202 कुलगुरु
कुलकुन्डलनी शब्द में जुड़ा ‘कुल’ शब्द ‘कु’ और ‘ल’ से मिलकर बना है। कालचक्रायणतन्त्र के अनुसार रीढ़ की हड्डी का सबसे निचला भाग अपने ऊपर के पूरे भाग का भार सम्हालता है, इसलिए इस निम्नतम भाग को कुल कहा जाता है। ‘ल’ का अर्थ है पकड़े रहना और ‘कु’ का अर्थ है ठोस घटक। तन्त्र के अनुसार इस भाग में, ‘देवत्व’ प्रसुप्तावस्था में साॅंप की कुंडली जैसा होता है । यह बीज जो ठोस घटक को सम्हालता है ‘ल’ कहलाता है अर्थात् ठोस घटक का ध्वन्यात्मक मूल है। जब बीज मंत्र का बोधात्मक अभ्यास करते हुए उसे ‘हुम’ ध्वनिमूल के साथ इस सुप्तावस्था में रहने वाले देवत्व पर आघात किया जाता है तो मंत्रचैतन्य होने के साथ ही उसकी चेतना का जागरण हो जाता है और वह सहस्त्रार चक्र में स्थित परमशिव से मिल जाता है। ध्यान साधना की यह सबसे उच्चतम विधि मानी जाती है। इस कुंडलनी को उन्नत कर ऊपर की ओर ले जाने का कार्य कुलसाधना कहलाता है। जो इस आध्यात्मिक साधना को करता है वह कुलसाधक या ‘कौल’ कहलाता है। तन्त्र साधना के इस पथ पर चलना कुलाचार कहलाता है। तन्त्र के प्रवर्तक भगवान सदाशिव ‘आदिकौल’ या ‘महाकौल’ कहलाते हैं। वे गुरु जो यह साधना सिखाते हैं ‘कुलगुरु’ कहलाते हैं।
आजकल अनेक लोग कुलगुरु का अर्थ पारिवारिक गुरु के रूप में ही करते हैं। पर यह सही नहीं है। कुलगुरु वह है जो उपर्युक्त कुलसाधाना में पारंगत होकर सिद्ध हो गया है और दूसरों को भी इसे सिखा सकने की योग्यता रखता है। ‘स्वस्त्यायन’ विद्यातन्त्र के मांगलिक समारोह का एक भाग है। इसके दूसरे भाग को पुरश्चरण कहा जाता है जिसमें कुंडलनी को ऊपर उठाने का कार्य किया जाता है। पुरश्चरण इस पद्धति का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होता है। जहाॅं तक धार्मिक अनुष्ठान का संबंध है शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर और गाणपत्य तन्त्र में कोई अंतर नहीं है परन्तु शैव तन्त्र में जो ‘कुलकुंडलनी ’ की साधना है उसका लक्ष्य परमशिव होते हैं जो शाक्त तन्त्र के अनुयायी ‘महाकाली’ के नाम से सम्बोधित करते हैं और इनका अंतिम उद्देश्य कहलाता है महाकाल अथवा महाकौल अथवा नीरात्माशक्ति। वैष्णव तन्त्र में इन दोनों को ‘राधा और पुरुषोत्तम कृष्ण’ कहा जाता है। फिर भी कुंडलनी जागरण या पुरश्चरण किसी भी पद्धति से क्यों न किया जाय कुलशक्ति हमेशा ही ठोस घटक की तली अर्थात् भौतिक संरचना के आधार में रहती है जिसका बीज मंत्र ‘लं’ होता है। आधारशिला होने के कारण ही यह भाग ‘मूलाधार’ कहलाता है। इसमें सुप्त देवत्व का लक्ष्य भी परमचेतना को पाना ही होता है। कुलकुंडलनी को जाग्रत करने का अर्थ है चेतना का जड़ता के विरुद्ध संग्राम करना। इस संग्राम करने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘हुम’ और कुलकुंडलनी का बीज भी ‘हुम’ ही है। इसीलिए गुरुगण कहते हैं कि रणहुंकार भरो, कुंडलनी के सोने में नहीं , पूछ के बल खड़े हो जाने में ही मानव जीवन का सर्वाधिक हित छिपा है।
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