Sunday 14 January 2018

177 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -2 )

177  बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -2 )
इन्दु- लेकिन इंद्रियाॅं तो बाहर की ओर ही क्रियाशील रहती हैं इसलिए मन को वे बाहर की ओर ही भ्रमित करती रहती हैं, उन्हें एकाग्र करना बड़ा कठिन है?
बाबा- बात तो सही है परन्तु उहें अन्तर्मुखी करना पड़ता है। बाहरी दृश्य को इंद्रियाॅं मन पर प्रतिफलित करती हैं और मन उसे अनुभव करता है । मन की विशेषता है कि वह एक साथ दो या दो से अधिक दृश्यों को नहीं देख सकता। इस कारण जब इंद्रियों की धारा को अन्तर्मुखी कर दिया जाता है तब वे मन में और मन आत्मा में रूपान्तरित हो जाता है। जब इंद्रियों का वहिर्मुखी प्रवाह था वह दृश्य देख रहीं थीं और आन्तरिक प्रवाह होते ही वे परमात्मा में रूपान्तरित हो गईं। साधना करते समय यही अभ्यास लगातार करना होता है कि इंद्रियाॅं अन्तर्मुखी हो जाएं।

राजू- समस्या तो यह है कि मन सदैव इंद्रियों के साथ बाहरी दृश्यों को ही पसन्द करता है?
बाबा- इसीलिए तो इंद्रियों केा प्रवाह अन्तर्मुखी करने के लिए बार बार अभ्यास करते रहना होता है । इस अभ्यास के करने पर जो व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाते हैं उन्हें ‘‘धीर’’ कहा जाता है। शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार के ‘सुधीर’ व्यक्ति प्रत्यगात्मा को देखने के लिए अपने चक्षु बंद कर लेते हैं।

रवि- ‘प्रत्यगात्मा’ कौन है ?
बाबा- परमात्मा के लिए प्रत्यगात्मा भी कहा जाता है। प्रत्यक माने ‘ विशिष्ट रूपेण विजानाति इति अर्थे प्रत्यक ’ अर्थात् अच्छी तरह से जो जानता है वह। कोई भी जीव जो कुछ भी करता है उसकी आत्मा वह सब जानती है और जो इन सब करने वालों को अच्छी तरह जानते हैं वह हैं प्रत्यगात्मा। इसलिए कहा गया है कि जो धीर व्यक्ति प्रत्यगात्मा को जानना चाहते हैं वह इंद्रियों की बहिर्मुखी धारा को मोड़ कर अन्तर्मुखी बना लेते हैं।

नन्दू- थोड़ा और सरलता से समझाइए ?
बाबा- मनुष्य की कोई भी शारीरिक क्रिया होने के पहले स्थूल मानसिक प्रवाह ‘‘मैं हूॅं’’  मैंपन से निकलकर अहंकार अर्थात् ‘ईगो’ के क्षेत्र में पहुॅंच जाता है। वहाॅं उत्पन्न होने वाली तरंगें वह चित्र बनाने लगती हैं जैसा वह अहंकार संकल्प लेता है, (अर्थात् यह करेंगे, कहेंगे मैं किसी से कम नहीं, इसे डाॅंटेंगे उसे बुलाएंगे आदि)। यह सब रचनाएं चित्ताणुओं में ही बनती जाती है और यथा समय नाड़ीगत तरंगों में रूपान्तरित होकर हाथ पैर से क्रियाशील हो जाती हैं। इस प्रकार बनाए गए चित्र के पीछे प्रतिरूप कहाॅं है, अहंकार में, अहम के प्रवाह में , इस का प्रतिरूप क्या है ‘मैं हूँ ’ । और इस ‘‘मैं हॅूं ’’ में जो प्रवाह है उसका प्रतिरूप कौन  है ? जीवों का आत्मा और आत्मा क्या है परमात्मा का प्रतिफलन। जैसे आकाश में चंद्रमा  है उसका प्रतिफलन तालाब के जल में। तालाब के जल में जो चंद्रमा है वह सत्य है पर उसका भौतिक अस्तित्व न होने से देखा तो जा सकता है पर स्पर्श नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा सकता है कि आॅंखें देख रही हैं इसलिए चंद्रमा उनके लिए है पर हाथ से छू नहीं पाते इसलिए हाथ के लिए नहीं है। तो समझ में आया? जैसे, शारीरिक क्रिया का प्रतिरूप हुआ चित्ताणु और उसका दृष्टा हुआ अहंकार और उसका दृष्टा होगा ‘‘मैं हूँ  ’’ बोध। और, उसका दृष्टा होगा ‘‘अहंबोध’’ अर्थात् आई फीलिंग, जिसका दृष्टाभाव है अणुचैतन्य और अणु चैतन्य का दृष्टा भाव है जैसे पानी वाले चंद्रमा का आकाश वाला चंद्रमा अर्थात् परमपत्मा। आत्मा अर्थात् इकाई चेतना ( यूनिट काग्नीशन) का दृष्टा प्रतिरूप अर्थात् ‘विटनेसिंग काउंटरपार्ट’ है परमात्मा ।

राजू - प्रत्यगात्मा में अमृतत्व है, ऐसा क्यों कहा गया है?
बाबा- इससे पहले यह जान लेना चाहिए कि मृत्यु क्या है। मृत्यु है रूप परिवर्तन ‘‘चेन्ज आफ फार्म।’’ एक पाॅंच साल का बच्चा बीस साल बाद पच्चीस साल का युवा हो गया।  अब, बच्चा तो वही है परन्तु पांच साल का जो शरीर था वह नहीं है, उसकी मौत हो गई। क्या हुआ, छोटे बच्चे का शरीर धीरे धीरे युवा शरीर में बदल गया, एक रूप मरा दूसरा आया, दूसरा मरा तीसरा आया। चॅूंकि इस परिवर्तन में निरन्तरता थी इसलिए यह नहीं कहा जाता कि यह शरीर मर गया। परंतु एक बूढ़े का शरीर मर जाता है तो उसे तुरन्त दूसरा शरीर नहीं मिलता और जब मिलता है तो उसे हम देख नहीं सकते कि कहाॅं मिला; अर्थात् उसमें निरन्तरता नहीं रहती। यही बात समझने योग्य है कि चित्ताणु हर क्षण निकल रहा है, मर रहा है पुराना जा रहा है नया आ रहा है , हर मुहूर्त मनुष्य मर रहा है। मनुष्य दिन में लगभग 24000 बार श्वास प्रश्वास की क्रिया करते हैं और जब श्वास छोड़ते हैं तो तुरन्त श्वास नहीं लेते, एक छोटा सा गैप रहता है तो यह गैप या अन्तराल क्या है वह भी तो मृत्यु है। अन्तर केवल यह है कि यहाॅं हम तुरन्त श्वास ले लेते हैं और लौकिक विचार से जिसे मृत्यु कहते हैं उसके बाद दोबारा श्वास लेते हैं नयी देह में। तो चूंकि एक श्वास लेते हैं इस शरीर में और दूसरी लेते हैं दूसरे शरीर में यही पृथकता है। इसीलिये मरण या मृत्यु क्या है? रूप में परिवर्तन। इसलिए अमृत क्या है? जिसमें रूप में परिवर्तन नहीं है। अमृत वही है जो देश काल और पात्र में बंधा नहीं है । प्रत्यगात्मा देश काल और पात्र में बंधा नहीं है इसलिए कहा जाता है कि उसमें अमृतत्व है।

चन्दू- मृत्यु का नागपाश किसे कहते हैं?
बाबा- वे लोग जिनकी इन्द्रियों की वृत्ति बहर की ओर ही चलती है वे बार बार मरते हैं फिर शरीर पाते हैं फिर मरते हें यही चक्र चलता रहता है इससे छूटना उन्हें बहुत कठिन होता है इसीलिए इसे नागपाश कहा जाता है। इस मृत्यु पाश के साढ़े तीन वलय बताए गए हैं। पहला वलय है जन्म का क्लेश, दूसरा वलय है जीवन का क्लेश, तीसरा वलय है मरण का क्लेश और चौथा आधा वलय है मोह । जीवन भर क्लेश मिलता है परन्तु फिर भी लोग जीना ही चाहते हैं, बुढ़ापा में अनेक कष्ट हैं फिर भी जीना ही चाहते हैं , यही है जीवन से मोह, यदि मरना भी चाहते हैं तो फिर नए जीवन मे सुख मिलेगा इसी आशा से । ये साढ़े तीन चक्कर सांप की कुंडली की तरह मनुष्य को घेरे रहते हैं इसीलिए इन्हें नागपाश कहा जाता है। इसी कारण धीर पुरुष अपनी इंद्रियों को अन्तर्मुखी कर जान लेते हैं कि इस संसार की कोई भी वस्तु अमर नहीं है, नाम यश धन आदि भी सदा साथ नहीं रह सकते , उसके मोह में नहीं पड़ना चाहिए।

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