155, बाबा की क्लास (तत्व बोध )
राजू- तथाकथित धर्मो (वास्तव में मतों) में ‘तत्व बोध’ तो एक ही है या वह भी भिन्न भिन्न है ?
बाबा- पहले तत्व बोध को ही समझा जाय फिर अलग अलग मतों का विश्लेषण कर देखेंगे कि उनमें समानता है या भिन्नता। भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (supreme entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक( mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे स्वयं यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी का सिद्धान्त ‘‘बलों का त्रिभुज नियम’’ को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
रवि- तो क्या इसका अर्थ यह है कि यदि हम अपने मूल स्वरूप में लौटना चाहें तो पहले अपनी तामसिकता को राजसिकता में और फिर राजसिकता को सात्विकता में क्रमशः मिलाना चाहिए ?
बाबा- हाॅं , यही सिद्धान्त है। प्रकृति के तमोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना पाश्वाचार, रजोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना वीराचार और सात्विक गुण के साथ संघर्ष कर मूल तत्व में वापसी को दिव्याचार कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मानव जीवन का उद्देश्य है अविद्या के विरुद्ध संग्राम करना। यह संग्राम वाह्य नहीं आन्तरिक होता है। आन्तरिक रुप से संग्राम करने का अर्थ है अपने भीतर की तु़च्छ प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ना। इन आन्तरिक प्रवृत्तियों पर विजय पाने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म उनसे भिन्न नहीं है। प्रारम्भ में सभी व्यक्ति पशु जैसे ही होते हैं वे ज्ञान का प्रकाश पाने में असमर्थ होते हैं। वे नहीं जान पाते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसके बाद जब सत्संगति और आचार्यों के संपर्क में आकर यह ज्ञान हो जाता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब उनकी बुद्धि का विकास होने लगता है और फिर वे पाश्विक आचार करना छोड़ देते हैं। इस प्रकार पाश्विक प्रवृत्तियों पर विजय पाने का प्रयास करने वाला निश्चय ही वीर कहलाएगा। इस स्तर पर विद्यातन्त्र के संपर्क में आने के बाद उसका भय बिलकुल समाप्त हो जाता है अतः जो भय मुक्त हो चुका है उसे दिव्याचारी कहा जाता है। दिव्याचारी अपने अष्टपाश और षडरिपुओं के चंगुल से छूट जाता है और परमपुरुष से एकत्व स्थापित कर लेता है। यह परम लक्ष्य की ओर क्रमशः बढ़ते जाने वाला रास्ता ही विद्यातन्त्र का रास्ता कहलाता है।
इन्दु- इस पवित्र सिद्धान्त में घालमेल किसने और कबसे किया?
बाबा- कृष्ण के काल तक तो यह अक्षुण्ण रहा परन्तु शिव और कृष्ण के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन धर्म ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव दर्शन, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो शिव ने सिखाए ही नहीं जैसे चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे ‘नाथ’ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, ‘‘नाथ कल्ट’’ के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में पांच उपविभागों सहित बहुत परिवर्तन हुए।
चन्दू- और, पौराणिक धर्म या मत कब, कैसे अस्तित्व में आया?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में, आज से 1300 वर्ष पूर्व शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने तत्कालीन प्रचलित सभी मतों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। पौराणिक धर्म को जिन लोगों ने स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों, जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर ) और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया। पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
रवि- पौराणिक कल्ट में क्या मूलतत्व बोध को, परिवर्तित किया गया?
बाबा- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित किया गया और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया। शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश के प्रेरक, श +र = श्र और स्त्रीलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकी या शिवानी
शक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिका शक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव और नया आकार दिया गया, इन्हें ही परमपुरुष के रूप में उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्षनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं।
इन्दु- ओह ! इन सबकी जानकारी से तो स्पष्ट होता है कि सभी का मूलतत्व तो एक ही है, फिर ये लड़ाई झगड़े क्यों ?
बाबा- हाॅं, पिछली क्लास में हमने बताया था कि क्यों अपने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महापुरुषों के अनुयायियों ने समय समय पर अपनी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भेद पैदा किये। तुम लोग विचार करके देखोगे तो सभी उपासना पद्धतियों में प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कर परमपुरुष को पाने का ही लक्ष्य रखा गया है परन्तु पद और प्रतिष्ठा के लोभ में अनुयायियों के द्वारा अपनी अपनी डागमेटिक विधियों को सिखाया गया और भेद पैदा कर जन सामान्य को लक्ष्य से भ्रमित कर दिया गया है । इनको, उनके क्रियाकलापों के अनुसार तीन प्रकार से पहचान सकते हो, वे जो लक्ष्य हो या न हो सामने आने वाली हर बाधा को अपनी भौतिक शक्ति से बलपूर्वक नष्ट करना सिखाते हैं इन्हें ‘वामाचारी’ कहा गया है, वे जो अपनी भौतिक उपलब्धियों के मार्ग की बाधाओं को स्तुति, प्रार्थना और अर्चना से दूर करना सिखाते हैं ‘दक्षिणाचारी’ कहलाते हैं, और वे जो अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ को पाने के लिए अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करना सिखाते हैं और तब तक बढ़ते जाते हैं जब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचते उन्हें ‘मध्यमाचारी’ कहा जाता है।
राजू- तथाकथित धर्मो (वास्तव में मतों) में ‘तत्व बोध’ तो एक ही है या वह भी भिन्न भिन्न है ?
बाबा- पहले तत्व बोध को ही समझा जाय फिर अलग अलग मतों का विश्लेषण कर देखेंगे कि उनमें समानता है या भिन्नता। भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (supreme entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक( mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे स्वयं यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी का सिद्धान्त ‘‘बलों का त्रिभुज नियम’’ को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
रवि- तो क्या इसका अर्थ यह है कि यदि हम अपने मूल स्वरूप में लौटना चाहें तो पहले अपनी तामसिकता को राजसिकता में और फिर राजसिकता को सात्विकता में क्रमशः मिलाना चाहिए ?
बाबा- हाॅं , यही सिद्धान्त है। प्रकृति के तमोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना पाश्वाचार, रजोगुण के विरुद्ध संघर्ष करना वीराचार और सात्विक गुण के साथ संघर्ष कर मूल तत्व में वापसी को दिव्याचार कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मानव जीवन का उद्देश्य है अविद्या के विरुद्ध संग्राम करना। यह संग्राम वाह्य नहीं आन्तरिक होता है। आन्तरिक रुप से संग्राम करने का अर्थ है अपने भीतर की तु़च्छ प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ना। इन आन्तरिक प्रवृत्तियों पर विजय पाने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म उनसे भिन्न नहीं है। प्रारम्भ में सभी व्यक्ति पशु जैसे ही होते हैं वे ज्ञान का प्रकाश पाने में असमर्थ होते हैं। वे नहीं जान पाते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसके बाद जब सत्संगति और आचार्यों के संपर्क में आकर यह ज्ञान हो जाता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब उनकी बुद्धि का विकास होने लगता है और फिर वे पाश्विक आचार करना छोड़ देते हैं। इस प्रकार पाश्विक प्रवृत्तियों पर विजय पाने का प्रयास करने वाला निश्चय ही वीर कहलाएगा। इस स्तर पर विद्यातन्त्र के संपर्क में आने के बाद उसका भय बिलकुल समाप्त हो जाता है अतः जो भय मुक्त हो चुका है उसे दिव्याचारी कहा जाता है। दिव्याचारी अपने अष्टपाश और षडरिपुओं के चंगुल से छूट जाता है और परमपुरुष से एकत्व स्थापित कर लेता है। यह परम लक्ष्य की ओर क्रमशः बढ़ते जाने वाला रास्ता ही विद्यातन्त्र का रास्ता कहलाता है।
इन्दु- इस पवित्र सिद्धान्त में घालमेल किसने और कबसे किया?
बाबा- कृष्ण के काल तक तो यह अक्षुण्ण रहा परन्तु शिव और कृष्ण के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन धर्म ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव दर्शन, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो शिव ने सिखाए ही नहीं जैसे चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे ‘नाथ’ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, ‘‘नाथ कल्ट’’ के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में पांच उपविभागों सहित बहुत परिवर्तन हुए।
चन्दू- और, पौराणिक धर्म या मत कब, कैसे अस्तित्व में आया?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में, आज से 1300 वर्ष पूर्व शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने तत्कालीन प्रचलित सभी मतों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। पौराणिक धर्म को जिन लोगों ने स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों, जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर ) और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया। पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
रवि- पौराणिक कल्ट में क्या मूलतत्व बोध को, परिवर्तित किया गया?
बाबा- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित किया गया और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया। शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश के प्रेरक, श +र = श्र और स्त्रीलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकी या शिवानी
शक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिका शक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव और नया आकार दिया गया, इन्हें ही परमपुरुष के रूप में उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्षनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं।
इन्दु- ओह ! इन सबकी जानकारी से तो स्पष्ट होता है कि सभी का मूलतत्व तो एक ही है, फिर ये लड़ाई झगड़े क्यों ?
बाबा- हाॅं, पिछली क्लास में हमने बताया था कि क्यों अपने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महापुरुषों के अनुयायियों ने समय समय पर अपनी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भेद पैदा किये। तुम लोग विचार करके देखोगे तो सभी उपासना पद्धतियों में प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कर परमपुरुष को पाने का ही लक्ष्य रखा गया है परन्तु पद और प्रतिष्ठा के लोभ में अनुयायियों के द्वारा अपनी अपनी डागमेटिक विधियों को सिखाया गया और भेद पैदा कर जन सामान्य को लक्ष्य से भ्रमित कर दिया गया है । इनको, उनके क्रियाकलापों के अनुसार तीन प्रकार से पहचान सकते हो, वे जो लक्ष्य हो या न हो सामने आने वाली हर बाधा को अपनी भौतिक शक्ति से बलपूर्वक नष्ट करना सिखाते हैं इन्हें ‘वामाचारी’ कहा गया है, वे जो अपनी भौतिक उपलब्धियों के मार्ग की बाधाओं को स्तुति, प्रार्थना और अर्चना से दूर करना सिखाते हैं ‘दक्षिणाचारी’ कहलाते हैं, और वे जो अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ को पाने के लिए अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करना सिखाते हैं और तब तक बढ़ते जाते हैं जब तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचते उन्हें ‘मध्यमाचारी’ कहा जाता है।
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