47 बाबा की क्लास (पुनर्जन्म)
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रवि- तो, जिसे मृत्यु कहते हैं वह क्या है? क्या वह केवल शरीर का रूपान्तरण ही नहीं है?
बाबा- हाॅं रूपान्तरण ही है, परंतु इसे ठीक ढंग से समझ लो। प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में सुसंतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे कुत्ता, मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य में बृद्धि होते होते एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बनाये रख पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य वाले शरीर को पाने की तलाश करना होगी। इस प्रकार, कुत्ता को, उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर, भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु या पेड़ के शरीर को पा सकता है।
नन्दू- क्या वह नवीन संरचना अर्थात् शरीर को वर्तमान देह में रहते हुए ही नहीं तलाश सकता?
बाबा- नहीं। वर्तमान देह उसे बंधनकारी है, वह एक साथ दो संरचनाओं में नहीं रह सकता। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि कोई विशेष शरीर,
विशेष संस्कारों के भोगने के लिये ही उपयुक्त होता है, संस्कारों के भोग चुकने पर मन अपने नये संस्कारों के ‘वेव पैटर्न‘, जिन्हें ‘रीएक्टिव मूमेंटा‘ कहा जाता है , के साथ पुराने शरीर से बाहर आ जाता है और अपने वेव पैटर्न के अनुकूल साम्य स्थापित करने के लिये अपने पोटेशियल रूप, (जिसे ‘सूक्ष्म
शरीर‘ या ‘ल्यूमिनस वाडी ‘ कहते हैं) में, अन्तरिक्ष में भटकने लगता हैं।
इंदु- फिर तो, पौराणिक कहानियों में अहिल्या को पत्थर का बना देने का विवरण सही हो सकता है?
बाबा- अहिल्या की साॅंकेतिक कहानी यही प्रकट करती है कि उसके मानसिक शरीर का वेवपैटर्न पत्थर के वेवपैटर्न से साम्य स्थापित करने लगा । कहने का अर्थ यह है कि उन्नत तरंग दैर्घ्य का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर एक्स मिस्टर वाय हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर , भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।
राजू- अभी तक तो भौतिक और मानसिक शरीरों की ही बात थी परंतु अब आप प्राणों को भी इन्हीं के साथ जोड़ने लगे? आखिर किस शरीर की मृत्यु होती है, कैसे और कब?
बाबा- हाॅं, इसे सही ढंग से समझ लो। ‘प्राण‘ पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य वायुओं का संयुक्त नाम है। आन्तरिक वायु हैं प्राण , अपान उदान, व्यान और समान, तथा वाह्य वायु हैं नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनन्जय। प्राण वायु, नाभि से कंठ तक श्वाश लेने और छोड़ने का कार्य करती है। अपान वायु , गुदा से नाभि तक कार्य करती है और मल मूत्र के सिर्जन में सहायता करती है। समान वायु ,नाभि के चारों ओर रहती है और प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाये रखती है। उदान वायु, गले में रहकर बोलने में सहायता करती है। व्यान वायु , खून को शुद्ध करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नर्व्ज को नियंत्रण करती हैं। नाग वायु , उछलने कूदने और किसी वस्तु को फेकने में , कूर्मवायु , शरीर को संकोचन करने में, क्रिकर वायु , जंभांई लेने में, देवदत्त वायु , भूख और प्यास में तथा धनंजय वायु , निद्रा और तंद्रा के लिये सहायक होती हैं। षरीर के किसी भाग में दोष उत्पन्न होने से यदि प्राण और अपान में संतुलन बिगड़ता है तो उससे समान में भी असंतुलन पैदा होेता है , इस के बाद यह तीनों उदान में भी असंतुलन पैदा कर व्यान पर आघात करती है और फिर पाॅंचों मिलकर शरीर के हर कमजोर भाग पर अपना संयुक्त दाब डालकर बाहर निकल जाती है। इस प्रकार धनंजय को छोड़कर सभी वायुएं भौतिक शरीर से बाहर निकल जाती हैं। धनंजय तब तक शरीर में रहती है जब तक उसे जला नहीं दिया जाता । स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन का समाप्त होना मृत्यु कहलाता है। भौतिक शरीर से नौ वायुओं के निकल जाने पर मानसिक शरीर भी अब भौतिक शरीर से सामंजस्य नहीं रख पाता अतः अपने संस्कारों के साथ प्रकृति के नियमानुसार अन्य भौतिक शरीर तलाशने में जुट जाता है जहाॅं वह अपने संचित संस्कार भोग सके। ‘कास्मिक‘ रजोगुण का यह दायित्व होता है कि वह इस मानसिक शरीर को एंसी सूक्ष्म संरचना उपलब्ध कराये जहाॅं वह अपने संचित संस्कारों को भोग सके। इस प्रकार विच्छेदित मानसिक शरीर में जीवात्मा साक्षी स्वरूप होता है जो अब कर्माशय या कर्म प्रतिक्रिया के रूपमें सुप्तावस्था में रहता है।
चंदु- यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन परंतु मनुष्य का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है? अर्थात् उस भटकते सूक्ष्मशरीर का जन्म किस प्रकार होता है?
बाबा- इसे भी अच्छी तरह समझ लो। जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅस में, माॅस का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा, इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल (vital fluid) के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डालता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देशों में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा परस्पर मिल कर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है, उससे उत्सर्जित होने वाली वेवपैटर्न , पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं अर्थात् सूक्ष्मशरीर से उत्सर्जित अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर अनुनादीय स्पंदन से संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश कर जाता हैं जहाॅं वह अपने को नये ढंग से प्रदर्शित कर पाता हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है और भौतिक जीवन अस्तित्व में आ जाता है।
इंदु- जब अन्तरिक्ष में भटकने वाले सूक्ष्म शरीर के वेवपैटर्न को ही नयी संरचना का शरीर अपने संस्कार भोगने को मिलता है तो उसे अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं क्यों नहीं रहती?
बाबा- सभी नवजात शिशुओं को अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं तीन चार वर्ष की आयु तक ही रहती हैं, इसके बाद वे अपने नये जीवन के संस्कारों के साथ साम्य स्थापित करने के लिये पुराने सभी ज्ञान को भूलने लगते हैं, यदि ऐसा न हो तो उन्हें दो संरचनाओं के संस्कारों को एकसाथ भोगना पड़ेगा जो संभव नहीं है अतः उसे पिछला सब कुछ भूलना अनिवार्य हो जाता है।
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रवि- तो, जिसे मृत्यु कहते हैं वह क्या है? क्या वह केवल शरीर का रूपान्तरण ही नहीं है?
बाबा- हाॅं रूपान्तरण ही है, परंतु इसे ठीक ढंग से समझ लो। प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में सुसंतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे कुत्ता, मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य में बृद्धि होते होते एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बनाये रख पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य वाले शरीर को पाने की तलाश करना होगी। इस प्रकार, कुत्ता को, उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर, भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु या पेड़ के शरीर को पा सकता है।
नन्दू- क्या वह नवीन संरचना अर्थात् शरीर को वर्तमान देह में रहते हुए ही नहीं तलाश सकता?
बाबा- नहीं। वर्तमान देह उसे बंधनकारी है, वह एक साथ दो संरचनाओं में नहीं रह सकता। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि कोई विशेष शरीर,
विशेष संस्कारों के भोगने के लिये ही उपयुक्त होता है, संस्कारों के भोग चुकने पर मन अपने नये संस्कारों के ‘वेव पैटर्न‘, जिन्हें ‘रीएक्टिव मूमेंटा‘ कहा जाता है , के साथ पुराने शरीर से बाहर आ जाता है और अपने वेव पैटर्न के अनुकूल साम्य स्थापित करने के लिये अपने पोटेशियल रूप, (जिसे ‘सूक्ष्म
शरीर‘ या ‘ल्यूमिनस वाडी ‘ कहते हैं) में, अन्तरिक्ष में भटकने लगता हैं।
इंदु- फिर तो, पौराणिक कहानियों में अहिल्या को पत्थर का बना देने का विवरण सही हो सकता है?
बाबा- अहिल्या की साॅंकेतिक कहानी यही प्रकट करती है कि उसके मानसिक शरीर का वेवपैटर्न पत्थर के वेवपैटर्न से साम्य स्थापित करने लगा । कहने का अर्थ यह है कि उन्नत तरंग दैर्घ्य का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर एक्स मिस्टर वाय हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर , भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।
राजू- अभी तक तो भौतिक और मानसिक शरीरों की ही बात थी परंतु अब आप प्राणों को भी इन्हीं के साथ जोड़ने लगे? आखिर किस शरीर की मृत्यु होती है, कैसे और कब?
बाबा- हाॅं, इसे सही ढंग से समझ लो। ‘प्राण‘ पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य वायुओं का संयुक्त नाम है। आन्तरिक वायु हैं प्राण , अपान उदान, व्यान और समान, तथा वाह्य वायु हैं नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनन्जय। प्राण वायु, नाभि से कंठ तक श्वाश लेने और छोड़ने का कार्य करती है। अपान वायु , गुदा से नाभि तक कार्य करती है और मल मूत्र के सिर्जन में सहायता करती है। समान वायु ,नाभि के चारों ओर रहती है और प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाये रखती है। उदान वायु, गले में रहकर बोलने में सहायता करती है। व्यान वायु , खून को शुद्ध करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नर्व्ज को नियंत्रण करती हैं। नाग वायु , उछलने कूदने और किसी वस्तु को फेकने में , कूर्मवायु , शरीर को संकोचन करने में, क्रिकर वायु , जंभांई लेने में, देवदत्त वायु , भूख और प्यास में तथा धनंजय वायु , निद्रा और तंद्रा के लिये सहायक होती हैं। षरीर के किसी भाग में दोष उत्पन्न होने से यदि प्राण और अपान में संतुलन बिगड़ता है तो उससे समान में भी असंतुलन पैदा होेता है , इस के बाद यह तीनों उदान में भी असंतुलन पैदा कर व्यान पर आघात करती है और फिर पाॅंचों मिलकर शरीर के हर कमजोर भाग पर अपना संयुक्त दाब डालकर बाहर निकल जाती है। इस प्रकार धनंजय को छोड़कर सभी वायुएं भौतिक शरीर से बाहर निकल जाती हैं। धनंजय तब तक शरीर में रहती है जब तक उसे जला नहीं दिया जाता । स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन का समाप्त होना मृत्यु कहलाता है। भौतिक शरीर से नौ वायुओं के निकल जाने पर मानसिक शरीर भी अब भौतिक शरीर से सामंजस्य नहीं रख पाता अतः अपने संस्कारों के साथ प्रकृति के नियमानुसार अन्य भौतिक शरीर तलाशने में जुट जाता है जहाॅं वह अपने संचित संस्कार भोग सके। ‘कास्मिक‘ रजोगुण का यह दायित्व होता है कि वह इस मानसिक शरीर को एंसी सूक्ष्म संरचना उपलब्ध कराये जहाॅं वह अपने संचित संस्कारों को भोग सके। इस प्रकार विच्छेदित मानसिक शरीर में जीवात्मा साक्षी स्वरूप होता है जो अब कर्माशय या कर्म प्रतिक्रिया के रूपमें सुप्तावस्था में रहता है।
चंदु- यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन परंतु मनुष्य का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है? अर्थात् उस भटकते सूक्ष्मशरीर का जन्म किस प्रकार होता है?
बाबा- इसे भी अच्छी तरह समझ लो। जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅस में, माॅस का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा, इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल (vital fluid) के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डालता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देशों में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा परस्पर मिल कर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है, उससे उत्सर्जित होने वाली वेवपैटर्न , पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं अर्थात् सूक्ष्मशरीर से उत्सर्जित अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर अनुनादीय स्पंदन से संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश कर जाता हैं जहाॅं वह अपने को नये ढंग से प्रदर्शित कर पाता हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है और भौतिक जीवन अस्तित्व में आ जाता है।
इंदु- जब अन्तरिक्ष में भटकने वाले सूक्ष्म शरीर के वेवपैटर्न को ही नयी संरचना का शरीर अपने संस्कार भोगने को मिलता है तो उसे अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं क्यों नहीं रहती?
बाबा- सभी नवजात शिशुओं को अपने पूर्व जीवन की स्मृतियाॅं तीन चार वर्ष की आयु तक ही रहती हैं, इसके बाद वे अपने नये जीवन के संस्कारों के साथ साम्य स्थापित करने के लिये पुराने सभी ज्ञान को भूलने लगते हैं, यदि ऐसा न हो तो उन्हें दो संरचनाओं के संस्कारों को एकसाथ भोगना पड़ेगा जो संभव नहीं है अतः उसे पिछला सब कुछ भूलना अनिवार्य हो जाता है।
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