Sunday, 15 July 2018

201ऋषि,महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि,देवताऔर देवीशक्ति

201ऋषि,महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि,देवताऔर देवीशक्ति
 ‘‘ ऋस् ’’ धातु का शाब्दिक अर्थ अनेक प्रकार से किया जाता है, एक है ‘ऊपर की ओर बढ़ना’ जैसे  जमीन से छत की ओर जाना। इसमें प्रत्यय ‘ई’ जोड़ने पर बने ‘ऋषि’ शब्द का अर्थ होगा ‘जो ऊपर की ओर बढ़ता है’ इसे बोलचाल की भाषा में कहेंगे, उन्नत मन, मस्तिष्क और विचारोें का व्यक्ति। यद्यपि इसका स्त्रीलंग है ‘‘ऋष्या’’ परन्तु ऋषि को नपुंसक लिंग में भी व्यवहृत किया जाता है, जैसे महिला को भी पुरुष की तरह ऋषि कहा जा सकता है और ऋष्या भी । ऋग्वैदिक काल से ही उन्नत चेतना के लोगों को ऋषि कहा जाता रहा है।
जैसे कोई भी मंत्र किसी विशेष छंद में ही बनाया जाता है या जैसे अधिकाॅंश मंत्र परमपुरुष को विशेष नाम से पुकारना सिखाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक मंत्र का ‘‘द्रष्टा ऋषि ’’ होता है जो अपनी साधना, ध्यान या चिन्तन के द्वारा उसकी सच्चाई को अनुभव कर मौखिक रूप से अपने शिष्यों को सिखाता है।

वैदिक युग से ही ऋषियों के चार प्रकार माने गए हैं, महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि।

वे व्यक्ति जो अपने साॅसारिक रूपसे आवश्यक कर्म करते हुए दर्शन के दोनों पक्षों ‘आरण्यक और उपनिषद’ के अनुसार उच्चतर स्तर को पाने के लिए ध्यान, चिन्तन और साधना करते हुए आध्यात्म पथ पर पूर्णता प्राप्त कर सामज सेवा में जुट जाते हैं, उन्हें  ‘‘महर्षि’’ कहा जाता है। जैसे महर्षि विश्वामि़त्र।
वे व्यक्ति जिन्होंने उत्तम देवकुल में जन्म लेकर अपने को आध्यात्मिक साधना के द्वारा उन्नत चेतना में स्थापित कर लिया है वे कहलाते हैं देवर्षि , जैसे देवर्षि नारद।
वे व्यक्ति जो सामाजिक उत्तरदायित्व (जैसे राजसिक कार्य) निर्वहन करते हुए अपने हृदय की पुकार पर आध्यात्मिक चेतना के साथ अपने को संतृप्त कर चुकते हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है जैसे राजर्षि जनक।
वे व्यक्ति जो आजीवन अपने आपको आध्यात्मिक उत्प्रेरणा से जागृत बनाए रहते हैं उन्हें ब्रह्मर्षि कहा जाता है जैसे, ब्रह्मर्षि कण्व, ब्रह्मर्षि अथर्वा।

अथर्ववेद के प्रस्तुतकर्ता अथर्वा को, जो उस काल में आदर्श पुरुष कहलाते थे ‘ब्रह्मर्षि’ के पद पर सम्मानित किया गया था। उनके अनेक साथी ऋषियों को ‘महर्षि’ के पद पर सम्मानित किया गया था जैसे, अत्रि, अंगिरा, अंगिरस, पुलह, पुलस्त्य, सत्यवाह, और वैदर्भि । वे विद्वान जो यह मानते हैं कि वेद, पूर्णतः भारत के बाहर रचित किए गये थे उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता परन्तु कम से कम अथर्ववेद के बारे में नहीं। नाम ‘वैदर्भि ’ प्रकट करता है कि वह विदर्भ अर्थात् नागपुर - अमरावती क्षे़त्र के थे। यह मानना कठिन है कि महर्षि वैदर्भि पूरे मध्य एशिया को पार कर अथर्ववेद की रचना हेतु कहीं बाहर गए होंगे । पर यह माना जा सकता है कि पूरा अथर्ववेद भारत में रचित नहीं हुआ। महर्षि अथर्वा आदर्श पुरुष थे और उन्हें वरिष्ठ होने के नाते सबका सम्मान प्राप्त था।

ध्यान रहे, ऋषि और मुनि का अर्थ एकसा नहीं है। मुनि के दो अर्थ हैं, पहला वह जो मनन करता है अर्थात् बौद्धिक ‘‘ इन्टलेक्चुअल’ और दूसरा वह जिसने अपने मन को परमपुरुष में मिला लिया है।
‘‘ न मुनिर्दुग्धबालकाः मुनिः संलीनमानसः ’’ अर्थात् मुनि का अर्थ ‘‘छोटा सा दूध पीता बालक नहीं वरन वह  जिसने अपना मन ‘परममन’ अर्थात् ‘‘मेक्रोकास्मिक माइंड’’  के साथ मिला लिया है।’’

देवता - जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।
देवीशक्ति - जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, आकार पाता है। ध्यान रहे इस
कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor)  के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

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