भगवान किसे मिलते हैं?
‘‘सत्य’’ के अनुसंधानकर्ताओं ने अनेक प्रकार के साधनों से उसे जानने का अभ्यास किया और जिसने जैसा अनुभव किया उसे अपने शब्दों में प्रकट किया है। कहा गया है कि वह अनन्त और असीम होने के कारण किसी संकीर्ण मन के द्वारा किसी प्रकार से न तो जाना जा सकता है और न ही पाया जा सकता है। फिर भी जिज्ञासुओं को, पूर्व में जिन्होंने उसे पाने का या जानने का दावा किया है उनके द्वारा किए गए अभ्यास के अनुसरण करने की सलाह दी जाती है। इसके अनुसार अभ्यास करने पर जब मन की परिधि बहुत बड़ी हो जाती है तब उन्हें पाने की पात्रता होने पर वह अनन्त सत्ता स्वयं ही उसे चयन कर लेती है। छानबीन करने पर इस संबंध में एक श्लोक कठोपनिषद के दूसरे अघ्याय में 23 वाॅं और वही मुंडकोपनिषद के तीसरे मुंडक के दूसरे खंड में तीसरे के रूप में मिलता है, वह इस प्रकार है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।
अर्थात् यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन देने से, न बुद्धि से और न ही उसके संबंध में बहुत सुनने से प्राप्त हो सकता है वरन् वह जिसको स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि वह परमात्मा उसके समक्ष अपने यथार्थ स्वरूप को स्वयं प्रकट कर देता है।
प्रश्न यह है कि वह किसे स्वीकार करते हैं? कुछ विद्वान कहते हैं कि हरिकृपा के बिना कुछ नहीं पाया जा सकता चाहे भौतिक जगत की उपलब्धियाॅं हों या स्वयं परमात्मा। इस पर भी यही पूछा जा सकता है कि वे किस पर कृपा करते हैं? या, जब सब कुछ उनकी कृपा से ही होना है तो हमारे साधन, भजन, और उपासना आदि का औचित्य ही क्या है?
इस संबंध में किसी भक्त द्वारा स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पूछे जाने पर वे बोले, देखो भाई! मैं संस्कृत वंस्कृत तो जानता नहीं, मेरे अनुसार तो ‘कृ ' माने करो और ‘पा’ माने पाओ। अब फिर वही प्रश्न आ जाता है कि क्या करो? सभी तथ्यों और तर्कों पर गंभीरता से विचार करने पर निष्कर्ष निकलता है कि यह बात सही है कि सब कुछ उनकी लेशमात्र भी कृपा होने पर पाया जा सकता है परन्तु हमें अपने को उनकी कृपा पाने के लिए उतनी योग्यता तो स्वयं ही प्राप्त करना होगी। परीक्षाओं में पास होने के लिए न्यूनतम प्राप्तांकों की आवश्यकता होती है जिसके लिए लगातार अभ्यास करना होता है। ईमानदारी से अभ्यास करने पर भी जब न्यूनतम अंक प्राप्त नहीं हो पाते और दो चार अंक कम पड़ जाते हैं तभी कृपांक पाने के लिए पात्रता आती है। इसलिए पास होने के लिए अर्थात् परमात्मा को पाने के लिए उत्कट इच्छा जागृत करना पड़ती है और उत्कट इच्छा तभी जागृत होती है जब उनसे निस्पृह प्रेम किया जाता है और सच्चा प्रेम करने वाले एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते। यह प्रेम, अपने इष्ट के प्रति विशुद्ध भाव से चिन्तन करने से प्राप्त उपासना बल ही, उत्पन्न करता है। अपने निर्धारित कर्तव्य का निर्पेक्षतः पालन करते हुए सात्विक लक्ष्णों से युक्त संयम इसमें अधिक सहायता करता है। इन उपायों के लगातार अभ्यास करने से मन की परिधि बढ़ने लगती है और बुद्धि शुद्ध होने लगती है। इस तरह अन्तःकरण के विशुद्ध हो जाने पर उनकी कृपा पाने की योग्यता आती है। इस प्रकार की योग्यता धारक को ही वे स्वीकार कर अपने यथार्थ स्वरूप को उसके समक्ष स्वयं प्रकट कर देते हैं।
पर, सामान्यतः तथाकथित भक्तगण भगवान को पाने के लिए नहीं भगवान से घर, धन, सुख, वाहन, पद, प्रतिष्ठा, सब दुखों का अन्त, समस्याओं के समाधान और सभी शत्रुओं के हनन हो जाने की कामना से उनकी प्रार्थना या पूजा आदि करते देखे जाते हैं। अब विचार करके देखिए कि श्लोक में वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में क्या ये उनकी कृपा पाने या उनके द्वारा स्वीकार किए जाने की योग्यता रखते हैं? सच्चाई यह भी है कि हम कर्म करते हैं बहुत थोड़ा सा और दम्भ पूर्वक प्रकट करते हैं बहुत बड़ा। यह तो स्पष्टतः उन्हें स्वीकार नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने हम सभी को योग्यता के अनुसार सब कुछ पहले से ही दे रखा है पर हम उसमें संतुष्ट न होकर उसे ही अनेक गुना करने में आजीवन जुटे रहते हैं। अपना मूल लक्ष्य भूलकर भौतिक उपलब्धियों को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में वे हम पर कृपा कैसे कर सकते हैं, हमें स्वीकार कैसे कर सकते हैं हमने तो उन्हें चाहा ही नहीं! जिसे चाहा है, उस भौतिक जगत की जड़ वस्तुओं तक ही हमें सीमित कर देने के लिए वे विवश हैं।
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