Sunday 24 September 2017

154, बाबा की क्लास ( दृढ़ और स्वस्थ समाज की आवश्यकता )

154, बाबा की क्लास ( दृढ़ और स्वस्थ समाज की आवश्यकता )

राजू- आपने पिछली अनेक चर्चाओं में भूतकाल में धरती पर समय समय पर आए महापुरुषों के द्वारा दी गई महान शिक्षाओं की जानकारी दी है, परन्तु हजारों वर्ष बीतने के बाद भी समाज में मौलिक परिवर्तन नहीं हो पाया और न ही उनकी अमूल्य शिक्षाओं का पालन, इसका क्या कारण है?
बाबा- यह बात सही है कि इस ग्रह पर अभी तक प्रबल और स्वस्थ मानव समाज का निर्माण नहीं हो पाया है। इसका मुख्य कारण है किसी आदर्श दर्शन का उपयुक्त प्रसार न हो पाना। यद्यपि समय समय पर कुछ महापुरुषों  ने प्रबल और स्वस्थ मानव समाज की स्थापना करने का विचार किया परन्तु , उनका प्रयास आदर्श की स्थापना के स्थान पर अपनी स्वयं की महत्ता को प्रतिष्ठित करने तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार आदर्श की स्थापना पीछे खिसक गयी और उन्होंने अपने आप को महात्मा और महापुरुषों के रूप में प्रचारित कर स्वयं को ही पूजा करने योग्य घोषित कर दिया। अतः आदर्श के अभाव में प्रबल मानव समाज की स्थापना नहीं हो सकी और व्यक्तिगत जीवन में भी अनेक प्रकार के दोषों ने जन्म ले लिया।

रवि- इसका मूल कारण वे महापुरुष स्वयं हैं या उनके अनुयायी?
बाबा- इस धरती पर अनेक सन्त, ऋषि और महापुरुष आए और मनुष्यों को आदर्श और धर्म की शिक्षाएं दी परन्तु उनके शिष्यों ने बार बार उन शिक्षाओं से किनारा कर केवल उनकी जादुई कहानियों और चमत्कारों को ही प्रचारित किया जिनके आधार पर ही जन सामान्य को सबसे अधिक ठगा जाता रहा।

नन्दू- परन्तु आपने बताया था कि आज से 7000 हजार वर्ष पूर्व, महासम्भूति ‘‘लार्ड शिव ’’ आये तब उन्होंने तन्त्रविज्ञान, वैद्यक शास्त्र, ध्यान, संगीत, कला, समाज निर्माण आदि पर अनेक शिक्षायें दी थी तो उनका प्रभाव क्यों नहीं पड़ा?
बाबा- यह बिलकुल सत्य है कि भगवान सदाशिव ने तत्कालीन समाज को सुव्यवस्थित ढंग से जीवन जीने के विज्ञान को सिखाने के लिए विश्व के प्रत्येक कोने का भ्रमण किया और जिस स्थान पर जिस भी कौशल को समझने और समझा पाने की योग्यता धारक व्यक्ति उन्हें मिला उसे उन्होंने प्रशिक्षित कर समाज को शिक्षित करने का दायित्व सौप दिया । जैसे, मनुष्य की मूल आवश्यकताएं हैं भोजन, आवास, चिकित्सा, शिक्षा और मनोरंजन। इसलिए उन्होंने सबसे पहले ‘नन्दी’ को कृषि और पशुपालन के कार्य में प्रशिक्षित कर अन्य सभी को सिखाने का कार्य सौपा। यहां वहां नदियों के किनारे भटकने या गुफाओं में रहने के स्थान पर घरों का निर्माण और पानी के लिये कुओं के निर्माण की तकनीकि अर्थात् स्थापत्य कला में ‘विश्वकर्मा’ को दक्ष बनाया तथा समाज के अन्य लोगों को सिखाने के लिये आदेश दिया। समाज के सभी लोग स्वस्थ रहें इसके लिये ‘धन्वन्तरी’ को आयुर्वेद में प्रशिक्षित किया और कहा कि वह अन्य अनेक लोगों को इस विद्या में दक्ष करें। एक ही प्रकार का काम करते हुए लोग ऊब का अनुभव न करें इसलिए ‘भरत’ को संगीत अर्थात् नृत्य, वाद्य और गीत की कला में प्रवीण कर अन्यों को सिखाने के लिये कहा। मानव जीवन के सर्वोच्च आदर्श ‘आत्मसाक्षात्कार‘ करने की विद्यातन्त्र विधियों में अपने पुत्र ‘‘भैरव‘‘ और पुत्री ‘‘भैरवी’’ को प्रशिक्षित कर समाज में अन्य लोगों को शिक्षित करने भेजा और अपने अन्य पुत्र ‘‘कार्तिकेय’’ को इन सभी कार्यों  के पर्यवेक्षण का काम सौपा । परन्तु ज्योंही उन्होंने धरती को छोड़ा उनके अनुयायियों ने भगवान शिव के चमत्कारों और कहानियों को प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया और जनता को उनकी यथार्थ शिक्षाओं से वंचित कर उनके मन में ‘‘डोगमा’’ केन्द्रित अंधानुकरण भर दिया और वे उनकी शिक्षाओं के बिलकुल उल्टा करने लगे। धर्म साधना करने के स्थान पर वे उनकी मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे। इससे समाज का अहित हुआ , उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, वह अंधानुकरण की ओर प्रवृत्त हो गया और शिव के द्वारा स्थापित आदर्श को सदा के लिए भुला दिया गया ।

चन्दू- लेकिन भगवान कृष्ण तो सचमुच चमत्कारों का प्रदर्शन अपने जन्म के समय से ही करते रहे, क्या यह गलत है?
बाबा- तुम्हारा कहना ढीक है। जब आज से 3500 वर्ष पूर्व, महासम्भूति ‘‘लार्ड कृष्ण’’ आये, तो तत्कालीन छोटे छोटे राज्यों में विभक्त समाज में अपने अपने वर्चस्व की लड़ाइयाॅं जारी थीं उनसे मुक्त कर, सुसंगठित महाभारत की रचना करने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि सभी लोग एक ही आदर्श की स्थापना करने के लिए संकल्पित हों और यम, नियम , आसन , प्राणायाम, योग और ध्यान आदि का अभ्यास करते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुचें। परन्तु यही उनके साथ हुआ। उनके अनुयायियों ने उनकी जादुई और चमत्कारिक कहानियों को तो प्रचारित किया परन्तु उनके आदर्श को भुला दिया। सरलीकरण का बहाना कर उनकी मूर्तियां बनाकर पूजने की स्वार्थमयी विधियों की कल्पना कर भ्रमित किया जाने लगा। उनकी मौलिक शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत चलने के कारण समाज को अपार क्षति का सामना करना पड़ा। उनकी जादुई कथाओं के कारण उनकी सभी शिक्षाओं को भुला दिया गया और जनता अंधेरे में भटकने लगी। भगवान शिव और कृष्ण के द्वारा दिये गए दर्शन को उनकी जादुई कथाओं की तुलना में महत्व ही नहीं दिया गया अतः जनसाधारण उन्हें सीखने से वंचित हो गया।

इन्दु- क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि साक्षात् परमपुरुष ने जब मानव जीवन का मूल उद्देश्य योग साधना कर आत्म साक्षात्कार करना ही प्रतिपादित किया है तो फिर उपासना की इस पवित्र पद्धति में आत्मघातक विकृतियाॅं कैसे आ गईं?
बाबा- वैसे तो मनुष्यों में एक हजार प्रकार की मनोवृत्तियाॅं होती हैं परन्तु लोभ, मोह , स्वार्थ और वासना की जड़ें बहुत ही गहरी हैं जिनके प्रभाव में वे केवल धन, पद , प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य के साधनों को ही पाने के उपाय और कार्य करते हैं। इस दुर्बलता को पहचान कर कुछ चतुर लोगों ने बिना परिश्रम किये दूसरों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए नये नये देवी देवताओं की कल्पना कर उनकी पूजा करने की विधियों को भी बना लिया। कोई धन देने के लिए ,कोई रोगों को नाश करने के लिए, कोई शत्रुओं को नष्ट करने के लिए, कोई पद और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अनेक आकार प्रकार के देवताओं की मूर्तियाॅं बनाकर वे उनकी पूजा कराने लगे । यदि सावधानी  से उनकी विधियों और उन्हें प्रसन्न करने के तथाकथित मंत्रों और स्तुतियों पर चिन्तन किया जाय तो पता चलेगा कि उनमें से यदि कुछ लाइनें, जिनमें उनके मन वाॅंछित फल, धन , पद और अन्य  कामनाओं की पूर्ति की गारंटी दी गई है, हटा दी जाएँ  तो शायद ही फिर वे कभी उनकी पूजा करने जायें। तात्पर्य यह है कि उन देवताओं से उनको तभी तक मतलब है जब तक वे उन्हें चाही गई वस्तुएं प्रदान करते हैं अन्यथा नहीं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की शिक्षाएं अपने मूल उद्देश्य से भटकेंगी ही।

रवि- पर मानव समाज के इतिहास में शिव और कृष्ण के बाद भी तो अनेक महापुरुष आए हैं उन्होंने क्यों कुछ नहीं किया?
बाबा- आज से 2500 वर्ष पूर्व हुए  ‘लार्ड महावीर और बुद्ध’ ने भी पशुओं की हत्या नहीं करने और शांति सद्भाव से धर्मसाधना करने की शिक्षा दी परन्तु उनके साथ भी यही हुआ। उनकी शिक्षाएं भुलाकर जादुई कहानियों में जन साधारण को उलझाये रखा गया  यही कारण है कि वे सब उनकी शिक्षाओं के विपरीत ही कार्य करने लगे। उनकी मूर्तियाॅं बनाकर उनकी ही पूजा करने लगे और ईश्वर के नाम पर पशुओं की बलि देने लगे। आज से 2017 वर्ष पूर्व प्रभु यीशु और 1447 वर्ष पूर्व मोहम्मद पैगम्बर धरती पर आए जिन्होंने भी पूर्व महापुरुषों की भांति केवल एक निराकार सत्ता को सर्वोपरि मानकर समर्पण भाव से उन्हें पाने की विधियाॅं सिखाईं परन्तु उनके साथ ही वही हुआ जो उनके पूर्ववर्तियों का हुआ। उनकी शिक्षाओं का पालन करने के स्थान पर उनकी चमत्कारिक शक्तियों को बताकर उन्हें ही पूजा जाने लगा और अपने को श्रेष्ठ कहकर अत्याचारों को प्रश्रय दिया जाने लगा। इनके बाद के भी किसी भी महापुरुष का उदाहरण ले लो चाहे वह शंकराचार्य हों  या चैतन्य महाप्रभु, कबीर हों या रहीम, तुलसीदास हों या सूरदास, सभी महापुरुषों की शिक्षाओं का यही हाल हुआ है। सभी का कारण एक ही था कि उनके द्वारा स्थापित आदर्श का तर्क , विज्ञान और विवेक पर आधारित सही सही प्रचार और प्रसार नहीं किया गया । इसलिये सबल और स्वस्थ समाज निर्माण करने के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है योग्य और जानकार व्यक्ति के द्वारा सच्चे आदर्श की सही व्याख्या करना और उसका प्रचार प्रसार करना।

इन्दु- धरती पर प्रचलित तथाकथित धर्मो ( वास्तव में मतों ) में विद्वेश की भावना क्यों भरी हुई है?
बाबा- सामान्य मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में अलग अलग मतों या धर्मों के लोग दूसरे मतों या धर्मों को नष्ट करने में लगे हैं। इससे खून की नदियाॅं बहने लगी हैं। प्राचीन भारत में आर्यों ने आस्ट्रिक समाज पर वैदिक धर्म को थोपना चाहा। बुद्धकाल में विशेषतः राजा बिंबिसार के समय बौद्ध धर्म को अन्य धर्मों पर लादने का कार्य किया गया। इसके बाद सनातन हिन्दुओं ने बौद्धों और जैनों को बलपूर्वक हिन्दु धर्म में खींचा। इसी प्रकार असंख्य यहूदियों को ईसाई धर्म में बदला गया। अंग्रेजों के शासन काल में क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा भारत के मूलनिवासियों को हिन्दु धर्म से ईसाई धर्म में लाने के प्रयास किये जाते रहे। मुसलमानों के शासन में इस्लाम को भारत, पेरिस, और इजिप्ट में थोपा गया। यही कारण है कि संसार के सभी धर्मो में विद्वेश की भावना भरी हुई है।

राजू- तो इन परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए?

बाबा- सर्वप्रथम तो तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर महासम्भूतियों द्वारा प्रतिष्ठित पराज्ञान को केन्द्रित कर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। फिर जीवन यापन के लिये समुचित सात्विक साधनों का उपयोग करते हुए आदर्श की स्थापना करने के लिए स्वयं द्रुत गति से आगे बढ़ना चाहिए और अन्य सभी को भी इस आदर्श को अच्छी तरह समझा कर उसके अनुसार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यही सबल, स्वस्थ और सद्विप्र समाज के निर्माण की प्रारंभिक आवश्यकता है, इसकी पूर्ति करने पर ही हम अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त हो सकेंगे।

Tuesday 19 September 2017

153 दुष्टों के आश्चर्यजनक लक्षण

153 दुष्टों के आश्चर्यजनक लक्षण

जीव वैज्ञानिक कहते हैं कि वे प्राणी जो समुद्रों की गहराई में रहते हैं अंधेरे में जन्म लेने और उसी में रहने के कारण, उनकी आॅंखे नहीं होती । इसलिये स्वभावतः उनके शरीर से प्रकाश निकलता है और सुरक्षा के लिये उनकी रीढ़ बड़ी ही संवेदनशील होती है। किन्हीं किन्हीं की ग्रंथियों में विष निकलता है और किन्हीं की आवाज में मधुरता होती है। इस प्रकार निकलने वाले कम्पनों की सहायता से उनके देख पाने की कमी को पूरा करने के लिये प्रकृति यह व्यवस्था कर देती है और वे अपना अस्तित्व इन सूक्ष्म स्पन्दनों की सहायता से बनाये रखते हैं।

इसी प्रकार जन्मजात दुष्ट व्यक्ति की आघातों को सहन करने की क्षमता सामान्य व्यक्तियों से अधिक होती है। जितनी मार पड़ने पर किसी सामान्य व्यक्ति की मौत हो जाती है उतनी, इस प्रकार के जन्मजात दुष्टों के द्वारा आसानी से सहन कर ली जाती है। तात्पर्य यह कि ऐंसे लोगों का एकपक्षीय विकास होने लगता है। इन  व्यक्तियों के अंगों से खून भी बहने लगता है तो उन्हें उसका कोई भी कष्ट अनुभव नहीं  होता वरन् उन्हें खून के बह जाने पर आराम ही मिलता है।

इस प्रकार के लोगों को प्रकृति के इशारों का पहले से ही बोध भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार के मामलों में वे कुछ हद तक मानवेतर प्राणियों जैसे हो जाते हैं।

फिर भी, कितना आश्चर्य है कि  इस प्रकार की शक्तियों को पाने के लिये सद् गुणी   व्यक्ति को बहुत परिश्रमपूर्वक कठिन आध्यात्मिक साधना करना पड़ती है।

Sunday 17 September 2017

152 बाबा की क्लास ( सामाजिक जीवन 2 )

152 बाबा की क्लास ( सामाजिक जीवन 2 )

राजू- तो मनुष्य के स्तर तक आ जाने के बाद किसी व्यक्ति को क्या धन अर्जित नहीं करना चाहिए? यदि हाॅं तो कितना, और नहीं तो उसका लक्ष्य क्या होना चाहिए?
बाबा- मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है । अतः सात्विक भोजन द्वारा यम नियमों का पालन करते हुए, सात्विक कार्योंं से उतना धन अर्जित करना चाहिये जितना स्वयं के जीवन यापन हेतु अनिवार्य है इससे अधिक नहीं और न ही संग्रह करना चाहिये। यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिये कि जिसका भलीभाॅंति, सरलता पूर्वक रक्षण न कर सकें उसका संग्रह कभी न करें , इससे अनावश्यक  चिंतायें नहीं आ सकेंगी और भगवद् ध्यान चिंतन के लिये समय मिलता जायेगा नहीं तो चिंताओं का अंबार लगा रहेगा और उसी की उधेड़बुन में सब कुछ धरा रह जायेगा।

इन्दु- यह तो तभी संभव है जब व्यक्ति स्वस्थ रहे?
बाबा- हाॅं, मन और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहें इसके लिये नियमित रूप से दोनों समय ईश्वर  प्रणिधान और योगासनों को करते रहना चाहिये। सामान्यतः सर्वांगासन, मत्स्येन्द्रासन, कर्मासन, मत्यमुद्रा, अग्निसार मुद्रा, नौकासन, और शशकासनआयु के अनुसार  नियमित रूप से करते रहने से शरीर में अनावश्यक  यूरिक एसिड और कैल्सियम आदि का जमाव नहीं हो पाता अतः शरीर लचीला बना रहता है और किसी भी प्रकार के रोगों से शरीर अपना बचाव स्वयं ही करता रहता है। योगासनों और अष्टाॅंगयोग का नियमित पालन करने वाला शरीर सदैव निरोग रहता है उसे औषधियों की आवश्यकता  नहीं होती।

चंदू- क्या स्वस्थ शरीर के लिए भोजन की मात्रा भी निर्धारित है?
बाबा- स्वस्थ शरीर के लिए उसके द्वारा किए चयनित कार्यक्षेत्र के अनुसार पोषणयुक्त आहार दिन में दो बार लेना चाहिए। भोजन का सार तत्व ‘‘लसिका’’ अर्थात् (लिम्फ) मस्तिष्क का भोजन है अतः इसे संरक्षित रखना चाहिये। एक माह तक भोजन करने में चार दिन के भोजन के बराबर लिंफ अतिरिक्त हो जाता है जिसे शरीर में ही अवशोषित बनाये रखने के लिये दोनों एकादशियों, अमावश्याओं  और पूर्णिमाओं  को निर्जल उपवास करना चाहिये। सन्तानोत्पत्ति के लिये ही इस अतिरिक्त लिंफ का उपयोग करना चाहिये अन्यथा नहीं । यह सावधानी रखने पर ही गुणवान और जीवन सार्थक करने वाली संतान पैदा होगी अन्यथा अरबों की भीड़ में वे भी शामिल होते जावेंगे।

रवि-   आपने इससे पहले बताया है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होने के कारण कर्मफल भोगना ही पड़ता है, इससे कोई भी बच नहीं सकता और अपने अपने कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। परन्तु अनेक लोग ऐसे भी है जो कर्मफल भोगने से बचने के लिये अन्य तरीके अपनाते हैं, जैसे ‘ग्रहशान्ति’ या प्रायश्चित्त के लिए ‘हवन’, आदि। उनकी ये विधियाॅं कितनी सार्थक होती है?
बाबा-  कुछ लोगों का विश्वास  है कि ‘ग्रहशांति’ करने और ‘प्रायश्चित्त ’ में या ‘हवन’ करने से वे कर्मफल भोगने से बच जावेंगे। उनका यह विश्वास  गलत है क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना अनिवार्य है, मन अपनी सामान्य अवस्था तभी आ पायेगा जब वह प्रतिक्रिया प्राप्त कर ले । प्रकृति के इस नियम को कोई नहीं बदल सकता। परंतु कर्मफल भोगने की गति को धीमा या तेज किया जाना संभव है जो मन को वापस सामान्य अवस्था में ले आएगा। जैसे, मानलो कोई कर्मफल को भोगने में एक माह लगता है तो विद्यातंत्र की सहायता से उसे एक दिन में या एक वर्ष में पूरा करना संभव है जो इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कितना त्वरित किया गया है या मंदित, परंतु उसे पूर्णरूप से समाप्त करना कभी भी संभव नहीं है। किसी को एक माह में वापस करने की शर्त पर एक सौ रुपये दिये गये तो यह संभव है कि कर्ज देने वाला एक माह की जगह एक वर्ष में वापस करने को राजी हो जावे पर उधार लिया गया धन तो वापस करना ही पड़ेगा। ऋण वापस करने की अवधि में परिवर्तन संभव है पर धन वापस करना माफ नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के खाते में एक सौ पचास रुपये  इस शर्त पर जमा किये गये हैं कि वह  पाॅंच रुपये प्रति दिन की दर से खर्च करेगा तो वह चाहे उन्हें एक दिन में ही खर्च कर दे या शर्त के अनुसार  एक माह में व्यय करे, जमा किया गया धन जमा कर्ता के द्वारा ही उपयोग किया जावेगा अन्य के द्वारा नहीं , वह एक दिन में करे या एक माह में।

नन्दू- क्या विद्यातान्त्रिक विधियों के द्वारा कर्मफल भोगने से कुछ लाभ हो सकता है?
बाबा- विद्याताॅंत्रिक क्रियाओं से कर्मफल के भोगने का प्रकार बदला जा सकता है जैसा कि इन  उदाहरणों में बताया गया है, परंतु कर्मफल का भोग या भाग्य नहीं बदला जा सकता। कर्मफल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ेगा हाॅं भोग करने के समय को लंबा या छोटा किया जा सकता है। जैसे, ऋणकर्ता को एक साथ रुपये लौटाने में अधिक मानसिक कष्ट होगा परंतु किश्तों  में लौटाने पर समय अधिक लगेगा पर मानसिक कष्ट की मात्रा समय के विस्तार में अधिक प्रतीत नहीं होगी। इस प्रकार विद्यातंत्र की सहायता से कष्ट भोगने के समय का विस्तार हो जाने से कष्ट की तीब्रता घट जाने पर लगता है कि कर्मफल नहीं भोगना पड़ा। उदाहरणार्थ, किसी के भविष्य में हाथ टूटने की घटना होना है तो उसे इसकी मानसिक पीड़ा भोगना पड़ेगी, पर विद्यातंत्र साधना से उसके हाथ के टूटने को रोका जाकर उतना ही मानसिक कष्ट भुगतने के लिये छोटी छोटी घटनाओं में बदलकर लम्बे समय तक चलाया जा सकता है परंतु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। कष्ट लंबे समय तक छोटी छोटी घटनाओं में बदल गया जैसे, हाथ में पहले खरोंच आ जाये फिर बीमार पड़ जाये और उसे कष्ट भले ही किष्तों में भोगना पड़े पर जब तक हाथ टूटने के कष्ट के बराबर कष्ट नहीं भोग लिया जावेगा तब तक कर्मफल समाप्त नहीं होगा। जिस प्रकार कर्मफल भोगने का समय बढ़ाया जाना संभव है उसी प्रकार उसे घटाना भी संभव है।

इन्दु- लेकिन देखा गया है कि जो सन्तगण विद्यातन्त्र की साधना करते हैं वे तो एक न एक कष्ट भोगते ही रहते हैं, इसलिए अधिकांश लोग उन विधियों को अपनाने से डरते हैं?
बाबा- वे लोग जो इसी जीवन में मुक्त होने के लिये विद्यातन्त्र के अनुसार परम पुरुष की साधना करते हैं वे कष्ट और सुख अतिशीघ्रता से अनुभव करते हैं जिससे वे यथा संभव कम समय में अपने कर्मफल को भोग लें। इस तरह उन्हें आगे भोगने के लिये और प्रकृति के बंधन में फॅंसाने के लिये कुछ भी नहीं बचता।

रवि- कुछलोग सोचते हैं कि बुरे कामों के परिणाम भोगने से बचने के लिये उन्हें अच्छे काम करने के द्वारा संतुलित करना लेना चाहिए। उनके अनुसार यदि अच्छे और बुरे कर्म बराबर बराबर हो जावेंगे तो फिर उनके परिणाम एक दूसरे को उदासीन कर देंगे और फिर भोगने के लिये कुछ न बचेगा?
बाबा- नहीं, यह न तो होता है और न ही संभव है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि चाहे अच्छे कर्म हों या बुरे वे मन पर अपना प्रभाव डालकर उसमें विरूपण उत्पन्न करते हैं। मन को पूर्वावस्था में आने के लिये अर्थात् इस विरूपण को दूर करने के लिये बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना आवश्यक  है। इसलिये बुरे कार्य को करने से हुआ मन का विरूपण अच्छे कार्य से नहीं दूर किया जा सकता क्योंकि वह मन पर और अधिक विरूपण ही उत्पन्न करेगा। प्रत्येक कार्य की स्वतंत्र बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना चाहिए। स्वतंत्र क्रिया से जब मन का प्रत्येक विरूपण हट जाता है तो व्यक्ति को क्रमागत रूप से अच्छे या बुरे कर्म के अनुसार पृथक पृथक परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिये  कोई भी व्यक्ति बुरे काम के परिणाम अच्छे कामों से उदासीन नहीं कर सकता। अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा परिणाम अलग अलग उचित समय पर अनुभव किया जाता है यह प्रकृति का नियम है। इसप्रकार, तर्क पूर्वक यह सिद्ध हुआ कि कर्मफल का भोगना टाला नहीं जा सकता। इसलिये भगवान को दोष देना या परिणाम से बचने के लिये उनसे प्रार्थना करना केवल मूर्खता है। जिसने कर्म किया है उसे ही फल भोगना होगा। यदि तुम आग में हाथ डालते हो तो वह जलेगा ही वैसे ही प्रकृति का यह भी नियम है कि कर्म की प्रतिक्रिया होगी ही, भगवान उसके लिये दोषी नहीं हैं उसके लिये कर्म का कर्ता ही उत्तरदायी है।

राजू- परन्तु संसार में प्रचलित सभी धर्मो या मतों के पंडितगण यह कहते हैं कि प्रार्थना करने पर ईश्वर कष्ट दूर करते हैं या वाॅंछित फल दे देते हैं?
बाबा-‘प्रार्थना’ में कोई न कोई वाॅंछित वस्तु या फल की चाह होती है । अर्थात् प्रार्थना एक प्रकार से  परमसत्ता के पास किसी लाभ के लिये भेजे जाने वाली पवित्र याचिका ही है। याचिकाकर्ता सोचता है कि उसे जो चाहिये है वह ईष्वर से माॅंग ले क्योंकि वह केवल अपनी इच्छा से ही उसकी पूर्ति कर सकते हैं। प्रार्थना से या माॅंगकर, क्या वह ईष्वर की इच्छा को जागृत नहीं करता कि उसके पास जो नहीं है वह प्राप्त हो जाये? इसका क्या यह अर्थ नहीं है कि वह ईश्वर  को याद दिला रहा है कि जिन चीजों से उसे वंचित रखा गया है वे दी जावें, अन्यथा प्रार्थना की कोई आवश्यकता  नहीं थी? मानलो कोई व्यक्ति इस विश्वास  के साथ कि केवल भगवान ही मुझे धन दे सकते हैं, प्रार्थना करता है तो क्या यह प्रकट नहीं करता कि ईष्वर ने उसके साथ भेदभाव किया है! क्योंकि जब केवल ईष्वर ही धन दे सकता है तो उसने अन्य सब को दिया पर उसे वंचित क्यों रखा? अतः यह तो ईष्वर पर आक्षेप लगाना और उसकी गलती बताना ही सिद्ध हुआ। इससे केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि ईष्वर ने भेदभाव कर किसी को धनी और किसी को गरीब बनाया है। अतः जब प्रार्थना से यह निष्कर्ष निकलता है तो प्रार्थना करना व्यर्थ है। किये गये कर्म का फल स्वयं को भोगना ही पड़ता है ईष्वर पर आरोप लगाना अज्ञानता है। आग में हाथ डालने से वह अवष्य ही जलेगा प्रार्थना से उसे बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रार्थना स्वीकार करने पर या तो ईष्वर को आग के जलाने के गुण को समाप्त करना पड़ेगा या फिर हाथ की संरचना में परिवर्तन कर ऐसा बनाना पड़ेगा कि वह न जले, जो कि असंभव है। ईश्वर  की रचना में कोई त्रुटि नहीं है क्योंकि  उसकी छोटी या बड़ी सभी चीजें अपने अपने धर्म का पालन करतीं हैं, अन्यथा प्रत्येक पद पर अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती। इसलिये किसी की प्रार्थना को स्वीकार करने के लिये ईश्वर  अपने नियमों में परिवर्तन नहीं करेंगे। इसलिये प्रार्थना कर कुछ माॅंगने से केवल समय ही नष्ट होगा, वह भाग्य नहीं बदल सकती।

रवि- तो इस तर्क के अनुसार ईश्वर की ‘स्तुति’ करना भी व्यर्थ होगा?
बाबा- ‘स्तुति’ करना भी ईश्वर  के गुणों की भजन या गीत गाकर प्रशंसा  करना ही है। इसे चापलूसी करने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। जब कोई कुछ देने के योग्य होता है तो याचक उसकी प्रशं सा कर चापलूसी करता है। इसी प्रकार ईष्वर से कुछ पाने के लिये उसे याद कराना कि वे अंतर्यामी हैं, सर्वषक्तिमान हैं,  कृपालु हैं, कल्याणकारी हैं क्या चापलूसी नहीं है? इसलिये स्तुति भी प्रार्थना की तरह अप्रभावी होती है और केवल समय नष्ट करती है।

इन्दु- फिर कन्फ्यूज कर दिया ! आखिर जिन्हें आप भक्त कहते हैं वे भी तो भजन कीर्तन कर उन्हीं का यशगान करते हैं, तो आपके इसी तर्क के अनुसार वह भक्ति भी बेकार हुई?
बाबा- नहीं, ‘भक्ति‘ इन सबसे भिन्न है। भक्ति षब्द संस्कृत के ‘‘भज्’’ और ‘‘क्तिन’’ को संयुक्त करने पर बनता है, जिसका अर्थ है ‘‘ प्रेमपूर्वक पुकारना‘‘ यह स्तुति या चापलूसी या प्रार्थना नहीं है। यह ईष्वर को प्रेम से पुकारना है। इस पुकार का क्या औचित्य है? वास्तव में सृष्टि में इकाई चेतना को सगुण ब्रह्म ने अवसर दिया है कि वह अपने सार्वभौमिक मूल स्तर में वापस आने का प्रयास कर सकती हैं जो उन्हें प्रेम से पुकारने पर ही संभव होता है। परमसत्ता की ओर जाने का एकमात्र रास्ता उन्हें प्रेम पूर्वक पुकारने के अलावा दूसरा नहीं है। मानव मन का स्वभाव यह है कि वह वैसा ही हो जाता है जैसा वह विचार करता है, जैसे कोई सोचता रहे कि वह पागल हो जावे तो वह वास्तव में हो जावेगा क्योंकि उसके मन में वही विचार गूॅंजते रहते है। इसलिये इकाई चेतना जो परमचेतना की ओर तेजी से जाना चाहती है उसे उसके प्रति समर्पित होना होगा, इसे ही भक्ति  या उसे प्रेम से पुकारना कहते हैं। इकाई चेतना बार बार यह दुहराती है कि ‘‘मैं वही हूॅं’’ अतः समर्पित भाव से एक दिन वह परम चेतना ही हो जाती है। भक्ति, प्रार्थना या स्तुति नहीं है, पर कुछ लोग यह कहते है कि परमचेतना में मिल जाना या मुक्ति की चाह रखना भी एक प्रकार की प्रार्थना ही है। परंतु यह ऐसा नहीं है, क्योंकि ईश्वर  ने मनुष्य को इसी उद्देष्य से बनाया है कि वह उसी की तरह परमस्तर पर वापस आये। अतः जब यह ईष्वर की ही इच्छा है तो जो भक्ति के द्वारा  ईश्वर  की इच्छा पूरा करने का प्रयत्न करता है  उसे प्रार्थना करने की आवश्यकता  नहीं है। इसलिये भक्ति ही वह तरीका है जिसमें कोई भी परमचेतना में शी घ्र ही पूरी तरह समर्पित होकर परमपद पा सकता है। कर्मफल के भोग से बचने का कोई उपाय है ही नहीं, इसलिये बुरे काम छोड़ दो। जो दुख भोग रहे हैं उन से षिक्षा लेकर अच्छे काम में लग जाओ। जैसे हाथ को आग में डालने पर जलना ही पड़ेगा कोई प्रार्थना उसे नहीं रोक सकती अतः आगसे जलने से बचने का एक ही उपाय है कि हाथ को आग से बाहर खींच लो। इसी प्रकार जब बुरे कर्म होंगे ही नहीं तो बुरे परिणाम भी नहीं भोगना पड़ेंगे। कर्मफल भोगने संबंधी कठोर नियम प्रकृति ने मानवता की भलाई के लिये ही बनाया है। सगुण ब्रह्म के द्वारा सृष्टि निर्माण करने का उद्देशाय  प्रत्येक इकाई को मुक्त करने का है अतः  इस अर्थ में उन्हें सबसे अधिक लाभदायक माना जाना चाहिये। स्पष्ट है कि मनुष्य अज्ञानता के कारण ही कष्ट पाता है और ईष्वर को दोष देता है। परंतु ज्ञानी लोग कष्टों से षिक्षा लेकर बुरे कामों से दूर रहते हैं।

Saturday 16 September 2017

151 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

151 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
ऋषिगण कहते हैं, सब प्रसन्न रहें, सभी भौतिक अथवा मानसिक क्लेशों से मुक्त रहें, सभी लोग एक दूसरे के उन्नत पक्ष की ओर ही देखें ।
 अर्थात् हमें सदा ही प्रत्येक व्यक्ति का उज्जवल पक्ष ही देखना चाहिये और रचनात्मक आलोचना का स्वागत करना चाहिये। जैसे, कोई अभिभावक देखते हैं कि उनका पाल्य स्कूल में ठीक ढंग से अध्ययन नहीं कर रहा है तो उन्हें उसकी पढ़ाई करने की विधियों पर रचनात्मक आलोचना करना चाहिये ताकि उसे अपने को उन्नत बनाने का अवसर मिल सके। कोई कोई यह कह सकते हैं कि बेकार ही बच्चे को पढ़ाई करने के लिये डाॅंटते रहते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते कि बच्चे के हित में ही यह किया जा रहा है। इसलिये उन्नत पक्ष को देखने का अर्थ हुआ कि जहाॅं कहीं भी सामाजिक या व्यक्तिगत बुराइयाॅं जन्म ले रही हों उन्हें पहचान कर दूर करने का तत्काल उपाय करना चाहिये तभी समाज अथवा व्यक्ति की उन्नति संभव हो सकेगी। 

सभी लोगों के स्वभाव में उजला और अंधेरा पक्ष रहता है, जैसे किसी के पास बहुत सी योग्यतायें हों परंतु बहुत ही कंजूस हो तो यह कंजूसी अंधेरा पक्ष हुआ । अतः जो व्यक्ति जैसे विचार करता है वैसा ही वह धीरे धीरे होता जाता है। यदि उसका लक्ष्य महान है तो वह महान हो जायेगा परंतु यदि उसके विचार नीच हैं तो वह निम्न स्तर का ही हो जायेगा। जो कोई भी, किसी व्यक्ति या घटना के धनात्मक पक्ष को ही देखता है और रचनात्मक आलोचना का आदर करता है उसे "सुलोचन" और जो महिला इस प्रकार की प्रवृत्तियाॅं रखती है उसे "सुलोचना" कहते हैं। इसलिये अपने परिवार के किसी सदस्य के द्वारा किये जा रहे या समाज में होने वाले किसी प्रकार के अन्याय, आडम्बर और समाजविरोधी गतिविधियों का विरोध करना ‘‘भद्राणि पश्यन्तु‘‘ के अन्तर्गत ही आयेगा।

Sunday 10 September 2017

150, बाबा की क्लास ( सामाजिक जीवन 1 )

150, बाबा की क्लास ( सामाजिक जीवन 1 )

राजू- मैं यह नहीं समझ पा रहा हॅू कि इस सृष्टि चक्र में मनुष्यों को ही सामाजिक जीवन के अनेक नियमों और सिद्धान्तों में क्यों बाॅंधा गया है? इस प्रकार तो उनका जीवनयापन कर पाना असंभव सा लगता है?
बाबा- तुम यह जानते हो कि सृष्टिचक्र सूक्ष्म से स्थूल (संचर क्रिया) और स्थूल से सूक्ष्म (प्रतिसंचर क्रिया) के द्वारा लगातार चल रहा है यह कभी रुकता नहीं है। यह ब्रह्मचक्र और कुछ नहीं ब्रह्म का सगुण रूप ही है जो प्रारंभ में प्रकृति के आधीन होकर धीरे धीरे उससे मुक्त होते जाने का उपक्रम करता जा रहा है । इस उपक्रम में मनुष्यों का स्थान प्रकृति के अन्य पदार्थों और जीवों से उच्च है जिसे उच्चतम अवस्था तक पहुंचाना ही उसका लक्ष्य है।

रवि- जब सृष्टिचक्र में सभी क्रमानुसार गति कर रहे हैं तो मनुष्यों को अन्यों से श्रेष्ठ कहना कहां तक उचित है?
बाबा- मनुष्यों में परमचेतना का पूर्णतः परावर्तन होने के कारण वे स्वतंत्र कार्य करने और अच्छे बुरे के भेद को समझने की क्षमता रखते हैं। सगुण ब्रह्म द्वारा इस संसार की रचना का उद्देश्य  है प्रत्येक इकाई चेतना को अपनी तरह मुक्त अवस्था में लाना। यही कारण है कि सृष्टिचक्र के अंतिम पद में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते समय ‘मनुष्य‘ जैसी कुछ इकाइयाॅं ही परमचेतना को पूर्णतः परावर्तित कर पाती हैं। इकाई चेतना पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जाता है जैसे जैसे वह सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है। मनुष्यों की इकाई चेतना पशुओं की इकाई चेतना की तुलना में प्रकृति से कम प्रभावित पाई जाती है। इकाई चेतना पर प्रकृति के प्रभाव का कम होना सगुण ब्रह्म की कृपा पर निर्भर होता है।

चन्दू- इकाई चेतना के स्पष्ट परावर्तन होने का सही अर्थ क्या है?
बाबा- इसका अर्थ है बुद्धि और विवेक का यथेष्ट विकास होना।

इन्दु- जब सब कुछ सगुण ब्रह्म की कृपा पर ही निर्भर करता है तो फिर मनुष्य को करने के लिये क्या बचा?
बाबा-  सर्वप्रथम तो उनकी कृपा पाने की योग्यता प्राप्त करना मनुष्य का कर्तव्य है। सगुण ब्रह्म और प्रकृति में यह समझौता सृष्टि के प्रारंभ में ही हो गया है अन्यथा प्रकृति, जो सगुण ब्रह्म को अधिकाधिक गुणों में बाॅंधे रहना चाहती है, उसे अपने प्रभाव से कैसे मुक्त करेगी। सृष्टि के प्रारंभ में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति करते समय प्रकृति अपनी इच्छा से सगुण ब्रह्म को अपने बंधन से ढील दे देती है, परंतु इकाई चेतना बंधन में ही रहती है क्योंकि सृष्टि के स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता। अतः इस वशीकरण की स्थिति में कोई सचेत अस्तित्व आत्मनिर्भरता से कार्य करने लगता है तो प्रकृति अपने स्वभावानुसार उसे दंडित करती है। यही कारण है कि इकाई चेतना की, सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की गति प्रभावित होती है। सृष्टि में यह देखा जाता है कि जहां चेतना का परावर्तन स्पष्ट है वहां प्रकृति का प्रभाव कम है। अतः यदि इकाई चेतना, अपनी चेतना के परावर्तन को फैलाते हुए बढ़ा सके तो उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जायेगा और उसे  शीघ्र ही पूर्ण सूक्ष्मता प्राप्त करना संभव होगा।

चन्दू- तो वह कौन से कार्य हैं जो चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं?
बाबा- वे कार्य जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए, चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं उनसे प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने का कष्ट दूर हो जाता है। प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिये विद्यामाया के सहयोगी विवेक और वैराज्ञ हैं जो इस प्रकार के उत्तम कार्य कराने में सहायता करते हैं और इकाई चेतना शीघ्र ही परम पद पा लेती है।

नन्दू- क्या इसका अर्थ यह है कि हमें संसार छोड़कर तपस्वियों की तरह जीना प्रारंभ कर देना चाहिए?
बाबा- वैराज्ञ का अर्थ संसार को छोड़ कर एकान्त में अत्यंत सादगी से तपस्वी जीवन जीना नहीं है, यह तो प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग करते हुए उसे समझने का साधन प्राप्त करने का प्रयास है। जैसे, अलकोहल नशीला पदार्थ है जो मन और तन दोनों को नुकसानदायक है अतः इसे त्यागना चाहिये, परंतु डाक्टर लोग अलकोहल का उपयोग विभिन्न दवाईयों में करने की सलाह देते हैं जिससे बीमारियाँ  दूर हो जाती हैं। अतः वही अलकोहल उपयोग की भिन्नता से अपना नशीला स्वभाव छोड़कर उपयोगी बन जाता है। अतः दवा के रूप में अलकोहल का उपयोग करना उसका उचित उपयोग कहलायेगा, इस प्रकार के सही उपयोग को ही वैराज्ञ कहते हैं। वैराज्ञ के विचार से किया गया प्रत्येक वस्तु का उपयोग, मन को उसका गुलाम नहीं बनाता वरन् उदासीन बनाता है जिससे मन सूक्ष्म होता जाता है। मन के सूक्ष्म होने का अर्थ है प्रकृति के बंधन कमजोर होना और मुक्ति की ओर बढ़ने में अग्रसर होना।

रवि- लेकिन समस्या तो यह है कि हम यह कैसे पहचान पाएंगे कि कौन सा कार्य अच्छा है और कौन सा बुरा?
बाबा- अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता को विवेक कहते हैं, जैसे अलकोहल का नशे  के रूप में उपयोग करना बुरा और दवा के रूप में उपयोग अच्छा, यह ज्ञान विवेक कहलायेगा। इस तरह एक ही वस्तु के अलग अलग उपयोग करने से वह अच्छी या बुरी मानी जाती है अतः इस विभेदन करने की क्षमता को विवेक कहते हैं। इसलिये वैराज्ञ का पालन करने के लिये विवेक का रहना आवश्यक  है। बुरे कार्य अविद्यामाया से प्रेरित होते हैं। वे कार्य जो प्रकृति के नियमों के विपरीत होते हैं और चेतना के परावर्तन को फीका कर देते हैं बुरे कार्य हैं। मन को सूक्ष्म और चेतनापूर्ण बनाने पर ही इकाई चेतना की प्रगति होती है। स्थूलता की ओर मन लगा रहने पर वह प्रकृति के प्रभाव में अधिक रहता है परिणामतः इकाई चेतना का अग्रगामी विकास अवरुद्ध हो जाता है। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ले जाने वाली गतिविधियॅाॅं भी सूक्ष्मता की ओर होने वाली प्रगति को रोक देती हैं क्योंकि, आगे की प्रगति होने से पहले प्रकृति के नियमों के उल्लंघन करने का दंड भोगना पड़ता है और उस बीच इकाई चेतना अपनी सूक्ष्मता प्राप्त करने के लिये अवरुद्ध हो जाती है।

राजू- अविद्यामाया इकाई जीव को सूक्ष्मता की ओर बढ़ने से किस प्रकार रोकती है?
बाबा- वे गतिविधियाॅं जो मन को स्थूल पदार्थों  की ओर खींचती हैं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कार्य करातीं है ये अविद्यामाया से उत्पन्न होती हैं। अविद्यामाया षडरिपु और अष्टपाश  की जन्मदाता है जिनके द्वारा वह इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर बढ़ने से रोकती है। काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य ये ‘‘षडरिपु’’ और भय, लज्जा, घृणा,शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये ‘‘अष्ट पाश’’ है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। सृष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं। इसलिये विद्यामाया का अनुसरण करना अच्छा और अविद्यामाया का अनुसरण बुरा है।

इन्दु- कोई भी व्यक्ति विद्यामाया के अनुसार कार्य कर रहा है या नहीं यह हम कैसे जान सकते हैं?
बाबा- विद्यामाया का अनुसरण करने वाले चार प्रकार के लोग पाये जाते हैं, पहले वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं और अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने में सलग्न रहते हैं ये अच्छी श्रेणी के लोग कहलाते हें। दूसरे वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे वे जो न तो प्रकृति के नियमों का पालन करते है और न ही चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का कार्य ही करते हैं। ये निम्न स्तर के लोग कहलाते हैं। चौथे  वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते और अपनी चेतना के अवमूल्यन करने के लिये भागीदार होते हैं। ये निम्न से भी निम्न कोटि के मनुष्य कहलाते हैं। सगुण ब्रह्म का मानवों को निर्मित करने का उद्देश्य   यह है कि वे अपनी गति से सूक्ष्मता की ओर बढ़कर उच्चतम स्तर प्राप्त करें। यह मानव का धर्म है। अपने मूल उच्चतम स्तर पर वापस पहुॅंचने के लिये इकाई चेतना का उन्नयन होना आवश्यक  है अतः उसकी सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के अनुकूल होना चाहिये जिससे वह प्रगति में रोड़े न अटकाये। अतः प्रथम श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् अच्छे व्यक्ति अपने प्राकृत धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्मता की ओर बढ़ते जाते हैं, सही अर्थों में ये ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी होते हैं ।

रवि- परन्तु आपने एक बार यह बताया था कि पशु भी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते हैं, तो मनुष्य और पशु में किस प्रकार भिन्नता हुई?
बाबा- पशु  भी प्रकृत धर्म का पालन करते हैं परंतु उनमें चेतना का स्पष्ट परावर्तन न होने के कारण वे अपनी चेतना के उन्नयन का प्रयास नहीं कर पाते । अतः वे लोग जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते पशुओं से भिन्न नहीं हैं। वे अपनी इकाई चेतना में होने वाले पूर्ण परावर्तन का उपयोग नहीं कर पाते अतः वे मानव के रूप में परजीवी ही कहे जावेंगे। अभी बताई गई तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग तो परजीवियों से भी गये गुजरे कहलाते हैं क्योंकि परजीवी तो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपना उन्नयन इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि उनमें इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन नहीं होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए अन्य प्राणी भी समय आने पर अपने में स्पष्ट परावर्तित चेतना का विकास कर लेते हैं, जबकि तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग अपने में इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन होने के बावजूद प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं।



Wednesday 6 September 2017

149 "ज्ञानी"

149

"ज्ञानी"

ज्ञानियों में यह बड़ा ही विचित्र गुण पाया जाता है कि कोई भी दो ज्ञानी  किसी एक विन्दु पर सहमत कभी नहीं होते। अधिकांश ज्ञानी यह मानते हैं कि किसी अन्य विद्वान से सहमत होना अर्थात् अपनी हार मान लेना !!!

परन्तु ज्ञानियों में अनेक दिव्य गुण भी पाए जाते हैं; जैसे, वे मधुर भाषा में सम्भाषण कर सकते हैं, वे अपने ज्ञान की भव्यता से दिन को रात और रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं। इतना ही नहीं , यदि कोई व्यक्ति उनकी बात को मानने से अस्वीकार कर देता है तो वे अपने तर्क और स्वनिर्मित सिद्धान्तों को प्रदर्शित कर उसे मूर्ख सिद्ध कर देते हैं। वे इस प्रकार का वातावरण बना सकते हैं कि श्रोता/दर्शक यह अनुभव करने लगते हैं कि उनकी बातें न मानने वाला इतनी सरल सी बात नहीं समझ पाया !!

ज्ञानियों के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यदि बहुत से दूध को मक्खन और मठे में परिवर्तित किया जाय तो ज्ञानी लोग मठे के गुणों और दुर्गुणों पर इतनी देर तक तर्क वितर्क करते पाये जाते हैं कि तब तक प्राप्त हुआ मक्खन भी खराब होकर अनुपयोगी हो जाता है!!

Sunday 3 September 2017

148 बाबा की क्लास ( परमपुरुष की अनुभूति के छः स्तर )

148 बाबा की क्लास ( परमपुरुष की अनुभूति के छः स्तर )


इन्दु- जब परमपुरुष किसी संक्राॅंतिकाल में तारकब्रह्म या महासम्भूति के रूप में  पृथ्वी पर आते हैं तो समकालीन व्यक्ति उन्हें किस प्रकार पहचान पाते हैं?
बाबा- सभी तो नहीं, परन्तु जिनके पूर्व संस्कार केवल इस भावना के कारण ही इस भौतिक मानव शरीर को उपलब्ध कराते हैं कि वे उनकी लीलाओं में सहभागिता दें, तो वे भक्त गण उन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव करते हैं; सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी  और कैवल्य।

रवि- ओह! यह सचमुच कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता है कि कोई व्यक्ति महासम्भूति के पृथ्वी पर रहने के कुछ समय पूर्व या कुछ समय बाद में जन्मते हैं! परन्तु जो उनके कार्यकाल में ही पैदा होते हैं क्या वे इन अनुभूतियों को एक साथ अनुभव करते हैं या क्रमशः ?
बाबा- हाॅं, बिलकुल सही कहा। परन्तु वे सचमुच भाग्यशाली होते हैं जो तारकब्रह्म के साथ उनकी लीलाओं में सहभागी होकर आनन्द पाते हैं। वे लोग सामान्यतः अपने अपने संस्कारों के अनुसार क्रमशः या एक साथ सभी प्रकारों का अनुभव करते हैं।

चन्दु- ‘‘सालोक्य’’ का अनुभव किस प्रकार होता है?
बाबा- सालोक्य अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष  भी तारक ब्रह्म के रूप में धरती पर आए। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृजकृष्ण या पार्थसारथी कृष्ण के संपर्क में आया उसने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है और उन्हें देखकर ही अपार आनन्द पाता है। मजे की बात यह है कि दुर्योधन जो कि कृष्ण का जानी दुश्मन था वह भी अनुभव करता था कि कृष्ण साधारण व्यक्ति नहीं हैं यदि उनका साथ मिल गया तो युद्ध जीता जा सकता है। परन्तु , सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी। जैसे,  कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे थे  पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृजकृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।

राजू- तो ‘‘सामीप्य’’ का क्या अर्थ है, और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- सामीप्य अवस्था में लोग परमपुरुष के साथ इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृजकृष्ण के समीप आने वाले लोग अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थसारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य  नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृजकृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक  नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।

इन्दु- ‘‘सायुज्य’’ का अनुभव कैसा होता है?
बाबा- सायुज्य की स्थिति  में उन्हें स्पर्श  करना भी सम्भव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते , गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थसारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।

रवि- अद्भुद्! मैं दुखी हूँ  कि मैं क्यों उनके साथ नहीं आया? बताइए परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति कौन सी  है ?
बाबा- अगला स्तर कहलाता है ‘‘सारूप्य’’, इसमें भक्त यह सोचता है कि मैं न केवल उनके पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त, परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं। परमपुरुष को शत्रु के रूप में सम्बंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस।  पर, यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा  उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम सम्बंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे ‘‘आराधना’’ कहते हैं और जो आराधना करता है उसे ‘‘राधा‘‘ कहते हैं, यहाॅं ‘‘राधा’’ का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।

चन्दू- ‘‘ सार्ष्ठी ’’ का अनुभव क्या है?
बाबा- अनुभूति का अगला स्तर है ‘‘सार्ष्ठी  ’’ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो, मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। भक्त अनुभव करता है कि प्रभो! तुम और मैं इतने निकट है कि तुम मैं और मैं तुम हो गए हैं। अर्थात् कर्ता है कर्म है और सम्बंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। अर्थात् अत्यधिक निकटता, सार्ष्ठी  का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का सम्बंध तो होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देते हुए यह तर्क दिया गया है कि मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा!! इस प्रकार वे सार्ष्ठी  को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। बृजकृष्ण के साथ सार्ष्ठी  का यही अनुभव था परन्तु पार्थसारथी कृष्ण के साथ कुछ भिन्नता थी , वहाॅं भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभो! तुमने मुझे विशेष रूप से अपना बना लिया है, मेरा पृथक अस्तित्व अब संभव नहीं है, मैं तो तुम्हारे हाथ का अस्त्र हूँ  जैसा चलाओ वैसा ही चलने को तैयार हॅूं।

राजू- तो सर्वोच्च अवस्था में भक्त क्या अनुभव करता है?
बाबा- सर्वोच्च अवस्था में भक्त अनुभव करता है कि हे प्रभु केवल तुम ही हो इस अवस्था को ‘‘कैवल्य’’ कहते हैं । यही अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है। अर्जुन और कृष्ण का प्रेम बहुत गहरा था । अर्जुन ने ही सभी अनुभूतियाॅं, सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी   और कैवल्य क्रमशः अनुभव की तथा वास्तविक  कृष्ण की अनुभूति प्राप्त की। परन्तु उन्हें बहुत ही कठिन प्रशिक्षण और कष्टों का सामना करना पड़ा। युद्ध क्षेत्र में जब उन्हें मानसिक दुर्बलता ने आ घेरा तो होश में आने से पहले उन्हें अत्यंत मानसिक भर्तृस्ना  का सामना करना पड़ा तभी उन्होने कृष्ण को स्पष्टता और पूर्णता से अनुभव कर पाया और उनका जीवन फलदायी सिद्ध हुआ।

रवि- लेकिन अर्जुन ने ‘कैवल्य‘ का अनुभव कर पाया या नहीं ?
बाबा- ‘कैवल्य’ अर्थात् ‘‘पुरुषोत्तम अवस्था’’ का अनुभव करने से पहले अर्जुन और कृष्ण के बीच हल्की बातचीत हुई और अन्त में कृष्ण के पाॅंचजन्य शंख की तेज ध्वनि (वास्तव में ओङ्कार  ध्वनि) के साथ उन्होंने कैवल्य का अनुभव किया। परन्तु बृजकृष्ण के द्वारा अपनी बांसुरी से अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार के लय और ध्वनि प्रसारित किए जाने से गोप गोपियों ने अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार की अनुभूतियाॅं की परन्तु सभी मधुर भाव में मग्न रहते थे। जब भक्त आध्यात्मिक उन्नति करने लगता है तब प्रारम्भ में झींगुर जैसी ध्वनि सुनता है परन्तु यह झींगुर की ध्वनि की तरह बीच में टूटती नहीं वरन् लगातार जारी रहती है , इसके बाद समुद्र के दहाड़ने जैसी , फिर बादलों के गरजने जैसी और अन्त में ओंकार ध्वनि सुनाई देती है। भक्तों को इसी अवस्था में ‘‘सार्ष्ठी ’’ का अनुभव होता है इसी को वे कृष्ण की बाॅंसुरी की मधुर ध्वनि कहते हैं। तथ्य की बात यह है कि जब हमारा मन तन्मात्राओं से उत्पन्न विभिन्न तरंग लम्बाइयों से ऊपर जाकर सभी प्रकार की वकृता से मुक्त होकर सरल रेखा में आ जाता है तब यह लगता है कि पार्थसारथी या बृजकृष्ण से अधिक सगा सम्बंधी कोई दूसरा है ही नहीं।