Tuesday 20 June 2017

132 बाबा की क्लास ( स्वरस, विषयरस और परमरस )

132 बाबा की क्लास ( स्वरस, विषयरस और परमरस )

राजू- देखा गया है, कि कुछ लोग पहले तो भजन पूजन में विश्वास नहीं करते पर जब बहुत वृद्ध हो जाते हैं तब वे यह सोचकर कि लोग आलोचना न करें, अधार्मिक न कहें,  इसलिए दूसरों को देखकर ही कुछ मंत्र बगैरह पढ़ने की फार्मेलिटी करने लगते हैं, इन लोगों के बारे में आप क्या कहते हैं?
बाबा- इस प्रकार के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं की मांग भले न करें पर वे इस अवस्था में अपनी मुक्ति की चाहत अवश्य रखते हैं । परमपुरुष उन्हें मुक्ति दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते परन्तु एक बात तो निश्चित है कि उन्हें परमपुरुष की प्राप्ति नहीं होगी क्योंकि वे उन्हें अर्थात् परमपुरुष को नहीं चाहते। प्रथम श्रेणी के भक्त परमपुरुष के अलावा किसी को नहीं चाहते।

इन्दु- ऐसा क्यों होता है कि लोग ईश्वर की पूजा करने का विचार वृद्धावस्था में ही मन में लाते हैं?
बाबा- मनुष्य का मन हमेशा किसी न किसी काम में लगा रहता है, वह उन्हीं विचारों में बाद में भी डूबा रहता है जो दिन भर उसे घेरे रहे होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक का मन उन्हीं कामों के प्रति क्रियाशील रहता है जो बार बार उसके संपर्क में आते हैं। यही कारण है कि यदि किसी अन्य विषय पर विचार करने को कहा जाता है तो उस व्यक्ति का मन उसी ओर जाता है जहाॅं पहले से जुड़ा रहा है । उसे वहीं अच्छा लगता है जहाॅं जीवन भर लगा रहा अतः अन्त में नए विचारों से उसे कष्ट होता है परन्तु दूसरों को देखकर या सुनकर ही अधिकांश लोग वृद्धावस्था में भजन करते देखे जाते हैं ताकि कोई उन्हें नास्तिक न कहे।

रवि- लेकिन क्या यह संभव है कि जीवनोपयोगी संसार के काम करते हुए मन, उन कामों की  छाप अपने ऊपर पड़ने ही न दे? उसका बार बार उनसे प्रभावित होना तो स्वाभाविक है?
बाबा- हाॅं । यदि मन बार बार भौतिक जगत के कामों की ओर भागता है तो साधना करना कठिन है । इन बाधाओं से बचने का एक ही फार्मूला है, वह है, श्रवण, मनन, और निदिध्यासन। अर्थात् परमपुरुष के नाम को बार बार सुनना, उसी का मनन करना और उन्हीं पर ध्यान लगाना।  इनकी सहायता से मन के द्वारा अन्य कार्य करते हुए भी दिन रात आध्यात्मिक प्रवाह में उसे बनाए रखा जा सकता है ।

चन्दू- यह कैसे संभव है? मन जब किसी भौतिक काम में लगा हो तब वह दूसरा काम कैसे कर सकता है, वह भी ईश्वर चिन्तन जैसे कठिन काम?
बाबा- धीरे धीरे क्रमशः अभ्यास करने से सब कुछ संभव हो जाता है । रास्ते में आते , जाते या चलते समय श्वास के साथ अपने इष्ट मंत्र को संतुलित कर उससे जुड़े रहा जा सकता है, कार्य करते हुए ईश्वर के नाम कीर्तन को सुना जा सकता है, प्रत्येक कार्य को प्रारंभ करने के पहले ही अपने गुरुमंत्र की सहायता से यह भाव लिया जा सकता है कि सभी कार्य परमपुरुष ही कर रहे हैं। इस प्रकार मन को सदा ही आध्यात्मिक प्रवाह से जोड़े रखा जा सकता है इतना ही नहीं इस कार्य से साधना की गुणवत्ता भी बढ़ती जाती है।

नन्दू- यह क्यों होता है कि चोर से चोर मिलने पर मित्र हो जाते है , शराबी से शराबी मिलकर एक हो जाते हैं, परन्तु साधु से चोर के मिलने पर बिलकुल विपरीत ही होता है?
बाबा- सभी लोगों का अपना अपना मानसिक प्रवाह होता है। परस्पर निकटता अथवा दूरी बनाने के लिए यह मानसिक प्रवाह ही उत्तरदायी होता है। किन्हीं दो व्यक्तियों का आकार, रंग, शिक्षा और भौतिक स्तर एक समान होने पर भी यदि उनका मानसिक प्रवाह भिन्न है तो उनमें मित्रता नहीं हो सकती, वे एक साथ समय नहीं बिता सकते। यदि दो व्यक्तियों में अन्य भौतिक असमानताएं हों परन्तु मानसिक प्रवाह समान है तो उनमें मित्रता हो जाएगी।

रवि- तो क्या मानसिक प्रवाह को ही ‘स्वरस‘ कहा जा सकता है?
बाबा- हाॅं, संस्कृत में ‘स्वरस‘ का अर्थ है (स्व + रस) अर्थात् स्वयं का प्रवाह। अर्थात् इकाई  अस्तित्व के मन का प्रवाह। और, ‘पररस‘ का अर्थ है (पर + रस) अर्थात् दूसरे के मन का प्रवाह। स्पष्ट है कि जब किन्हीं दो अस्तित्वों में स्वरस की लगभग समानता होगी वे एक दूसरे से सौहार्द बनाना चाहेंगे परन्तु स्वरस और पररस भिन्न होंगे तो उनमें कभी भी साम्य नहीं रह सकता , वे एक दूसरे से दूर ही रहना चाहेंगे मित्रता नहीं करेंगे।

चन्दू- क्या किन्हीं दो व्यक्तियों का स्वरस शत प्रतिशत समान हो सकता है?
बाबा- नहीं। यही कारण है कि कोई भी दो व्यक्ति बिलकुल एक समान नहीं होते। यदि किसी विधि से दोनों के स्वरस एकसमान कर दिए  जाॅंएं तो वे अपना पृथकता का अस्तित्व खो देंगे और दोनों एक ही हो जाएंगे। इसलिए मित्रता या शत्रुता होना अपने अपने स्वरसों पर ही आधारित  है।

इन्दु- परमपुरुष के साथ साक्षात्कार के समय स्वरस का कोई योगदान होता है या नहीं?
बाबा- परमपुरुष अर्थात् (cosmic mind ) का प्रवाह ‘‘परमरस‘‘ कहलाता है। यह ‘स्वरस और पररस‘ दोनों से भिन्न होता है परन्तु इकाई अस्तित्व का ‘स्वरस‘, साधना करने , निस्वार्थ सेवा करने और त्याग करने से परमरस के समानान्तर लाया जा सकता है। इस अवस्था में यदि इकाई अस्तित्व समाप्त होकर परमरस के साथ एक्य स्थापित कर लेता है तो उसे ‘‘मोक्ष पाना‘‘ कहा जाता है अन्यथा ‘‘मुक्त अवस्था‘‘ कहा जाता है जिसके पुनः शरीर धारण करने की संभावना बनी रहती है।

राजू- आपने ‘समानान्तर होना‘ और ‘एक्य स्थापित होना‘ कहा है , ये दोनों कुछ और अधिक स्पष्ट किए जा सकें तो उत्तम होगा?
बाबा- इससे पहले अनेक बार बताया जा चुका है कि यह दृश्यप्रपंच अर्थात् समग्र सृष्टि उस एक ही परमसत्ता की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जिसमें हम सब सीमित तरंगों से बद्ध होकर अपने को पृथक अनुभव करते हैं। (cosmic entity) की तरंगों की तरंग लम्बाई अनन्त होती है अर्थात् वे  सरल रेखा में होती है उसमें कहीं भी वकृता नहीं होती जबकि हम सबकी मानसिक तरंगों की तरंग लम्बाई सीमित होती है और विभिन्न संस्कारों के कारण अनेक वकृताएं लिए होती है । अतः जब किसी इकाई अस्तित्व की मानसिक तरंगें साधना करने से अपनी वकृता समाप्त कर देती हैं तो वे भी सरल रेखिक हो  जाती हैं और परमसत्ता की तरंगों के साथ ‘समानान्तर‘ कही जाती हैं। इसका अर्थ यह है कि अभी भी उस इकाई अस्तित्व के मन में पृथकता का आभास बना रहता है भले ही प्रवाह की दिशा एक समान हो। परन्तु जब यह पृथकता का भाव शून्य होकर एकमेव परमसत्ता का ही भाव व्याप्त  हो जाता है तब परमरस और स्वरस में कोई अन्तर नहीं रहता और दोनों में ‘एक्य स्थापित हो गया‘ ,ऐसा  कहा जाता है।

रवि- क्या परमपुरुष का ‘परमरस‘ किसी इकाई अस्तित्व के लिए ‘पररस‘ कहला सकता है?
बाबा- हाॅं, यही कारण है कि अधिकांश लोग भगवद् चर्चा में अरुचि रखते हैं , उनकी मानसिक तरंगें अधिक वकृता वाली होती हैं अतः जब भी उनके सामने ईश्वर चर्चा की जाती है तो सरल रेखिक तरंगों का तनाव पड़ने से उनकी वकृता कम होने लगती है जिससे उन्हें अच्छा नहीं लगता और वे शीघ्र ही दूर हो जाना चाहते हैं।

नन्दू- बहुत पहले ली गई किसी क्लास में आपने ‘‘रासलीला‘ पर चर्चा की थी, क्या उसका आज के विषय से कुछ संबंध है?
बाबा- हाॅं, जब इकाई अस्तित्व अपने स्वरस के प्रभाव में भौतिक जगत की वस्तुओं या व्यक्तियों के बारे में सोचता है तो उस स्वरस में चिन्तन किए गए विषय के अनुरुप अन्य तरंगें भी अपनी अपनी वकृता को सम्मिलित करती हैं और इकाई अस्तित्व उसी में आनन्दित होने लगता है, इसे ‘‘विषयरस‘‘ कहते हैं । परमपुरुष के द्वारा केवल ‘परमरस‘ ही उत्सर्जित होता है, जिसे एक बार भी इसका आस्वादन हो गया फिर उसे भौतिक जगत का ‘विषयरस ‘ स्वादहीन लगने लगता है। पूर्व काल में चैतन्य महाप्रभु ने अपने ‘स्वरस‘ को ‘परमरस‘ के साथ मिलाकर उसे अन्य भक्तों की ओर प्रवाहित किया था जिससे वे नाचते गाते, रोते चिल्लाते, उछलते कूदते उनकी ओर दौड़ पड़ते थे । इसी प्रकार कृष्ण ने अपनी बांसुरी के द्वारा ‘परमरस‘ को उन भक्तों तक पहुॅंचाया जो ‘स्वरस‘ को ‘परमरस‘ में मिलाना चाहते थे, गोप गोपियाॅं और अन्य सभी अपना सब कुछ छोड़कर उन्हीं की ओर दौड़ पड़ते थे। इसे ही रस साधना या रासलीला कहा गया है । रासलीला के पीछे दार्शनिक तत्व यह है कि सृष्टि के नियंता ‘पुरुषोत्तम‘(nuclear consciousness)  केन्द्र में हैं और असंख्य भक्त (unit consciousnesses) उनकी परिक्रमा करते हुए अपने अपने स्वरस को उनमें मिलाकर एक होना चाहते हैं।

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