्र का मनन करना ही उपयोगी है?
बाबा- हाॅं, परन्तु इस ब्रह्माॅंड में अनेक ध्वनियाॅं हैं, अनेक अक्षर और शब्द हैं परन्तु वे सभी मंत्र नहीं हो सकते। वह ध्वनि जिसकी तरंगों में यह सामर्थ्य होता है कि मानव मन के सूक्ष्मतम भाग को परमसत्ता की ओर मोड़ सके तभी वह मंत्र कहला सकतीं है अन्यथा नहीं। चूंकि शून्यवादियों का मंत्र जैसा कोई साधन नहीं होता और न ही उनका लक्ष्य मुक्त सत्ता को पाना, अतः उन्हें विदेहलीन होने से कोई रोक नहीं सकता जो कि असह्य स्थिति है।
नन्दू- तो सच्चा योगी किसे अपना लक्ष्य माने?
बाबा- ‘‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् योग वह प्रक्रिया है जो अपने आपको परमसत्ता से जोड़ने में सहायक हो । इसलिए स्पष्ट है कि योगी वह है जो इस पद्धति से अपने को परमात्मा से जोड़ना चाहता है। अतः सच्चे योगी का लक्ष्य परमसत्ता से जुड़ने का होना चाहिए। यह पहले ही बताया जा चुका है कि योगिक विधियों में ‘प्रत्याहार‘ क्रिया के अन्तर्गत मन को बाहरी सभी विषयों से खींचकर उसे परमपुरुष की ओर मोड़ने का अभ्यास किया जाता है।
रवि- क्या विदेहलीन अवस्था और माइक्रोवाइटा में कोई संबंध है?
बाबा- विदेहलीन अवस्था, माइक्रोवाइटा की ही अवस्था है जो मन के चिंतन के अनुसार धनात्मक, ऋणात्मक या उदासीन कुछ भी हो सकती है परन्तु यह अटल सत्य है कि विदेहलीन और प्रकृतिलीन अवस्थाएं माइक्रोवाइटा की सबसे अधिक कष्टदायी स्थितियाॅं हैं।
इन्दु- यह प्रकृतिलीन अवस्था क्या है और किन्हें प्राप्त होती है?
बाबा- वह लोग जो परमपुरुष से भौतिक जगत की वस्तुएं, जैसे धन, भूमि या भवन, अथवा भौतिक पदार्थों को पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करते हैं तब हमेशा ही उनके मन का चिन्तन परमपुरुष के स्थान पर उन्हीं वस्तुओं और पदार्थों का होता रहता है जिससे मन अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार शरीर त्याग करने के बाद उन्हें प्रकृतिलीन अवस्था में ले जाता है।
राजू- क्या माइक्रोवाइटा हमें हानि ही पहुंचाते हैं?
बाबा- नेगेटिव माइक्रोवाइटा हानि पहुंचाते हैं, पाजीटिव माइक्रोवाइटा सहायक होते हैं और उदासीन माइक्रोवाइटा उदासीन रहते हैं। परन्तु तुम लोग इनका चिन्तन क्यों करते हो अपना उद्देश्य है परमपुरुष को पाना इसलिए उन्हीं का चिंतन अपने अपने इष्ट मंत्रों की सहायता से करते रहो, इसी में भलाई है।
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