Sunday 21 January 2018

179 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -3 )

179 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -3 )

राजू- स्वप्न की अवस्था में मन की कल्पना सत्य सी प्रतीत होती है, उसमें नित्य अथवा अनित्य का बोध किस प्रकार हो सकता है?
बाबा- किसी भी प्रकार के बोध के होने के लिए मानसिक तरंगों का आत्मा के द्वारा प्रतिफलित होना आवश्यक होता है। इस प्रतिफलन के अभाव में वस्तु का बोध नहीं हो सकता। केवल तरंगों के उत्पन्न होने पर वस्तु का बोध नहीं हो सकता। इसीलिए कहा गया है कि यह जीवात्मा, साक्षीसत्ता अर्थात् परावर्तक प्लेट की तरह कार्य करता है। इसके द्वारा मानसिक तरंगों को परावर्तित किए जाने से स्वप्न और जागृत दोनों ही अवस्थाओं में वस्तु का बोध होता है। स्पष्ट है कि यह प्रतिफलक ही है नित्य सत्ता और तरंगें हैं अनित्य सत्ता।

रवि- परन्तु साधारणतः मन डरता क्यों रहता है?
बाबा- जो धीर व्यक्ति हैं उनका लक्ष्य अर्थात् ध्येय है प्रतिफलक सत्ता न कि तरंगें। जिसने इसे अच्छी तरह समझ लिया है वे किसी से क्यों डरेंगे? वे न तो चिंतित होते हैं और न ही डरते हैं क्योंकि वे जानते  और अनुभव करते हैं  कि वह प्रतिफलक सत्ता हमेशा ही उनके साथ हैें, वही नित्य है। जगत का जो कुछ भी है वह तरंगों का समूह मात्र है उसका विशेष पारमार्थिक मूल्य नहीं है क्योंकि वह सब अनित्य है।

इन्दु- हमारे भूतकाल और भविष्य का नियंत्रक कौन है?
बाबा- वही जो तुम्हारे निकटतम हैं। तुम्हारा अपना विन्दु है तुम्हारा जीवात्मा और निकटतम विन्दु है प्रत्यगात्मा। यही ‘ईशानम् भूतभव्यस्य’ हैं अर्थात भूत और भविष्य के नियंत्रक हैं। जो धीर पुरुष इस रहस्य को समझ लेते हैं वे अनुभव करते हैं कि हमारा निकटतम विन्दु सब कुछ जानता है। जो मुझे मालूम है वह भी उन्हें मालूम है और जो मुझे नहीं मालूम वह भी उन्हें मालूम है तो उनसे क्या छिपाऊं।

चन्दू- इस प्रत्यगात्मा अर्थात् अपने निकटतम विन्दु को समझने और अनुभव करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- इसके लिए मन को उचित प्रशिक्षण देना होता है। जैसे सर्कस में बब्बर शेर को दिखाने से पहले बहुत ट्रेनिंग देना पड़ती है वैसे ही मन को रोज सुवह शाम ट्रेनिंग देना होती है। इस ट्रेनिंग के अभाव में शेर को जनता के सामने नहीं लाया जा सकता उसी प्रकार यह मन भी अनुभव सिद्ध लोगों के संपर्क में आकर प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ही अग्रया बुद्धि पाता है और तभी समझ में आता है कि प्रत्यगात्मा सदा ही तुम्हारे साथ में हैं। इस अवस्था में  भिन्नता दिखाई नहीं देती, लगता है कि सभी दृश्य और अदृश्य प्रपंच उसी परमात्मा का ही विग्रह है।

राजू- जो उस एक को नहीं देखकर अनेक को ही देखते रहते हैं उनका क्या होता है?
बाबा- वे बार बार जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं । इसीलिए कहा है कि उस एक की ही उपासना में लगे रहो । अपने इसी ध्येय को पाने के लिए ज्ञान और कर्म का सहारा लिया जाता है । ज्ञान और कर्म की साधना में सिद्धि प्राप्त होने पर ज्ञान पूर्वक कर्म करने का अभ्यास होगा जिससे भक्ति जाग जाएगी। भक्ति के लिए अलग से कोई साधना नहीं है। इसलिए जब तक भक्ति नहीं जागती है प्रेम से कर्म और ज्ञान की चर्चा करो, ज्ञान की जितनी चर्चा करते हो उससे चौगुना कर्म करो तो देखोगे कि जितना कर्म का अनुशीलन किया उससे हजार गुना भक्ति जाग गई है।

रवि- हमें ज्ञान और कर्म की चर्चा करने की आवश्यकता कब तक रहती है?
बाबा- जब समझ में आ जाता है कि सभी में परमात्मा रहते हैं तब इस ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। और कर्म साधना है दूसरों की अधिकतम सेवा करना और अपने को न्यूनतम सेवा देना। जब दूसरों को शत प्रतिशत सेवा देने लगोगे और अपने को शून्य प्रतिशत, तो कहा जाएगा कि कर्म साधना में सिद्धि प्राप्त हो गई।  इस प्रकार ज्ञान और कर्म में सिद्धि प्राप्त हो जाने पर कब भक्ति जाग गई इसका पता ही नहीं चलेगा। इसके बाद अतीत में तुम क्या थे , चोर ,गुन्डा या दुश्चरित्र, यह सब समाप्त हो जाएगा। कृष्ण ने वचन दिया है;‘‘ अपिचेत्सुदुराचारो भजते माम अनन्यभाक् सोपि पापविनिर्मुक्तो मुक्यते भवबंधनात्।’’

Thursday 18 January 2018

178 भावजड़ता (हठधर्मिता) या डोग्मा

178 भावजड़ता (हठधर्मिता) या डोग्मा
बिल्ली द्वारा रास्ता काटना, छींक आना, कौए का घर पर बैठकर बोलना, धार्मिक उत्सव में बलि देना और इसी प्रकार की अनेक मान्यताओं और आधारहीन परम्पराओं से हमारे देश के ही नहीं सारे संसार के लोग प्रभावित पाए जाते हैं, इसे भावजड़ता या डोग्मा कहा जाता है। इसका जन्म भी आदिकाल से ही माना जाता है। सभी इसके दुष्परिणाम जानते हैं परन्तु कोई भी उससे जूझने का साहस नहीं जुटाता। डोग्मा की जड़ें जनमानस में गहराई तक प्रवेश कर चुकी हैं और यदि इस वैज्ञानिक युग में इसे तर्क, विज्ञान और विवेक का सहारा लेकर समाप्त करने की चेष्टा नहीं की गई तो मानव समाज का बहुत नुकसान होगा। भूतकाल में भी भावजड़ता ने हमारे ज्ञान को कितना पीछे धकेल दिया, यह नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से स्पष्ट समझा जा सकता है।
1- सर्वविदित है कि लिपि का अनुसंधान यजुर्वेदिक काल और अथर्वेदिक काल के बीच हुआ उससे पहले वेदों का अमूल्य ज्ञान सुन सुन कर ही याद रखने की परम्परा थी। परन्तु लिपि के अनुसंधान हो जाने के बाद भी यह परम्परा उसी भावजड़ता का वाहक बनी रही और वेदों को बहुत लम्बे समय तक लिखा नहीं जा सका । कहा जाता रहा कि वेद तो सुन कर ही याद रखे जाते हैं। इससे अनेक ऋषियों का ज्ञान उनके साथ ही चला गया या सुनकर याद रखने वाले ने जब किसी दूसरे को हस्तान्तरित किया तो वह बहुत कुछ भूल गया और अधूरा ज्ञान ही आगे बढ़ सका। जिन्होंने भी वेदों को लिखने की कोशिश की उन्हें डराया धमकाया गया और नर्क में जाने का अभिशाप देकर भयाक्रान्त किया गया। हम सभी को ऋषि अथर्वा के कृतज्ञ रहना चाहिए जिन्होंने इस डोग्मा का डटकर मुकाबला किया और अपने अन्य सहयोगी ऋषियों के साथ वेदों को लिखना प्रारंभ कर दिया अन्यथा आज हमारे पास यह ‘‘परा ज्ञान’’ आ ही न पाता ।
2- मूल भारतीय नागरिक द्रविड़ों के पास मेडीकल साइंस और सर्जरी का उन्नत ज्ञान था परन्तु आर्यों ने उसे आगे नहीं बढ़ने दिया क्योंकि उनके अनुसार मृत देह को छूना अपवित्र माना जाता था । द्रविड़ लोग अपने इस सर्जरी के ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए शव परीक्षण और डिसेक्शन आदि किया करते थे अतः आर्यो के समाज में वे हेय और अस्प्रश्य थे । उन्हें राक्षस कहकर हतोत्साहित किया जाता रहा।
3- महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जो ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये। ‘जरा’ को द्रवीड़ियन कुल की होने के कारण ‘जरा राक्षसी ’ कहा गया है । जरासंध इस कुल को आदर देते थे और वह राक्षसी विद्या में पारंगत होकर अपने कौशल में प्रसिद्ध हुए। डोग्मा के कारण यह विद्या ‘जरा’ के साथ ही लुप्त हो गई जिसे आधुनिक विज्ञान ने अब खोज पाया।
4- द्रवीड़ियन अनुसंधानों में एक और महत्वपूर्ण विद्या थी सम्मोहन या हिप्नोटिज्म परन्तु राक्षसी विद्या के नाम पर वह भी लुप्तप्राय कर दी गयी। इस विद्या में पारंगत महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या के जानकार व्यक्ति का उन्नत मन, कमजोर या अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य लोग इन्हें महिला होने के कारण और तथाकथित राक्षसी विद्या से जुड़े होने कारण हेय मानकर तिरस्कार करते थे अतः उनका अनुसंधान आगे नहीं बढ़ पाया।
5- ‘विष चिकित्सा’ भी भारत के मूल निवासियों द्वारा ही विकसित की गयी जिससे भीम को, दुर्योधन के द्वारा विष दिए जाने के बाद भी बचाया जा सका था। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु भावजड़ता के प्रभाव और प्रोत्साहन के अभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्ध काल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं।
6- यह भावजड़ता का प्रभाव ही कहा जाएगा कि हजारों वर्ष पूर्व से स्थापित हमारी उपनिषदों का पराज्ञान आज छिन्न विच्छिन्न होकर संप्रदायों में बाॅंट दिया गया है और सभी अपने को ही सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण कहते हुए दूसरे को हेय सिद्ध करने में जुटे हैं । उन्हें अपने आप में उच्चतर शोध करते हुए नवीनता को जोड़ने में भावजड़ता डसने लगती है, जबकि केेवल पाॅंच सौ साल की आयु का विज्ञान अर्थात् साइंस आज वहाॅं पहुंच गया है जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की गई थी। इतना ही नहीं वह द्रुत गति से और आगे बढ़ेगा तो केवल इस कारण कि वहाॅं प्रत्येक तथ्य को तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर ग्राह्य माना जाता है और इसी आधार पर नए सिद्धान्तों को आदर पूर्व स्वीकार किया जाता है ।
7- कुछ तथाकथित धर्मों (वास्तव में मतों) के अनुयायियों में कट्टरता के बीज इस तरह बोए जाते हैं कि वे अन्य किसी तर्क और विज्ञान सम्मत तथ्य को मानने के लिए विचार तक नहीं करते। वे कहते हैं मजहब में तर्क या अपनी अकल का दखल मान्य नहीं है। इसे वे अपने पूर्वजों की शिक्षा मानकर उसमें अपनी ओर से कुछ भी जोड़ने या घटाने को तैयार नहीं होते चाहे उनका कितना ही नुकसान क्यों न होता रहे। यही कारण है कि आज वे वहीं हैं जहाॅं हजारों वर्ष पहले थे। यह डोग्मा का जादू नहीं तो और क्या है।
इस युग की माॅंग है कि हमें तर्क, विज्ञान और विवेक की कसौटी पर परख कर सच्चे ज्ञान को प्रतिष्ठित करना चाहिए और भावजड़ता को समूल नष्ट कर देना चाहिए। 

Sunday 14 January 2018

177 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -2 )

177  बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -2 )
इन्दु- लेकिन इंद्रियाॅं तो बाहर की ओर ही क्रियाशील रहती हैं इसलिए मन को वे बाहर की ओर ही भ्रमित करती रहती हैं, उन्हें एकाग्र करना बड़ा कठिन है?
बाबा- बात तो सही है परन्तु उहें अन्तर्मुखी करना पड़ता है। बाहरी दृश्य को इंद्रियाॅं मन पर प्रतिफलित करती हैं और मन उसे अनुभव करता है । मन की विशेषता है कि वह एक साथ दो या दो से अधिक दृश्यों को नहीं देख सकता। इस कारण जब इंद्रियों की धारा को अन्तर्मुखी कर दिया जाता है तब वे मन में और मन आत्मा में रूपान्तरित हो जाता है। जब इंद्रियों का वहिर्मुखी प्रवाह था वह दृश्य देख रहीं थीं और आन्तरिक प्रवाह होते ही वे परमात्मा में रूपान्तरित हो गईं। साधना करते समय यही अभ्यास लगातार करना होता है कि इंद्रियाॅं अन्तर्मुखी हो जाएं।

राजू- समस्या तो यह है कि मन सदैव इंद्रियों के साथ बाहरी दृश्यों को ही पसन्द करता है?
बाबा- इसीलिए तो इंद्रियों केा प्रवाह अन्तर्मुखी करने के लिए बार बार अभ्यास करते रहना होता है । इस अभ्यास के करने पर जो व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाते हैं उन्हें ‘‘धीर’’ कहा जाता है। शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार के ‘सुधीर’ व्यक्ति प्रत्यगात्मा को देखने के लिए अपने चक्षु बंद कर लेते हैं।

रवि- ‘प्रत्यगात्मा’ कौन है ?
बाबा- परमात्मा के लिए प्रत्यगात्मा भी कहा जाता है। प्रत्यक माने ‘ विशिष्ट रूपेण विजानाति इति अर्थे प्रत्यक ’ अर्थात् अच्छी तरह से जो जानता है वह। कोई भी जीव जो कुछ भी करता है उसकी आत्मा वह सब जानती है और जो इन सब करने वालों को अच्छी तरह जानते हैं वह हैं प्रत्यगात्मा। इसलिए कहा गया है कि जो धीर व्यक्ति प्रत्यगात्मा को जानना चाहते हैं वह इंद्रियों की बहिर्मुखी धारा को मोड़ कर अन्तर्मुखी बना लेते हैं।

नन्दू- थोड़ा और सरलता से समझाइए ?
बाबा- मनुष्य की कोई भी शारीरिक क्रिया होने के पहले स्थूल मानसिक प्रवाह ‘‘मैं हूॅं’’  मैंपन से निकलकर अहंकार अर्थात् ‘ईगो’ के क्षेत्र में पहुॅंच जाता है। वहाॅं उत्पन्न होने वाली तरंगें वह चित्र बनाने लगती हैं जैसा वह अहंकार संकल्प लेता है, (अर्थात् यह करेंगे, कहेंगे मैं किसी से कम नहीं, इसे डाॅंटेंगे उसे बुलाएंगे आदि)। यह सब रचनाएं चित्ताणुओं में ही बनती जाती है और यथा समय नाड़ीगत तरंगों में रूपान्तरित होकर हाथ पैर से क्रियाशील हो जाती हैं। इस प्रकार बनाए गए चित्र के पीछे प्रतिरूप कहाॅं है, अहंकार में, अहम के प्रवाह में , इस का प्रतिरूप क्या है ‘मैं हूँ ’ । और इस ‘‘मैं हॅूं ’’ में जो प्रवाह है उसका प्रतिरूप कौन  है ? जीवों का आत्मा और आत्मा क्या है परमात्मा का प्रतिफलन। जैसे आकाश में चंद्रमा  है उसका प्रतिफलन तालाब के जल में। तालाब के जल में जो चंद्रमा है वह सत्य है पर उसका भौतिक अस्तित्व न होने से देखा तो जा सकता है पर स्पर्श नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा सकता है कि आॅंखें देख रही हैं इसलिए चंद्रमा उनके लिए है पर हाथ से छू नहीं पाते इसलिए हाथ के लिए नहीं है। तो समझ में आया? जैसे, शारीरिक क्रिया का प्रतिरूप हुआ चित्ताणु और उसका दृष्टा हुआ अहंकार और उसका दृष्टा होगा ‘‘मैं हूँ  ’’ बोध। और, उसका दृष्टा होगा ‘‘अहंबोध’’ अर्थात् आई फीलिंग, जिसका दृष्टाभाव है अणुचैतन्य और अणु चैतन्य का दृष्टा भाव है जैसे पानी वाले चंद्रमा का आकाश वाला चंद्रमा अर्थात् परमपत्मा। आत्मा अर्थात् इकाई चेतना ( यूनिट काग्नीशन) का दृष्टा प्रतिरूप अर्थात् ‘विटनेसिंग काउंटरपार्ट’ है परमात्मा ।

राजू - प्रत्यगात्मा में अमृतत्व है, ऐसा क्यों कहा गया है?
बाबा- इससे पहले यह जान लेना चाहिए कि मृत्यु क्या है। मृत्यु है रूप परिवर्तन ‘‘चेन्ज आफ फार्म।’’ एक पाॅंच साल का बच्चा बीस साल बाद पच्चीस साल का युवा हो गया।  अब, बच्चा तो वही है परन्तु पांच साल का जो शरीर था वह नहीं है, उसकी मौत हो गई। क्या हुआ, छोटे बच्चे का शरीर धीरे धीरे युवा शरीर में बदल गया, एक रूप मरा दूसरा आया, दूसरा मरा तीसरा आया। चॅूंकि इस परिवर्तन में निरन्तरता थी इसलिए यह नहीं कहा जाता कि यह शरीर मर गया। परंतु एक बूढ़े का शरीर मर जाता है तो उसे तुरन्त दूसरा शरीर नहीं मिलता और जब मिलता है तो उसे हम देख नहीं सकते कि कहाॅं मिला; अर्थात् उसमें निरन्तरता नहीं रहती। यही बात समझने योग्य है कि चित्ताणु हर क्षण निकल रहा है, मर रहा है पुराना जा रहा है नया आ रहा है , हर मुहूर्त मनुष्य मर रहा है। मनुष्य दिन में लगभग 24000 बार श्वास प्रश्वास की क्रिया करते हैं और जब श्वास छोड़ते हैं तो तुरन्त श्वास नहीं लेते, एक छोटा सा गैप रहता है तो यह गैप या अन्तराल क्या है वह भी तो मृत्यु है। अन्तर केवल यह है कि यहाॅं हम तुरन्त श्वास ले लेते हैं और लौकिक विचार से जिसे मृत्यु कहते हैं उसके बाद दोबारा श्वास लेते हैं नयी देह में। तो चूंकि एक श्वास लेते हैं इस शरीर में और दूसरी लेते हैं दूसरे शरीर में यही पृथकता है। इसीलिये मरण या मृत्यु क्या है? रूप में परिवर्तन। इसलिए अमृत क्या है? जिसमें रूप में परिवर्तन नहीं है। अमृत वही है जो देश काल और पात्र में बंधा नहीं है । प्रत्यगात्मा देश काल और पात्र में बंधा नहीं है इसलिए कहा जाता है कि उसमें अमृतत्व है।

चन्दू- मृत्यु का नागपाश किसे कहते हैं?
बाबा- वे लोग जिनकी इन्द्रियों की वृत्ति बहर की ओर ही चलती है वे बार बार मरते हैं फिर शरीर पाते हैं फिर मरते हें यही चक्र चलता रहता है इससे छूटना उन्हें बहुत कठिन होता है इसीलिए इसे नागपाश कहा जाता है। इस मृत्यु पाश के साढ़े तीन वलय बताए गए हैं। पहला वलय है जन्म का क्लेश, दूसरा वलय है जीवन का क्लेश, तीसरा वलय है मरण का क्लेश और चौथा आधा वलय है मोह । जीवन भर क्लेश मिलता है परन्तु फिर भी लोग जीना ही चाहते हैं, बुढ़ापा में अनेक कष्ट हैं फिर भी जीना ही चाहते हैं , यही है जीवन से मोह, यदि मरना भी चाहते हैं तो फिर नए जीवन मे सुख मिलेगा इसी आशा से । ये साढ़े तीन चक्कर सांप की कुंडली की तरह मनुष्य को घेरे रहते हैं इसीलिए इन्हें नागपाश कहा जाता है। इसी कारण धीर पुरुष अपनी इंद्रियों को अन्तर्मुखी कर जान लेते हैं कि इस संसार की कोई भी वस्तु अमर नहीं है, नाम यश धन आदि भी सदा साथ नहीं रह सकते , उसके मोह में नहीं पड़ना चाहिए।

Tuesday 9 January 2018

176 पाप, कष्ट, भाग्य और भगवान

176  पाप, कष्ट, भाग्य और भगवान

इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता।

एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है।  उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और अकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से।

अपने द्वारा पूर्व में किए गए कार्यो की प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त परिणामों के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेवार और उत्तरदायी होता है इसके लिए भगवान या किसी अन्य को दोष देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कुछ लोग यह भी कहते देखे जाते हैं कि यदि किसी को किसी ने पेड़ से धक्का देकर गिरा दिया है तो अवश्य ही गिरने वाले ने कभी भूतकाल में उस व्यक्ति को पेड़ से गिराया होगा । या कुछ यह भी कहते पाए जाते हैं कि यदि किसी का दुर्घटनावश पैर टूट गया तो उसने अवश्य पिछले जन्म में किसी का पैर तोड़ा होगा। पर यह बातें अतार्किक और अविवेकपूर्ण हैं। किसी भी प्रतिक्रिया के लिए भौतिक क्रियाओं के द्वारा पारिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए केवल मानसिक प्रभाव ही निर्धारक होता है। किसी व्यक्ति के द्वारा प्रथम क्रिया के समय किस स्तर का मानसिक कष्ट किसी को दिया गया है उसी के आधार पर उस व्यक्ति को प्रतिक्रिया स्वरूप मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। प्रकृति का यही नियम है परन्तु पुजारी और पंडित लोग सभी को मूर्ख बनाकर छलते रहते हैं। वे कहते हैं, अरे ! तुम गरीब हो अपने भाग्य के कारण, इसलिए अब अच्छी तरह व्यवहार करो ताकि अगला जन्म कष्टदायी न मिले। इस प्रकार सम्पन्न अर्थात् पूंजीवादी लोग गरीबों का शोषण करते रहने के लिए उन्हें निष्क्रिय और भाग्यवादी बनाते हैं। इसलिए यह प्रकृति का दृढ़ नियम है कि कोई व्यक्ति जिस स्तर का मानसिक कष्ट दूसरों को देता है उसे भी उसी स्तर का भौतिक या शुद्ध मानसिक कष्ट व्याज सहित सहना पड़ता है। गरीब मौलिक सुविधाओं से रहित होकर भूख से कष्ट पा सकता है तो धनी के पास कितना ही धन क्यों न हो उसे बीमारियों और मानसिक कष्टों के रूप में इसे भोगना पड़ता है। मानसिक कष्ट प्राप्त होने के कुछ उदाहरण ये हैं, किसी विधवा का एकमेव पुत्र मर जाना, किसी स्थापित व्यावसायिक वकील या डाक्टर की असावधानी का अपने वरिष्ठों के समक्ष रहस्योद्घटन हो जाना और अपना सामाजिक महत्व खो जाना।

अपने पिछले कर्मो की प्रतिक्रिया भोगते हुए मनुष्य नये कार्य भी करता रहता है। पिछले कर्मो का फल भोगना अज्ञात भविष्य या भाग्य कहलाता है। चूंकि कर्मो का परिणाम अगले जन्म में ही मिलता है इसलिए यह याद नहीं रह पाता कि वर्तमान में भोगे जाने वाला मानसिक या शारीरिक कष्ट या सुख  किस मूल क्रिया का है। मनुष्य की स्मरण शक्ति इतनी नहीं होती कि वह पिछले जन्मों के कर्मो का स्मरण रख सके। इसलिए अच्छे कर्मो का अच्छा और बुरे कर्मो का बुरा परिणाम स्वयं को ही भोगना पड़ता है प्रकृति का यही नियम है, इसमें भगवान को उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है।

Monday 8 January 2018

175 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -1 )

175 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -1 )

राजू- मुझे यह निर्णय करने में हमेशा ही कठिनाई होती है कि कौन सी वस्तु सदा रहेगी और कौन नहीं?
बाबा- सदा रहने वाला अर्थात् ‘नित्य’ या ‘एटरनल’ या ‘अमर’ उसे कहा जाता है जो स्पेस , टाइम और पात्रगत उपाधियों से मुक्त होता है। जो इन तीनों से बंधा हुआ है वह ‘अनित्य’ अर्थात् मरणधर्मा कहलाता है। चूंकि स्पेस, टाइम और पात्र सभी सापेक्षिक होते हैं अतः वस्तु की सत्तागत स्थिरता नहीं रह पाती। नित्यसत्ता स्पेस, टाइम और पात्र के स्वामी होते हैं अर्थात् ये तीनों उन्हीं में आश्रय पाते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि वह चितिसत्ता अर्थात् ‘काग्नीटिव फेकल्टी ’ सर्वबृहत् सर्वानुस्यूत सत्ता अर्थात् ‘ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी’ हैं।

इन्दु- तो जैसे अन्य वस्तुएं और जीव दिखाई देते हैं वह सर्वानुस्यूत सत्ता या ‘ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी’ हमें अपनी आॅंखों से क्यों नहीं दिखाई देते?।
बाबा- जब सृष्टि की क्रिया होती है तब चितिसत्ता अर्थात् काग्नीटिव फेकल्टी का स्थूलीकरण होकर ‘‘भाव’’ अर्थात् 'एब्सट्रेक्ट' में रूपान्तरण हो जाता है। प्रतिसंचर के अगले क्रम में जब और अधिक स्थूलीकरण होता है तो वह पदार्थ अर्थात् ‘मैटर’ में बदल जाता है। मूल वस्तु वही है परन्तु घनत्व के अधिक होने पर स्थूलता  और कम होने पर सूक्ष्मता प्रकट होती है। इसलिए सिद्धान्ततः यदि वस्तुओं की वाह्य स्थूलता को किसी प्रकार कम किया जा सके तो वह चितिसत्ता में रूपान्तरित हो जाती है । जैसे, किसी ठोस पदार्थ को गर्म करने पर क्रमशः तरल, गैस और प्लाज्मा अर्थात् सूक्ष्म अवस्था में बदल जाता है उसी प्रकार मनुष्य का सबसे बड़ा आधार जिसमें उसका सब कुछ सीमित रहता है वह है ‘मन’ । जब मन को साधना अग्नि में तपाया जाता है तो वह स्थूलता त्याग कर भाव में और फिर आत्मा में रूपान्तरित हो जाता है और उस ट्रान्सेन्डेन्टल एन्टिटी के दर्शन होते हैं। इस प्रक्रिया का नाम है आध्यात्मिक साधना।

राजू- लेकिन बात तो उन्हें आॅंखों से देखने की हो रही थी?
बाबा- जहाॅं तक भौतिक वस्तु को देखने समझने का प्रश्न है उसे यंत्रों और आॅंखों या इंद्रियों से देखा जा सकता है परन्तु वस्तु के होते हुए भी उसे पूरी तरह समझ सकें यह संभव नहीं है क्योंकि हमारी इंद्रियों की क्षमता सीमित है वे केवल एक विशेष तरंग लंबाई से खास तरंग लंबाई के बीच ही संवेदनशील होती हैं उससे अधिक या कम तरंग लम्बाई को वे ग्रहण नहीं कर सकती। इसलिए अत्यंत सूक्ष्म भाव को भाव के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। स्थूल आॅंखों के द्वारा सूक्ष्म मन को नहीं देखा जा सकता। मन के द्वारा ही दूसरों के मन को समझा जा सकता है। यदि कोई कहे कि तुम्हारे पास मन है तो क्या कहोगे? हाॅं ही कहोगे कि नहीं? परन्तु वह कहे कि दिखलाओ कहाॅं है? तो क्या कहोगे? बस यही बात है । न तो अपनी आॅंखों से तुम अपने मन को देख सकते हो और न किसी दूसरे को उसकी आॅंखों से दिखा सकते हो क्यों? इसलिए  कि, वह तो अनुभव की बात है भावात्मक बात है। सभी अपने अपने मन को अनुभव तो करते हैं पर आॅंखों से देख नहीं पाते।

रवि- किसी के मन को अपने मन से कैसे समझ सकते हैं?
बाबा- इस दृष्टान्त से समझने का प्रयत्न करो।  दो भाइयों में से छोटे को डायरिया हो गया, बड़े भाई ने भोजन करते समय पूछा, क्यों ! खाना नहीं खाओगे? उसने कहा तबियत ठीक नहीं है; बड़ा भाई समझ गया कि किस कारण से खाना नहीं खाएगा। अब, मानलो बड़े भाई ने किसी बात पर छोटे को डाॅंट दिया , भोजन करते समय उसने पूछा, क्यों ! भोजन नहीं करोगे? छोटा भाई बोलता है, नहीं तबियत ठीक  नहीं है। बड़ा भाई तत्काल समझ गया कि कारण क्या है। तो, वास्तव में है क्या , मन की बात मन से ही समझ में आती  है, क्योंकि तबियत ठीक न होने का प्रमाण क्या है ? परन्तु समझ सकते हो। स्थूलता को नापने के लिए स्थूल उपकरण चाहिए होते हैं तो सूक्ष्मता को नापने के लिए स्थूल उपकरण किसी काम के नहीं उनके स्थान पर सूक्ष्म उपकरण ही चाहिए होते हैं। अपने मन के सूक्ष्म भाग में जाकर अर्थात् सूक्ष्म बनाकर ही दूसरों के मन के सूक्ष्म भाग में प्रवेश किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

चन्दू- मन के सूक्ष्म भाग में जाने से आपका क्या आशय है ?
बाबा- अच्छा, क्या तुमने ऐसे लोगों को नहीं देखा जिन्हें हंसी मजाक बिलकुल पसंद नहीं होता। वे मजाक करने पर नाराज हो जाते हैं। कारण यह है कि उनके मन की संवेदनाएं स्थूल होती हैं। परन्तु ऐसे लोग भी होते हैं जो हॅंसी मजाक को उसी तरह लेते हैं और समझते हैं कि यह चिढ़ाने के लिए नहीं यह तो दिल्लगी है। इस प्रकार के लोगों के मन की संवेदनाएं सूक्ष्म होती हैं। आत्मा के कुछ स्थूल होने पर वह भाव कहलाता है और वही कुछ अधिक स्थूल हो गया तो पदार्थ कहलाता है। इसलिए स्थूल , सूक्ष्म और भाव एक ही सत्ता के विकास हैं, वह अलग अलग नहीं हैं। मन के स्थूल भाग को हर मनुष्य समझ लेता है परन्तु सूक्ष्म भाग को बहुत कम लोग समझ पाते हैं। जो लोग सूक्ष्म भाग को समझते हैं उन्हें कहा जाता है कि उनमें नान्दनिक रुचि अर्थात् ‘एैस्थेटिक टेस्ट’ है, सूक्ष्म भाव वोध है।

नन्दू- इस गूढ़ता को समझ पाना तो असंभव सा लगता है?
बाबा- सही कहा, यह जो सूक्ष्म सत्ता आत्मा है उसे हर आदमी नहीं समझ सकता। जिनकी अग्रया बुद्धि होती है वे ही इसे समझ पाते हैं। कहा भी गया है कि ‘‘ एष सर्वेषु भूतेषु गूढ़ात्मा न प्रकाशते, दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिनः ।’’

रवि- यह अग्रया बुद्धि क्या है?
बाबा- तुम लोग यह तो जानते ही हो कि मन का नियंत्रक विन्दु मस्तिष्क में होता है और उसके उपकेन्द्र होते हैं उपग्रंथियों में । इसलिए विभिन्न उपग्रंथियों में जैसा रस अर्थात् "हारमोन" क्षरण होता है उसी के अनुसार मन का भाव प्रवाह निर्गत होता है। मन की जो सुकुमार ग्रंथियाॅं है वे मस्तिष्क में नहीं हैं वे हैं हृदय में इसलिए सुख या दुख का अनुभव हृदय में होता है। अतः अग्रया बुद्धि वह मन है जो स्वाभाविक अवस्था में बहुधा विकसित है। मन की पचास वृत्तियाॅं भीतर और बाहर दोनों ओर संचारित होने के कारण सौ (50 x 2 = 100) हो जाती हैं और दसों दिशाओं में सक्रिय होने से एक हजार (100 x 10 = 1000) हो जाती हैं । मानव मन के इन एक हजार प्रकार के विकास प्रवाहों  का नियंत्रण जहाॅं होता है वह सहस्त्रार चक्र,अर्थात  ‘पीनियल ग्लेंड’ कहलाता है। इन एक हजार प्रकार की धाराओं में प्रवाहित हो रहे मन को एक ही विन्दु पर केन्द्रित करने का कार्य जिससे किया जाता है वही अग्रया बुद्धि कहलाती है। साधना क्या है, मन को एक ही विन्दु पर बैठाना। मन की सभी वृत्तियाॅं जब एक ही विन्दु पर केन्द्रित हो जाती हैं तब मन अन्तर्मुखी होकर चितिसत्ता में मिल जाता है। इसी स्पर्श विन्दु पर वह मन, आत्मदर्शन करता है । इस प्रकार की बुद्धि को कुशाग्र (अर्थात् सुई की नोक जैसी पैनी) बुद्धि भी कहते हैं।