Wednesday 29 April 2020

311 सच्चे अनुयायी

सच्चे अनुयायी
भगवान बुद्ध के कार्यकाल में ही बौद्ध धर्म के अनुयायी दो पड़ौसी देशों में युद्ध छिड़ गया। दोनों देशों के योद्धाओं की पत्नियाॅं, माताएं, बहिनें भगवान बुद्ध से क्रमशः अपने अपने पतियों, पुत्रों, भाइयों को विजयी होकर सकुशल वापस घर लौटने की प्रार्थना करने उनके पास पहॅुंची। बुद्ध पूरे समय चुपचाप बने रहे।
बाद में उनके सेवक ने पूछा, "भगवन्! आपने किसी भी देश की महिलाओं की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया; वे सभी बड़ी आशा से आपका आशीष लेने दूर दूर से आपके पास आई थीं, दोनों ही देशों के नागरिक आपके भक्त हैं?"
भगवान बुद्ध ने कहा, ‘‘यदि वे सच्चे बौद्ध होते तो युद्ध कभी न करते।’’

Saturday 25 April 2020

310 डा जॉन्सन

डा जॉन्सन
अमेरिका निवासी डॉ जॉन्सन भारतीय दर्शन से इस प्रकार प्रभावित थे कि उनसे मिलने आने वाले हर व्यक्ति से वे आध्यात्म की चर्चा अवश्य किया करते थे। सभी लोग उनकी सहिष्णुता की तारीफ किया करते थे । उनकी धर्मचर्चा सुन कर एक दिन एक व्यक्ति रात भर यह सोचता रहा कि डाॅ. जॉन्सन का यह कहना कहाँ तक संभव हो सकता है कि प्रत्येक मनुष्य को जीवन में अधिकाँशतः ईश्वर का ही चिंतन करना चाहिए।
उसने हिसाब लगाया, पूरे जीवन में मनुष्य की आधी जिंदगी तो सोने में निकल जाती है, शेष आधी जिंदगी में से बालकपन के दस साल खेलकूद में ही चले जाते हैं, इसके आगे के दस से पंद्रह साल पढ़ने लिखने और नौकरी ढूँड़ने में लग जाते हैं, जैसे तैसे नौकरी मिलती है तो उसके अनुशासन में रहना पड़ता है और साथ ही घर गृहस्थी की आवश्यकताओं की पूर्ती करना , बालबच्चों की देखरेख करना , बीमारियाँ , लड़ाई झगडे़ और जाने क्या क्या प्रपँचों से जूझने के लिए ही समय कम पड़ता है फिर किस प्रकार और कब ईश्वर का चिंतन किया जा सकता है ? असंभव।
अगले दिन वह डॉ जॉनसन के पास जा कर चिल्लाने लगा , ‘‘अरे मैं बर्बाद हो गया ! लुट गया ! अब मेरा क्या होगा ? ’’
डॉ जॉनसन ने घबरा कर पूँछा, ‘‘क्या हो गया ? क्यों चिल्ला रहे हो ? क्या तकलीफ है ?’’
उसने रोते हुए अपनी उपरोक्त गणना सुना दी और पूंछा, क्या करूं ?
यह सुन कर डॉ जॉन्सन रोने लगे और उसी की तरह चिल्लाने लगे , ‘‘मैं बर्बाद हो गया, लुट गया, मेरा क्या होगा ?’’
अब वह आदमी बोला , ‘‘डॉ साहब आपको क्या हुआ ?’’
वे बोले , ‘‘अरे! इस धरती के तल पर 73 पर्सेंट भाग पर पानी भरा है , बाकी 27 पर्सेंट भाग पर बड़े बड़े जँगल, मरुस्थल, नदियाँ और बर्फ हैं , इसके बाद बचने वाले भूभाग पर लन्दन, टोक्यो , जैसे महानगर हैं , अब बताओ खेती कहाँ की जाये जिससे हमें भोजन मिले ? लगता है भूखे ही मरना पडेगा, विश्व की जनसँख्या गुणोत्तर श्रेणी में बढ़ती जा रही है, ओह ! बर्बाद हो गया।’’
वह आदमी बोला, ‘‘ अरे ! यह तो ठीक है , पर हम सभी को अन्न तो मिलता ही है, सभी भोजन करते ही हैं , है कि नहीं?’’
डॉ जॉन्सन कहा, ‘‘अरे! वही तो मैं कह रहा हूँ , सब कुछ होते हुए भी ईश्वर चिंतन के लिए भी इसी प्रकार समय मिल ही सकता है अगर प्रयास किया जाये। ईश्वर चिंतन लिए समय न मिलने की बात करना केवल बहाना बनाना है, इससे बचना चाहिए। सिगरेट पीने के लिए समय कैसे मिल जाता है?’’
वह आदमी निरुत्तर हो गया।

Wednesday 22 April 2020

309 कहानी गयासुर की ।

कहानी गयासुर की ।
पौराणिक कहानियों के लेखक की काल्पनिक उड़ानें जितनी अधिक आश्चर्यजनक हैं उतनी ही अधिक शैक्षिक मूल्य की धनी भी हैं। बस, हमें पात्रों और उनसे जुड़ी घटनाओं को तर्क विज्ञान और विवेक के आधार पर जांच कर उनके पीछे छिपा लेखक का संदेश पकड़ने का प्रयास करना चाहिए। जैसे, भारतीय दर्शन का अमर सिद्धान्त कि, ‘‘स्वयं को मोक्ष मार्ग पर ले जाते हुए जगत का कल्याण करना’’ यह समझाने के लिए एक कहानी है गयासुर की।
इसमें बताया गया है कि गयासुर के पिता त्रिपुरासुर,अपने इष्टदेव विष्णु के परम भक्त थे परन्तु कुछ शिव भक्तों को यह अच्छा नहीं लगता था अतः उन्होंने उन पर विष्णु के स्थान पर शिव की भक्ति करने का दबाव बनाया पर जब वह नहीं माने तो शिव भक्तों ने उन्हें मार डाला।
दुखित गयासुर ने मन लगाकर विष्णु की उपासना से उन्हें प्रसन्न कर लिया और युद्ध में किसी भी मानव, दानव या देवता से कभी पराजित न होने का वरदान पा लिया।
वरदान पाकर, गयासुर ने दसों दिशाओं में जाकर सभी दिग्गजों को पराजित कर दिया और अंत में उसने विष्णु को भी युद्ध के लिए ललकारा। विष्णु भी पराजित होकर गयासुर द्वारा एक पेड़ से बाॅंध दिए गए। भयभीत होकर इन्द्र देवता अपने गुरु वृहस्पति के पास आकर कुछ उपाय बताने के लिए गिड़गिड़ाए। वृहस्पति, इंद्र के साथ विष्णु के पास आए और बोले, आपके भक्त ने सब ओर हाहाकार मचा रखा है, देवता भी प्राण बचाने इधर उधर भाग रहे हैं, सबको बचाइए, आपने यह कैसा विचित्र वर दे दिया? विष्णु बोले, आप देख रहे हैं, मैं तो भक्त के प्रेम में बंधा हॅूं विवश हॅू ; मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। वृहस्पति ने समझाया कि तर्क और विवेक का उपयोग करो, आखिर तुम्हारा भक्त है, उसे समझ में आ जाएगा।
इसके तत्काल बाद गयासुर विष्णु की पूजा करने आया। विष्णु ने पूछा गयासुर यह बताओ कि युद्ध में कौन जीता तुम या मैं? गयासुर बोला प्रभु! आप हारे मैं जीता। विष्णु बोले, अच्छा मैं तुम्हारी जीत और अपनी हार स्वीकारता हॅूं , अब तुम मुझे वरदान दोगे कि नहीं?
गयासुर बोला क्यों नहीं? आपके लिए तो मेरी जान हाजिर है, बोलिए प्रभो! क्या चाहते हैं आप? विष्णु ने कहा गयासुर! ‘तू पत्थर का हो जा’। वह बोला, ठीक है, पर मेरी तीन शर्तें आपको स्वीकार करना होंगी। विष्णु ने कहा बोलो कौन सी शर्तें, वह बोला पहली शर्त तो यह है प्रभो कि आप सदा मेरे हृदय में रहेंगे। विष्णु बोले एवमस्तु । इसके साथ ही गयासुर के पैर पत्थर के हो गए। विष्णु बोले दूसरी शर्त क्या है गयासुर? वह बोला प्रभो! जो भी शुद्ध हृदय से तुम्हारी अनन्य भक्ति करेगा उसे आप मोक्ष दे देंगे। विष्णु ने कहा एवमस्तु। अब तक गयासुर कंधों तक पत्थर का हो गया। विष्णु बोले गयासुर! जल्दी तीसरी शर्त बोलो नहीं तो फिर पूरे पत्थर के हो जाओगे कुछ नहीं बोल पाओगे। वह बोला प्रभो! तीसरी शर्त यह है कि यदि आपने अपने भक्तों को मोक्ष नहीं दिया तो यह पत्थर का गयासुर फिर अपने मौलिक रूप में प्रकट हो जाएगा। अब विष्णु एवमस्तु न बोलते तो और कर भी क्या सकते थे।
यह तो हुआ कहानी का सारांश। इसके पात्र और घटनाएं सभी कथाकार की कल्पना है पर हमें इसमें, इससे मिलने वाली शिक्षा को तलाशना चाहिए। सावधानी पूर्वक परीक्षण करने पर इस कहानी से यह स्पष्ट होता है कि -
1. किसी व्यक्ति विशेष का इष्ट/ इष्टमंत्र केवल एक ही होता है क्योंकि अलग अलग इष्ट होने पर मन अलग अलग दिशाओं में भटकने के लिए विवश रहेगा और किसी भी इष्ट/ लक्ष्य को नहीं पा सकेगा।
2. अपने इष्ट के प्रति शुद्धान्तःकरण और निष्कामना पूर्वक सम्पूर्ण समर्पण कर देने से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। कामनापूर्ण भक्ति, भौतिक वस्तुयें/ शक्तियाॅं दे भी सकती है नहीं भी दे सकती है पर वह मोक्ष नहीं दे सकती।
3. किसी अन्य व्यक्ति के कहने, दबाव डालनेे या अपने इष्ट से अन्य का इष्ट श्रेष्ठ प्रतीत होने पर भी किसी भी हालत में उसे बदलना नहीं चाहिए।
4. सच्चा भक्त न केवल अपना उद्धार करता है वरन् सम्पूर्ण समाज के हित का कार्य कर जाता है।

Thursday 16 April 2020

308 भगवान किसे मिलते हैं?

भगवान किसे मिलते हैं?
‘‘सत्य’’ के अनुसंधानकर्ताओं ने अनेक प्रकार के साधनों से उसे जानने का अभ्यास किया और जिसने जैसा अनुभव किया उसे अपने शब्दों में प्रकट किया है। कहा गया है कि वह अनन्त और असीम होने के कारण किसी संकीर्ण मन के द्वारा किसी प्रकार से न तो जाना जा सकता है और न ही पाया जा सकता है। फिर भी जिज्ञासुओं को, पूर्व में जिन्होंने उसे पाने का या जानने का दावा किया है उनके द्वारा किए गए अभ्यास के अनुसरण करने की सलाह दी जाती है। इसके अनुसार अभ्यास करने पर जब मन की परिधि बहुत बड़ी हो जाती है तब उन्हें पाने की पात्रता होने पर वह अनन्त सत्ता स्वयं ही उसे चयन कर लेती है।  छानबीन करने पर इस संबंध में एक श्लोक कठोपनिषद के दूसरे अघ्याय में 23 वाॅं और वही मुंडकोपनिषद के तीसरे मुंडक के दूसरे खंड में तीसरे के रूप में मिलता है, वह इस प्रकार है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।
अर्थात् यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन देने से, न बुद्धि से और न ही उसके संबंध में बहुत सुनने से प्राप्त हो सकता है वरन् वह जिसको स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि वह परमात्मा उसके समक्ष अपने यथार्थ स्वरूप को स्वयं प्रकट कर देता है।
प्रश्न यह है कि वह किसे स्वीकार करते हैं? कुछ विद्वान कहते हैं कि हरिकृपा के बिना कुछ नहीं पाया जा सकता चाहे भौतिक जगत की उपलब्धियाॅं हों या स्वयं परमात्मा। इस पर भी यही पूछा जा सकता है कि वे किस पर कृपा करते हैं? या, जब सब कुछ उनकी कृपा से ही होना है तो हमारे साधन, भजन, और उपासना आदि का औचित्य ही क्या है? 
इस संबंध में किसी भक्त द्वारा स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पूछे जाने पर वे बोले, देखो भाई! मैं संस्कृत वंस्कृत तो जानता नहीं, मेरे अनुसार तो ‘कृ ' माने करो और ‘पा’ माने पाओ। अब फिर वही प्रश्न आ जाता है कि क्या करो? सभी तथ्यों और तर्कों पर गंभीरता से विचार करने पर निष्कर्ष निकलता है कि यह बात सही है कि सब कुछ उनकी लेशमात्र भी कृपा होने पर पाया जा सकता है परन्तु हमें अपने को उनकी कृपा पाने के लिए उतनी योग्यता तो स्वयं ही प्राप्त करना होगी। परीक्षाओं में पास होने के लिए न्यूनतम प्राप्तांकों की आवश्यकता होती है जिसके लिए लगातार अभ्यास करना होता है। ईमानदारी से अभ्यास करने पर भी जब न्यूनतम अंक प्राप्त नहीं हो पाते और दो चार अंक कम पड़ जाते हैं तभी कृपांक पाने के लिए पात्रता आती है। इसलिए पास होने के लिए अर्थात् परमात्मा को पाने के लिए उत्कट इच्छा जागृत करना पड़ती है और उत्कट इच्छा तभी जागृत होती है जब उनसे निस्पृह प्रेम किया जाता है और सच्चा प्रेम करने वाले एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते। यह प्रेम, अपने इष्ट के प्रति विशुद्ध भाव से चिन्तन करने से प्राप्त उपासना बल ही, उत्पन्न करता है। अपने निर्धारित  कर्तव्य का निर्पेक्षतः पालन करते हुए सात्विक लक्ष्णों से युक्त संयम इसमें अधिक सहायता करता है। इन उपायों के लगातार अभ्यास करने से मन की परिधि बढ़ने लगती है और बुद्धि शुद्ध होने लगती है। इस तरह अन्तःकरण के विशुद्ध हो जाने पर उनकी कृपा पाने की योग्यता आती है। इस प्रकार की योग्यता धारक को ही वे स्वीकार कर अपने यथार्थ स्वरूप को उसके समक्ष स्वयं प्रकट कर देते हैं।
पर, सामान्यतः तथाकथित भक्तगण भगवान को पाने के लिए नहीं भगवान से घर, धन, सुख, वाहन, पद, प्रतिष्ठा, सब दुखों का अन्त, समस्याओं के समाधान और सभी शत्रुओं के हनन हो जाने की कामना से उनकी प्रार्थना या पूजा आदि करते देखे जाते हैं। अब विचार करके देखिए कि श्लोक में वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में क्या ये उनकी कृपा पाने या उनके द्वारा स्वीकार किए जाने की योग्यता रखते हैं? सच्चाई यह भी है कि हम कर्म करते हैं बहुत थोड़ा सा और दम्भ पूर्वक प्रकट करते हैं बहुत बड़ा। यह तो स्पष्टतः उन्हें स्वीकार नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने हम सभी को योग्यता के अनुसार सब कुछ पहले से ही दे रखा है पर हम उसमें संतुष्ट न होकर उसे ही अनेक गुना करने में आजीवन जुटे रहते हैं। अपना मूल लक्ष्य भूलकर भौतिक उपलब्धियों को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में वे हम पर कृपा कैसे कर सकते हैं, हमें स्वीकार कैसे कर सकते हैं हमने तो उन्हें चाहा ही नहीं! जिसे चाहा है, उस भौतिक जगत की जड़ वस्तुओं तक ही हमें सीमित कर देने के लिए वे विवश हैं।

Thursday 9 April 2020

307 कोरोना गुरु (2)

 कोरोना गुरु (2)

‘प्रगतिशील उपयोगी तत्व’ (प्रउत) नामक सिद्धान्त कहता है कि धरती की समस्त सम्पदा पर उस पर निवास करने वालों का सामूहिक अधिकार है। उसे किसी देश या कुछ देशों द्वारा अपने पास केन्द्रित करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इसे विकेद्रीकृत किया जाकर जनसामान्य को भागीदार बनाया जाना चाहिए। बड़े बड़े उद्योगों की स्थापना कर धन बटोरने की अंधी होड़ में तेज भाग रहे देशों द्वारा लघु उद्योग स्थापित कर अधिसंख्य जनसामान्य को सहभागी बनाए जाने पर न केवल सभी को रोजगार मिल सकेगा और पढ़े लिखे बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ को कम किया जा सकेगा प्रत्युत विश्व अर्थव्यवस्था में संतुलन लाया जाकर परस्पर बढ़ रही ईर्ष्या  को कम किया जा सकेगा । घातक हथियारों का उत्पादन कर युद्धोन्माद से दहाड़ते देशों पर नियंत्रण किया जा सकेगा। 
हमारी भोगवादी स्वार्थमय गतिविधियों ने संसार की भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्थितियों में असंतुलन बनाया है जिससे कराहती मानवता और डगमगाई वैश्विक ‘प्रमा’ को यथा स्थान पर स्थापित करने के लिए प्रकृति स्वयं अनेक उपाय कर रही है जिनमें से एक है वर्तमान ‘‘कोरोना’’ संकट। उसने इसे लाकर विश्व के सभी देशों में धन को बटोरने के लिए हो रही अंधी दौड़ को रोक दिया है। अब जनसामान्य सहित सभी देश, चौबीसों घंटे दौड़ते रहने वाला अपना अपना काम धंधा रोक कर घरों में कैद होने को विवश हैं। ‘कोरोना’ के माध्यम से प्रकृति हमें यही शिक्षा दे रही है कि अब भी समय है! अपने आप में सुधार लाइए, स्वच्छ, संतुलित, सात्विक जीवन पद्धति को अपनाइए, किसी को भी उसके मौलिक अधिकारों से वंचित न कीजिए, स्वयं प्रकृति के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ने और दूसरों को भी प्रेरित  करने से स्थानीय संतुलित लघु ’प्रमात्रिकोण’ बनेंगे जो अंततः वैश्विक ‘प्रमात्रिकोण’ को स्थापित कर सकेंगे। प्रकृति सुझाव दे रही है कि  इस ‘‘कोरोना’’ से बचने के लिए इन उपायों को अपनाते हुए उससे और आपस में लगातार दूरी बनाए रखी जाना चाहिए नहीं तो फिर इस धरती पर केवल उसका ही साम्राज्य रहेगा।

Saturday 4 April 2020

306 औषधि और वातावरण

औषधि और वातावरण
वह दवा जो सात्विक वातावरण में बनाई जाती है जैसे कि होमियोपैथी में मदरटिंचर जिससे अन्य दवायें बना कर प्रयुक्त की जाती हैं, तो क्या वह बाजार में उपलब्ध अन्य साधारण मदरटिंचर वाली दवाओं की तुलना में अधिक प्रभावी होगी?
इसमें कोई संदेह नहीं  यदि केई दवा / मदरटिंचर सात्विक वातावरण में सात्विक लोगों के द्वारा निर्मित की जाती है तो वह पाजीटिव माइक्रोवाइटा को अधिक आकर्षित करेगी और अन्य साधारण दवाओं की तुलना में रोगियों पर अधिक प्रभावी होंगी।
यदि किसी को साधना में दीक्षित होने से पहले किसी नेगेटिव माइक्रोाइटा जनित बीमारी ने जकड़ लिया था और वह दीक्षा के बाद नियमित रूप से ध्यान करता रहे तो वह बीमारी और अधिक नहीं फैल पायेगी, परतु विभिन्न बीमारियों के लिये रोगी को भोजन संबंधी विभिन्न नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा और विशेष  समयों पर ध्यान करना होगा। यदि किसी को दीक्षा प्राप्त होने के बाद नेगेटिव माइक्रोवाइटा जनित किसी बीमारी ने जकड़ लिया और वह भोजन संबंधी नियमों के नियंत्रण में विधिपूर्वक नियमित ध्यान करता है तो वह रोग पूर्ण रूपसे दूर हो जायेगा। ध्यान धनात्मक माइक्रोवाइटा को आकर्षित करता है और नकारात्मक माइक्रोवाइटा पर नियंत्रण केवल धनात्मक माइक्रोवाइटा के द्वारा ही किया जा सकता है वे नेगेटिव माइक्रोवाइटा को खा लेते हैं। जैसे यदि कोई नेगेटिव माइक्रोवाइटा से होने वाली बीमारी ‘‘पीलिया‘‘ से ग्रस्त हो और वह नियमित ध्यान करता रहे तो वह शीघ्र  ही स्वस्थ हो जायेगा। पेट के केंसर के मामले में कुछ भोजन संबंधी कड़ा नियंत्रण और सावधानियाॅं भी रखना होगीं। इसमें जब रोगी को पेट में दर्द हो तब उसे मीठे स्वाद वाला अर्थात् खट्टे से भिन्न, रस पीकर तत्काल ध्यान में बैठना होगा और ध्यान समाप्त करने के बाद पहले से भिन्न रस पीना होगा। इसके अलावा रोगी को उस भोजन को त्यागना होगा जो पेट में गैस का उत्सर्जन करते हैं जैसे पापड़, फूलगोभी , बंदगोभी, शलजम आदि।