Sunday 27 November 2016

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

राजू- क्या कृष्ण के समय तक दर्शन अर्थात् फिलासफी का उद्गम हो चुका था?
बाबा- भारतीय दर्शन  के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक  "कपिल" शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व  की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और उन्हें नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर ‘‘। संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे साॅंख्य दर्शन  कहा गया है।

रवि- तो क्या उस समय के विद्वानों ने उनकी इस बात को स्वीकार कर लिया?
बाबा-  कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं । अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ  है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान  के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। निश्चय  ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे।

इन्दु- तो क्या कृष्ण के समय तक यह दर्शन स्थापित हो चुका था या समाप्त हो चुका था या कृष्ण ने अलग कोई अपना दर्शन प्रस्तुत किया ?
बाबा- कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के दार्शनिक वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक  नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहाॅं यह याद रखने योग्य है कि भागवतशास्त्र जिसमें प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया। बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियाॅं और कार्यव्यवहार संपूर्ण प्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बाॅंसुरी सुनकर सभी लोग उनकी ओर ही दौड़ पड़ते थे उन्हें लगता था कि वह बाॅसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या काॅंटे उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नहीं तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्म करना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहाॅं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।

चन्दू- प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में?
बाबा- यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इस प्रकार कर्म प्रारंभ में तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बाॅसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है।

Monday 21 November 2016

92 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

92 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?
बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी  को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी  तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी  उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनो का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता  भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी।

नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?
बाबा - हाॅं।  एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यों  से युक्त होता है।  इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते  अपनी तरंग दैर्घ्य  को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद कहलाते हैं।  जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी  तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा।

चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी  का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?
बाबा- बृज कृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी  की अनुभूति  क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है।  पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं। यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हूँ  और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी  की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है।  मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ  और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।

इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियाॅं कृष्ण से भिन्न थीं?
बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने तथा  स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए
शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, लेकिन दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।

Sunday 13 November 2016

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

इन्दु- बाबा ! सभी प्रकार के विद्वानों को यह कहते सुना जाता है कि कृष्ण परमपुरुष ही हैं, परन्तु इन रूपों में उन्होंने अपने निकट रहने वालों को किस प्रकार अनुभव कराया कि वे परमपुरुष ही हैं?
बाबा- जब परमपुरुष किसी संक्रान्तिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप मे पृथ्वी पर अवतरित करते हैं तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियाॅं करते हैं जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी  और केवल्य।

रवि- बाबा ! ‘सालोक्य‘ क्या है और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- ‘सालोक्य‘ अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं  कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृज कृष्ण या पार्थ सारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहाॅं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृज कृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।

राजू- तो फिर ‘सामीप्य‘ और ‘सालोक्य‘ एक समान हैं या भिन्न?
बाबा- ‘सामीप्य‘ अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृज कृष्ण के समीप आने वाले अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थ सारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृज कृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यकता नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।

नन्दू- बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है, लेकिन ‘सायुज्य‘ तो बिलकुल अलग ही होगा?
बाबा- ‘सायुज्य‘  में उन्हें स्पर्श करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते, गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थ सारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।

चन्दू- परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति ,‘सारूप्य‘ क्या है?
बाबा- ‘सारूप्य‘ में भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में स्थापित करके साधना करते हैं।

रवि- यदि ऐंसा है तो परमपुरुष के साथ जो शत्रु के रूप में सम्बन्ध बनाते हैं, क्या वे सारूप्य के योग्य माने जा सकते हैं?
बाबा- परमपुरुष को शत्रु के रूप में संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे आराधना कहते हैं और जो आराधना करता है उसे राधा कहते हैं, यहाॅं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।

इन्दु- अनुभूति का अगला स्तर कौन सा है?
बाबा- अगला स्तर है ‘ सार्ष्ठी  ‘ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता है कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। ‘ सार्ष्ठी  ‘ का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा।‘‘ इस प्रकार वे  ‘ सार्ष्ठी  ‘को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन  यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो, इस अवस्था को ‘कैवल्य‘ कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है।

Monday 7 November 2016

90 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)

90 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)

राजू- तो क्या वह युद्ध करने और कराने के लिये ही पार्थसारथी की भूमिका में आये थे?
बाबा- कंस का अर्थ है दूसरों के अस्तित्व के लिये जो खतरनाक हो, जो दूसरों के सार्वभौमिक भलाई और विकास में बाधा पहुंचाता हो। और कृष्ण का अर्थ है जो दूसरों को पूर्णता की ओर ले जाता हो, जो विध्वंस कारक विचारों को सहन नहीं कर सकता हो, जो पूर्णेापलब्धि की ओर सबको ले जाता हो। अतः सबके भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुखों को दूर करने के लिये और धर्म के रास्ते में बाधायें उत्पन्न करने वाले विध्वंसी बलों को समाप्त करने के लिये ही उन्हें पार्थसारथी की भूमिका निभाना पड़ी , क्योंकि बृज कृष्ण की भूमिका में यह संभव नहीं था। उसके लिये बृज भूमि उचित नहीं थी कुरुक्षेत्र ही उचित था।

राजू-  बाबा ! पार्थ का अर्थ क्या है?
बाबा- पार्थ का अर्थ है पृथा का पुत्र, पृथा या पृथि नाम के राज्य की राजकुमारी कुन्ती का पुत्र अर्थात् कौन्तेय। प्राचीन भारत में आर्यों के आगमन से पहले तक कुल माता के नाम से पुत्रों के परिचय देने की परम्परा चलती थी। सारथी का अर्थ है जो रथ की देखभाल अपने पुत्र की भाॅंति करता है। उपनिषदों में शरीर को रथ, मन को लगाम और बुद्धि को सारथी तथा आत्मा को रथ का स्वामी कहा गया है। अतः आगे बढ़ने के लिये इन चारों में से किसी को भी नगण्य नहीं माना जा सकता। किसी एक के भी अप्रसन्न हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इसी के अनुरूप युद्ध भूमि में पार्थ के सारथी कृष्ण हुए और उन्होंने रथ सहित रथ की सवारी करने वाले की देखरेख अपने पुत्र की भाॅंति की। धर्म की रक्षा की।

नन्दू- क्या वे यह कार्य बृजकृष्ण से पार्थसारथी बने बिना नहीं कर सकते थे?
बाबा- कृष्ण के समय में मुट्ठी भर लोगों के द्वारा छोटे छोटे राज्यों जैसे , अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र , मगध आदि को बना लिया गया था और आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते थे, जब कि सामान्य जन उनकी मौलिक आवश्यकताओं  जैसे, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि के लिये तरसते थे। अतः एकीकृत  और सामूहिक समाज के महत्व को कृष्ण ने समझा और इस महती जिम्मेवारी को निभाने के लिये उन्होंने पार्थसारथी की भूमिका को चयन किया। जन समान्य की सामाजिक आर्थिक और आध्यात्मिक  उन्नति करने के लिये छोटे छोटे राजाओं को नैतिक रूप से एक समान सहयोग के आधार पर संघीय ढाँचे  में एकीकृत करने का महान लक्ष्य कृष्ण के सामने था जिसके लिये बृजकृष्ण से पार्थसारथी कृष्ण में परिवर्तित होना उनके लिये अनिवार्य हो गया था । अन्य कारण यह भी था कि बृज कृष्ण कोमलता, मधुरता और भक्ति के मिश्रण थे, अतः युद्धों के लिये आवश्यक दृढ़ता  और कठोरता उनमें नहीं आ सकती थी।

चन्दू- बृज कृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण में से कौन श्रेष्ठ हैं?
बाबा- जहाॅ बृज कृष्ण मानवता को अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा मानवता की उच्चतम अनुभूति कराना चाहते थे वहीं पार्थसारथी कृष्ण परोक्ष अनुभूति से अपरोक्ष अनुभूति कराते हुए मानवता की उच्चतम अवस्था को अनुभव कराना चाहते थे। चूँकि अब तक लोगों के पास उन्नत मस्तिष्क और ज्ञान आधारित समाज था , योग विज्ञान की भी व्यावहारिकता से वे परिचित हो चुके थे अतः उन्हें कर्म योग के माध्यम से परमपुरुष के प्रति शरणागति कैसे पाई जाती है इसकी शिक्षा देने के लिये पार्थसारथी की भूमिका ही उचित थी। यही वह अवस्था है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों अनुभूतियाॅं मिलकर एक हो जाती हैं। स्पष्ट है कि उनहोंने एक भूमिका में संसार को मधुरता और प्रेम से भक्ति की ओर अर्थात् राधा भाव की ओर ले जाने का कार्य किया और दूसरी भूमिका में यह अनुभव कराया कि जीवन का सार संघर्ष में ही है । इस भूमिका से उन्होंने सिखाया कि जीवन की मधुरता को संघर्ष पूर्वक प्राप्त कर  परम मधुरता परमपुरुष को कैसे पाया जाता है। इस प्रकार दोनों भूमिकायें एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं एक बिलकुल कोमल और मधुर तथा दूसरी दृढ़  और कठोर। इनमें से कौन सी भूमिका श्रेष्ठ है यह पूछना व्यर्थ है क्योंकि दोनों ही भूमिकायें अपने अपने समय की आवश्यकतायें  थीं।

Thursday 3 November 2016

89 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

89 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

रवि - अनेक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी अनेक तरह से व्याख्यायें पाई जाती हैं, फिर भी उनकी आकर्षक और विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। क्या ‘ शिव ‘ की तरह आप, नवीन शोधों के अनुसार श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अब तक सर्वथा अज्ञात तथ्यों पर प्रकाश डाल सकते हैं?
बाबा- हाॅं , सबसे पहले तो उस काल में जो सामाजिक व्यवस्था थी उसके सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ लो। गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या  सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं थीं। गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक सन्ताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्या अध्ययन और अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।

नन्दू- तो हमें कृष्ण के व्यक्तित्व को किस प्रकार समझने का प्रयत्न करना चाहिए?
बाबा- कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृज कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।

राजू- परन्तु कृष्ण को तो महाभारत के कारण ही जाना जाता है?
बाबा-महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के विना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।

चन्दू- परन्तु अधिकाॅंश भक्तों ने तो उनकी बाल लीलाओं में ही अपनी साधना को केन्द्रित रखा है, और कहा जाता है कि उन्हें उनका साक्षात्कार हुआ है, तो अन्य भूमिका की आवश्यकता क्यों हुई?
बाबा- बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल, तेज और सभी प्रकार के सदगुण थे परंतु, मधुरता से सबको अपनी वाॅंसुरी की तान से आकर्षित कर लेना उनका अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र भी उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊॅंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह तो हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। इस प्रकार जो अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।