156, बाबा की क्लास ( जय, विजय, और उत्सव )
इन्दु- आपने बताया है कि यह जीवन और कुछ नहीं अपने छः प्रकार के शत्रुओं और आठ प्रकार के बंधनों के विरुद्ध अथक संघर्ष है, तो क्या यह संघर्ष जीवन में कभी समाप्त नहीं होता?
बाबा- होता है, एक अस्थायी रूप से दूसरा स्थायी रूप से।
चन्दू- इनका अर्थ क्या है?
बाबा- संस्कृत में एक को ‘जय’ और दूसरे को ‘विजय’ कहते हैं।
इन्दु- तो यह जय और विजय क्या हैं?
बाबा- जब हम अपने आन्तरिक अथवा बाह्य शत्रुओं से संघर्ष करते हैं और उन्हें हरा देते हैं तो ‘जयी’ कहलाते हैं क्योंकि वह शत्रु अवसर पाकर हम पर फिर से आक्रमण कर सकते हैं, अतः ‘जय ’ को अस्थायी कहा गया है। जैसे अभ्यास करते हुए क्रोध पर नियंत्रण पा लिया परन्तु अभ्यास के कमजोर होने या परिस्थितियों के दबाव से वह फिर आकर अहित कर सकता है । परन्तु ‘विजय’ की अवस्था में किसी भी प्रकार के शत्रु का पूर्णतः नष्ट हो जाना अनिवार्य होता है, किसी भी परिस्थिति में उसे पुनः जीवित होने के अवसर नहीं मिल पायें तभी इसे स्थायी जीत या विजय कहते हैं।
रवि- क्या विजय और मुक्ति या मोक्ष में कोई संबंध होता है?
बाबा- जीवन का यह संघर्ष दार्शनिक रूप से अविद्या और विद्या के बीच होने वाला संघर्ष कहलाता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में चलता रहता है। इस संघर्ष में अन्तिम रूप से जीत प्राप्त करना ही ‘विजयी’ होना कहलाता है यही मोक्ष कहा जाता है क्योंकि इस विजय के प्राप्त हो जाने पर फिर यह शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जब तक भौतिक या मानसिक शरीर रहता है शत्रुओं से संघर्ष भी तभी तक चलता है।
राजू- दशहरे को ‘‘विजया दशमी’’ नाम देने का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
बाबा- चलो इस विषय पर विचार करते हैं। ‘राम‘ माने क्या? रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ + प्रत्यय ‘घई ´ = राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, ‘राति महीधरा राम’ अर्थात् अत्यंत चौंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’। रावण क्या है? आप सभी लोग जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य , आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकते रहने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः ‘‘जीव मन’’ का, इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त बना रहना ही रावण कहलाता है। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से संघर्ष कर रावण का वध करना होगा। ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर ‘रामराज्य’ पाता है। इसलिये ‘राम’ माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम् का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम् माने ‘राम’, क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है और साधक की विजय हो जाती है।
चन्दू- क्या इसे रावण का मोक्ष दिवस कहा जा सकता है, क्योंकि राम के मोक्ष पाने का तो कोई अर्थ ही नहीं है?
बाबा- यदि पौराणिक कथा के संदर्भ में विचार किया जाय तो पहला उत्तर तो यह होगा कि यह कथाएं वास्तविक नहीं हैं अतः उनके पीछे छिपी हुई शिक्षा क्या है उसे ही समझकर उसी के अनुसार चलना चाहिए। यह शिक्षा क्या है इसे अभी राजू के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समझाया गया है। यदि इस पौराणिक घटना को थोड़ी देर के लिए यथार्थ मान लिया जाय तो भी रावण का मोक्ष दिवस कहना न्याय संगत नहीं होगा।
इन्दु- क्यों नहीं होगा? अनेक विद्वानों की व्याख्याओं में कहा गया है कि जिसे परमपुरुष के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई हो वह तो मुक्त होगा ही, मोक्ष पायेगा ही ?
बाबा- अच्छा ! एक दृष्टान्त सुनो , फिर स्वयं ही निर्णय करना कि सही क्या है। जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपनी मदद करने के लिए अपने इष्टदेव, भगवान शिव को कातर होकर पुकारा, ‘ हे प्रभो! हे शिव! मैं तो आजीवन तुम्हारा अनन्य भक्त रहा हॅूं, मुझे इस कष्ट से बचाओ। ’’ परन्तु, शिव ने कोई मदद नहीं की। बार बार गिड़गिड़ाने पर भी जब शिव ने उनकी ओर देखा भी नहीं तब, पार्वती ने शिव से कहा , प्रभो! आपका अनन्य भक्त रावण बड़े ही कष्ट में है, आपकी मदद के लिए गिड़गिड़ा रहा है , मैं मानती हॅूं कि वह पातकी है परन्तु उसे आप मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? शिव ने कहा वरानने ! रावण पातकी ही होता तो शायद मैं उसे मदद करने पर विचार भी करता परन्तु वह तो महापातकी है , इसलिए अब उसकी मदद मैं नहीं करूंगा। पार्वती ने कहा, महापातकी क्यों हुआ? शिव बोले, उसने एक महिला का अपहरण किया यह पातक है, परन्तु उसने यह काम कपट पूर्वक साधु के वेश में किया यह महापातक है । उसके इस कार्य से अब समाज में सच्चे साधु को भी लोग अविश्वास की दृष्टि से देखेंगे, उन्हें कपटी और धोखेबाज कहेंगे, समाज में आचार और अनाचार का भेद करना कठिन हो जाएगा। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, इसलिए वह महापातकी है; उसे अपने कृत्यों का फल भोगना ही पड़ेगा।
राजू- वाह ! बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त। परन्तु फिर रावण का क्या हुआ?
बाबा- वह सभी के साथ अभी भी जीवित है, और अवसर पाते ही अपना कौशल दिखा देता है, सब देखते रह जाते हैं। तुम सभी लोग देख रहे हो कि कैसे कैसे साधुओं के वेश में वह अपनी उग्रता छिपाए अभी भी हम सबको ठगता रहता है और हम कुछ नहीं कर पाते। हमने उसके विरुद्ध अपेक्षित अपने संघर्ष को कम कर दिया है । विवेक, तर्क और बुद्धि का उपयोग करना बन्द कर दिया है इसलिए अनगिनत रावण अभी भी समाज में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं । वे स्वयं तो मोक्ष पाना ही नहीं चाहते, दूसरों को भी अपने अनुसार ही ढालते रहने के नए नए कौशल खोजते रहते हैं। इनकी इसी प्रकार की शिक्षा के प्रभाव में आकर लोग विजया दशमी को केवल उसके पुतले जलाकर उत्सव मनाते हैं, अपने को महावीर समझते हैं और आत्म गौरव से फूले नहीं समाते।
रवि- आपके अनुसार उत्सव मनाने का सही अर्थ क्या है?
बाबा- अपनी यंत्रवत दिनचर्या में रहते रहते ऊब होना स्वाभाविक है अतः व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में उत्सव का बड़ा महत्व है । उत्सवों में जीवन का उन्नयन निहित होना चाहिए न कि अपने धन और वैभव का आडम्बरी प्रदर्शन। संस्कृत की क्रिया ‘सु’ का अर्थ है पुनः जीवन पाना। ‘सु + प्रत्यय अल = सव’। वह पदार्थ जो जीवन में ओजस्विता भर देता है वह ‘आसव’ कहलाता है। जन्म देने को ‘प्रसव’ कहते हैं। इसी प्रकार उत् + सु + अल = उत्सव। उत् का अर्थ है ‘ऊपर की ओर ’ और ‘सव का अर्थ है जीवन ’ इसलिए उत्सव का अर्थ हुआ वह अवसर जो मानव को नया जीवन देने की नयी प्रेरणा देता है।
इन्दु- आपने बताया है कि यह जीवन और कुछ नहीं अपने छः प्रकार के शत्रुओं और आठ प्रकार के बंधनों के विरुद्ध अथक संघर्ष है, तो क्या यह संघर्ष जीवन में कभी समाप्त नहीं होता?
बाबा- होता है, एक अस्थायी रूप से दूसरा स्थायी रूप से।
चन्दू- इनका अर्थ क्या है?
बाबा- संस्कृत में एक को ‘जय’ और दूसरे को ‘विजय’ कहते हैं।
इन्दु- तो यह जय और विजय क्या हैं?
बाबा- जब हम अपने आन्तरिक अथवा बाह्य शत्रुओं से संघर्ष करते हैं और उन्हें हरा देते हैं तो ‘जयी’ कहलाते हैं क्योंकि वह शत्रु अवसर पाकर हम पर फिर से आक्रमण कर सकते हैं, अतः ‘जय ’ को अस्थायी कहा गया है। जैसे अभ्यास करते हुए क्रोध पर नियंत्रण पा लिया परन्तु अभ्यास के कमजोर होने या परिस्थितियों के दबाव से वह फिर आकर अहित कर सकता है । परन्तु ‘विजय’ की अवस्था में किसी भी प्रकार के शत्रु का पूर्णतः नष्ट हो जाना अनिवार्य होता है, किसी भी परिस्थिति में उसे पुनः जीवित होने के अवसर नहीं मिल पायें तभी इसे स्थायी जीत या विजय कहते हैं।
रवि- क्या विजय और मुक्ति या मोक्ष में कोई संबंध होता है?
बाबा- जीवन का यह संघर्ष दार्शनिक रूप से अविद्या और विद्या के बीच होने वाला संघर्ष कहलाता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में चलता रहता है। इस संघर्ष में अन्तिम रूप से जीत प्राप्त करना ही ‘विजयी’ होना कहलाता है यही मोक्ष कहा जाता है क्योंकि इस विजय के प्राप्त हो जाने पर फिर यह शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जब तक भौतिक या मानसिक शरीर रहता है शत्रुओं से संघर्ष भी तभी तक चलता है।
राजू- दशहरे को ‘‘विजया दशमी’’ नाम देने का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
बाबा- चलो इस विषय पर विचार करते हैं। ‘राम‘ माने क्या? रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ + प्रत्यय ‘घई ´ = राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, ‘राति महीधरा राम’ अर्थात् अत्यंत चौंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’। रावण क्या है? आप सभी लोग जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य , आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकते रहने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः ‘‘जीव मन’’ का, इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त बना रहना ही रावण कहलाता है। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से संघर्ष कर रावण का वध करना होगा। ‘रावणस्य मरणम् इति रामः’, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर ‘रामराज्य’ पाता है। इसलिये ‘राम’ माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम् का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम् माने ‘राम’, क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है और साधक की विजय हो जाती है।
चन्दू- क्या इसे रावण का मोक्ष दिवस कहा जा सकता है, क्योंकि राम के मोक्ष पाने का तो कोई अर्थ ही नहीं है?
बाबा- यदि पौराणिक कथा के संदर्भ में विचार किया जाय तो पहला उत्तर तो यह होगा कि यह कथाएं वास्तविक नहीं हैं अतः उनके पीछे छिपी हुई शिक्षा क्या है उसे ही समझकर उसी के अनुसार चलना चाहिए। यह शिक्षा क्या है इसे अभी राजू के द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समझाया गया है। यदि इस पौराणिक घटना को थोड़ी देर के लिए यथार्थ मान लिया जाय तो भी रावण का मोक्ष दिवस कहना न्याय संगत नहीं होगा।
इन्दु- क्यों नहीं होगा? अनेक विद्वानों की व्याख्याओं में कहा गया है कि जिसे परमपुरुष के हाथों मृत्यु प्राप्त हुई हो वह तो मुक्त होगा ही, मोक्ष पायेगा ही ?
बाबा- अच्छा ! एक दृष्टान्त सुनो , फिर स्वयं ही निर्णय करना कि सही क्या है। जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपनी मदद करने के लिए अपने इष्टदेव, भगवान शिव को कातर होकर पुकारा, ‘ हे प्रभो! हे शिव! मैं तो आजीवन तुम्हारा अनन्य भक्त रहा हॅूं, मुझे इस कष्ट से बचाओ। ’’ परन्तु, शिव ने कोई मदद नहीं की। बार बार गिड़गिड़ाने पर भी जब शिव ने उनकी ओर देखा भी नहीं तब, पार्वती ने शिव से कहा , प्रभो! आपका अनन्य भक्त रावण बड़े ही कष्ट में है, आपकी मदद के लिए गिड़गिड़ा रहा है , मैं मानती हॅूं कि वह पातकी है परन्तु उसे आप मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? शिव ने कहा वरानने ! रावण पातकी ही होता तो शायद मैं उसे मदद करने पर विचार भी करता परन्तु वह तो महापातकी है , इसलिए अब उसकी मदद मैं नहीं करूंगा। पार्वती ने कहा, महापातकी क्यों हुआ? शिव बोले, उसने एक महिला का अपहरण किया यह पातक है, परन्तु उसने यह काम कपट पूर्वक साधु के वेश में किया यह महापातक है । उसके इस कार्य से अब समाज में सच्चे साधु को भी लोग अविश्वास की दृष्टि से देखेंगे, उन्हें कपटी और धोखेबाज कहेंगे, समाज में आचार और अनाचार का भेद करना कठिन हो जाएगा। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, इसलिए वह महापातकी है; उसे अपने कृत्यों का फल भोगना ही पड़ेगा।
राजू- वाह ! बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त। परन्तु फिर रावण का क्या हुआ?
बाबा- वह सभी के साथ अभी भी जीवित है, और अवसर पाते ही अपना कौशल दिखा देता है, सब देखते रह जाते हैं। तुम सभी लोग देख रहे हो कि कैसे कैसे साधुओं के वेश में वह अपनी उग्रता छिपाए अभी भी हम सबको ठगता रहता है और हम कुछ नहीं कर पाते। हमने उसके विरुद्ध अपेक्षित अपने संघर्ष को कम कर दिया है । विवेक, तर्क और बुद्धि का उपयोग करना बन्द कर दिया है इसलिए अनगिनत रावण अभी भी समाज में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं । वे स्वयं तो मोक्ष पाना ही नहीं चाहते, दूसरों को भी अपने अनुसार ही ढालते रहने के नए नए कौशल खोजते रहते हैं। इनकी इसी प्रकार की शिक्षा के प्रभाव में आकर लोग विजया दशमी को केवल उसके पुतले जलाकर उत्सव मनाते हैं, अपने को महावीर समझते हैं और आत्म गौरव से फूले नहीं समाते।
रवि- आपके अनुसार उत्सव मनाने का सही अर्थ क्या है?
बाबा- अपनी यंत्रवत दिनचर्या में रहते रहते ऊब होना स्वाभाविक है अतः व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में उत्सव का बड़ा महत्व है । उत्सवों में जीवन का उन्नयन निहित होना चाहिए न कि अपने धन और वैभव का आडम्बरी प्रदर्शन। संस्कृत की क्रिया ‘सु’ का अर्थ है पुनः जीवन पाना। ‘सु + प्रत्यय अल = सव’। वह पदार्थ जो जीवन में ओजस्विता भर देता है वह ‘आसव’ कहलाता है। जन्म देने को ‘प्रसव’ कहते हैं। इसी प्रकार उत् + सु + अल = उत्सव। उत् का अर्थ है ‘ऊपर की ओर ’ और ‘सव का अर्थ है जीवन ’ इसलिए उत्सव का अर्थ हुआ वह अवसर जो मानव को नया जीवन देने की नयी प्रेरणा देता है।
No comments:
Post a Comment