Sunday 28 February 2016

51 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -1)

51 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -1)
रवि- अभी तक के विवरण से तो यही ज्ञात होता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता अर्थात् परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है। क्या ऐंसा कोई उपाय नहीं है जो इन में समुचित समन्वय कर आदर्श  पद्धति के रूप में स्वीकार किया जा सके?
बाबा- वास्तव में यह विभिन्न पद्धतियाॅं काल क्रम के प्रभाव से उसी एक ही आदर्श  पद्धति जिसे ‘अष्टाॅंगयोग‘ के नाम जाना जाता है, से खंड खंड होकर अलग अलग हो गई हैं इन्हें फिर से यथावत जोड़ कर ही पुरातन आदर्श  को पाया जा सकता है।
राजू- तो आप हमें उसी सम्पूर्ण और आदर्श  विधि को क्यों नहीं बताते , इन अपूर्ण विधियों को अपना कर हम क्यों उलझें ?
बाबा- हम तो वास्तव में उस सम्पूर्ण पद्धति को ही अच्छी तरह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु वर्तमान में प्रचलित इन सभी विधियों से परिचय कराने का उद्देश्य  केवल यह है कि इन पर एक बार चिंतन कर यह समझ लिया जाय कि इनमें दार्शनिक  और व्यावहारिक स्तर की क्या कमी है जिससे बाद में हमारी गति में ये किसी प्रकार की बाधा या भ्रम उत्पन्न न कर सकें।
नन्दू- लेकिन अब तो हमें वर्तमान में प्रचलित सभी पद्धतियों के कमजोर पक्षों का पता चल ही गया है अतः अब क्या उसी आदर्श  और सम्पूर्ण पद्धति पर चर्चा करना उचित नहीं होगा?
बाबा- हाॅं बिलकुल। ‘अष्टाॅंगयोग‘‘ का अर्थ है योग की वह पद्धति जिसके आठ स्तर होते है। ‘अष्ट‘ का अर्थ है आठ और ‘अंग‘ का अर्थ है भाग या स्तर। यदि इन आठों स्तरों पर सही ढंग से अभ्यास किया जाता है तो बहुत ही कम समय में वाॅंछित उपलब्धि प्राप्त हो जाती है। अब तुम लोग इन आठों स्तरों को ठीक ढंग से समझ लो और फिर नियमित रूपसे उनका अभ्यास करने में जुट जाओ।
इसके आठ स्तर क्रमशः  ये है:- 1 यम, 2 नियम, 3 आसन, 4 प्रणायाम, 5 प्रत्याहार, 6  धारणा, 7 ध्यान, और 8 समाधि। इनका क्रमानुसार नियमित अभ्यास करने पर लगातार प्रगति करते हुए समाधि के स्तर पर आत्मसाक्षात्कार होता है। पहले जिन जिन पद्धतियों की चर्चा की गयी है उनके मूलतत्व इन्हीं आठ स्तरों पर यथोचित ढंग से जुड़े हुए हैं ।
इन्दु- तो इन आठों भागों को जल्दी से समझा दीजिये जिससे हम आज से ही उनका पालन करने लगे?
बाबा- हाॅं ठीक कहा परंतु इन्हें जल्दी जल्दी समझने की गलती न करना, इन्हें एक एक कर ढंग से हृदय में बैठाना होगा फिर उनका पालन करने में कोई कठिनाई नहीं जायेगी । इसके पहले स्तर ‘यम‘ को ही पाॅंच भागों में बाॅंटा गया है, वे हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हें अलग अलग ठीक ढंग से समझ लो-
अहिंसा- इसका अर्थ है मन, कर्म और वचन से किसी भी प्राणी को शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट न देना। प्राणी से तात्पर्य है जिसमें भी जीवन है अर्थात् पेड़ पौधे भी उसी में सम्मिलित हैं। अर्थात् न तो मानसिक न वाणी और न शारीरिक रूपसे ऐंसा कोई कार्य करेंगे जिससे किसी को किसी भी स्तर पर कष्ट पहुंचे।
राजू- यह तो बड़ा ही कठिन है, इसे शतप्रतिशत व्यवहार में नहीं लाया जा सकता?
बाबा- इसी लिये तो कहा है कि जल्दी जल्दी में कुछ समझ में नहीं आयेगा, अब अहिंसा के पालन करने का व्यावहारिक पक्ष समझ लो। तुम लोग सोच सकते हो कि इस प्रकार तो सभी का जीना ही मुश्किल  हो जायेगा, क्योंकि खेती बाड़ी करने वालों से तो इसका पालन हो ही नहीं सकता, उन्हें तो पेड़ पौधों और प्राणियों की हिंसा करना पड़ेगी। तो फिर क्या किया जाये क्योंकि खेती न करने पर तो किसी को भी भोजन नहीं मिलेगा? इतना ही नहीं हमारे शरीर की त्वचा के सैल हमारी गतिविधियों से मरते रहते हैं, श्वास  के साथ वायु और वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म वेक्टेरिया मरते हैं, अनेक ऐंसे भी हैं जो हमारे भोजन को पचाने और उसे अन्य रूपान्तरण करने में सहायक होते हैं इसलिये मरते रहते हैं। और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे लगता है कि इस अहिंसा का पालन तो संभव ही नहीं है। यहाॅं अहिंसा को पालन करने के लिये हमें ‘वैष्णवाचार‘ का सिद्धान्त सहायक होता है, ‘‘वह यह कि यह सभी कुछ ‘द्रश्य  अथवा अद्रश्य ‘ उस परमसत्ता की ही विचार तरंगें हैं, वह प्रत्येक परमाणु में ओत प्रोत है इसी लिये वह विष्णु है‘‘ अतः यदि प्रत्येक छोटे बड़े कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व हम "ब्रह्म भाव" धारण कर लें तो अहिंसा की श्रेणी में नहीं आयेंगे और कर्म बंधन से मुक्त रहेंगे। यथा खेतों में हल चलाते समय मन में यह भावना द्रढ़ करना होगी कि ब्रह्म रूपी खेतों में बीजारोपण का ब्राह्मिक कार्य किया जा रहा है। आदि।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि कोई भी हमारे जीवन को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य  से हम पर आघात करता  है तो हम आत्म रक्षा नहीं करेंगे, वरन् ब्राह्मिक भाव लेते हुए हम ‘‘शाक्ता चार ‘‘ का पालन करेंगे, जिसमें अपनी पूरी शक्ति से उस नकारात्मकता के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। हमारे छः प्रकार के शत्रुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) और आठ प्रकार के बंधनों( भय, लज्जा, घृणा, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील और मान) को काटने के लिये हमें शाक्ताचार का सहयोग लेना ही पड़ेगा। इस तरह अहिंसा का व्यावहारिक पालन करने के लिये संयुक्त रूप से यथा समय वैष्णवाचार और शाक्ताचार का प्रयोग करने पर कर्म बंधन हमें नहीं बाॅंध पायेगा।
राजू- बाबा! इस अष्टाॅंग योग के पहले भाग के केवल  पाॅंचवें  हिस्से ने ही  इतना भयभीत कर दिया है कि आगे की कल्पना करने से ही डर लगने लगा है?
बाबा- नहीं, ऐंसा बिलकुल नहीं है, सही ढंग से समझ लेने पर सब कुछ सरल हो जाता है। अब, इसके आगे आता है ‘‘सत्य‘‘ । सत्य का अर्थ है जो कभी बदलता नहीं हो वह। इसे निर्पेक्ष सत्य कहते हैं। परमपुरुष ही केवल निर्पेक्ष सत्य हैं। हम सभी इस जगत में स्थान और समय से बंधे हैं अतः हमें सापेक्षिक सत्य से ही काम लेना पड़ता है। सापेक्षिक सत्य स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। किसी की प्राण रक्षा करने में , व्यापक समाज हित में बोला गया असत्य भी सत्य ही माना जाता है। एक ही कार्य किसी के लिये सत्य और किसी के लिये परिस्थितियों वश  असत्य हो जाता है। इसलिये निस्वार्थ, सार्वजनिक हित और कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए ही प्रत्येक कार्य करने का निर्देश  है। इसके आगे है ‘‘ अस्तेय‘‘ । इसका अर्थ है बिना अनुमति के किसी की कोई भी वस्तु न लेना, अर्थात् चोरी न करना। यहाॅं ध्यान रखने योग्य यह है कि किसी की कोई वस्तु के संबंध में मन में अपवित्र विचार आना भी अस्तेय के विरुद्ध ही आता है। इसलिये विचारों का सात्विक बनाये रखना सदा ही वाॅंछनीय होता हैं। इसके बाद आता है ‘‘ब्रह्मचर्य‘‘ जिसका अर्थ है सदा ही ब्राह्मिक भाव में बने रहना, उसी में विचरण करना। सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश  हैं । इसके बाद यम का अंतिम पद होता है ‘‘अपरिग्रह‘‘ जिसका अर्थ है आवश्यकता  से अधिक वस्तुओं या धन का संग्रह न करना।
इंदु- बाबा! सावधानी से देखा जाय तो, यदि सभी लोग केवल ‘‘यम‘‘ के पाॅंचों भागो का ही पालन ईमानदारी से करने लगें तो समाज की नब्बे प्रतिशत समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं?
बाबा- क्यो नहीं ? यह व्यवस्था ऋषियों ने लंबे शोध के उपरान्त ही बनाई है लेकिन लोभियों और स्वार्थ पीडि़त लोगों ने ही इसमें अनेक विसंगतियाॅं और विकृतियाॅं बना दी हैं।
राजू- अष्टाॅंगयोग का दूसरा स्तर क्या है बाबा! क्या वह भी इतना ही क्लिष्ट है?
बाबा- हाॅं, दूसरा स्तर है ‘‘नियम‘‘ इसके भी पाॅंच अवयव हैं। ये हैं, शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वर  प्रणिधान। ‘‘शौच‘‘ का अर्थ है शरीर और मन दोनों की सफाई रखना। शरीर  को तो साबुन और पानी से साफ कर लेते हैं परंतु मन को साफ रखने के लिये पवित्र विचारों को सदैव मन से चिंतन करते रहना होता है, जिसमें ब्राह्मिक भाव लिये रहने पर मन स्वच्छ बना रहता है। यदि कभी परिस्थितियों वश  कलुषित विचार आ भी जायें तो तत्काल ब्राह्मिक भाव आरोपित कर उन्हें उदासीन करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके बाद है ‘‘संतोष‘‘ अर्थात् प्रत्येक अच्छी या बुरी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में मन में संतुलन बनाये रखना, किसी भी प्रकार से मन को उद्विग्न  और उद्वेलित न होने देना। इसके आगे है ‘‘स्वाध्याय‘‘ अर्थात् सद् साहित्य का अध्ययन करते रहना, जब भी थोड़ा सा समय मिले उसका सदुपयोग सद्साहित्य को पढ़ने में ही लगाना। अगला नियम है ‘‘तप‘‘ अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में मन और वाणी पर संयम बनाये रखने का अभ्यास करना। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि असामान्य परिस्थितियाॅं निर्मित कर शरीर को कष्ट देना ( जैसे कुछ लोग हठ पूर्वक एक पैर पर खड़े रहनें या आग के सामने शरीर को तपाने , पानी में डूबे रहने आदि को तप कहते हैं) । और अंतिम नियम है ‘‘ईश्वर  प्रणिधान‘‘ अर्थात् ‘इष्टमंत्र‘ की सहायता से ‘इष्टचक्र‘ पर आघात कर उसे सक्रिय करना। इसे अष्टाॅंगयोग के प्रतिष्ठित आचार्य ही सिखाते हैं। इसे दोनों समय नियमित रूप से करना होता है जिससे आगे के स्तरों पर जाने में सरलता मिलती है। यह शैवाचार के अन्तर्गत आता है।
(-अगले स्तरों पर चर्चा क्रमशः  दूसरे भाग में अगली क्लास  में  देखिये -)

Wednesday 24 February 2016

50 कथा

50 कथा
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‘‘ पंडित जी महाराज! आपकी कथा में लगभग रोज ही इस बात की चर्चा होती है कि वह परमसत्ता परमेश्वर अनन्त है, असीम है अमाप्य है, अद्वितीय है, परंतु कृपा कर यह बतायें कि उसे इन मनुष्यों के द्वारा मंदिरों में कैद कर सीमित स्थान में कैसे बाॅंध दिया जाता है?‘‘
‘‘ यह तो बिलकुल सही है, ‘वह‘ अनन्त है। और, उसे पूरी तरह कोई भी आज तक जान ही नहीं पाया, शास्त्र कहते हैं कि केवल ‘वही‘ अपने आप को पूरी तरह जानते हैं।‘‘
‘‘ वही तो मैं पूछ रहा हॅूं कि अनन्त सत्ता का मंदिर तो उनकी सीमाओं से बड़ा ही होना चाहिये , अन्यथा वे उसके भीतर कैसे बैठ सकेंगे?‘‘
‘‘इस बहस में अपना समय और बुद्धि खर्च न करो! हमलोग, ‘उनके‘ लिये क्या मंदिर बनायेंगे जिन्होंने हमें ही नहीं इस समग्र ब्रह्माॅंड को अपनी कल्पना से ही बना रखा है। यह सभी कुछ ‘उनके‘ ही भीतर है। यथार्थतः मंदिर तो उन स्थानों को कहा जाता है जहाॅं पर कुछ देर के लिये सामूहिक रूपसे शान्तिपूर्वक बैठ कर हम परमार्थ पर चिंतन कर सकें , परस्पर इस विषय पर चर्चा कर सकें कि क्या केवल जन्म से मृत्यु तक ही जीवन सीमित है, या इसके अलावा भी कुछ है?‘‘
‘‘ तो फिर यह नियम कानून , निषेध, प्रतिरोध, भेदभाव , संघर्ष और तनाव किस कारण से उत्पन्न हुए हैं?‘‘
‘‘ यह सब, सच्चाई से दूर रहने वाले स्वार्थी तत्वों द्वारा अच्छी तरह बनाया गया व्यवसाय है जो अपनी अलग अलग आभासी दुनिया के निर्माण में दिन रात लगे हैं।‘‘

Sunday 21 February 2016

49 बाबा की क्लास (साधना पद्धतियाॅं)

49 बाबा की क्लास (साधना पद्धतियाॅं)

 रवि- समस्या  यह है कि परमपुरुष को पाने की अनेक मानसिक क्रियाएं और पद्धतियाॅं हैं अतः ऐंसा करना याहिये, वैसा करना चाहिये, यह कहना तो सरल है पर किया कैसे जाय? वह विधि कौनसी है जिसका  पालन करने पर ब्रहम् के साथ एकीकरण हो जाता है?
बाबा- आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा  दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया।
नन्दू- यह वामाचार और दक्षिणाचार क्या हैं बाबा?
बाबा- लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व  की ओर गति कर बैठता हैं। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश  में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।
राजू- तो इन से श्रेष्ठ क्या कुछ नहीं है?
बाबा- इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इस के अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना पड़ता है।
इंदु- बाबा! इस मध्यमाचार में बहुत कठिन विधियों का प्रयोग किया जाता है या सरल? वे कौन सी हैं?
बाबा- मध्यमाचार की अवधारणाओं के आधार पर मुख्यतः यह  पद्धतियाॅं प्रचलित  हैंः-
 (1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।
शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। अर्थात् मन को बाहरी सभी अकर्षणों से भीतर खींचकर अहं तत्व में फिर अहं तत्व को महत तत्व में और महत तत्व को आत्म तत्व में मिला देना चाहिये। इसका अभ्यास विभिन्न स्तरों पर गुरु अपनी देखरेख में कराते हैं।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक (श़ + र = श्र ) और स्त्रींलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम के पूर्व में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं।
वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्य विष्णोर्विश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। अर्थात् यह विस्त्रित द्रश्य और अद्रश्य प्रपंच सभी कुछ विष्णु ही है अतः स्वयं सहित सभी में उनको अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिये।
गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। परंतु आजकल इन्हें काल्पनिक आकार प्रकार देकर आडम्बर फैलाया जाता है।
सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे । उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी, चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया।
इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता, परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है।

Sunday 14 February 2016

48 बाबा की क्लास (मतवाद और मत)

48 बाबा की क्लास (मतवाद और मत)

इंदु-  बाबा! भारत सहित संसार में अनेक प्रकार के मत और सिद्धान्त प्रचलित हैं जो एक दूसरे के प्रति उदार नहीं हैं इसलिये इन्हें समझने के लिये क्या करना चाहिये?
बाबा- संसार में प्रचलित सभी मतों पर विचार करने के लिये सबसे पहले अपने कामन सेंस का उपयोग करो, फिर तर्क का , फिर विवेक और विज्ञान का। इस प्रकार प्राप्त परिणाम को स्वीकार करो अन्य सब को भूल जाओ।

नन्दू- भारत में प्रचलित पातंजल और साॅंख्य सिद्धान्त भी लगभग समान बातें करते हैं परंतु फिर भी विद्वान उन्हें अलग अलग मानते हैं?
बाबा- चलो इन सिद्धान्तों पर अभी बतायी गयी विधि से विश्लेषण  करें। ‘पातंजल‘ और ‘‘साॅंख्य‘‘ दोनों ही अनेक ‘‘पुरुषों‘‘में विश्वास  रखते हैं और मानते हैं कि ब्रह्माॅंड प्रकृति के द्वारा निर्मित किया गया है। पर यह सही नहीं है, क्योंकि मन के बिना भोग नहीं हो सकता, जबकि उनके अनुसार पुरुषों के पास मन ही नहीं होता अतः प्रकृति के द्वारा ब्रह्माॅंड के निर्माण करने से वे संतुष्ठ नहीं हो सकते। वे यह भी मानते हैं कि प्रकृति, पुरुष से अलग है। यह भी सत्य नहीं है क्यों कि वह पुरुष की ऊर्जा है ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति है जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। साॅंख्य में  ईश्वर  नहीं है अतः निरीश्वरवाद  कहलाता है पर पातंजल ईश्वर  में विश्वास  करता हैं पर ब्र्रह्म में नहीं अतः वह सैश्वरवाद  कहलाता है।

रवि- इसी प्रकार बौद्ध और जैन मत भी एकरूपता नहीं दर्शाते , लगता है दोनों ही अपूर्ण हैं?
बाबा- भगवान बुद्ध ने पूरे संसार में बड़ी ही समस्या उत्पन्न कर दी है विशेषतः दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देकर। यही कारण है कि मेडीकल साईंस की प्रगति सैकड़ों वर्ष पिछड़ गयी। यही नहीं बौद्ध धर्म के द्वारा लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य  क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके। महावीर जैन ने भी सबसे पहले निर्ग्रन्थवाद  अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया। आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे  अपने शरीर को ढंकने लगे। अब जब कि वे अपने श रीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहने में शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का मत  जनसमान्य  का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु साॅंप और विच्छू को भी क्षमा कर देना चाहिये । इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया। इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं  और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा  दी, परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्यों कि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं।  इसके वावजूद, सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं द्वारा  बुद्ध की ‘अष्टाॅंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी गयी  है। महावीर की शिक्षा ‘‘ जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इस का अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचार धाराओं को मान्यता दी गई है।

राजू- परंतु इसी प्रकार तो मुस्लिम, क्रिश्चियन  और ज्यू आदि में भी समानता सी ही दिखती है?
बाबा- भयबोध विश्वासों (sematic faith)   जैसे, मुस्लिम , क्रिश्चियन  और ज्यू आदि में क्रिश्चियन  की सामाजिक संरचना थोड़ी सी इन दोनों से भिन्न है पर इनका धार्मिक साहित्य पुरानी अरबी में है और हिब्रू उनकी समानान्तर भाषा है। इन में अन्य किसी धर्म या विश्वास  के प्रति कोई आदर नहीं है। इनका कोई दर्शन  नहीं है केवल कट्टर धार्मिक सोच है, वे मानते हैं कि यह सब ईश्वर  के वाक्य हैं जिन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। इनमें ‘‘शैतान‘‘ का भय दिखाया गया है और स्वर्ग नर्क की अवधारणा को माना गया है। प्रोटेस्टेंटों, जिनका विचार कुछ भिन्न है , को छोड़कर  अन्य कोई भी आत्मा का परागमन स्वीकार नहीं करता। उनका विश्वास  है कि पैगम्बर या अवतारों द्वारा पाप को क्षमा किया जा सकता है। नर्क का भय दिखा कर तीनों में शोषण को ही प्रमुखता दी गयी है।

रवि- इनके सिद्धान्तों का  कुछ तार्किक विश्लेषण  क्यों न किया जाये?
बाबा- ठीक है। यदि उनका धार्मिक साहित्य ईश्वर  के द्वारा सीधे ही कहा गया है और वे मानते हैं कि ईश्वर  का कोई आकार नहीं है तो यह कैसे संभव है? क्यों कि शब्दों को कहने के लिये गला और मुंह चाहिये जो आकार के बिना संभव नहीं है, अतः या तो उनका ईश्वर  निराकार नहीं है या फिर उनका साहित्य ईश्वर  के शब्द नहीं है। इन तीनों में ब्रह्माॅंड के उत्पन्न करने का कारण स्पष्ट नहीं किया गया है। वे केवल मानते हैं कि संसार ईश्वर  की पूजा के लिये बनाया गया है पर यह भी कहते हैं कि ईश्वर  दयालु है। जब ईश्वर  दयालु है तो उसकी कृपा पाने के लिये वह अपनी पूजा क्योें कराना चाहते है? यह तो उसकी साधारण मनुष्य जैसी प्रकृति ही मानी जायेगी जो कि वाॅंछनीय नहीं है। क्रिश्चियन  कहते हैं कि जीसस ईश्वर  के पुत्र हैं, परतु जब उनका ईश्वर  निराकार है तो उनका पुत्र कैसे हो सकता है, इस तर्क का वे कोई उत्तर नहीं दे पाते। तीनों धर्म यह मानते हैं कि शैतान वह सब करता है जो ईश्वर  के कार्य के विपरीत होता है जिसका सीधा अर्थ है कि शैतान भी उतना ही शक्तिशाली है जितना ईश्वर । इस प्रकार दो पृथक शक्तियों का अस्तित्व पाया जाना स्वीकृत हुआ अतः इस प्रकार के ईश्वर  को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। इसलिये शैतान का पृथक अस्तित्व माना जाना अतार्किक है।

नन्दू- इनमें यह भी माना गया है कि शैतान का अस्तित्व संसार के निर्माण के पहले से ही है अर्थात् शैतान का निर्माण ईश्वर  के द्वारा नहीं हुआ है?
बाबा- अर्थात वह नकारात्मक शक्ति है, अतः दो प्रकार के ईश्वर  प्राप्त होते हैं एक अच्छा और दूसरा बुरा। अब प्रश्न  उठता है कि क्या ईश्वर  वहाॅं पाया जा सकता है जहाॅं शैतान उपस्थित हो? इस प्रकार, दोनों प्रकार के कथन एक दूसरे के विपरीत हो जाते हैं। इन मतों के अनुसार जो ईश्वर  की पूजा नहीं करता उसे नर्क में फेक दिया जाता है जहाॅं से कभी वापस नहीं आ सकते, यह भी अतार्किक है क्योंकि किसी को भी हमेशा  के लिये बंधन में नहीं रखा जा सकता। वे कहते हैं कि संसार को ईश्वर  ने बनाया पर यह नहीं बताते कि किस पदार्थ से बनाया, इस प्रकार ईश्वर  और संसार दो अलग अलग अस्तित्व हुए। अब यदि संसार ईश्वर  का हिस्सा नहीं है तो वह शैतान का हिस्सा हुआ, पर  शैतान को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्रष्टि का केन्द्र नहीं माना गया है अतः संसार उसका हिस्सा नहीं हो सकता। इस प्रकार तीन ईश्वर  हुए , एक तो असली, दूसरा शैतान और तीसरा वह पदार्थ जिससे संसार का निर्माण हुआ। इन धर्मों का एक समान उद्गम भयपूर्ण नर्क से हुआ है जो इनके अस्तित्व को बनाये रखने का कारण है। इस विश्लेषण  से स्पष्ट होता है कि ये सब ‘मत‘ या विचारधारायें ही है इन्हें दर्शन  की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

Sunday 7 February 2016

47 बाबा की क्लास (पुनर्जन्म)

47 बाबा की क्लास (पुनर्जन्म)
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रवि- तो, जिसे मृत्यु कहते हैं वह क्या है? क्या वह केवल शरीर का रूपान्तरण ही नहीं है?
बाबा- हाॅं रूपान्तरण ही है, परंतु इसे ठीक ढंग से समझ लो। प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में सुसंतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे कुत्ता, मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  होते  एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बनाये रख पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार, कुत्ता को, उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर, भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है।

नन्दू- क्या वह नवीन संरचना अर्थात् शरीर को वर्तमान देह में रहते हुए ही नहीं तलाश  सकता?
बाबा- नहीं। वर्तमान देह उसे बंधनकारी है, वह एक साथ दो संरचनाओं में नहीं रह सकता। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि कोई विशेष शरीर,
विशेष संस्कारों के भोगने के लिये ही उपयुक्त होता है, संस्कारों के भोग चुकने पर मन अपने नये संस्कारों के ‘वेव पैटर्न‘, जिन्हें ‘रीएक्टिव मूमेंटा‘ कहा जाता है , के साथ पुराने शरीर से बाहर आ जाता है और अपने वेव पैटर्न के अनुकूल साम्य स्थापित करने के लिये अपने पोटेशियल रूप, (जिसे ‘सूक्ष्म
शरीर‘ या ‘ल्यूमिनस वाडी ‘ कहते हैं)  में, अन्तरिक्ष में भटकने लगता हैं।

इंदु- फिर तो, पौराणिक कहानियों में अहिल्या को पत्थर का बना देने का विवरण सही हो सकता है?
बाबा- अहिल्या की साॅंकेतिक कहानी यही प्रकट करती है कि उसके मानसिक शरीर का वेवपैटर्न पत्थर के वेवपैटर्न से साम्य स्थापित करने लगा । कहने का अर्थ यह है कि उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर एक्स मिस्टर वाय हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर , भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

राजू- अभी तक तो भौतिक और मानसिक शरीरों की ही बात थी परंतु अब आप प्राणों को  भी इन्हीं के साथ जोड़ने लगे? आखिर किस शरीर की मृत्यु होती है, कैसे और कब?
बाबा- हाॅं, इसे सही ढंग से समझ लो। ‘प्राण‘ पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य वायुओं का संयुक्त नाम है। आन्तरिक वायु हैं प्राण , अपान उदान, व्यान और समान, तथा वाह्य वायु हैं नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनन्जय। प्राण वायु, नाभि से कंठ तक श्वाश  लेने और छोड़ने का कार्य करती है। अपान वायु , गुदा से नाभि तक कार्य करती है और मल मूत्र के सिर्जन में सहायता करती है। समान वायु ,नाभि के चारों ओर रहती है और प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाये रखती है। उदान वायु, गले में रहकर बोलने में सहायता करती है। व्यान वायु , खून को शुद्ध करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नर्व्ज को नियंत्रण करती हैं। नाग वायु , उछलने कूदने और किसी वस्तु को फेकने में , कूर्मवायु , शरीर को संकोचन करने में, क्रिकर वायु , जंभांई लेने में, देवदत्त वायु , भूख और प्यास में तथा धनंजय वायु , निद्रा और तंद्रा के लिये सहायक होती हैं। षरीर के किसी भाग में दोष उत्पन्न होने से यदि प्राण और अपान में संतुलन बिगड़ता है तो उससे समान में भी असंतुलन पैदा होेता है , इस के बाद यह तीनों उदान में भी असंतुलन पैदा कर व्यान पर आघात करती है और फिर पाॅंचों मिलकर शरीर के हर कमजोर भाग पर अपना संयुक्त दाब डालकर बाहर निकल जाती है। इस प्रकार धनंजय को छोड़कर सभी वायुएं भौतिक शरीर से बाहर निकल जाती हैं। धनंजय तब तक शरीर में रहती है जब तक उसे जला नहीं दिया जाता । स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन का समाप्त होना मृत्यु कहलाता है। भौतिक शरीर से नौ वायुओं के निकल जाने पर मानसिक शरीर भी अब भौतिक शरीर से सामंजस्य नहीं रख पाता अतः अपने संस्कारों के साथ प्रकृति के नियमानुसार अन्य भौतिक शरीर तलाशने में जुट जाता है जहाॅं वह अपने संचित संस्कार भोग सके। ‘कास्मिक‘ रजोगुण का यह दायित्व होता है कि वह इस मानसिक शरीर को एंसी  सूक्ष्म संरचना उपलब्ध कराये जहाॅं वह अपने संचित संस्कारों को भोग सके।  इस प्रकार विच्छेदित मानसिक शरीर में जीवात्मा साक्षी स्वरूप होता है जो अब कर्माशय या कर्म प्रतिक्रिया के रूपमें सुप्तावस्था में रहता है।

चंदु- यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन परंतु मनुष्य का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है? अर्थात् उस भटकते सूक्ष्मशरीर का जन्म किस प्रकार होता है?
बाबा- इसे भी अच्छी तरह समझ लो। जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅस में, माॅस का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा, इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र  जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल (vital fluid) के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डालता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश  कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक  है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों  में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देशों  में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता  से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा परस्पर मिल कर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है, उससे उत्सर्जित होने वाली वेवपैटर्न , पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं अर्थात् सूक्ष्मशरीर  से उत्सर्जित अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर अनुनादीय स्पंदन से संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश  कर जाता हैं जहाॅं वह अपने को नये ढंग से प्रदर्शित  कर पाता हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है और  भौतिक जीवन अस्तित्व में आ जाता है।

इंदु- जब अन्तरिक्ष में भटकने वाले सूक्ष्म शरीर के वेवपैटर्न को ही नयी संरचना का शरीर अपने संस्कार भोगने को मिलता है तो उसे अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं क्यों नहीं रहती?
बाबा- सभी नवजात शिशुओं  को अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं तीन चार वर्ष की आयु तक ही रहती हैं, इसके बाद वे अपने नये जीवन के संस्कारों के साथ साम्य स्थापित करने के लिये पुराने सभी ज्ञान को भूलने लगते हैं, यदि ऐसा न हो तो उन्हें दो संरचनाओं के संस्कारों को एकसाथ भोगना पड़ेगा जो संभव नहीं है अतः उसे पिछला सब कुछ भूलना अनिवार्य हो जाता है।

Monday 1 February 2016

46 बाबा की क्लास (मृत्यु के बाद-2)

46 बाबा की क्लास (मृत्यु के बाद-2)
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इंदु-  बाबा! आपने यह समझा दिया है हि स्वर्ग और नर्क केवल मनुष्यों के  मन की मान्यतायें हैं, परंतु देह त्याग करने के बाद पशु  और अन्य जीवों का क्या होता है?
बाबा- तुम्हें यह तो याद ही होगा कि पशु  और अन्य जीव पूर्णतः प्रकृति के आधीन होते हैं अतः वे अपने मन से कुछ भी नहीं कर सकते, इसलिये स्पष्ट है कि परम सत्ता की मानसिक तरंगों के रूपमें जब यह ब्रह्माॅंड संचर और प्रतिसंचर गतियों द्वारा ब्रह्मचक्र का निर्माण करते हुए  उन्हीं में मिलती जा रही हैं तो पशुओं की मृत्यु के पश्चात  प्रकृति उन्हें उन्नत योनि का क्रमागत शरीर देती है उन्हें उसे ढूडने के लिये भटकना नहीं पड़ता। परंतु मनुष्यों को प्रकृति ने उस प्रवाह में क्रमशः  चलते चलते पहले से ही उन्नत स्थिति (अर्थात् मनुष्य शरीर) क्रमागत रूप से दे दी है अतः वे अपने संस्कारजन्य कर्म भोगने और नवीन कर्म के संस्कार उत्पन्न करने के लिये स्वतंत्र होते है। यही कारण है कि वे अभुक्त संस्कारों को भोगने के लिये सूक्ष्मशरीर में तब तक अन्तरिक्ष में भटकते रहते हैं जब तक उन्हें अर्जित और संचित संस्कारों को भोगने योग्य उपयुक्त शरीर उपलब्ध नहीं हो जाता।

चंदु- परंतु यदि मनुष्यों को उनके अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार दो भागों में बाॅंट दिया जाये तो उन्हें एक समान सूक्ष्मशरीर प्राप्त होंगे या भिन्न?
बाबा- पिछली बार यह भी बताया गया था कि सूक्ष्मशरीर में मन, अहंकार , बुद्धि और संस्कारों का समूह ही होता है अतः स्पष्ट है कि सबके सूक्ष्मशरीर भी संस्कारों के अनुरूप भिन्न भिन्न होंगे।

रवि- लेकिन कुछ विद्वानों का मत है कि अच्छे कर्म करने वाले देवयोनि में और पाप कर्म करने वाले लोग प्रेत योनि में जाते हैं?
बाबा- बात सही है, ब्राह्मिक प्रवाह में सूक्ष्मता की ओर जाना देवयोनि और जड़ता की ओर जाना प्रेत योनि में माना जाता है। उन्नत बौद्धिक स्तर प्राप्त व्यक्ति मरने के बाद देवयोनि और अन्य दुर्गुणी लोग प्रेतयोनि में अदेह भटकते हैं जब तक कि उन्हें अवशेष संस्कारों को भोगने योग्य अन्य शरीर नहीं मिल जाता । हमारे ऋषियों, और आत्मसाक्षात्कार कर चुके महापुरुषों ने अपने अंतर्ज्ञान  से  इस विषय को विस्तार से समझाया है जिसे संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
प्रेत योनि-
1. दुर्मुख - वे जो दूसरों को विभिन्न कारणों से मानसिक क्लेष देते हुए मरते हैं वे दुर्मुख प्रेतयोनि में अशरीर भटकते रहते हैं और लंबे समय बाद जब उन्हें प्रकृति, संस्कारों के अनुरूप शरीर उपलब्ध करा देती है तब वे पुनः मानव शरीर में जन्म लेते हैं।
2. कबंध -वे जो अपमान के कारण, मानसिक विकृति से या कुंठा से, या अत्यधिक लगाववश  ,क्रोध , लोभ , अहंकार , जलन आदि के कारण आत्म हत्या कर लेते हैं वे कबंध प्रेतयोनि में रहते हैं और मानसिक रूप से असंतुलित लोगों को आत्महत्या के लिये प्रेरित  करते रहते है।
3. मध्यकपाल -मानसिक रूपसे बेचैन रहनेवाले वह व्यक्ति जो अस्थिर प्रकृति के होते हैं हर समय अपने विचार बदलते रहते हैं। वे स्वयं परेशान  रहते हैं और दूसरों को भी परेशान  करते हैं। मरने के बाद वे अदेह मध्यकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
4. महाकपाल -जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं और अविद्या का सहारा लेकर पाप कर्म करते हैं और मारक हथियारों को बहुतायत से निर्माण करने का कार्य करते हैं और निर्दयता से लाखों लोगों की हत्या करते हैं वे महाकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
5. ब्रह्मदैत्य या ब्रह्मपिशाच  - वे बुद्धिवादी जो दूसरों में हीनता का भाव जगाते हैं और अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग रचनात्मक काम में नहीं करते बल्कि दूसरों का दमन करने में लगाते हैं ब्रह्मदैत्य या ब्रह्मपिशाच  प्रेतयोनि में भटकते हैं।
6. आकाशीप्रेत-योग्यता के न होने पर भी अपनी महत्वाकाॅंक्षा की पूर्ति करने के लिये जो हमेशा  विध्वंसक काम में संलग्न रहते हैं और जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते वे आकाशी प्रेत बनकर भटकते हैं और लंबे समय के बाद फिर जन्म ले पाते हैं।
7. पिशाच -जो सब चीजों को अपने खाने और अपने सुख पाने की इच्छा से उपभोग करते हैं चाहे वह इस योग्य हो या नहीं, ये लोग मरने के बाद पिशाच प्रेतयोनि में रहते हैं।

नन्दू- तो क्या इसी प्रकार देवयोनियों का भी विभाजन होता है?
बाबा- हाॅं, देवयोनि का अर्थ है वह सत्ता जिसमें अनेक दिव्य गुण हों। अनेक प्रकार की देवयानियों में से सात प्रकार प्रमुख हैं किन्नर, विद्याधर, यक्ष, प्रकृतिलीन, विदेहलीन सिद्ध और गंधर्व।
देव योनि 
1. किन्नर-  वे जिनका लगाव सुंदरता और आभूषण, धन आदि के प्रति होता है वे मृत्यु के बाद किन्नर होते हैं । ये भगवान के भक्त होते हैं पर भगवान के बदले उन्होंने सुन्दरता और आभूषणों की चाह की होती है  और सोचते हैं कि सब उनकी सुंदरता की तारीफ करें। अतः वे मरने के बाद किन्नर माइक्रोवाइटा हो जाते हैं वे लोगों को सुन्दर  होने की मनोविज्ञान सिखाकर सौंदर्यपरक बनाने में सहायक होते हैं।
2. विद्याधर -आध्यात्मिक रूपसे वे उन्नत व्यक्ति जो परमपुरुष को अनुभव करने की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं मरने के बाद विद्याधर माइक्रोवाइटा होते हैं । किन्नर से वे कुछ उन्नत होते हैं और संस्कार क्षय होते ही फिर से जन्म लेते हैं। ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और उन्हें मदद करते हैं जो बौद्धिक स्तर पर अपने को आगे ले जाना चाहते हैं। ये शरीर से सुन्दर  भले न हों पर मानसिक रूप से सुंदर स्वभाव के होने से सबको आकर्षित करते हैं। पर वे परमपुरुष को नहीं पाते।
3. यक्ष - वे जो आध्यात्म साधना करते करते अच्छे कार्यों के लिये धन संग्रह करने लगते हैं और फिर आध्यात्मिक उन्नति और परमपुरुष को भूल कर उसी में रम जाते हैं उनका आराध्य धन संपदा ही हो जाता है ऐंसे लोग मरने के बाद यक्ष माइक्रोवाइटा होते हैं, ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते पर वे परमपुरुष को नहीं पाते और संस्कारों के क्षय होते ही फिर से जन्म पा जाते हैं।
4. प्रकृतिलीन - वे जो भ्रमित होकर परम पुरुष को भूल जाते हैं और जड़ पदार्थों की पूजा में लगे रहते हैं मरने के बाद प्रकृतिलीन होकर उनके मन पत्थर लकड़ी आदि हो जाते हैं। यह दशा  बहुत ही दयनीय होती है पर संचित संस्कारों के क्षय हो जाने पर फिर से मानव देह पाते हैं पर चूंकि वे परम पुरुष को पाने की चाह रखते हैं वे देवयोनि में माने गयेहैं। जहाॅं देवयोनि पत्थरों या लकड़ी के रूपमें होते हैं वे लगातार अपने मुक्त होने के लिये चिंतित रहते हैं अतः जब कोई आध्यात्मिक साधक ऐंसे स्थानों पर साधना करता है तो जल्दी ही उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है क्योंकि धनात्मक माइक्रोवाइटा सहायता करने लगते हैं। यदि देवयोनी की मदद से ध्यान केन्द्रित हुआ है तो वे नाक से हल्की मीठी सुगंध का अनुभव करते हैं और यदि वे गुरु की कृपा से ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं तो मधुर हल्की सुगंध के साथ वे चमकीले प्रकाश  की तरंगों के खंड भी देख पाते हैं। चाहे आखें खुली हों या बंद, दोनों  ही स्थितियों में गुरु की कृपा का ही महत्व है। आध्यात्मिक साधक पर जब गुरु की सीधी कृपा होती है तो वह हल्की सुगंध सूंघकर और चमकीली तरंगों के खंड देखकर मादक उल्लास से सब भिन्नताओं को भूल कर परम चेतना के सागर में आनन्दित होनें लगता है। तब वह अनुभव करता है कि गुरु कृपा के अलावा कुछ नहीं है।
5. विदेहलीन - वे जो आध्यात्मिक साधक तो होते हें और साधना जारी रखते हैं पर घरेलु परेशानियों और अन्य घटनाओं , जैसे बच्चे अच्छे न निकलना , फेल होना , धन समाप्त होना, बार बार धोखा होना आदि से दुखी होकर मानते हैं कि उनकी तरह दुर्भाग्य किसी का नहीं है और मर जाना चाहते हैं और इसी सोच में मर जाते हैं वे विदेहलीन होकर भटकते हैं जो बड़ी ही कष्टदायी अवस्था है। ये धनात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं और लोगों की मदद करते हैं संस्कारों  के क्षय हो जाने पर फिर मानव तन पाते हैं।
6. सिद्ध- वे जो तल्लीनता से साधना करते हैं और कुछ दिव्य शक्तियाॅं पा जाते हैं तो वे और अधिक शक्तियों के पाने के चक्कर में परमपुरुष को पाने से ध्यान हटा कर सिद्धियों पर ही ध्यान लगाये रहते हैं ये मरने के बाद सिद्ध माइक्रोवाइटा हो जाते हैं। देवयोनियों में इनका सबसे ऊंचा स्थान है। आध्यात्मिक साधकों को यह अनेक प्रकार से मदद करते हैं। उनकी मुख्य भूमिका अभिभावक की तरह होती है। अनेक महापुरुषों के बारे में सुना जाता है कि उनके कोई गुरु नहीं थे यर्थाथतः, वे इसी प्रकार के सिद्धों के द्वारा दीक्षित थे। साधकों को आवश्यकता  होने पर सिद्ध उचित मार्गदर्शन  देते हैं।
7. गंधर्व - वे साधक जो संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय होने की कामना करते हुए शरीर त्याग करते हैं वे गंधर्व देवयोनी में जाते हैं जो कि विशेष प्रकार के धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं।

राजू- बाबा! आपने इस चर्चा में एक नया शब्द ‘माइक्रोवाइटा‘ उच्चारित किया है यह क्या है ?
बाबा- माइक्रोवाइटा अपेक्षतया नया शब्द है जो जीवन का सूक्ष्मतम भाग होता है इसे यह नाम ‘‘माइक्रो प्लस वाइटम‘‘ इन दो शब्दों के मेल से दिया गया है, वहुवचन में माइक्रोवाइटा कहते हैं। परंतु  सरलता के लिये इसे आपलोग सूक्ष्मशरीर का तत्विक भाग मान सकते हैं। इसकी व्याख्या कभी किसी अगली क्लास में की जायेगी।