Saturday 28 July 2018

204 मगध की स्वतंत्र विचारधारा

मगध  की स्वतंत्र विचारधारा : ऐतिहासिक तथ्य

वैशाली के सम्पन्न वैश्य घराने में सिद्धार्थ और त्रिशला के घर लगभग 2500 वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर का जन्म हुआ था। गौतम बुद्ध की तरह उन्होंने भी अपनी शिक्षाओं को पहले अपनी जन्मभूमि में प्रचारित नहीं किया वरन् वह भी इस कार्य को करने के लिए मगध की भूमि पर आए।
इस कार्य के लिए उन दोनों ने मगध को ही क्यों क्यों चुना इसका कारण जानने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में मगध के हाथ पैर वैदिक धर्म से नहीं बंधे थे और वहाॅं के लोग जीवन के संबंध में अपनी स्वतंत्र सोच रखते थे इसलिए दोनों ने उसी भूमि को अपनी अपनी विचारधारा समझाने के लिए चुना। अपनी धार्मिक शिक्षाओं  को समझाने में बुद्ध सफल हुए क्योंकि वे  अंधविश्वास की अपेक्षा तर्क पर अधिक आधारित थीं। यह बात भी सही है कि वर्धमान महावीर की शिक्षाओं में भी रूढ़ीवादिता के विरुद्ध संघर्ष का संदेश था परन्तु मगध के लोगों के विचार में उनका अहिंसा का सिद्धान्त व्यावहारिकता से परे होने के कारण उन्होंने उसे सरलता से स्वीकार नहीं किया। यह भी सही है कि कुछ लोगों ने उन्हें स्वीकार तो किया पर उन्हें  अवास्तविक सैद्धान्तिक व्यक्ति मान कर गुप्त शक्तियों के प्रयोग से  धरती पर ला दिया । यही कारण है कि उन्हें अपने नये धर्म को प्रचारित करने के लिए अन्य स्थान को खोजना पड़ा।

उस समय राढ़ की राजधानी आस्तिकनगर (अत्थिनगर) अपनी शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उन्नत विचारों के लिए प्रसिद्ध था। वर्धमान महावीर वहाॅं गए और लगभग आठ वर्ष तक रहे। वहाॅं उन्होंने अपने अहिंसा के सिद्धान्त को कुछ कुछ वास्तविकता के धरातल पर लागू करने की व्यवस्था बनायी । वहाॅं के कुछ प्रसिद्ध व्यापारियों ने उनके अहिंसा के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उनके नाम पर उस स्थान का नाम वर्धमान (बरद्वान) कर दिया। इसलिए कहा जाता है कि जैन धर्म सबसे पहले राढ़ में स्थापित हुआ। बरद्वान से लौट कर वह फिर से मगध की ओर आए और मयूराक्षी नदी के किनारे स्वामिस्थान ( संचित्थान> संचित्थींचा> संथिया) नामक छोटे से गाॅंव में अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए थोड़े से समय तक रुके। उस समय तक वह वयोवृद्ध हो चुके थे जबकि गौतम बुद्ध युवा थे। वर्धमान महावीर ने अपनी अंतिम साॅंस राढ़ की भूमि, पावपुरी में ली।

उत्तर भारत के अनेक लोगों ने मगध की इस स्वतंत्र मानसिकता को पसन्द नहीं किया और उन्होंने मगध को अन्य लोगों की दृष्टि में नीचा दिखाने के अनेक प्रयत्न किए पर मगध उनसे हतोत्साहित नहीं हुआ पर  संस्कृत के विघटन स्वरूप इन  सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का उदय हुआ :-

1 महाराष्ट्री प्राकृत जो कि कोकणी, मराठी, वैदर्भी या वाराही की पूर्वज थी।
2 मालवी प्राकृत जो गुजराती सौराष्ट्री, कच्छी मालवी, मेवाड़ी, हड़ौती और मारवाड़ी की पूर्वज थी।
3 सैंधवी या सौबीरी प्राकृत जिससे सिंध और मुल्तानी भाषा का जन्म हुआ।
4 पाश्चात्य प्राकृत जो पश्तु , काश्मीरी, उज्बेकी, ताजाकी की पूर्वज थी।
5 पैशाची प्राकृत जो कि डोगरी, पहाड़ी और पंजाबी की पूर्वज थी।
6 शौरसेनी प्राकृत जो हिन्दी, अवधी, बुंदेली , बघेली और बृज भाषा की पूर्वज थी।
7 मागधी प्राकृत जो कि मगही, बंगाली, उड़िया, अंगिका, आसामी , नागपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी की पूर्वज थी।

मगधी प्राकृत की दो शाखायें थीं पूर्वी अर्धमागधी और पश्चिमी अर्धमागधी। पश्चिमी अर्धमागधी ने बाद में मागधी भाषा को जन्म दिया। किसी समय मागधी प्राकृत केवल पूर्वी भारत में ही नहीं बोली जाती थी वरन् मध्यभारत और अन्य शिक्षित समाज में विचारों के आदान प्रदान में भी प्रयुक्त की जाती थी। मागधी प्राकृत सीखने के लिए शिक्षित लोगों में वैसा ही उत्साह देखा जाता था जैसा संस्कृत सीखने में। मागधी प्राकृत भाषा की संरचना सीधी और सरल है। व्याकरण भी कठिन नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों ने ही उस समय मागधी प्राकृत में अपनी शिक्षाएं दी हैं जिसे आजकल पाली भाषा कहा जाता है। पाली और पाश्चात्य मागधी प्राकृत में बहुत साहित्य लिखा गया है। मगध की अपनी लिपि भी थी। बोध गया में आज भी उस प्राचीन मागधी लिपि में शिलालेख देखे जा सकते हैं। वह श्रीहर्ष लिपि की छोटी बहिन है और आधुनिक मैंथिली या त्रिहुति और बंगाली लिपि से निकटता से जुड़ी हुई है।

Wednesday 25 July 2018

203 दस प्राण और मृत्यु

203 दस प्राण और मृत्यु
हम नाक से जिस वायु को श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं उसमें से शरीर को संचालित करने के लिए आवश्यक भाग जिसे ‘आक्सीजन’ या प्राण वायु कहा जाता है, शरीर के विभिन्न भागों में अपने अपने क्षेत्रों में सक्रिय होकर प्राणों (vital forces) का संचार करती है। शरीर के विभिन्न भागों में कार्य के आधार पर योग विज्ञान में इनके दस प्रकार माने गये हैं। पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य । इन पाॅंचों भीतरी और पाॅंचों बाहरी वायुओं का सम्मिलित नाम ‘‘प्राणाः’’ है और वह पद्धति जिससे हम इन्हें नियंत्रण में लाने का प्रयत्न करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं । योगविज्ञान के अनुसार ‘‘ प्राणान यमयतये सा प्राणायामः अर्थात् प्राणों को उचित आयाम देने की विधि प्राणायाम कहलाती है।’’ इसके अलावा यह भी कहा गया है कि ‘‘ तस्मिन सति स्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।’’ इसका अर्थ भी अन्ततः यही होता है कि वह विशेष प्रयास जिसमें श्वास प्रश्वास का सामान्य प्रवाह परिवर्तित कर अस्थायी रूप से विशेष विधि के द्वारा श्वसन को रोक दिया जाता है प्रणायाम कहलाता है। विशेष विधि में व्यक्ति का बीज मंत्र और मन को केन्द्रित बनाए रखने का स्थान महत्वपूर्ण होता है अन्यथा केवल श्वास को एक ओर से लेने और दूसरी ओर से छोड़ने की क्रिया को प्राणायाम नहीं कहा जा सकता। यह श्वसन क्रिया तो सभी लोग स्वाभाविक रूप से हर समय करते हैं जो नियमित अन्तराल पर अपने आप दायें और वायें नासिका छिद्र में बदलती रहती है।
पाॅंच आन्तरिक प्राण हैंः-
1. प्राण, जो नाभि से कंठ के बीच श्वास प्रश्वास के द्वारा ऊर्जा के प्रसार का कार्य करता है।
2. अपान, जो नाभि से गुदा के बीच मल और मूत्र की गतिशीलता को नियंत्रित करता है ।
3. समान, जो नाभि के चारों ओर गोलीय क्षेत्र में रहकर प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाता है।
4. उदान, जो गले में रहता हुआ वाक् नलिका और वाणी पर नियंत्रण रखता है।
5. व्यान, जो पूरे शरीर में खून का संचार करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नाड़ियों की भौतिक क्रियाओं में सहयोग करता है।
और पाॅंच वाह्य प्राण हैंः-
1. नाग, जो संधियों में रहता है और कूदते समय, या शरीर को फैलाने या वस्तुओं के फेकते समय अपना कार्य करता है।
2. कूर्म, जो शरीर की विभिन्न ग्रंथियों में रहकर को उसे कछुए की तरह संकुचन करने में सहायक होता है।
(यहाॅं यह ध्यान रखने योग्य है कि कूर्मभाव और कूर्मनाड़ी एक ही नहीं हैं। कूर्मनाड़ी कंठ में स्थित वह विन्दु है जिसका निम्नतम भाग विशुद्ध चक्र की परिधि पर पड़ता है। यदि मन और कूर्मनाड़ी में भारसाम्य स्थापित कर लिया जाय तो शरीर अस्थायी रूप से स्पन्दन रहित हो जाएगा। योगियों के अनुसार बैलों में कूर्मनाड़ी के साथ मन का भारसाम्य स्थापित करने की क्षमता होती है जिससे वे लम्बे समय तक बिना हिलेडुले रह सकते हैं जैसे कि कोई पत्थर की मूर्ति हो।)
3. क्रकर, यह पूरे शरीर में फैला रहता है और वायुदाब के बढ़ाने या घटाने में प्रयुक्त होता है अतः जॅंभाई लेते समय सक्रिय रहता है। साधारणतः जॅंभाई सोने से पहले और अंगड़ाई सोने से जागने के बाद आती है।
4. देवदत्त, जो भूख और प्यास लगने पर क्रियाशील होता है और पेट के भीतर भोजन तथा पानी के दाब को नियंत्रित करता है। 
5. धनन्जय, जो भौतिक और मानसिक श्रम करने के बाद तन्द्रा और निद्रा के लिए उत्तरदायी होता है ।

अतः प्राणयाम की विधि वह है जो हमारे दसों प्राणों को उनकी कार्य सीमा में अधिकतम कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की  शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं, तो सभी प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम (amplitude) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है।

सात्विक आहार और दोनों समय नियमित रूप से निर्धारित संख्या में अपने बीज मंत्र के अध्यारोपण के साथ प्राणायाम करने वाले व्यक्ति सदैव निरोग और स्वस्थ रहते हैं तथा जितने संस्कारों को भोगने के लिए यह शरीर मिला होता है उन्हें भोग लेने के बाद बिना किसी कष्ट के उसे छोड़ देते हैं, इसे मृत्यु कहा जाता है। 
वृद्धावस्था के कारण या बीमारी से या अनपेक्षित दुर्घटना से ‘प्राण’ वायु का आवास क्षेत्र विघटित हो जाता है जिससे वह अपना प्राकृतिक प्रवाह और क्षमता को और अधिक बनाये नहीं रख पाता । इस अप्राकृतिक परिस्थिति में वह ‘समान’ वायु को आघात पहुँचाता है जिससे वह अपना संतुलन खो देता है। इससे नाभि के पास रहने वाला ‘समान’ और ऊपरी भाग में रहने वाला ‘प्राण’ अपना अपना क्षेत्र छोड़कर आपस में एक दूसरे में मिल जाते हैं और दोनों  मिलकर ‘अपान’ वायु पर अपना दाब डालते हैं जिससे ‘उदान’ और ‘व्यान’ वायु भी अपना स्वाभाविक कार्य करना बंद कर देता है। इस अवस्था को ‘‘नाभिश्वास’’ कहते हैं। ‘उदान’ वायु के निष्क्रिय होते ही गले से आवाज निकलने लगती है जो आसन्न मृत्यु का संकेत देती है।

जब पाॅंचों आन्तरिक प्राण एकसाथ मिलकर शरीर को छोड़ देते हैं तब वे वायुघटक अथवा महाप्राण में मिल जाते हैं। इनके निकलने के बाद, बाहरी पाॅंच प्राणों में में से चार , नाग, देवदत्त, कूर्म और क्रकर भी प्राण वायु के साथ जा मिलते हैं केवल धनंजय वायु शरीर में बचा रहता है। धनंजय का कार्य निद्रा और तंद्रा लाना है अतः शरीर को स्थायी विश्राम देने के लिये यह अन्त तक रहता है जब तक कि शरीर को जला न दिया जाय या कब्र में पूर्णतः विघटित न हो जाय। इसे बाद वह भी पंचमहाभूतों में प्रवेशकर वायु घटक में मिल जाता है।
कभी कभी अचानक दुर्घटना से, घातक बीमारी से जैसे कोलेरा, पाक्स, साॅप के काटने या जहर से या फाॅंसी पर लटकने से, शरीर इतना विचलित हो जाता है कि उसके प्राण लकवाग्रस्त हो जाते हैं। यह दुर्घटनावश अचानक मृत्यु मानी जाती है पर शरीर के विच्छेदन न होने से नाभिश्वास का अवसर नहीं आता या बहुत कम आता है, अतः इस अवस्था में प्राणों के लकवाग्रस्त होने से तत्काल मृत्यु नहीं होती वरन् कुछ देर बाद होती है। इस अवस्था में यदि कृत्रिम  विधियों द्वारा श्वसन क्रिया फिर से स्थापित की जा सके तो प्राण ऊर्जा फिर सेे सक्रिय हो सकती है। जब तक प्राण ऊर्जा लकवाग्रस्त रहती है शरीर में विघटन होने के लक्षण दिखाई नहीं देते। पुराने समय में इनमें से किसी कारण से होने वाली मौत में शरीर को जलाने या दफनाने के बदले उसे लकड़ी के बेडे़ पर नदी के पानी में तैरा दिया जाता था अतः स्वच्छ , ठंडे और खुले वातावरण के प्रभाव में कभी कभी प्राण फिर से सक्रिय हो जाया करता था। अतः इन परिस्थितियों में हुई मौत के मामलों को जब तक सक्षम डाक्टर से परीक्षण न करा लिया जाय तब तक जलाना या दफनाना नहीं चाहिए।

Thursday 19 July 2018

202 कुलगुरु

202 कुलगुरु
कुलकुन्डलनी शब्द में जुड़ा ‘कुल’  शब्द ‘कु’ और ‘ल’ से मिलकर बना है। कालचक्रायणतन्त्र के अनुसार रीढ़ की हड्डी का सबसे निचला भाग अपने ऊपर के पूरे भाग का भार सम्हालता है, इसलिए इस निम्नतम भाग को कुल कहा जाता है। ‘ल’ का अर्थ है पकड़े रहना और ‘कु’ का अर्थ है ठोस घटक। तन्त्र के अनुसार इस भाग में, ‘देवत्व’ प्रसुप्तावस्था में साॅंप की कुंडली जैसा होता है । यह बीज जो ठोस घटक को सम्हालता है ‘ल’ कहलाता है अर्थात् ठोस घटक का ध्वन्यात्मक मूल है। जब बीज मंत्र का बोधात्मक अभ्यास करते हुए उसे ‘हुम’ ध्वनिमूल के साथ इस सुप्तावस्था में रहने वाले देवत्व पर आघात किया जाता है तो मंत्रचैतन्य होने के साथ ही उसकी चेतना का जागरण हो जाता है और वह सहस्त्रार चक्र में स्थित परमशिव से मिल जाता है। ध्यान साधना की यह सबसे उच्चतम विधि मानी जाती है। इस कुंडलनी को उन्नत कर ऊपर की ओर ले जाने का कार्य कुलसाधना कहलाता है। जो इस आध्यात्मिक साधना को करता है वह कुलसाधक या ‘कौल’ कहलाता है। तन्त्र साधना के इस पथ पर चलना कुलाचार कहलाता है। तन्त्र के प्रवर्तक भगवान सदाशिव ‘आदिकौल’ या ‘महाकौल’ कहलाते हैं। वे गुरु जो यह साधना सिखाते हैं ‘कुलगुरु’ कहलाते हैं।
आजकल अनेक लोग कुलगुरु का अर्थ पारिवारिक गुरु के रूप में ही करते हैं। पर यह सही नहीं है। कुलगुरु वह है जो उपर्युक्त कुलसाधाना में पारंगत होकर सिद्ध हो गया है और दूसरों को भी इसे सिखा सकने की योग्यता रखता है। ‘स्वस्त्यायन’ विद्यातन्त्र के मांगलिक समारोह  का एक भाग है। इसके दूसरे भाग को पुरश्चरण कहा जाता है जिसमें कुंडलनी को ऊपर उठाने का कार्य किया जाता है। पुरश्चरण इस पद्धति का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होता है। जहाॅं तक धार्मिक अनुष्ठान का संबंध है शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर और गाणपत्य तन्त्र में कोई अंतर नहीं है परन्तु शैव तन्त्र में जो ‘कुलकुंडलनी ’ की साधना है उसका लक्ष्य परमशिव होते हैं जो शाक्त तन्त्र के अनुयायी ‘महाकाली’ के नाम से सम्बोधित करते हैं और इनका अंतिम उद्देश्य कहलाता है महाकाल अथवा महाकौल अथवा नीरात्माशक्ति। वैष्णव तन्त्र में इन दोनों को ‘राधा और पुरुषोत्तम कृष्ण’ कहा जाता है। फिर भी कुंडलनी जागरण या पुरश्चरण किसी भी पद्धति से क्यों न किया जाय कुलशक्ति हमेशा ही ठोस घटक की तली अर्थात् भौतिक संरचना के आधार में रहती है जिसका बीज मंत्र ‘लं’ होता है। आधारशिला होने के कारण ही यह भाग ‘मूलाधार’ कहलाता है। इसमें सुप्त देवत्व का लक्ष्य भी परमचेतना को पाना ही होता है। कुलकुंडलनी को जाग्रत करने का अर्थ है चेतना का जड़ता के विरुद्ध संग्राम करना। इस संग्राम करने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘हुम’ और कुलकुंडलनी का बीज भी ‘हुम’ ही है। इसीलिए गुरुगण कहते हैं कि रणहुंकार भरो, कुंडलनी के सोने में नहीं , पूछ के बल खड़े हो जाने में ही मानव जीवन का सर्वाधिक हित छिपा है।

Sunday 15 July 2018

201ऋषि,महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि,देवताऔर देवीशक्ति

201ऋषि,महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि,देवताऔर देवीशक्ति
 ‘‘ ऋस् ’’ धातु का शाब्दिक अर्थ अनेक प्रकार से किया जाता है, एक है ‘ऊपर की ओर बढ़ना’ जैसे  जमीन से छत की ओर जाना। इसमें प्रत्यय ‘ई’ जोड़ने पर बने ‘ऋषि’ शब्द का अर्थ होगा ‘जो ऊपर की ओर बढ़ता है’ इसे बोलचाल की भाषा में कहेंगे, उन्नत मन, मस्तिष्क और विचारोें का व्यक्ति। यद्यपि इसका स्त्रीलंग है ‘‘ऋष्या’’ परन्तु ऋषि को नपुंसक लिंग में भी व्यवहृत किया जाता है, जैसे महिला को भी पुरुष की तरह ऋषि कहा जा सकता है और ऋष्या भी । ऋग्वैदिक काल से ही उन्नत चेतना के लोगों को ऋषि कहा जाता रहा है।
जैसे कोई भी मंत्र किसी विशेष छंद में ही बनाया जाता है या जैसे अधिकाॅंश मंत्र परमपुरुष को विशेष नाम से पुकारना सिखाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक मंत्र का ‘‘द्रष्टा ऋषि ’’ होता है जो अपनी साधना, ध्यान या चिन्तन के द्वारा उसकी सच्चाई को अनुभव कर मौखिक रूप से अपने शिष्यों को सिखाता है।

वैदिक युग से ही ऋषियों के चार प्रकार माने गए हैं, महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि।

वे व्यक्ति जो अपने साॅसारिक रूपसे आवश्यक कर्म करते हुए दर्शन के दोनों पक्षों ‘आरण्यक और उपनिषद’ के अनुसार उच्चतर स्तर को पाने के लिए ध्यान, चिन्तन और साधना करते हुए आध्यात्म पथ पर पूर्णता प्राप्त कर सामज सेवा में जुट जाते हैं, उन्हें  ‘‘महर्षि’’ कहा जाता है। जैसे महर्षि विश्वामि़त्र।
वे व्यक्ति जिन्होंने उत्तम देवकुल में जन्म लेकर अपने को आध्यात्मिक साधना के द्वारा उन्नत चेतना में स्थापित कर लिया है वे कहलाते हैं देवर्षि , जैसे देवर्षि नारद।
वे व्यक्ति जो सामाजिक उत्तरदायित्व (जैसे राजसिक कार्य) निर्वहन करते हुए अपने हृदय की पुकार पर आध्यात्मिक चेतना के साथ अपने को संतृप्त कर चुकते हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है जैसे राजर्षि जनक।
वे व्यक्ति जो आजीवन अपने आपको आध्यात्मिक उत्प्रेरणा से जागृत बनाए रहते हैं उन्हें ब्रह्मर्षि कहा जाता है जैसे, ब्रह्मर्षि कण्व, ब्रह्मर्षि अथर्वा।

अथर्ववेद के प्रस्तुतकर्ता अथर्वा को, जो उस काल में आदर्श पुरुष कहलाते थे ‘ब्रह्मर्षि’ के पद पर सम्मानित किया गया था। उनके अनेक साथी ऋषियों को ‘महर्षि’ के पद पर सम्मानित किया गया था जैसे, अत्रि, अंगिरा, अंगिरस, पुलह, पुलस्त्य, सत्यवाह, और वैदर्भि । वे विद्वान जो यह मानते हैं कि वेद, पूर्णतः भारत के बाहर रचित किए गये थे उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता परन्तु कम से कम अथर्ववेद के बारे में नहीं। नाम ‘वैदर्भि ’ प्रकट करता है कि वह विदर्भ अर्थात् नागपुर - अमरावती क्षे़त्र के थे। यह मानना कठिन है कि महर्षि वैदर्भि पूरे मध्य एशिया को पार कर अथर्ववेद की रचना हेतु कहीं बाहर गए होंगे । पर यह माना जा सकता है कि पूरा अथर्ववेद भारत में रचित नहीं हुआ। महर्षि अथर्वा आदर्श पुरुष थे और उन्हें वरिष्ठ होने के नाते सबका सम्मान प्राप्त था।

ध्यान रहे, ऋषि और मुनि का अर्थ एकसा नहीं है। मुनि के दो अर्थ हैं, पहला वह जो मनन करता है अर्थात् बौद्धिक ‘‘ इन्टलेक्चुअल’ और दूसरा वह जिसने अपने मन को परमपुरुष में मिला लिया है।
‘‘ न मुनिर्दुग्धबालकाः मुनिः संलीनमानसः ’’ अर्थात् मुनि का अर्थ ‘‘छोटा सा दूध पीता बालक नहीं वरन वह  जिसने अपना मन ‘परममन’ अर्थात् ‘‘मेक्रोकास्मिक माइंड’’  के साथ मिला लिया है।’’

देवता - जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।
देवीशक्ति - जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, आकार पाता है। ध्यान रहे इस
कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor)  के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

Friday 6 July 2018

200 पृच्छाया

200 पृच्छाया
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धरती का तीन चौथाई भाग पानी में डूबा है,
फिर भी हम बूंद बूंद पानी को तरसते हैं ?

धरती पर हर वर्ष प्रचुर खाद्यान्न उत्पन्न होता है,
फिर भी लाखों लोग भूखों मरते हैं ?
पृथ्वी की सभी वस्तुएं सभी की सम्मिलित सम्पदा है,
फिर भी कुछ लोग उस पर एकाधिकार जता दूसरों को जीने से वंचित रखते हैं ?
सामाजिक असमानता और भिन्नता की चक्की में ,
महिलाएं और बच्चे ही पिसते हैं ?
दिग्भ्रमित युवावर्ग कामान्ध मृगजल में डूब
खोता जा रहा है पारिवारिक नैतिक मूल्य ?
ऐसे ही अनेक,
लम्बे समय से संचित,
बार बार परेशान करते, एक एक प्रश्न जुड़ते,
विशाल पृच्छाया बन गए।
इन प्रश्नवाणों को रोज पैना करते सोचता
कि जब कभी तुम मिलोगे मेरे प्रियतम ! तो
एक साथ प्रहार कर तुम्हें बेचैन कर दूंगा ।
छक्के छुड़ा दूंगा, तुम्हारी हेकड़ी भुला दूंगा,
और नहीं , तो पसीने से तर तो जरूर ही कर दूंगा।
परसों,
मैंने तुम्हें ललकारा !
नृत्य करती जिव्हा की कमान पर तानकर इन्हीं शरों को ।
पर , तुमने सामना ही नहीं किया,
तुम नहीं आए ? लगा, डर गए ?
दिनरात की प्रतीक्षा के बाद
कल,
मैंने तुम्हें पराजित घोषित कर दिया।
आज, फिर
जब मैं इनकी कुशाग्रता देखकर क्षुब्ध हुआ, तब
एक अनोखी लहर ने
तुम्हारी, कृपाच्छादित सीमा में अचानक
धकेल दिया।
ए मेरे अभिन्न ! यह कैसा सम्मोहन?
मैं अपने को ही भूल गया,
वहाॅं थे, तो केवल तुम और केवल तुम !
तीक्ष्ण प्रश्न.तीरों से भरा तूणीर भी लुप्त हो गया !
प्रश्नाघात करने को सदा आतुर
थिरकती जिव्हा भी मौन !
अब !
क्या ? किससे ? क्यों ? प्रश्न करे कौन ?
डॉ टी आर शुक्ल , सागर।
8 मई 2017