Monday 30 October 2017

163, बाबा की क्लास ( परमपुरुष से क्या मांगें और क्या भेंट करें ? )

163, बाबा की क्लास ( परमपुरुष से क्या मांगें और क्या भेंट करें ? )

इन्दु- कुछ लोगों का कहना है कि हमें परमपुरुष से आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ऊर्जा मांगना चाहिए?
बाबा- परमपुरुष ने सभी व्यक्तियों को मानव शरीर के साथ विवेक और बुद्धि पर्याप्त मात्रा में पहले से ही दे रखे हैं  , इनका अधिकतम उपयोग न कर उनसे कुछ भी मांगना निरर्थक है।

राजू- तो क्या उनसे भौतिक जगत की वस्तुओं, धन संपत्ति को मांगना चाहिए?
बाबा- नहीं, यदि भौतिक जगत की वस्तुओं और उपलब्धियों को मांगते हो तो यह भूल है क्योंकि उसने आपको बुद्धि और विवेक पर्याप्त मात्रा में दिये है इसका उपयोग कर आवश्यकतानुसार वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।

रवि- लेकिन ऊर्जा को मांगने में क्या हर्ज है , वह तो उनकी ओर जाने में सहायता ही करेगी ?
बाबा- जहाॅं तक ऊर्जा के सहायक होने की बात है तो वह तो विद्या और अविद्या के रूप में सदैव ही ब्रह्माॅंड में सक्रिय है, उचित मात्रा में दोनों का उपयोग कर आगे बढ़ने के लिये वह सदैव सहायक ही होती हैं जैसे पृथ्वी पर आगे चलते समय घर्षण बल। याद रखो कि मानव मात्र का लक्ष्य है स्पेस टाइम से मुक्त होकर उसके पास पहुंचना , जिसने स्पेस और टाइम को बनाया है, जिसके नियंत्रण में स्पेस, टाइम, प्रकृति और यह दृश्य  और अदृश्य  प्रपंच सबकुछ है। वहाॅं आकर्षण का सिद्धान्त ही लागू होता है जिससे बंधकर सभी उसी के केन्द्र के चारों ओर घूम रहे हैं और वह सेन्ट्रीपीटल और सेन्ट्रीफ्यूगल रिएक्शन्स  (जिन्हें विद्या और अविद्या कहा गया है) के द्वारा संतुलन बनाये हुए है। इसलिये अपने भीतर भरी हुई ऊर्जा को अनुभव करना चाहिए और शुद्ध  बुद्धि और विवेक का उपयोग कर त्वरित गति से लक्ष्य के केन्द्र की ओर दौड़ पड़ने में ही सार है। समय प्रत्येक क्षण घटता जा रहा है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उसे भी निर्धारित नियमों का पालन करना ही होता है। संसार के जितने भी विज्ञान आधारित दर्शन  हैं वे अपने भीतर की ऊर्जा को ही अनुभव करने और लगातार आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देते हैं।

चन्दु - कुछ विद्वान कहते हैं कि चूंकि परमपुरुष ने हमें शरीर, बुद्धि, विवेक और ऊर्जा से भरपूर बनाया है इसलिए हमें उनका कर्ज उतारने के  लिए उन्हें कुछ भेंट करना चाहिए?
बाबा- यदि कोई कहे कि उन्हें धन दौलत भेंट करना चाहिए तो यह वैसा ही है जैसे उन्हीं के स्वामित्व की सम्पदा के कुछ भाग को अपना कह कर कर्ज उतारने की बात करना। पर यह बात मान्य है कि हमें कर्ज से मुक्त अवश्य  होना है। वह कर्ज कौनसे हैं? वे हैं पितृ ऋण, देव ऋण,  और ऋषि ऋण। इन सभी से, उन परमपिता की सेवा करने पर ही मुक्त हो सकते हैं।

राजू-  पर प्रश्न  यह है कि वे किसी भौतिक शरीर में तो हैं नहीं फिर किसकी सेवा की जाये और कैसे?
बाबा- इसका उत्तर यह है कि यह ब्रह्माॅंड ही उनका सगुण रूप है जिसमें इलेक्ट्रान जैसे छुद्र कण से लेकर गेलेक्सियों तक सभी जड़ पदार्थ ( जो कि सभी ऊर्जा के घनीभूत रूप ही हैं) और अमीवा से लेकर मनुष्यों तक सभी प्राणी सम्मिलित है, इन्हीं की चार प्रकार से सेवा कर इन सभी ऋणों से मुक्ति पाई जा सकती है । सेवा के वे चार प्रकार हैं विप्रोचित सेवा, क्षत्रियोचित सेवा, वैश्योचित  सेवा और शूद्रोचित सेवा । ध्यान रहे , इसका जाति या वर्ण से कोई संबंध नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में ये चार प्रकार के गुण होते ही हैं अतः आवश्यकतानुसार इनका निस्वार्थ भाव से उपयोग करते हुए सगुण ब्रह्म के सभी अवयवों की सेवा करने से ही इन ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है अन्यथा नहीं।

इन्दु- पर आपने क्या यह नहीं सुना कि सम्पन्न लोग मंदिरों में मूर्तियों के आभूषण , जैसे मुकुट, जूते चप्पल आदि सोने के बनवाकर भेंट करते हैं, मंदिरों के गुंबद पर सोने के कलश चढ़ाते हैं , कुछ लोग रुपया पैसा भेंट करते हैं, तो यह क्या व्यर्थ है?
बाबा- अभी बताया न, कि जो समस्त ब्रह्मांड का निर्माता है, वह उसका स्वामी भी है तो उसके स्वामित्व की कोई भी कीमती वस्तु अपनी मानकर उसे भेंट करते हो तो उसके किस काम की है ? वह, भेंट करने वाले के हृदय में उनके प्रति कितना प्रेम है इसका मूल्यांकन करते हैं न कि वैभव का। उनके लिए तुम्हारे मूल्यवान हीरे और सोने चांदी की वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में इस धन सम्पदा को उन्हें देकर मदद करना चाहिए जिन्हें इनकी सचमुच आवश्यकता है। भोजन उन्हें दो जो भूखे हों, धन उन्हें दो जो धन के अभाव में अपनी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे हैं, वस्त्र उन्हें दो जो वस्त्रों के अभाव में शारीरिक कष्ट पा रहे हैं, ज्ञान सभी को बाॅंटो ताकि सभी सन्मार्ग पर चल सके, रक्षा उनकी करो जो निर्बल हैं, आदि। इसे ही नारायण सेवा कहते हैं, यही चारों प्रकार की सेवा करने का अन्तिम स्वरूप है।

रवि- वह परमपुरुष, किसे प्राथमिकता से चाहते हैं , बहुत पढ़े लिखे अनेक विषयों के ज्ञाता को या निरक्षरों को , बहुत बड़े पदों पर कार्यरत अधिकारियों को या बहुत सुन्दर रूप और आकर्षक शरीरवालों को?
बाबा- उनके लिए उनकी रचना के छोटे बड़े सभी अस्तित्व एक समान हैं, वे सभी को अपनी ओर आने का समान अवसर देते हैं । उनके लिये महामहोपाध्याय और निरक्षर भट्टाचार्य दोनों  ही एक समान प्रिय होते हैं । वे उनसे अधिक प्रसन्न होते हैं जिसका भक्तिभाव अर्थात् उनके प्रति निस्प्रह प्रेम अधिक होता है।

इन्दु- तो क्या पढ़लिख कर अधिक ज्ञान प्राप्त करना बेकार होता है?
बाबा- ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है परन्तु ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण न करना, ज्ञान का दुरुपयोग करना, ज्ञान के अहंकार में डूबकर ईश्वरीय रास्ते से भटक जाना, बुरा है। ज्ञान पाकर यदि ईश्वर को पाने की इच्छा जागृत नहीं हुई तो वह ज्ञान व्यर्थ ही है।

चन्दू- वे  लोग जो रोज पूजा पाठ करते हैं,  भक्ति करते हैं , भजन करते हैं , चंदन लगाते हैं, सामान्य लोगों से भिन्न वस्त्र पहिनते हैं,  क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न नहीं होते?
बाबा- ईश्वर उनसे प्रसन्न होते हैं जो उन्हें चाहते हैं, उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं। दुख ये है कि अधिकांश तथाकथित भक्त ईश्वर को चाहने या उन्हें पाने के स्थान पर उनसे धन , वैभव, पद , प्रतिष्ठा मांगते हैं।  या, चाहते हैं कि उनके शत्रुओं का नाश हो, सरकारी नौकरी मिल जाय, बेटी का विवाह अच्छे घर में हो जाय और सभी संकट दूर हो जाएं ।  उनकी पूजा पाठ और सभी कर्मकांड की क्रियायें इन्हीं को पाने की दिशा में होती हैं, वे ईश्वर को पाने की कोई चेष्टा नहीं करते।

राजू- हाॅं , ये बात तो बिल्कुल सही है, लोगों को यही चीजें मांगते हुए प्रार्थना करते मंदिरों में देखा जाता है। परन्तु आपके अनुसार एक सच्चे  भक्त को ईश्वर से क्या और कैसे मांगना चाहिए और क्या देना चाहिए?
बाबा- सच्चा भक्त प्रतिदिन उनसे केवल पराभक्ति अर्थात् उनसे प्रेम करने की उच्चतम विधियां मांगता है और अपने मन के सभी रंग अर्थात् अच्छे बुरे सभी कर्म और उनके कर्मफलों से जुड़े सभी संस्कार उन्हें भेंट करता है। परमपुरुष का एक सच्चा भक्त कहता है कि हे ब्रह्मांड के निर्माता और नियंत्रक ! तुम्हारा यह घर तो बहुमूल्य रत्नों से भरा है। सभी कुछ तुम्हारा ही है और तुम्हारी पत्नी "महामाया " क्षण भर में वह सब कुछ लाकर तुम्हें दे देती है जिसकी तुम इच्छा करते हो। तो, मुझ जैसा गरीब व्यक्ति तुम्हें क्या दे सकता है? कुछ नहीं। तुम्हारे पास किसी चीज की कमी है ही नहीं , परन्तु मैं ने सुना है कि जो तुम्हारे बड़े बड़े भक्त हैं उन्होंने अपनी प्रेमाभक्ति में बाॅंध कर  तुम्हारे ‘मन’ को अपने पास ही खींच लिया है। इस प्रकार तुम्हारे पास ‘मन’ की कमी पड़ गई है, पर तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं, मैं तुम्हारा इतना बड़ा भक्त तो नहीं हॅू पर मैं चाहता हूँ  कि तुम मेरा ‘मन’ ले लो। मैं अपने ‘मन’ को तुम्हें भेंट करता हॅूं उसे स्वीकार कर तुम मुझे ‘‘अमन’’ कर दो, कृतार्थ कर दो । तव द्रव्यं जगद् गुरो  तुभ्यमेव समर्पये, निवेदयामी च आत्मानम् त्वं गतिः परमेश्वरा।

Friday 27 October 2017

162 बड़ा आदमी

162 बड़ा आदमी

‘‘ पापा ! मेरी क्लास में पढ़ने वाला राजू कह रहा था कि उसके पास कई कारें , मकान , जमीन और बहुत धन दौलत है, उसके पापा बहुत बड़े आदमी हैं। ये बड़ा आदमी क्या होता है? ‘‘

‘‘ उसके पापा धनी कहे जा सकते हैं पर बड़े आदमी नहीं।‘‘

‘‘ क्यों ? क्या उनकी लम्बाई कम है ?‘‘

‘‘ नहीं, आदमी धन दौलत या लम्बाई के अधिक होने से बड़ा नहीं होता।‘‘

‘‘तो फिर कैसा होता है ?‘‘

‘‘ वह, स्वयं तो बड़ा होता ही है अपने सम्पर्क में आने वालों को भी बड़ा बना देता है।‘‘

161 छठपूजा

161  छठपूजा 
पूर्वकाल में मगध में बहुत घने जंगल थे इसलिये वहाॅं प्रचुर वर्षा भी होती थी तथा वहाॅं कभी सिंचाई की आवश्यकता ही नहीं होती थी। आर्यों के भारत में आने के पहले मगध के निवासियों का यह विश्वास था कि वहाॅं होने वाली वर्षा सूर्य देवता की कृपा से होती है। इसप्रकार वे अपने प्राचीन रीति रिवाजों के अनुसार सूर्य की पूजा करने लगे। यह पूजा साल में दो बार की जाने लगी एक बार शरद ऋ़तु में धान की फसल आने पर और दूसरी बार बसन्त ऋतु में गेहॅूं की फसल आने पर। 

यही पूजा आजकल वहाॅं छठपूजा के  नाम से जानी जाती है। यह पूजा आर्यों के नियमानुकूल नहीं होती थी। यह तो पूर्णतः स्थानीय मगध के निवासियों के द्वारा बनाई गई थी। मगध के लोगों ने आर्यों के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया न ही उनके द्वारा निर्धारित की गई पूजा की विधियों को अपनाया। यही कारण है कि आर्यों ने इस धरती को ‘मगध‘ नाम दिया जिसका अर्थ है वेद विरोधी विचारधारा का पालन और प्रसार करने वालों की भूमि।

वे लोग मगध से डरते थे इसलिये उसे आदर की दृष्टि से देखते थे परन्तु अपनी इस कमी को मन से दूर रखने के लिये उन्होंने  इसे अपवित्र भूमि घोषित कर दिया था। उन्होंने इतना तक प्रचार कर रखा था कि यदि कोई मगध की भूमि में मरता है तो उसे स्वर्ग नहीं मिलता है। उन्होंने  अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को बल पूर्वक वहाॅं थोपने का प्रयास किया। यह इतिहासज्ञों और सामाजिक विज्ञानियों का काम है कि वे खोज करें कि आर्य लोग अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में यहाॅं पर कितने सफल हो सके।

मगध ने आर्य सभ्यता को नहीं अपनाया। प्राचीन काल में मगध में जाति और वर्ग भेद नहीं था। बहुत बाद में आर्यो के प्रभाव से यह यहाॅं आया। इस जाति पृथा के आ जाने के बाद भी क्रोंचद्वीपी और मगध के श्रोत्रिय ब्राह्मणों ने इसे नहीं माना यही कारण है कि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों ने इन्हें मान्यता नहीं दी।

160 संस्कार का सिद्धान्त

160 संस्कार का सिद्धान्त
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कर्म अच्छा हो या बुरा उसके कारण मन पर विरूपण उत्पन्न होता है और जब वह अपनी मूल अवस्था में लौटता है तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अच्छे कामों का अच्छा और बुरे कामों का बुरा परिणाम भोगता है।
मुत्यु के बाद मन इकाई चेतना का आश्रय लेता है जहाॅं पर प्रतिक्रियात्मक यह विरूपण, अपने पोटेंशियल रूप में अर्थात् सुप्तावस्था में रहता है, इन्हें ही संस्कार कहते हैं। इकाई चेतना को इन संस्कारों को प्रकट करने अर्थात् भोग करने के लिए ही दूसरा शरीर ग्रहण करना होता है।
मानलो मिस्टर 'ए' के मरने के बाद उनकी इकाई चेतना में कर्मफल के रूपमें सुप्त संस्कार के अनुसार आठ साल की आयु में हाथ टूूटने के बराबर कष्ट भोगना है और दस वर्ष की आयु में भाग्योदय का सुख भोगना है और ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु का कष्ट भोगना है तो, उन्हें यह सब अपने मन के विरूपण को समाप्त करते करते मूल अवस्था में लाते हुए अनुभव करना होगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी कष्ट के लिये वास्तविक रूप को पहले से नहीं बताया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष क्रिया की वास्तव में क्या प्रतिक्रिया होगी। 

जैसे , यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि किसी ने चोरी की है तो प्रतिक्रिया के कारण उतने ही मूल्य की उसकी भी चोरी होगी। वास्तव में प्रतिक्रिया में होने वाला कष्ट मानसिक कष्ट के अनुसार घटित होता है, जैसे किसी की चोरी करने से उसको जितना मानसिक कष्ट हुआ है उतना ही मानसिक कष्ट चोरी करने वाले को प्रतिक्रिया में भोगना पड़ता है। 
इसलिए कर्मफल को मानसिक कष्ट या सुख के अनुसार भोगना पड़ता है और अनुभव का वास्तविक स्वरूप अपेक्षतया महत्वहीन होता है। इसलिये मिस्टर 'ए' को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानसिक कष्ट या सुख अनुभव कराने के लिए उनकी इकाई चेतना उन परिस्थितियों को खोजकर वहाॅं ही उन्हें नया जन्म देकर नया शरीर दिलाएगी जहाॅं पर पिता के संस्कारों के अनुसार उसके पुत्र की ग्यारह वर्ष आयु होने पर मृत्यु हो जाएगी, आठ साल की आयु में पुत्र का हाथ टूटेगा आदि, और उन्हें इसका मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे अपना कर्मफल नहीं भोग पाऐंगे। 

अतः स्पष्ट है कि इकाई चेतना और कर्मफल बिना सोचेसमझे किसी भी शरीर में पुनर्जन्म नहीं ले लेते। उसे संस्कार भोगने के लिए पुनर्जन्म लेने हेतु उचित शरीर और कर्मफल भोगने के उचित क्षेत्र तलाशना होता है।

Sunday 22 October 2017

159, बाबा की क्लास ( ध्यान किसका ? )

159, बाबा की क्लास ( ध्यान किसका ? )

राजू- जब परमसत्ता एक ही है तो आप उन्हें कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम, कभी तारकब्रह्म और कभी महासम्भूति कहते हैं, क्या इनमें कुछ अन्तर है या केवल शाब्दिक श्रंगार?
बाबा- यह बात तो बिलकुल सत्य है कि परमसत्ता एक ही है इसीलिए उन्हें ‘एकमेव अद्वितीयम’ कहा जाता है। यह तो दार्शनिकों का विश्लेषण है जो उन्हें अनेक नाम दे डालता है।

रवि- लेकिन इससे तो जनसामान्य के मन में बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है, वे अलग अलग नामों को लेकर ही उलझते देखे गए हैं?
बाबा- बात यह है कि दार्शनिक तथ्यों को सभी लोग वैसा ही नहीं समझ पाते जैसा दार्शनिक सिद्धान्त यथार्थ में होता है। इसलिए, विद्वान उसके सरल भाव को अपने अपने ढंग से समझाने का प्रयास करते हैं । इस प्रयास में शब्दजाल इतना उलझ जाता है कि वे न तो पूरी तरह समझा पाते हैं और न ही समझने वाले पूरी तरह समझ पाते हैं। इसलिए याद रखना ‘‘एको सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’’ अर्थात् सत्य केवल एक ही है विद्वान लोग उसकी अनेक प्रकार से व्याख्या करते रहते हैं ।

इन्दु- तो यह मान लिया जाय कि राजू ने जो विभिन्न नाम कहे हैं उनमें कोई अन्तर नहीं है?
बाबा- मौलिक रूप में अन्तर नहीं है परन्तु, दार्शनिक आधार पर उनमें बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है। वह एकमेव, अपनी निर्गुणावस्था में प्रकृति को अपने आधीन कर परमानन्दित रहते हैं तब उन्हें ‘‘परमब्रह्म’’ कहा जाता है। जब प्रकृति उन्हें अपने प्रभाव में लेने लगती है तो उनके मन के कुछ भाग में एक से अनेक होने का विचार आता है इस विचाराधीन अवस्था में वे ‘‘परमपुरुष’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। जब उनके विचार को कार्य रूप देने के लिए उनकी प्रकृति यह सृष्टिचक्र रचती है तब उसके साक्षी  और नियंत्रणकर्ता रूप में उनका दार्शनिक नाम ‘‘पुरुषोत्तम’’ कहलाता है। सृष्टिचक्र के निर्माण होने पर उनके मन की विचार तरंगें आकार पाने लगती हैं जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में निर्माण, पालन और संहार को साथ लेकर चलती रहती हैं इसे ही उनका 'सगुण रूप' कहते हैं । प्रतिसंचर की गति में जब मनुष्य स्तर पर आकर वे प्रकृति के प्रपंच में भ्रमित होने लगते हैं और अग्रगति में मंदन या अवरोध उत्पन्न होने लगता है तब वही उचित मार्गदर्शन देने के लिए मनुष्य रूप में आकर गुरुत्व सम्हालते हैं और ‘‘महासम्भूति ’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। महासम्भूति अपने निर्धारित कार्यक्रम को सम्पन्न करते समय और उसके बाद भी जीवों और पुरुषोत्तम के बीच पुल का काम करते हैं जिससे मुमुक्षुगण अपने मूल स्वरूप को पा सकें । इस अवस्था में वे "तारकब्रह्म" (दार्शनिक नाम)  कहलाते हैं।

चन्दू- तो ‘ ब्रह्मा ’, ‘ विष्णु ’ और ‘ महेश ’ का स्तर क्या है ?
बाबा- ये सभी सृष्टिचक्र की विभिन्न तरंगों को विधिवत चलाए रखने के लिए उन्हीं की क्रमागत अवस्थाओं के दार्शनिक नाम हैं। तुम लोग जानते हो कि निर्माण का बीजमंत्र है ‘अ’ इसलिए ब्रह्म जब प्रकृति के माध्यम से निर्माण कार्य करते हैं तब ‘ब्रह्म’ + ‘अ’ = ‘‘ब्रह्मा’’ कहलाते हैं । अब निर्मित वस्तु को बनाए रखने अर्थात् पालन करने का कार्य आता है जो सृष्ट जगत के प्रत्येक अणु से जुड़ा होता है इसलिए जगत का पालन करने के समय वही ‘विष्णु’ कहलाते हैं जो प्रत्येक अणु में व्याप्त होकर यह कार्य करते हैं। जगत का अर्थ है जो गतिशील है अतः जब वही परमसत्ता प्रत्येक निर्माण को अपने मूल स्थान तक पहुचाने का कार्य करते हैं तब ‘महेश’ कहलाते हैं। इसी निर्माण, पालन और संहार के द्वारा ‘‘सगुण ब्रह्म’’ अपने आप में रूपान्तरण करते रहते हैं और सृष्टिचक्र चलता रहता है।

रवि- इन नामों की झंझट तो दूर हुई, पर आपने अनेक बार कहा है कि हमें ‘परमपुरुष’ का ध्यान करना चाहिए क्योंकि वही एकमात्र ध्येय हैं। अभी आपने बताया कि परमपुरुष तो निर्गुण अर्थात् आकारहीन हैं तो उनका ध्यान कैसे कर सकते हैं, यह तो संभव ही नहीं है?
बाबा- तुम्हारा कहना सही है, निराकार का ध्यान करना संभव नहीं है इसलिए ध्यान तो हम ‘सगुण ब्रह्म’ का ही करते हैं जो कि ‘‘सद् गुरु ’’ के रूप में हमारे ही समान आकार प्रकार के होते हैं और ‘महासम्भूति’ कहलाते हैं। हम उन्हें ही पहचान सकते हैं अन्य किसी को नहीं। मानव सभ्यता के इतिहास में अब तक भगवान सदाशिव और भगवान श्रीकृष्ण ही ‘‘जगद् गुरु , महासम्भूति और तारकब्रह्म’’ का स्तर पा सके हैं क्योंकि वे ‘महाकौल’ हैं अर्थात् वे दूसरों को कौलगुरु बनाने की योग्यता रखते हैं।

राजू- जब सद् गुरु  ही महासम्भूति और तारकब्रह्म होते हैं तो उनका ही ध्यान करना उचित लगता है परन्तु हम कैसे पहचानेंगे कि ये सद् गुरु  हैं या नहीं, क्योंकि गुरुओं की तो भरमार है?
बाबा- जब किसी के मन में उनके पाने की चाह तीब्र हो उठती है तो आध्यात्मिक खिचाव से वे स्वयं पास आते हैं । वे ‘पुरश्चरण की क्रिया’ में प्रवीण होते हैं अर्थात् वे प्रत्येक के भीतर स्थित मूल ऋणात्मिका (फंडामेंटल नेगेटिविटी) को पहचान कर उसे अपनी इच्छा से जागृत कर सकते हैं और मूल धनात्मिका (फंडामेंटल पाजीटिविटी) अर्थात् परमशिव से संयुक्त कराकर आत्मसाक्षात्कार कराने की योग्यता रखते हैं।  वे अपने सभी संस्कार तो क्षय कर ही चुके होते हैं दूसरों के संस्कार क्षय करने के लिए उन्हें उनका बीजमंत्र देने की क्षमता भी रखते हैं। वे निर्पेक्ष होते हैं परन्तु बीजमंत्र देने के बाद खोजखबर भी रखते हैं कि संबंधित व्यक्ति बताई गई विधियों से सही रास्ते पर चल रहा है या नहीं । गलत होने पर फिर से सुधार कराते हैं, डांटते फटकारते भी हैं परन्तु , इससे भी अधिक प्रेम भी करते हैं । इस प्रकार के गुरु ‘कौलगुरु’ कहलाते हैं, वे स्वयं तो महान होते ही हैं और साधक के प्रसुप्त देवत्व को जगाकर उसे भी महान बना देते हैं। वे अपनी महानता का प्रचार प्रसार नहीं करते और न ही किसी से कोई चाह रखते हैं । वे साधारण दिखाई देते हैं और समग्र ब्रह्मांड के मालिक होते हुए भी सामाजिक नियमों का स्वयं पालन करते हैं और अन्यों को भी उनका पालन कराते हैं। वे शुद्ध और निष्कलंक होते हैं, उनका प्रत्येक कार्य और व्यवहार अनुकरणीय होता है। जो एक बार उनके संपर्क में आ जाता है उनसे दूर नहीं जाना चाहता। इसलिए जब वे उससे दूर होते हैं तो वह सदा ही उन्हीं का स्मरण और चिन्तन करता है जो कि ध्यान का ही रूप है।

इन्दु- आपने एक बार कहा कहा था कि गुरु ही ‘परमब्रह्म’ हैं, तो क्या इसी प्रकार के गुरु के बारे में कहा था?
बाबा- हाॅं, कौलगुरु ही सद् गुरु  होते हैं और निश्चय ही वे परमब्रह्म से साक्षात्कार कर चुके होते हैं, उनका अपना कोई संस्कार भोगने के लिए शेष नहीं रहता। वे केवल, उत्कट जिज्ञासुओं पर कृपा करने के लिए ही अपना शरीर धारण किए रहते हैं अपना संकल्प पूरा होते ही वे अपनी भौतिक देह का त्याग कर देते हैं परन्तु जैसा अभी बताया गया है वे तारक ब्रह्म के रूप में सदैव ही रहते हैं और आवश्यक होने पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए उसी रूप में या अन्य प्रकार से आने की कृपा करते रहते हैं। उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं होती।

चन्दु- इसका अर्थ है कि कौलगुरु का आकार अर्थात् सगुण रूप देखे बिना उनका ध्यान किया ही नहीं जा सकता?
बाबा- निश्चित रूप से यही बात सही है, इसलिए उन्हें पाने की तीब्र इच्छा मन में होना चाहिए ताकि उनसे उपयुक्त बीजमंत्र प्राप्त किया जा सके । फिर, यह उनका कर्तव्य हो जाता है कि जब तक अपने भक्त को अपने जैसा न बना लें तब तक उन्हें देखरेख करना ही होगी अतः कभी भी आध्यात्मिक समस्या के आने पर उन्हें हल करने के लिए पास में आना ही पड़ेगा चाहे उसका प्रकार कोई भी हो। इसलिए उनके केवल आकार को देखते हुए उन पर सोचने को ध्यान नहीं कहते वरन् ध्यान वह है जिसमें हम प्रत्येक क्षण उनकी उपस्थिति का अनुभव करते हुए यह सोचते हैं कि वह हमारी प्रत्येक गतिविधि को लगातार देख रहे हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त करने की ही चाह रखना चाहिए अन्य कुछ नहीं, क्योंकि "सद् गुरु  कृपा ही केवलम " ।

नन्दू- जब उनकी कृपा से ही सब कुछ होना है तो हमारे किसी भी प्रयास के करने का क्या महत्व है?
बाबा- हमारा प्रत्येक कार्य उनकी कृपा पाने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ही होना चाहिए।

Tuesday 17 October 2017

158 पात्र नाट्यमंच के

158
पात्र , नाट्यमंच के !

यह दैवयोग ही था कि दुर्योधन अधर्मी, दुष्ट और क्रूरता का पर्याय और इन सभी गुणों से विपरीत कर्ण सात्विक, धार्मिक और दयालुता की पराकाष्ठा होते हुए भी दोनों की घनिष्ट मित्रता आजीवन रही । कर्ण का, सदा ही यह प्रयास होता था कि किसी प्रकार दुर्योधन अपने असात्विक कार्य छोड़कर सन्मार्ग की ओर आ जाए। इसलिए, एक बार दुर्योधन को अत्यन्त प्रसन्न देख उसने कहा,

‘‘ मित्र ! सभी लोग तुम्हें अच्छा नहीं कहते, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम क्यों नहीं सदाचरण और धर्मानुकूल कार्य करते हुए लोगों का मन जीत लेते ? इस प्रकार तुम्हारी यशकीर्ति युगों तक पूजित बनी रहेगी ।"

 ‘‘ मित्र कर्ण ! मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूँ  कि मुझे सभी लोग दुष्ट, अनाचारी, अधार्मिक और न जाने क्या क्या कहते हैं, परन्तु मैं यह समझ ही नहीं पाता कि मेरा क्या दोष है ।’’

 ‘‘ मित्र दुर्योधन ! धर्म का पालन करते हुए निवृत्ति मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दो ।’’

‘‘ मित्र कर्ण ! मैं न तो धर्म जानता हॅूं और न ही अधर्म, न ही प्रवृत्ति जानता हॅूं न निवृत्ति। मैं तो केवल यह जानता हॅूं कि मेरे हृदय में कोई देवता बैठा है , वह मुझसे जो कुछ कहता है मैं वही करने के लिये विवश हो जाता हॅूं ।‘‘

Sunday 15 October 2017

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

रवि- जब हम समाज में ईश्वर की चर्चा करते हैं, तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि क्या किसी ने ईश्वर को देखा है? उन्हें क्या कहें?
बाबा- यह प्रश्न तभी उठता है जब हम यह मान लेते हैं कि ईश्वर से हम अलग हैं। उपनिषदें  कहती हैं कि यह सब दृश्य जगत एक ही परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का सगुण रूप है। इसमें वह सब कुछ जो हमें दिखाई देता है और नहीं भी दिखाई देता, सम्मिलित हैं अर्थात् इसी में हम सब भी आ जाते हैं। इस प्रकार यह सब कुछ उनके मन की रचना ही है और उनके मन के भीतर ही स्थित है। उनके मन के बाहर कुछ भी नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि वह हमारे कर्ता और हम उनके कर्म हैं और वे हमें लगातार देख रहे हैं। हमसे और सबसे वह ओत और प्रोत योग से जुड़े हैं। इस तरह एक कर्म अपने कर्ता को भौतिक स्तर पर कैसे देख सकता है।

राजू- यह शब्दावली कुछ कठिन सी लग रही है, किसी अन्य प्रकार से समझाइए न ?
बाबा- वैज्ञानिक भाषा में यह सभी दृश्य और अदृश्य संसार उस परम सत्ता के परम मन की विचार तरंगे है जिनमें से एक अत्यंत क्षुद्रतरंग, हम लोग हैं।  इसलिए कोई एक तरंग, अपने ‘उद्गम श्रोत’ से जुड़े होने का अनुभव तो कर सकती है परन्तु भौतिक रूप से देख नहीं सकती क्यों कि वह भौतिक जगत का विषय नहीं है । उसे मानसिक रूप से  ही व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक तरंगे भेज कर उनके परम मन के साथ अनुनादित किया जा सकता है। जिसने उनसे अनुनाद कर लिया वह उन्हें अपने भौतिक जगत की किसी भी भाषा में व्यक्त नहीं कर पाता ।

इन्दु- ऐसा क्यों है कि उसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता?
बाबा-  हमारे मन की प्रकृति यह है कि वह भौतिक जगत की वस्तुओं जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा या नाते रिश्तेदारों को ही चाहता है उन्हें ही प्रेम करता है । परमपुरुष ने अपनी विचार तरंगों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण का गुण भर दिया है जिससे सब भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर उसी को चाहते हैं। स्पष्ट है कि जो मानसिक जगत का सृष्टा हो उसे मानसिक स्तर पर ही चाहा जा सकता है उससे मानसिक स्तर पर ही आकर्षित हुआ जा सकता है और मानसिक स्तर पर ही प्रेम किया जा सकता है जो हम नहीं करते, इसलिए हम उसे देख भी नहीं पाते और उसके विषय में कुछ कह भी नहीं पाते। जो उन्हें पाना चाहते हैं उन्हें उनसे मानसिक स्तर पर ही जुड़ना होगा। यह मानसिक रूप से जुड़ने की क्रिया ही साधना कहलाती है और अष्टाॅंग योग की साधना सर्वोत्तम है।

चन्दू- कुछ विद्वान कहते हैं कि वह परमसत्ता केवल श्रद्धा से ही समझ में आ सकती है?
बाबा- विश्वास  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह सत कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को श्रद्धा कहते हैं। ‘‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा’’। इसलिए श्रद्धावान अवश्य ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

राजू- एक बार आपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ सूत्र बताए थे उन्हें हम भूल चुके हैं, वे क्या हैं फिर से बताइए?
बाबा- सबसे पहला सूत्र है कि, ‘‘ यह विश्वास होना कि मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति करूंगा ही ’’ दूसरा सूत्र है, ‘‘श्रद्धायुक्त होना‘‘ तीसरा सूत्र है, ‘‘ गुरुपूजनम’’ अर्थात् गुरु के निर्देशों का पालन करना। चौथा  सूत्र है,  ‘‘ समता भाव होना’’ पाॅंचवां सूत्र है, ‘‘प्रमिताहार’’ अर्थात् संतुलित सात्विक भोजन करना, छठवां सूत्र है, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, बस यही छः  सूत्र है इनके अलावा कुछ नहीं है।

इन्दु- कुछ लोग कहते हैं कि अपने धर्म का पालन करते रहो बस, इसके अलावा कुछ नहीं ?
बाबा- हाॅं, हर स्थति में धर्म का पालन करना चाहिये। परन्तु पहले यह समझ लेना  चाहिए कि आखिर हमारा धर्म है क्या ? ‘मानव धर्म’ के चार अंग हैं विस्तार, रस, ,सेवा और तद्स्थिति अर्थात् परमात्मा में लय। प्रथम तीन के संयुक्त प्रभाव से ही चौथा  स्तर प्राप्त हो सकता है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है अतः जगत के कल्याण के लिये कार्य करते हुए अपने आपको मुक्ति के रास्ते पर चलाने की अभ्यास करने का नाम साधना करना  है जो प्रत्येक मानव का धर्म है क्योंकि इसी से परमात्मा प्राप्त होते हैं।

Sunday 8 October 2017

156, बाबा की क्लास ( जय, विजय, और उत्सव )

156, बाबा की क्लास ( जय, विजय, और उत्सव )

इन्दु- आपने बताया है कि यह जीवन और कुछ नहीं अपने छः प्रकार के शत्रुओं और आठ प्रकार के बंधनों के विरुद्ध अथक संघर्ष है, तो क्या यह संघर्ष जीवन में कभी समाप्त नहीं होता?
बाबा- होता है, एक अस्थायी रूप से दूसरा स्थायी रूप से।

चन्दू- इनका अर्थ क्या है?
बाबा- संस्कृत में एक को ‘जय’ और दूसरे को ‘विजय’ कहते हैं।

इन्दु- तो यह जय और विजय क्या हैं?
बाबा- जब हम अपने आन्तरिक अथवा बाह्य शत्रुओं से संघर्ष करते हैं और उन्हें हरा देते हैं तो ‘जयी’ कहलाते हैं क्योंकि वह शत्रु अवसर पाकर हम पर फिर से आक्रमण कर सकते हैं, अतः ‘जय ’ को अस्थायी कहा गया है। जैसे अभ्यास करते हुए क्रोध पर नियंत्रण पा लिया परन्तु अभ्यास के कमजोर होने या परिस्थितियों के दबाव से वह फिर आकर अहित कर सकता है । परन्तु ‘विजय’ की अवस्था में किसी भी प्रकार के शत्रु का पूर्णतः नष्ट हो जाना अनिवार्य होता है, किसी भी परिस्थिति में उसे पुनः जीवित होने के अवसर नहीं मिल पायें तभी इसे स्थायी जीत या विजय कहते हैं।

रवि- क्या विजय और मुक्ति या मोक्ष में कोई संबंध होता है?
बाबा- जीवन का यह संघर्ष दार्शनिक रूप से अविद्या और विद्या के बीच होने वाला संघर्ष कहलाता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में चलता रहता है। इस संघर्ष में अन्तिम रूप से जीत प्राप्त करना ही ‘विजयी’ होना कहलाता है यही मोक्ष कहा जाता है क्योंकि इस विजय के प्राप्त हो जाने पर फिर यह शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जब तक भौतिक या मानसिक शरीर रहता है शत्रुओं से संघर्ष भी तभी तक चलता है।

राजू- दशहरे को ‘‘विजया दशमी’’ नाम देने का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
बाबा- चलो इस विषय पर विचार करते हैं। ‘राम‘ माने क्या? रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ + प्रत्यय ‘घई ´ = राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, ‘राति महीधरा राम’ अर्थात् अत्यंत चौंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’। रावण क्या है? आप सभी लोग जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य , आग्नेय, ऊर्ध्व  और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकते रहने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः ‘‘जीव मन’’ का, इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त बना रहना ही रावण कहलाता है। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट  करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से संघर्ष कर रावण का वध करना होगा। ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर ‘रामराज्य’ पाता है। इसलिये ‘राम’ माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम् का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम् माने ‘राम’,  क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है और  साधक की विजय हो जाती है।

चन्दू- क्या इसे रावण का मोक्ष दिवस कहा जा सकता है, क्योंकि राम के मोक्ष पाने का तो कोई अर्थ ही नहीं है?
बाबा- यदि पौराणिक कथा के संदर्भ में विचार किया जाय तो पहला उत्तर तो यह होगा कि यह कथाएं वास्तविक नहीं हैं अतः उनके पीछे छिपी हुई शिक्षा क्या है उसे ही समझकर उसी के अनुसार चलना चाहिए। यह शिक्षा क्या है इसे अभी राजू के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समझाया गया  है। यदि इस पौराणिक घटना को थोड़ी देर के लिए यथार्थ मान लिया जाय तो भी रावण का मोक्ष दिवस कहना न्याय संगत नहीं होगा।

इन्दु- क्यों नहीं होगा? अनेक विद्वानों की व्याख्याओं में कहा गया है कि जिसे परमपुरुष के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई हो वह तो मुक्त होगा ही, मोक्ष पायेगा ही ?
बाबा- अच्छा ! एक दृष्टान्त सुनो , फिर स्वयं ही निर्णय करना कि सही क्या है। जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपनी मदद करने के लिए अपने इष्टदेव, भगवान शिव को कातर होकर पुकारा, ‘ हे प्रभो! हे शिव! मैं तो आजीवन तुम्हारा अनन्य भक्त रहा हॅूं, मुझे इस कष्ट से बचाओ। ’’ परन्तु, शिव ने कोई मदद नहीं की। बार बार गिड़गिड़ाने पर भी जब शिव ने उनकी ओर देखा भी नहीं तब, पार्वती ने शिव से कहा , प्रभो! आपका अनन्य भक्त रावण बड़े ही कष्ट में है, आपकी मदद के लिए गिड़गिड़ा रहा है , मैं मानती हॅूं कि वह पातकी है परन्तु उसे आप मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? शिव ने कहा वरानने ! रावण पातकी ही होता तो शायद मैं उसे मदद करने पर विचार भी करता परन्तु वह तो महापातकी है , इसलिए अब उसकी मदद मैं नहीं करूंगा। पार्वती ने कहा, महापातकी क्यों हुआ? शिव बोले, उसने एक महिला का अपहरण किया यह पातक है, परन्तु उसने यह काम कपट पूर्वक साधु के वेश में किया यह महापातक है । उसके इस कार्य से अब समाज में सच्चे साधु को भी लोग अविश्वास की दृष्टि से देखेंगे, उन्हें कपटी और धोखेबाज कहेंगे, समाज में आचार और अनाचार का भेद करना कठिन हो जाएगा। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, इसलिए वह महापातकी है; उसे अपने कृत्यों का फल भोगना ही पड़ेगा।


राजू- वाह ! बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त। परन्तु फिर रावण का क्या हुआ?
बाबा- वह सभी के साथ अभी भी जीवित है, और अवसर पाते ही अपना कौशल दिखा देता है, सब देखते रह जाते हैं। तुम सभी लोग देख रहे हो कि कैसे कैसे साधुओं के वेश में वह अपनी उग्रता छिपाए अभी भी हम सबको ठगता रहता है और हम कुछ नहीं कर पाते। हमने उसके विरुद्ध अपेक्षित अपने संघर्ष को कम कर दिया है । विवेक, तर्क और बुद्धि का उपयोग करना बन्द कर दिया है इसलिए अनगिनत रावण अभी भी समाज में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं । वे स्वयं तो मोक्ष पाना ही नहीं चाहते, दूसरों को भी अपने अनुसार ही ढालते रहने के नए नए कौशल खोजते रहते हैं। इनकी इसी प्रकार की शिक्षा के प्रभाव में आकर लोग विजया दशमी को केवल उसके पुतले जलाकर उत्सव मनाते हैं, अपने को महावीर समझते हैं और आत्म गौरव से फूले नहीं समाते।

रवि- आपके अनुसार उत्सव मनाने का सही अर्थ क्या है?
बाबा- अपनी यंत्रवत दिनचर्या में रहते रहते ऊब होना स्वाभाविक है अतः व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में उत्सव का बड़ा महत्व है । उत्सवों में जीवन का उन्नयन निहित होना चाहिए न कि अपने धन और वैभव का आडम्बरी प्रदर्शन। संस्कृत की क्रिया ‘सु’ का अर्थ है पुनः जीवन पाना। ‘सु  + प्रत्यय अल = सव’। वह पदार्थ जो जीवन में ओजस्विता भर देता है वह ‘आसव’ कहलाता है। जन्म देने को ‘प्रसव’ कहते हैं। इसी प्रकार उत् + सु + अल = उत्सव। उत् का अर्थ है ‘ऊपर की ओर ’ और ‘सव का अर्थ है जीवन ’ इसलिए उत्सव का अर्थ हुआ वह अवसर जो मानव को नया जीवन देने की नयी प्रेरणा देता है।

Monday 2 October 2017

155, बाबा की क्लास (तत्व बोध )

155, बाबा की क्लास (तत्व बोध )

राजू- तथाकथित धर्मो (वास्तव में मतों) में ‘तत्व बोध’ तो एक ही है या वह भी भिन्न भिन्न है ?
बाबा- पहले तत्व बोध को ही समझा जाय फिर अलग अलग मतों का विश्लेषण कर देखेंगे कि उनमें समानता है या भिन्नता। भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (supreme entity)  अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature)  के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक( mutative force)  और तामसिक (static force)  बलों की मदद से दृश्य  प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य  सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे स्वयं यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य  रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी का सिद्धान्त ‘‘बलों का त्रिभुज नियम’’ को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  सेंटिऐंट बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।

रवि- तो क्या इसका अर्थ यह है कि यदि हम अपने मूल स्वरूप में लौटना चाहें तो पहले अपनी तामसिकता को राजसिकता में और फिर राजसिकता को सात्विकता में क्रमशः मिलाना चाहिए ?
बाबा- हाॅं , यही सिद्धान्त है। प्रकृति के तमोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना पाश्वाचार, रजोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना वीराचार और सात्विक गुण के साथ संघर्ष कर मूल तत्व में वापसी को दिव्याचार कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मानव जीवन का उद्देश्य है अविद्या के विरुद्ध संग्राम करना। यह संग्राम वाह्य नहीं आन्तरिक होता है। आन्तरिक रुप से संग्राम करने का अर्थ है अपने भीतर की तु़च्छ प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ना। इन आन्तरिक प्रवृत्तियों पर विजय पाने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म उनसे भिन्न नहीं है। प्रारम्भ में सभी व्यक्ति पशु जैसे ही होते हैं वे ज्ञान का प्रकाश पाने में असमर्थ होते हैं। वे नहीं जान पाते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसके बाद जब सत्संगति और आचार्यों के संपर्क में आकर यह ज्ञान हो जाता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब उनकी बुद्धि का विकास होने लगता है और फिर वे पाश्विक आचार करना छोड़ देते हैं। इस प्रकार पाश्विक प्रवृत्तियों पर विजय पाने का प्रयास करने वाला निश्चय ही वीर कहलाएगा। इस स्तर पर विद्यातन्त्र के संपर्क में आने के बाद उसका भय बिलकुल समाप्त हो जाता है अतः जो भय मुक्त हो चुका है उसे दिव्याचारी कहा जाता है। दिव्याचारी अपने अष्टपाश और षडरिपुओं के चंगुल से छूट जाता है और परमपुरुष से एकत्व स्थापित कर लेता है। यह परम लक्ष्य की ओर क्रमशः बढ़ते जाने वाला रास्ता ही विद्यातन्त्र का रास्ता कहलाता है।

इन्दु- इस पवित्र सिद्धान्त में घालमेल किसने और कबसे किया?
बाबा- कृष्ण के काल तक तो यह अक्षुण्ण रहा परन्तु शिव और कृष्ण के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन धर्म ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव दर्शन, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव  को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो शिव  ने सिखाए ही नहीं जैसे चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव  के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव  से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे ‘नाथ’ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, ‘‘नाथ कल्ट’’ के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में पांच उपविभागों सहित बहुत परिवर्तन हुए।

चन्दू- और, पौराणिक धर्म या मत कब, कैसे अस्तित्व में आया?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में, आज से 1300 वर्ष पूर्व शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने तत्कालीन प्रचलित सभी मतों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें     शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव  से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। पौराणिक धर्म को जिन लोगों ने स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों, जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम  उत्तरप्रदेश  और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर )  और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम  बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश  के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया। पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु  बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

रवि- पौराणिक कल्ट में क्या मूलतत्व बोध को, परिवर्तित किया गया?
बाबा- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित किया गया और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया। शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक, श +र = श्र  और स्त्रीलिंग  में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकी या शिवानी
शक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ  कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिका शक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं। वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव और नया आकार दिया गया, इन्हें ही परमपुरुष के रूप में उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्षनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं।

इन्दु- ओह ! इन सबकी जानकारी से तो स्पष्ट होता है कि सभी का मूलतत्व तो एक ही है, फिर ये लड़ाई झगड़े क्यों ?
बाबा- हाॅं, पिछली क्लास में हमने बताया था कि क्यों अपने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महापुरुषों के अनुयायियों ने समय समय पर  अपनी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भेद पैदा किये। तुम लोग विचार करके देखोगे तो सभी उपासना पद्धतियों में प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कर परमपुरुष को पाने का ही लक्ष्य रखा गया है परन्तु पद और प्रतिष्ठा के लोभ में अनुयायियों के द्वारा अपनी अपनी डागमेटिक विधियों को सिखाया गया और भेद पैदा कर जन सामान्य को लक्ष्य से भ्रमित कर दिया गया है । इनको, उनके क्रियाकलापों के अनुसार तीन प्रकार से पहचान सकते हो, वे जो लक्ष्य हो या न हो सामने आने वाली हर बाधा को अपनी भौतिक शक्ति से बलपूर्वक नष्ट करना सिखाते हैं इन्हें ‘वामाचारी’ कहा गया है, वे जो अपनी भौतिक उपलब्धियों के मार्ग की बाधाओं को स्तुति, प्रार्थना और अर्चना से दूर करना सिखाते हैं ‘दक्षिणाचारी’ कहलाते हैं, और वे जो अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ को पाने के लिए अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करना सिखाते हैं और तब तक बढ़ते जाते हैं जब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचते उन्हें ‘मध्यमाचारी’ कहा जाता है।