Sunday, 14 February 2016

48 बाबा की क्लास (मतवाद और मत)

48 बाबा की क्लास (मतवाद और मत)

इंदु-  बाबा! भारत सहित संसार में अनेक प्रकार के मत और सिद्धान्त प्रचलित हैं जो एक दूसरे के प्रति उदार नहीं हैं इसलिये इन्हें समझने के लिये क्या करना चाहिये?
बाबा- संसार में प्रचलित सभी मतों पर विचार करने के लिये सबसे पहले अपने कामन सेंस का उपयोग करो, फिर तर्क का , फिर विवेक और विज्ञान का। इस प्रकार प्राप्त परिणाम को स्वीकार करो अन्य सब को भूल जाओ।

नन्दू- भारत में प्रचलित पातंजल और साॅंख्य सिद्धान्त भी लगभग समान बातें करते हैं परंतु फिर भी विद्वान उन्हें अलग अलग मानते हैं?
बाबा- चलो इन सिद्धान्तों पर अभी बतायी गयी विधि से विश्लेषण  करें। ‘पातंजल‘ और ‘‘साॅंख्य‘‘ दोनों ही अनेक ‘‘पुरुषों‘‘में विश्वास  रखते हैं और मानते हैं कि ब्रह्माॅंड प्रकृति के द्वारा निर्मित किया गया है। पर यह सही नहीं है, क्योंकि मन के बिना भोग नहीं हो सकता, जबकि उनके अनुसार पुरुषों के पास मन ही नहीं होता अतः प्रकृति के द्वारा ब्रह्माॅंड के निर्माण करने से वे संतुष्ठ नहीं हो सकते। वे यह भी मानते हैं कि प्रकृति, पुरुष से अलग है। यह भी सत्य नहीं है क्यों कि वह पुरुष की ऊर्जा है ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति है जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। साॅंख्य में  ईश्वर  नहीं है अतः निरीश्वरवाद  कहलाता है पर पातंजल ईश्वर  में विश्वास  करता हैं पर ब्र्रह्म में नहीं अतः वह सैश्वरवाद  कहलाता है।

रवि- इसी प्रकार बौद्ध और जैन मत भी एकरूपता नहीं दर्शाते , लगता है दोनों ही अपूर्ण हैं?
बाबा- भगवान बुद्ध ने पूरे संसार में बड़ी ही समस्या उत्पन्न कर दी है विशेषतः दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देकर। यही कारण है कि मेडीकल साईंस की प्रगति सैकड़ों वर्ष पिछड़ गयी। यही नहीं बौद्ध धर्म के द्वारा लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य  क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके। महावीर जैन ने भी सबसे पहले निर्ग्रन्थवाद  अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया। आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे  अपने शरीर को ढंकने लगे। अब जब कि वे अपने श रीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहने में शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का मत  जनसमान्य  का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु साॅंप और विच्छू को भी क्षमा कर देना चाहिये । इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया। इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं  और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा  दी, परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्यों कि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं।  इसके वावजूद, सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं द्वारा  बुद्ध की ‘अष्टाॅंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी गयी  है। महावीर की शिक्षा ‘‘ जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इस का अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचार धाराओं को मान्यता दी गई है।

राजू- परंतु इसी प्रकार तो मुस्लिम, क्रिश्चियन  और ज्यू आदि में भी समानता सी ही दिखती है?
बाबा- भयबोध विश्वासों (sematic faith)   जैसे, मुस्लिम , क्रिश्चियन  और ज्यू आदि में क्रिश्चियन  की सामाजिक संरचना थोड़ी सी इन दोनों से भिन्न है पर इनका धार्मिक साहित्य पुरानी अरबी में है और हिब्रू उनकी समानान्तर भाषा है। इन में अन्य किसी धर्म या विश्वास  के प्रति कोई आदर नहीं है। इनका कोई दर्शन  नहीं है केवल कट्टर धार्मिक सोच है, वे मानते हैं कि यह सब ईश्वर  के वाक्य हैं जिन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। इनमें ‘‘शैतान‘‘ का भय दिखाया गया है और स्वर्ग नर्क की अवधारणा को माना गया है। प्रोटेस्टेंटों, जिनका विचार कुछ भिन्न है , को छोड़कर  अन्य कोई भी आत्मा का परागमन स्वीकार नहीं करता। उनका विश्वास  है कि पैगम्बर या अवतारों द्वारा पाप को क्षमा किया जा सकता है। नर्क का भय दिखा कर तीनों में शोषण को ही प्रमुखता दी गयी है।

रवि- इनके सिद्धान्तों का  कुछ तार्किक विश्लेषण  क्यों न किया जाये?
बाबा- ठीक है। यदि उनका धार्मिक साहित्य ईश्वर  के द्वारा सीधे ही कहा गया है और वे मानते हैं कि ईश्वर  का कोई आकार नहीं है तो यह कैसे संभव है? क्यों कि शब्दों को कहने के लिये गला और मुंह चाहिये जो आकार के बिना संभव नहीं है, अतः या तो उनका ईश्वर  निराकार नहीं है या फिर उनका साहित्य ईश्वर  के शब्द नहीं है। इन तीनों में ब्रह्माॅंड के उत्पन्न करने का कारण स्पष्ट नहीं किया गया है। वे केवल मानते हैं कि संसार ईश्वर  की पूजा के लिये बनाया गया है पर यह भी कहते हैं कि ईश्वर  दयालु है। जब ईश्वर  दयालु है तो उसकी कृपा पाने के लिये वह अपनी पूजा क्योें कराना चाहते है? यह तो उसकी साधारण मनुष्य जैसी प्रकृति ही मानी जायेगी जो कि वाॅंछनीय नहीं है। क्रिश्चियन  कहते हैं कि जीसस ईश्वर  के पुत्र हैं, परतु जब उनका ईश्वर  निराकार है तो उनका पुत्र कैसे हो सकता है, इस तर्क का वे कोई उत्तर नहीं दे पाते। तीनों धर्म यह मानते हैं कि शैतान वह सब करता है जो ईश्वर  के कार्य के विपरीत होता है जिसका सीधा अर्थ है कि शैतान भी उतना ही शक्तिशाली है जितना ईश्वर । इस प्रकार दो पृथक शक्तियों का अस्तित्व पाया जाना स्वीकृत हुआ अतः इस प्रकार के ईश्वर  को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। इसलिये शैतान का पृथक अस्तित्व माना जाना अतार्किक है।

नन्दू- इनमें यह भी माना गया है कि शैतान का अस्तित्व संसार के निर्माण के पहले से ही है अर्थात् शैतान का निर्माण ईश्वर  के द्वारा नहीं हुआ है?
बाबा- अर्थात वह नकारात्मक शक्ति है, अतः दो प्रकार के ईश्वर  प्राप्त होते हैं एक अच्छा और दूसरा बुरा। अब प्रश्न  उठता है कि क्या ईश्वर  वहाॅं पाया जा सकता है जहाॅं शैतान उपस्थित हो? इस प्रकार, दोनों प्रकार के कथन एक दूसरे के विपरीत हो जाते हैं। इन मतों के अनुसार जो ईश्वर  की पूजा नहीं करता उसे नर्क में फेक दिया जाता है जहाॅं से कभी वापस नहीं आ सकते, यह भी अतार्किक है क्योंकि किसी को भी हमेशा  के लिये बंधन में नहीं रखा जा सकता। वे कहते हैं कि संसार को ईश्वर  ने बनाया पर यह नहीं बताते कि किस पदार्थ से बनाया, इस प्रकार ईश्वर  और संसार दो अलग अलग अस्तित्व हुए। अब यदि संसार ईश्वर  का हिस्सा नहीं है तो वह शैतान का हिस्सा हुआ, पर  शैतान को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्रष्टि का केन्द्र नहीं माना गया है अतः संसार उसका हिस्सा नहीं हो सकता। इस प्रकार तीन ईश्वर  हुए , एक तो असली, दूसरा शैतान और तीसरा वह पदार्थ जिससे संसार का निर्माण हुआ। इन धर्मों का एक समान उद्गम भयपूर्ण नर्क से हुआ है जो इनके अस्तित्व को बनाये रखने का कारण है। इस विश्लेषण  से स्पष्ट होता है कि ये सब ‘मत‘ या विचारधारायें ही है इन्हें दर्शन  की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

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