मगध की स्वतंत्र विचारधारा : ऐतिहासिक तथ्य
वैशाली के सम्पन्न वैश्य घराने में सिद्धार्थ और त्रिशला के घर लगभग 2500 वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर का जन्म हुआ था। गौतम बुद्ध की तरह उन्होंने भी अपनी शिक्षाओं को पहले अपनी जन्मभूमि में प्रचारित नहीं किया वरन् वह भी इस कार्य को करने के लिए मगध की भूमि पर आए।
इस कार्य के लिए उन दोनों ने मगध को ही क्यों क्यों चुना इसका कारण जानने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में मगध के हाथ पैर वैदिक धर्म से नहीं बंधे थे और वहाॅं के लोग जीवन के संबंध में अपनी स्वतंत्र सोच रखते थे इसलिए दोनों ने उसी भूमि को अपनी अपनी विचारधारा समझाने के लिए चुना। अपनी धार्मिक शिक्षाओं को समझाने में बुद्ध सफल हुए क्योंकि वे अंधविश्वास की अपेक्षा तर्क पर अधिक आधारित थीं। यह बात भी सही है कि वर्धमान महावीर की शिक्षाओं में भी रूढ़ीवादिता के विरुद्ध संघर्ष का संदेश था परन्तु मगध के लोगों के विचार में उनका अहिंसा का सिद्धान्त व्यावहारिकता से परे होने के कारण उन्होंने उसे सरलता से स्वीकार नहीं किया। यह भी सही है कि कुछ लोगों ने उन्हें स्वीकार तो किया पर उन्हें अवास्तविक सैद्धान्तिक व्यक्ति मान कर गुप्त शक्तियों के प्रयोग से धरती पर ला दिया । यही कारण है कि उन्हें अपने नये धर्म को प्रचारित करने के लिए अन्य स्थान को खोजना पड़ा।
उस समय राढ़ की राजधानी आस्तिकनगर (अत्थिनगर) अपनी शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उन्नत विचारों के लिए प्रसिद्ध था। वर्धमान महावीर वहाॅं गए और लगभग आठ वर्ष तक रहे। वहाॅं उन्होंने अपने अहिंसा के सिद्धान्त को कुछ कुछ वास्तविकता के धरातल पर लागू करने की व्यवस्था बनायी । वहाॅं के कुछ प्रसिद्ध व्यापारियों ने उनके अहिंसा के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उनके नाम पर उस स्थान का नाम वर्धमान (बरद्वान) कर दिया। इसलिए कहा जाता है कि जैन धर्म सबसे पहले राढ़ में स्थापित हुआ। बरद्वान से लौट कर वह फिर से मगध की ओर आए और मयूराक्षी नदी के किनारे स्वामिस्थान ( संचित्थान> संचित्थींचा> संथिया) नामक छोटे से गाॅंव में अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए थोड़े से समय तक रुके। उस समय तक वह वयोवृद्ध हो चुके थे जबकि गौतम बुद्ध युवा थे। वर्धमान महावीर ने अपनी अंतिम साॅंस राढ़ की भूमि, पावपुरी में ली।
उत्तर भारत के अनेक लोगों ने मगध की इस स्वतंत्र मानसिकता को पसन्द नहीं किया और उन्होंने मगध को अन्य लोगों की दृष्टि में नीचा दिखाने के अनेक प्रयत्न किए पर मगध उनसे हतोत्साहित नहीं हुआ पर संस्कृत के विघटन स्वरूप इन सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का उदय हुआ :-
1 महाराष्ट्री प्राकृत जो कि कोकणी, मराठी, वैदर्भी या वाराही की पूर्वज थी।
2 मालवी प्राकृत जो गुजराती सौराष्ट्री, कच्छी मालवी, मेवाड़ी, हड़ौती और मारवाड़ी की पूर्वज थी।
3 सैंधवी या सौबीरी प्राकृत जिससे सिंध और मुल्तानी भाषा का जन्म हुआ।
4 पाश्चात्य प्राकृत जो पश्तु , काश्मीरी, उज्बेकी, ताजाकी की पूर्वज थी।
5 पैशाची प्राकृत जो कि डोगरी, पहाड़ी और पंजाबी की पूर्वज थी।
6 शौरसेनी प्राकृत जो हिन्दी, अवधी, बुंदेली , बघेली और बृज भाषा की पूर्वज थी।
7 मागधी प्राकृत जो कि मगही, बंगाली, उड़िया, अंगिका, आसामी , नागपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी की पूर्वज थी।
मगधी प्राकृत की दो शाखायें थीं पूर्वी अर्धमागधी और पश्चिमी अर्धमागधी। पश्चिमी अर्धमागधी ने बाद में मागधी भाषा को जन्म दिया। किसी समय मागधी प्राकृत केवल पूर्वी भारत में ही नहीं बोली जाती थी वरन् मध्यभारत और अन्य शिक्षित समाज में विचारों के आदान प्रदान में भी प्रयुक्त की जाती थी। मागधी प्राकृत सीखने के लिए शिक्षित लोगों में वैसा ही उत्साह देखा जाता था जैसा संस्कृत सीखने में। मागधी प्राकृत भाषा की संरचना सीधी और सरल है। व्याकरण भी कठिन नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों ने ही उस समय मागधी प्राकृत में अपनी शिक्षाएं दी हैं जिसे आजकल पाली भाषा कहा जाता है। पाली और पाश्चात्य मागधी प्राकृत में बहुत साहित्य लिखा गया है। मगध की अपनी लिपि भी थी। बोध गया में आज भी उस प्राचीन मागधी लिपि में शिलालेख देखे जा सकते हैं। वह श्रीहर्ष लिपि की छोटी बहिन है और आधुनिक मैंथिली या त्रिहुति और बंगाली लिपि से निकटता से जुड़ी हुई है।
No comments:
Post a Comment