163, बाबा की क्लास ( परमपुरुष से क्या मांगें और क्या भेंट करें ? )
इन्दु- कुछ लोगों का कहना है कि हमें परमपुरुष से आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ऊर्जा मांगना चाहिए?
बाबा- परमपुरुष ने सभी व्यक्तियों को मानव शरीर के साथ विवेक और बुद्धि पर्याप्त मात्रा में पहले से ही दे रखे हैं , इनका अधिकतम उपयोग न कर उनसे कुछ भी मांगना निरर्थक है।
राजू- तो क्या उनसे भौतिक जगत की वस्तुओं, धन संपत्ति को मांगना चाहिए?
बाबा- नहीं, यदि भौतिक जगत की वस्तुओं और उपलब्धियों को मांगते हो तो यह भूल है क्योंकि उसने आपको बुद्धि और विवेक पर्याप्त मात्रा में दिये है इसका उपयोग कर आवश्यकतानुसार वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
रवि- लेकिन ऊर्जा को मांगने में क्या हर्ज है , वह तो उनकी ओर जाने में सहायता ही करेगी ?
बाबा- जहाॅं तक ऊर्जा के सहायक होने की बात है तो वह तो विद्या और अविद्या के रूप में सदैव ही ब्रह्माॅंड में सक्रिय है, उचित मात्रा में दोनों का उपयोग कर आगे बढ़ने के लिये वह सदैव सहायक ही होती हैं जैसे पृथ्वी पर आगे चलते समय घर्षण बल। याद रखो कि मानव मात्र का लक्ष्य है स्पेस टाइम से मुक्त होकर उसके पास पहुंचना , जिसने स्पेस और टाइम को बनाया है, जिसके नियंत्रण में स्पेस, टाइम, प्रकृति और यह दृश्य और अदृश्य प्रपंच सबकुछ है। वहाॅं आकर्षण का सिद्धान्त ही लागू होता है जिससे बंधकर सभी उसी के केन्द्र के चारों ओर घूम रहे हैं और वह सेन्ट्रीपीटल और सेन्ट्रीफ्यूगल रिएक्शन्स (जिन्हें विद्या और अविद्या कहा गया है) के द्वारा संतुलन बनाये हुए है। इसलिये अपने भीतर भरी हुई ऊर्जा को अनुभव करना चाहिए और शुद्ध बुद्धि और विवेक का उपयोग कर त्वरित गति से लक्ष्य के केन्द्र की ओर दौड़ पड़ने में ही सार है। समय प्रत्येक क्षण घटता जा रहा है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उसे भी निर्धारित नियमों का पालन करना ही होता है। संसार के जितने भी विज्ञान आधारित दर्शन हैं वे अपने भीतर की ऊर्जा को ही अनुभव करने और लगातार आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देते हैं।
चन्दु - कुछ विद्वान कहते हैं कि चूंकि परमपुरुष ने हमें शरीर, बुद्धि, विवेक और ऊर्जा से भरपूर बनाया है इसलिए हमें उनका कर्ज उतारने के लिए उन्हें कुछ भेंट करना चाहिए?
बाबा- यदि कोई कहे कि उन्हें धन दौलत भेंट करना चाहिए तो यह वैसा ही है जैसे उन्हीं के स्वामित्व की सम्पदा के कुछ भाग को अपना कह कर कर्ज उतारने की बात करना। पर यह बात मान्य है कि हमें कर्ज से मुक्त अवश्य होना है। वह कर्ज कौनसे हैं? वे हैं पितृ ऋण, देव ऋण, और ऋषि ऋण। इन सभी से, उन परमपिता की सेवा करने पर ही मुक्त हो सकते हैं।
राजू- पर प्रश्न यह है कि वे किसी भौतिक शरीर में तो हैं नहीं फिर किसकी सेवा की जाये और कैसे?
बाबा- इसका उत्तर यह है कि यह ब्रह्माॅंड ही उनका सगुण रूप है जिसमें इलेक्ट्रान जैसे छुद्र कण से लेकर गेलेक्सियों तक सभी जड़ पदार्थ ( जो कि सभी ऊर्जा के घनीभूत रूप ही हैं) और अमीवा से लेकर मनुष्यों तक सभी प्राणी सम्मिलित है, इन्हीं की चार प्रकार से सेवा कर इन सभी ऋणों से मुक्ति पाई जा सकती है । सेवा के वे चार प्रकार हैं विप्रोचित सेवा, क्षत्रियोचित सेवा, वैश्योचित सेवा और शूद्रोचित सेवा । ध्यान रहे , इसका जाति या वर्ण से कोई संबंध नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में ये चार प्रकार के गुण होते ही हैं अतः आवश्यकतानुसार इनका निस्वार्थ भाव से उपयोग करते हुए सगुण ब्रह्म के सभी अवयवों की सेवा करने से ही इन ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है अन्यथा नहीं।
इन्दु- पर आपने क्या यह नहीं सुना कि सम्पन्न लोग मंदिरों में मूर्तियों के आभूषण , जैसे मुकुट, जूते चप्पल आदि सोने के बनवाकर भेंट करते हैं, मंदिरों के गुंबद पर सोने के कलश चढ़ाते हैं , कुछ लोग रुपया पैसा भेंट करते हैं, तो यह क्या व्यर्थ है?
बाबा- अभी बताया न, कि जो समस्त ब्रह्मांड का निर्माता है, वह उसका स्वामी भी है तो उसके स्वामित्व की कोई भी कीमती वस्तु अपनी मानकर उसे भेंट करते हो तो उसके किस काम की है ? वह, भेंट करने वाले के हृदय में उनके प्रति कितना प्रेम है इसका मूल्यांकन करते हैं न कि वैभव का। उनके लिए तुम्हारे मूल्यवान हीरे और सोने चांदी की वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में इस धन सम्पदा को उन्हें देकर मदद करना चाहिए जिन्हें इनकी सचमुच आवश्यकता है। भोजन उन्हें दो जो भूखे हों, धन उन्हें दो जो धन के अभाव में अपनी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे हैं, वस्त्र उन्हें दो जो वस्त्रों के अभाव में शारीरिक कष्ट पा रहे हैं, ज्ञान सभी को बाॅंटो ताकि सभी सन्मार्ग पर चल सके, रक्षा उनकी करो जो निर्बल हैं, आदि। इसे ही नारायण सेवा कहते हैं, यही चारों प्रकार की सेवा करने का अन्तिम स्वरूप है।
रवि- वह परमपुरुष, किसे प्राथमिकता से चाहते हैं , बहुत पढ़े लिखे अनेक विषयों के ज्ञाता को या निरक्षरों को , बहुत बड़े पदों पर कार्यरत अधिकारियों को या बहुत सुन्दर रूप और आकर्षक शरीरवालों को?
बाबा- उनके लिए उनकी रचना के छोटे बड़े सभी अस्तित्व एक समान हैं, वे सभी को अपनी ओर आने का समान अवसर देते हैं । उनके लिये महामहोपाध्याय और निरक्षर भट्टाचार्य दोनों ही एक समान प्रिय होते हैं । वे उनसे अधिक प्रसन्न होते हैं जिसका भक्तिभाव अर्थात् उनके प्रति निस्प्रह प्रेम अधिक होता है।
इन्दु- तो क्या पढ़लिख कर अधिक ज्ञान प्राप्त करना बेकार होता है?
बाबा- ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है परन्तु ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण न करना, ज्ञान का दुरुपयोग करना, ज्ञान के अहंकार में डूबकर ईश्वरीय रास्ते से भटक जाना, बुरा है। ज्ञान पाकर यदि ईश्वर को पाने की इच्छा जागृत नहीं हुई तो वह ज्ञान व्यर्थ ही है।
चन्दू- वे लोग जो रोज पूजा पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं , भजन करते हैं , चंदन लगाते हैं, सामान्य लोगों से भिन्न वस्त्र पहिनते हैं, क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न नहीं होते?
बाबा- ईश्वर उनसे प्रसन्न होते हैं जो उन्हें चाहते हैं, उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं। दुख ये है कि अधिकांश तथाकथित भक्त ईश्वर को चाहने या उन्हें पाने के स्थान पर उनसे धन , वैभव, पद , प्रतिष्ठा मांगते हैं। या, चाहते हैं कि उनके शत्रुओं का नाश हो, सरकारी नौकरी मिल जाय, बेटी का विवाह अच्छे घर में हो जाय और सभी संकट दूर हो जाएं । उनकी पूजा पाठ और सभी कर्मकांड की क्रियायें इन्हीं को पाने की दिशा में होती हैं, वे ईश्वर को पाने की कोई चेष्टा नहीं करते।
राजू- हाॅं , ये बात तो बिल्कुल सही है, लोगों को यही चीजें मांगते हुए प्रार्थना करते मंदिरों में देखा जाता है। परन्तु आपके अनुसार एक सच्चे भक्त को ईश्वर से क्या और कैसे मांगना चाहिए और क्या देना चाहिए?
बाबा- सच्चा भक्त प्रतिदिन उनसे केवल पराभक्ति अर्थात् उनसे प्रेम करने की उच्चतम विधियां मांगता है और अपने मन के सभी रंग अर्थात् अच्छे बुरे सभी कर्म और उनके कर्मफलों से जुड़े सभी संस्कार उन्हें भेंट करता है। परमपुरुष का एक सच्चा भक्त कहता है कि हे ब्रह्मांड के निर्माता और नियंत्रक ! तुम्हारा यह घर तो बहुमूल्य रत्नों से भरा है। सभी कुछ तुम्हारा ही है और तुम्हारी पत्नी "महामाया " क्षण भर में वह सब कुछ लाकर तुम्हें दे देती है जिसकी तुम इच्छा करते हो। तो, मुझ जैसा गरीब व्यक्ति तुम्हें क्या दे सकता है? कुछ नहीं। तुम्हारे पास किसी चीज की कमी है ही नहीं , परन्तु मैं ने सुना है कि जो तुम्हारे बड़े बड़े भक्त हैं उन्होंने अपनी प्रेमाभक्ति में बाॅंध कर तुम्हारे ‘मन’ को अपने पास ही खींच लिया है। इस प्रकार तुम्हारे पास ‘मन’ की कमी पड़ गई है, पर तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं, मैं तुम्हारा इतना बड़ा भक्त तो नहीं हॅू पर मैं चाहता हूँ कि तुम मेरा ‘मन’ ले लो। मैं अपने ‘मन’ को तुम्हें भेंट करता हॅूं उसे स्वीकार कर तुम मुझे ‘‘अमन’’ कर दो, कृतार्थ कर दो । तव द्रव्यं जगद् गुरो तुभ्यमेव समर्पये, निवेदयामी च आत्मानम् त्वं गतिः परमेश्वरा।
इन्दु- कुछ लोगों का कहना है कि हमें परमपुरुष से आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ऊर्जा मांगना चाहिए?
बाबा- परमपुरुष ने सभी व्यक्तियों को मानव शरीर के साथ विवेक और बुद्धि पर्याप्त मात्रा में पहले से ही दे रखे हैं , इनका अधिकतम उपयोग न कर उनसे कुछ भी मांगना निरर्थक है।
राजू- तो क्या उनसे भौतिक जगत की वस्तुओं, धन संपत्ति को मांगना चाहिए?
बाबा- नहीं, यदि भौतिक जगत की वस्तुओं और उपलब्धियों को मांगते हो तो यह भूल है क्योंकि उसने आपको बुद्धि और विवेक पर्याप्त मात्रा में दिये है इसका उपयोग कर आवश्यकतानुसार वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
रवि- लेकिन ऊर्जा को मांगने में क्या हर्ज है , वह तो उनकी ओर जाने में सहायता ही करेगी ?
बाबा- जहाॅं तक ऊर्जा के सहायक होने की बात है तो वह तो विद्या और अविद्या के रूप में सदैव ही ब्रह्माॅंड में सक्रिय है, उचित मात्रा में दोनों का उपयोग कर आगे बढ़ने के लिये वह सदैव सहायक ही होती हैं जैसे पृथ्वी पर आगे चलते समय घर्षण बल। याद रखो कि मानव मात्र का लक्ष्य है स्पेस टाइम से मुक्त होकर उसके पास पहुंचना , जिसने स्पेस और टाइम को बनाया है, जिसके नियंत्रण में स्पेस, टाइम, प्रकृति और यह दृश्य और अदृश्य प्रपंच सबकुछ है। वहाॅं आकर्षण का सिद्धान्त ही लागू होता है जिससे बंधकर सभी उसी के केन्द्र के चारों ओर घूम रहे हैं और वह सेन्ट्रीपीटल और सेन्ट्रीफ्यूगल रिएक्शन्स (जिन्हें विद्या और अविद्या कहा गया है) के द्वारा संतुलन बनाये हुए है। इसलिये अपने भीतर भरी हुई ऊर्जा को अनुभव करना चाहिए और शुद्ध बुद्धि और विवेक का उपयोग कर त्वरित गति से लक्ष्य के केन्द्र की ओर दौड़ पड़ने में ही सार है। समय प्रत्येक क्षण घटता जा रहा है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उसे भी निर्धारित नियमों का पालन करना ही होता है। संसार के जितने भी विज्ञान आधारित दर्शन हैं वे अपने भीतर की ऊर्जा को ही अनुभव करने और लगातार आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देते हैं।
चन्दु - कुछ विद्वान कहते हैं कि चूंकि परमपुरुष ने हमें शरीर, बुद्धि, विवेक और ऊर्जा से भरपूर बनाया है इसलिए हमें उनका कर्ज उतारने के लिए उन्हें कुछ भेंट करना चाहिए?
बाबा- यदि कोई कहे कि उन्हें धन दौलत भेंट करना चाहिए तो यह वैसा ही है जैसे उन्हीं के स्वामित्व की सम्पदा के कुछ भाग को अपना कह कर कर्ज उतारने की बात करना। पर यह बात मान्य है कि हमें कर्ज से मुक्त अवश्य होना है। वह कर्ज कौनसे हैं? वे हैं पितृ ऋण, देव ऋण, और ऋषि ऋण। इन सभी से, उन परमपिता की सेवा करने पर ही मुक्त हो सकते हैं।
राजू- पर प्रश्न यह है कि वे किसी भौतिक शरीर में तो हैं नहीं फिर किसकी सेवा की जाये और कैसे?
बाबा- इसका उत्तर यह है कि यह ब्रह्माॅंड ही उनका सगुण रूप है जिसमें इलेक्ट्रान जैसे छुद्र कण से लेकर गेलेक्सियों तक सभी जड़ पदार्थ ( जो कि सभी ऊर्जा के घनीभूत रूप ही हैं) और अमीवा से लेकर मनुष्यों तक सभी प्राणी सम्मिलित है, इन्हीं की चार प्रकार से सेवा कर इन सभी ऋणों से मुक्ति पाई जा सकती है । सेवा के वे चार प्रकार हैं विप्रोचित सेवा, क्षत्रियोचित सेवा, वैश्योचित सेवा और शूद्रोचित सेवा । ध्यान रहे , इसका जाति या वर्ण से कोई संबंध नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में ये चार प्रकार के गुण होते ही हैं अतः आवश्यकतानुसार इनका निस्वार्थ भाव से उपयोग करते हुए सगुण ब्रह्म के सभी अवयवों की सेवा करने से ही इन ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है अन्यथा नहीं।
इन्दु- पर आपने क्या यह नहीं सुना कि सम्पन्न लोग मंदिरों में मूर्तियों के आभूषण , जैसे मुकुट, जूते चप्पल आदि सोने के बनवाकर भेंट करते हैं, मंदिरों के गुंबद पर सोने के कलश चढ़ाते हैं , कुछ लोग रुपया पैसा भेंट करते हैं, तो यह क्या व्यर्थ है?
बाबा- अभी बताया न, कि जो समस्त ब्रह्मांड का निर्माता है, वह उसका स्वामी भी है तो उसके स्वामित्व की कोई भी कीमती वस्तु अपनी मानकर उसे भेंट करते हो तो उसके किस काम की है ? वह, भेंट करने वाले के हृदय में उनके प्रति कितना प्रेम है इसका मूल्यांकन करते हैं न कि वैभव का। उनके लिए तुम्हारे मूल्यवान हीरे और सोने चांदी की वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में इस धन सम्पदा को उन्हें देकर मदद करना चाहिए जिन्हें इनकी सचमुच आवश्यकता है। भोजन उन्हें दो जो भूखे हों, धन उन्हें दो जो धन के अभाव में अपनी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे हैं, वस्त्र उन्हें दो जो वस्त्रों के अभाव में शारीरिक कष्ट पा रहे हैं, ज्ञान सभी को बाॅंटो ताकि सभी सन्मार्ग पर चल सके, रक्षा उनकी करो जो निर्बल हैं, आदि। इसे ही नारायण सेवा कहते हैं, यही चारों प्रकार की सेवा करने का अन्तिम स्वरूप है।
रवि- वह परमपुरुष, किसे प्राथमिकता से चाहते हैं , बहुत पढ़े लिखे अनेक विषयों के ज्ञाता को या निरक्षरों को , बहुत बड़े पदों पर कार्यरत अधिकारियों को या बहुत सुन्दर रूप और आकर्षक शरीरवालों को?
बाबा- उनके लिए उनकी रचना के छोटे बड़े सभी अस्तित्व एक समान हैं, वे सभी को अपनी ओर आने का समान अवसर देते हैं । उनके लिये महामहोपाध्याय और निरक्षर भट्टाचार्य दोनों ही एक समान प्रिय होते हैं । वे उनसे अधिक प्रसन्न होते हैं जिसका भक्तिभाव अर्थात् उनके प्रति निस्प्रह प्रेम अधिक होता है।
इन्दु- तो क्या पढ़लिख कर अधिक ज्ञान प्राप्त करना बेकार होता है?
बाबा- ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है परन्तु ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण न करना, ज्ञान का दुरुपयोग करना, ज्ञान के अहंकार में डूबकर ईश्वरीय रास्ते से भटक जाना, बुरा है। ज्ञान पाकर यदि ईश्वर को पाने की इच्छा जागृत नहीं हुई तो वह ज्ञान व्यर्थ ही है।
चन्दू- वे लोग जो रोज पूजा पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं , भजन करते हैं , चंदन लगाते हैं, सामान्य लोगों से भिन्न वस्त्र पहिनते हैं, क्या ईश्वर उनसे प्रसन्न नहीं होते?
बाबा- ईश्वर उनसे प्रसन्न होते हैं जो उन्हें चाहते हैं, उन्हें पाने का प्रयत्न करते हैं। दुख ये है कि अधिकांश तथाकथित भक्त ईश्वर को चाहने या उन्हें पाने के स्थान पर उनसे धन , वैभव, पद , प्रतिष्ठा मांगते हैं। या, चाहते हैं कि उनके शत्रुओं का नाश हो, सरकारी नौकरी मिल जाय, बेटी का विवाह अच्छे घर में हो जाय और सभी संकट दूर हो जाएं । उनकी पूजा पाठ और सभी कर्मकांड की क्रियायें इन्हीं को पाने की दिशा में होती हैं, वे ईश्वर को पाने की कोई चेष्टा नहीं करते।
राजू- हाॅं , ये बात तो बिल्कुल सही है, लोगों को यही चीजें मांगते हुए प्रार्थना करते मंदिरों में देखा जाता है। परन्तु आपके अनुसार एक सच्चे भक्त को ईश्वर से क्या और कैसे मांगना चाहिए और क्या देना चाहिए?
बाबा- सच्चा भक्त प्रतिदिन उनसे केवल पराभक्ति अर्थात् उनसे प्रेम करने की उच्चतम विधियां मांगता है और अपने मन के सभी रंग अर्थात् अच्छे बुरे सभी कर्म और उनके कर्मफलों से जुड़े सभी संस्कार उन्हें भेंट करता है। परमपुरुष का एक सच्चा भक्त कहता है कि हे ब्रह्मांड के निर्माता और नियंत्रक ! तुम्हारा यह घर तो बहुमूल्य रत्नों से भरा है। सभी कुछ तुम्हारा ही है और तुम्हारी पत्नी "महामाया " क्षण भर में वह सब कुछ लाकर तुम्हें दे देती है जिसकी तुम इच्छा करते हो। तो, मुझ जैसा गरीब व्यक्ति तुम्हें क्या दे सकता है? कुछ नहीं। तुम्हारे पास किसी चीज की कमी है ही नहीं , परन्तु मैं ने सुना है कि जो तुम्हारे बड़े बड़े भक्त हैं उन्होंने अपनी प्रेमाभक्ति में बाॅंध कर तुम्हारे ‘मन’ को अपने पास ही खींच लिया है। इस प्रकार तुम्हारे पास ‘मन’ की कमी पड़ गई है, पर तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं, मैं तुम्हारा इतना बड़ा भक्त तो नहीं हॅू पर मैं चाहता हूँ कि तुम मेरा ‘मन’ ले लो। मैं अपने ‘मन’ को तुम्हें भेंट करता हॅूं उसे स्वीकार कर तुम मुझे ‘‘अमन’’ कर दो, कृतार्थ कर दो । तव द्रव्यं जगद् गुरो तुभ्यमेव समर्पये, निवेदयामी च आत्मानम् त्वं गतिः परमेश्वरा।
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