Wednesday 27 June 2018

199 मामेकम् शरणम् ब्रज



199
मामेकम् शरणम् ब्रज

संस्कृत में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने अर्थात् ‘चलने’ के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले अनेक शब्द हैं जैसे,
गच्छ- गच्छति, सामान्यतः चलना या जाना। चल्- चलति, सामान्य रूप में चलना। चर्-चरति, खाते हुए चलना। अट्- अटति, पर्यटति, ज्ञान पाने के लिए चलना। ब्रज्- ब्रजति, आनन्द पूर्वक चलना।

संसार के सभी दार्शनिक विचार उस परमसत्ता की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिसने इस समग्र सृष्टि को रचा है। कुछ कहते हैं वह स्वर्ग में रहता है और हम सबसे श्रेष्ठ है, हमें उसे प्रसन्न रखना चाहिए अन्यथा वह हमें दंडित कर नर्क की यातनाएं देगा । कुछ कहते हैं कि वह मंदिरों या तीर्थों में रहता है वहाॅं जाकर हमें अपनी सुख समृद्धि की प्रार्थना करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि वह तो सर्वव्यापी हैं उन्हें कहीं ढूॅंड़ने की जरूरत नहीं है। कुछ के अनुसार वह हमारे भीतर ही हैं अतः उन्हें अपने मन की गहराई में ही खोजना चाहिए। कुछ कहते हैं कि यह समग्र ब्रह्माॅंड उन परमपुरुष की विचार तरंगे है अतः हम सभी उनकी ही विचार तरंगों के छोटे से भाग हैं इसलिए उनसे पृथक नहीं हैं उन्हीं के भीतर हैं। जब सब कुछ उन्हीं के भीतर है बाहर कुछ नहीं तो वह तो हमारे परमपिता हुए अतः, हमें अपना पृथक अस्तित्व भूलकर उनकी ओर प्रेमपूर्वक प्रसन्नता से चलने का प्रयास करना चाहिए । मनुष्य जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य है।

सच है, अपने पिता से डरने का क्या कारण? आनन्दपूर्वक उनका चिन्तन, मनन और निदिद्यासन (अर्थात् उनकी समीपता का अनुभव करना और ध्यान करना) करते हुए उनकी ओर जाने का कार्य ही कीर्तन, भजन, पूजन, साधन, उपासन और आराधन कहलाता है, अन्य सब व्यर्थ है। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर अर्थात  परमसत्ता की ओर (प्राथमिक धर्म यानी प्रधान धर्म की ओर ) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । यही समझाने के लिए उन्होंने पूर्वोक्त लगभग समानार्थी शब्दों में से  ‘‘ब्रज्’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है।

परन्तु, देखो तो! वह लगातार बुला रहे हैं और हम, डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है! ! !


Thursday 21 June 2018

3.4 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार, (संशोधित )

3.4 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (संशोधित )
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कंपन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कंपन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कंपन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पंदनिक रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे संबद्ध होते हैं उनके बीज मंत्र मान सकते हैं।
 'अ' ध्वनि सृजन का ध्वन्यात्मक मूल है। यही कारण है कि वह " भारतीय स्वर सप्तक" ( स, रे, ग, म, प, ध, नि ) का नियंत्रक है। भगवान सदाशिव ने इस ध्वनि विज्ञान को आकार दिया और संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। रंग, वर्ण या अक्षर और राग एक ही मूलक्रिया "रंज" में  'घइ ´ प्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं जिसका अर्थ है किसी चीज को रंगना। क्रमचय और संचय विधियों से सदाशिव ने इन ध्वनियों को अनेक रूपों में रंग दिया जिन्हें छः राग और छत्तीस रागिनियाॅं कहते हैं। इस प्रकार संगीत के संसार को विस्त्रित करने के लिये उन्होंने महर्षि भरत को प्रशिक्षित किया जिन्होंने इसे बौद्धिक स्तर पर उन्नत लोगों में प्रचारित  किया। अब तक नये अनुसंधान से अनेक राग और रागिनियाॅं भारतीय संगीत में जुड़ चुके हैं।
‘‘आ‘‘ ध्वनि संगीत के ऋषभ अर्थात् दूसरे स्वर को प्रकट करता है जो ऋषभ को प्रत्यक्ष और गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
इन्डो आर्यन वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ‘ से ‘क्ष‘ तक अपनी अपनी ध्वन्यात्मक मूल को निर्मित करता है। अतः सभी पचास वर्ण मनुष्य की पचास वृत्तियों को प्रकट करते हैं। तीसरा अक्षर ‘‘इ‘‘ गाॅंधार का ध्वन्यात्मक मूल है और इसे प्रत्यक्षतः और अगले मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
सुर सप्तक के चौथे  स्वर मध्यम ‘‘म‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल ‘‘ई‘‘ है जो इसे प्रत्यक्षतः और पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
पंचम अर्थात् ‘प‘ का ध्वन्यात्मक मूल छोटा ‘‘उ‘‘ है जो पंचम को प्रत्यक्ष और  धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
धैवत्य अर्थात् ‘‘ध‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल बड़ा ‘‘ऊ‘‘ है जो धैवत्य को प्रत्यक्ष और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
यह निषाद ‘‘नि‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सीधे ही सातवें स्वर को नियंत्रित करता है । चूंकि यह अर्धाक्षर है इसकी कोई स्वरात्मक ध्वनि नहीं है। यह किसी अन्य ध्वनि को नियंत्रित नहीं करता।
ऋृ
‘ऋृ‘ ध्वनि, ओम का ध्वन्यात्मक मूल है। अब चूँकि  ओम तो स्वयं स्रष्टि के सृजन  पालन और ध्वंस का अर्थात् सगुण और निर्गुण  का ध्वन्यात्मक मूल है फिर ऋृ , औंकार कर मूल कैसे हो सकता है यह प्रश्न  उठता है। ऊॅं में पाॅंच संकेत मिले हुए हैं, सृजन  का बीज(अ), संरक्षण का बीज(उ), संहार का बीज ,(म), निर्गुण का बीज (विंदु) और निर्गुण से सगुण में रूपान्तर का बीज(चंद्राकार) । अधिकाॅंश  ध्वन्यात्मक मूलों का श्रोत तंत्रविज्ञान है, यद्यपि वेदों में भी कुछ मूल  पहले से ही मौजूद थे जो तंत्र में बाद में स्वीकार किये गये। ओम अन्य अक्षरों की तरह एक अक्षर है जो दक्षिणाचार तंत्र में ध्वंस को न स्वीकारे जाने के कारण ‘उमा‘ उच्चारित किया जाता है जो परमा प्रकृति का ही नाम है। ओंकार को प्रणव भी कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जो परम स्तर को प्राप्त कराने में अत्यधिक सहायता करता हो।‘ इसलिये ओंकार जो कि व्यक्त संसार के दस ध्वन्यात्मक मूलों को प्रकट करता है और पाॅंच ध्वनियों को अपने में समाहित किये है, वह अपने आपका भी ध्वन्यात्मक मूल चाहता है। किसी अन्य मूल का ध्वन्यात्मक मूल ‘अतिबीज‘ या ‘महाबीज‘ कहलाता है। इसलिये ‘ऋृ‘ ओंकार का महाबीज हुआ। इसलिये ध्वनिविज्ञान और संधि विज्ञान के दृष्टिकोण  से ऋृ आवश्यक  घ्वनि है।
लृ
लृ ध्वनि, हुंम ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल और उसका आन्तरिक प्रवाह है। हुंम ध्वनि स्वयं साधना के संघर्ष का ध्वन्यात्मक मूल है और तंत्र के अनुसार कुंडलनी का। जब साधना में आध्यात्मिक प्रगति होती है तब कभी कभी साधकों के गले से हुंम की ध्वनि निकलती है। तंत्र के अनुसार कुंडलनी प्रसुप्त देवत्व है अतः साधना के अभ्यास के समय मंत्राघात और मंत्रचैतन्य के प्रभाव से सभी बाधाओं को पार करते हुए कुंडलनी सहस्त्रार तक पहुंच जाती है। कुंडलनी को इस प्रकार जाग्रत करने का अभ्यास पुरश्चरण  कहलाता है। चूंकि यह मूलाधार में सोती रहती है अतः इसे जगाना बड़े ही संधर्ष से संभव हो पाता है अतः इसका बीज मंत्र हुंम कहलाता है। बुद्धतंत्र में मूलाधार को मणिपद्म या महामणिपद्म भी कहा गया है। वे धर्मचक्र को चलाते हुए ओम मणिपद्मे हुंम्म यह कहते हैं।
लृर्
यह ‘फट्‘ ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल है जो स्वयं ‘‘सिद्धान्त को व्यवहार में लाने‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है अतः लृर्, ‘फट्‘ का अतिबीज या महाबीज हुआ। वैसे ही जैसे बीज का अचानक प्रस्फुटित होना। जैसे सोते से अचानक वास्तविक जगत में आने पर किसी के द्वारा जो ध्वनि की जाती है उसे बोलचाल की भाषा में ‘फट्‘ इस प्रकार कहते है। प्रत्येक अक्षर मातृकावर्ण (causal matrix)कहलाता है क्योंकि प्रत्येक अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण घटक जैसे ध्वनि, स्पंदन, दिव्य या राक्षसी प्रवृत्ति, मानव गुण या सूक्ष्म अभिव्यक्तिकरण हो सकता है। इसलिये किसी भी अक्षर को वर्णमाला से नहीं हटाना चाहिये भले उसका कम उपयोग होता हो।
साॅंसारिक ज्ञान का लयबद्ध अभिव्यक्तिकरण या उद्गम, साॅंसारिक भलाई, या इसके संबंध में सोचना आदि को ‘‘वोषट‘‘ से संवोधित किया जाता है। ध्वनि ‘इ‘ महाबीज या अतिबीज है ‘वोषट‘ के स्पंदनों का। पुराने जमाने में राजा लोग जो भूमि और अधिक क्षेत्र में राज्य फैलाने के भूखे होते थे वे राजसूय या अश्वमेघ  यज्ञ करके ‘‘इम इन्द्राय वोषट‘‘ कहा करते थे ताकि उनका राज्य फैलता रहे।
सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई करने का विचार और उसका क्रियान्वयन ‘‘वषट‘‘ से प्रकट किया जाता है। वे जो शिव  से सार्वभौमिक भलाई के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं  ‘एैम शिवाय वषट‘ , वे जो सूक्ष्म ज्ञान को प्राप्त करना चाहते हैं  अपने गुरु से निवेदन करते हैं ‘‘ एैम गुरवे वषट‘‘ वे जो बाढ़ आदि से बचने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं‘‘ वरुणाय वोषट‘‘ ( यहाॅं भले की भावना केवल भौतिक क्षेत्र के लिये ही की गई है) परंतु वे जो दुष्टों से किये जा रहे युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं ‘‘वरुणाय वषट‘‘। अतः वषट के ध्वन्यात्मक मूल में सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई की भावना होती है, इसलिये वह सूक्ष्म क्षेत्र में आशीष देने के विचार से उस भावना का अति बीज या महाबीज है।
  किसी जाप के उच्चारण करने में यह सामान्य प्रचलन है कि ध्वन्यात्मक मूल के अंत में ‘म‘ जोड़ दिया जावे। इसीलिये ई को एैम लिखा गया है। एैम , उच्चारण का ध्वन्यात्मक मूल है। वाचिक अभिव्यक्तिकरण छः प्रकार का होता है, परा, पश्यन्ति , मध्यमा, द्योतमाना, वैखरी और श्रुतिगोचरा। व्यक्ति जो कुछ कहता है या भविष्य में कहेेगा, यह भीतर ही सुप्तावस्था में रहता है जैसे छोटे से बीज के भीतर बृहदाकार वट बृक्ष छिपा रहता है। इसी प्रकार मनुष्य की कुंडलनी के भीतर अपार शक्तियाॅं पोटेशियल फार्म में होती हैं। पानी और अनुकूल वातावरण पाकर जैसे बीज से बृक्ष हो जाता है वैसे ही साधना के द्वारा मंत्राघात और मंत्रचैतन्य करने पर कुंडलनी से ये
शक्तियाॅं जाग्रत हो जाती हैं और एक के बाद एक क्षमताओं के द्वार खुलते  जाते हैं। तंत्र में इसे पुरश्चरण  और योग में अमृतमुद्रा या आनन्दमुद्रा कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की जीवन्तता और सुंदरता बढ़ने लगती है और अन्य लोग उसे महापुरुष कहते हैं और वह अंत में परमपुरुष के साथ एक हो जाता है। शास्त्रों में इस पद्धति को पराभ्युदय कहा गया है।
    भाषाओं के अभिव्यक्तिकरण का पहला स्तर मूलाधार में बीज के रूप में रहता है जो क्रमशः  अगले स्पष्ट स्तरों से होता हुआ पूर्ण भाषा में आ जाता हैं। भाषा के अभिव्यक्तिकरण की यह प्रारंभिक अवस्था पराशक्ति कहलाती है, यह परम क्रियात्मक सत्ता(supreme operative principle) से भिन्न होती है। यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि इकाई सत्ता जिस शक्ति से अपने भौतिक- मनो- आत्मिक कार्य करता है उसे अपराशक्ति कहते हैं जो उसे उच्चतर स्तर तक ले जाने और अस्तित्व बनाये रखने के लिये कार्य करती है पर जिस शक्ति से वह अपने भौतिक मनोआत्मिक ऊर्जा को  सूक्ष्म उन्नति के स्तर ,दिव्य सत्ता की ओर ले जा पाता है वह पराशक्ति कहलाती है। यहाॅं भाषा के अभिव्यक्तिकरण से संबंधित बात हो रही है अतः मूलाधार में सोती हुई इस शक्ति को धीरे धीरे ऊपर उठाते हुए भाषात्मक अभिव्यक्तिकरण की ओर लाया जाता है। दूसरे स्तर पर यह स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुंचती है जहाॅं इसे ‘पश्यन्ति ‘ कहा जाता है। यह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार की दृश्यता  की क्षमता रखती है पर इसकी मात्रा अधिक न होने से वह मानसिक आकार को देख नहीं पाती। विचारों को भाषा में बोलने के लिये उचित ऊर्जा को देने के लिये मणीपुर चक्र सहायता करता है जहाॅं आकर पश्यन्ति  का नाम मध्यमा हो जाता है, मणिपुर चक्र, शरीर को संतुलन में रखता है और ऊर्जा का केन्द्र होता है। मध्यमाशक्ति का वाच्य रूपान्तरण मनीपुर और विशुद्ध  चक्र के बीच के बिंदु पर होता है यहाॅं आकर उसका नाम द्योतमाना हो जाता है। द्योतमाना ग्रहीत विचार को भाषा में प्रकट करने के लिये बेचैन रहती है पर यदि इस प्रक्रिया के बीच मन को कोई डर लगे या कोई वृत्ति बाधक बने, या मनीपुर और विशुद्ध  चक्र के बीच में कोई दोष हो तो व्यक्त की जाने वाली भाषा
शुद्ध नहीं होगी, ऐसा  व्यक्ति कहेगा कि बात मन में है पर बोल नहीं पा रहा। वाच्य नाड़ी , विशुद्ध  चक्र के क्षेत्र में होती है इसमें अमूर्त विचार को मूर्त विचार में बदलने की शक्ति होती है इस शक्ति को वैखरी कहते हैं। यह बोलने की प्रक्रिया का पाॅंचवाॅं स्तर होता है। जो लोग अधिक बातूनी होते हैं उनकी वैखरी शक्ति अनियंत्रित होती है। मानव कानों से बिलकुल स्वच्छ भाषा का जब अनुभव होने लगता है तो इसे श्रुतिगोचरा कहते हैं यह भाषा के अभिव्यक्तिकरण की छठवीं और अंतिम अवस्था कहा जाता है। इस प्रकार ‘एैम‘ ध्वनि उच्चारण के सभी छः स्तरों की ध्वन्यात्मक मूल है। एैम को वाग्भव बीज भी कहते हैं और इसे गुरु का बीज भी कहते हैं, गुरु से ज्ञान मिलता है अतः ‘‘ एैम गुरवे नमः‘‘ से गुरु को जगाया जाता है। जो मूर्तिपूजा में विश्वास  करते हैं वे भी इस बीज को ज्ञान की देवी को जगाने में करते हैं ‘‘एैम सरस्वत्यै नमः‘‘ और इसे तंत्र के प्रवर्तक शिव को जगाने के लिये भी प्रयुक्त किया जाता है ‘‘ एैम शिवाय नमः‘‘ ।
क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यामिक मूल है ‘स्वाहा‘ अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक मानसिक या आध्यात्मिक  कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मिक मूल है स्वाहा।
 विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक  मूल स्वधा से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी  हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।
प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे।  जहाॅ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बाएं  कंधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कंधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश  मुद्रा का उपयोग किया करते थे।
किसी की महानता को आदर देने के लिये जिस मुद्रा का उपयोग किया जाता है उसे नमः मुद्रा या नमोमुद्रा कहते हैं। वास्तव में किसी की महानता के कारण व्यक्ति का इस प्रकार का समर्पण करना उसके  मानसिक शरीर का परमसत्ता की महानता से स्पंदित होने के कारण होता है अतः नमोमुद्रा को करने वाला लाभान्वित होता है न कि जिसको नमोमुद्रा की जाती है। गुरु को नमो मुद्रा साष्टाॅंग प्रणाम कहलाती है जिसमें हाथों की हथेलियां परस्पर समानान्तर जोड़कर उन के सामने सीधी लाठी की तरह लेट जाना होता है जिसका अर्थ है कि पूर्ण रूपसे केन्द्रित मन को परम लक्ष्य की ओर प्रेषित  करना। इसमें शरीर के आठ अंग प्रयुक्त होते हैं अतः इसे साष्टाॅंग प्रणाम कहते हैं। नृत्य विज्ञान में इस प्रकार की 850 मुद्राओं को मान्यता दी गई है।
ध्वनि ‘ह‘ सूर्य और आकाश  तत्व की ध्वन्यात्मक मूल है, ‘ठ‘ चंद्रमा और अन्य उपग्रहों का ध्वन्यात्मक मूल है। जब मन का प्रतिनिधि चंद्रमा और भौतिक ऊर्जा का प्रतिनिधि सूर्य मिलाकर एक किये जाते हैं तो इसे "हठ योग" कहते हैं। अर्थात् जब कोई क्रिया अचानक की जाती है तो उससे जो ऊर्जा निकलती है उसे हठात् कहते हैं। शिव की महानता आकाश  की तरह विराट थी अतः लोग उन्हें नमः मुद्रा में आदर देते थे या फिर ‘औ‘ ध्वनि से। इसलिये शिवतत्व की ध्वन्यात्मक मूल ‘‘हौम‘‘ है, (हौम शिवाय नमः)। शिव के लिये अपनी साधुता, सरलता और निस्वार्थ सेवा भाव के कारण जो बहुत निकट और प्रिय थे वे भी उनकी पूजा ‘‘ह‘‘ ध्वनि से करते थे। इसलिये यह समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि शिव का ध्वन्यात्मक मूल ‘होम‘ क्यों है।
अं
‘‘अम् ‘‘ विचार का ध्वन्यात्मक मूल है। एक ही ध्वनि भिन्न भिन्न विचारों से उच्चारित करने पर भिन्न भिन्न अर्थ देती है और व्यक्ति व्यक्ति पर उसका अलग अलग प्रभाव भी पड़ता है। जैसे ‘ आओ बेटा! भोजन कर लो‘ यहा ‘बेटा’ शब्द में प्रेम है जबकि ‘‘ ठहरो बेटा! हम तुम्हारे बाप को भी नहीं छोड़ेगे‘‘ में ‘बेटा’ शब्द में सुनने वाले के मन में जहर भर जाता है। अतः इस प्रकार के जहरीली मानसिकता के शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अम्‘ और मधुरता भरने वाले शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘अह‘‘। अतः जब कभी किसी से कुछ बोलना हो या कविता पढ़ना हो या ड्रामा में भाग लेना हो तो यह ज्ञान होना चहिये कि क्या उच्चारित करना है और कैसे।
अः
ऐसे अनेक शब्द हैं जो न तो अच्छे हैं और न ही बुरे पर वे बोलने वाले की मानसिकता पर निर्भर करते हैं।  जब किसी शब्द को मधुरता से बोला जाता है जो सबके कानों को अच्छा लगे तो इस भाव का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अहः‘। इसलिये गायन में कवता पाठ में या नाटक में कार्य करते समय ध्यान रखना चाहिये ।अमृत और विष दोनों का नियंत्रक विशुद्ध चक्र है अतः वक्ता को इसके क्षेत्र में स्थित कूर्म नाड़ी पर नियंत्रण करना आना चाहिये।
सभी मनुष्यों के सोचने का तरीका अलग अलग होता है। संसार के अधिकांश   लोग दो प्रकारों,  अभीप्सात्मक आशा  वृत्ति  और विशुद्ध संवेदनात्मक चिंता वृत्ति, इनमें सोचते हैं। अभीप्सात्मक आशा  वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ है और वह क्रिया ब्रह्म अर्थात् इस दृश्य  जगत का भी बीज है। अतः ‘ क‘ सगुण ब्रह्म का नियंत्रक है (क + ईश  = केश  और नारायण दोनों होंगे) क अर्थात् सगुण ब्रह्म का ईश  जो है वह केश  अर्थात् नारायण और केश  अर्थात् बाल भी होगा। ‘‘कै‘‘ क्रियामूल से ड प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न ‘क‘ का शाब्दिक अर्थ है जो ध्वनि उत्पन्न करता है परंतु प्राचीन काल में लोग झरनों और नदियों से पानी एकत्रित करते थे जिनसे पानी के बहने की आवाज आती थी अतः बहते जल का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ हो गया। वास्तव में पानी का ध्वन्यात्मक मूल ‘व‘ है।
यह चिंता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। ख का अर्थ आकाश  भी है पर यह आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल नहीं है आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल है ‘ह‘। ख का अर्थ स्वर्ग भी है पर यह उसका ध्वन्यात्मक मूल नहीं है। स्वर्ग का स्थूल पक्ष ख से और सूक्ष्म पक्ष ‘क्ष‘ से प्रदर्शित  होता है।
यह चेष्टा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है जिसकी मानव जीवन के भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका है। आन्तरिक विशेषताओं को बाहर प्रकट करने का अभ्यास करना चेष्टा कहलाता है।
आसक्ति और ममता की वृत्ति मनुष्यों और अन्य प्राणियों में होती है जो समय, स्थान और व्यक्तिगत प्रभावों से संबंधित होती है। जैसे लोग अपने देश  की घटिया वस्तुओं की तारीफ करेगा जबकि दूसरे देश  के अच्छे उत्पाद की नहीं क्योंकि यह किसी स्थान विशेष से मोह को प्रदर्शित  करता है। एक गाय नवजात बछड़े से जितना दुलार करती है कुछ बड़ा होने पर नहीं यह समय विशेष का प्रभाव प्रदर्शित  करता है। अतः ममता वृत्ति सापेक्षिक घटकों से सीमित रहती है पर मनुष्य अपने सतत और एकाग्र प्रयत्नों से उसकी सीमायें बढ़ा सकता है जो अन्य जीवों के लिये असंभव है। ‘घ‘ ममता का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह दम्भ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। विद्वान लोग यह मानते हैं कि महान संत वशिष्ठ,  तंत्र सीखने चीन गये थे वहाॅं से इस ध्वनि का उपयोग उन्होने सीखा और लौटकर भारत में प्रारंभ किया। इन संत ने ही सबसे पहले चीन से बुद्धिष्ठ वामाचार तंत्र सीखा और तब से बौद्धिक तारा कल्ट तीन भागों में बट गया उग्रतारा या वज्र तारा भारत में ,नीलतारा या नीलतारा सरस्वती तिब्बत में और भ्रामरीतारा चीन में पूजा जाता हैं। इन्हें ही बाद में वर्णाश्रम धर्म में वज्र तारा या उग्रतारा के नाम से स्वीकार किया गया। भारत में वज्र तारा और तिब्बत में नील तारा का ध्वन्यात्मक मूल एैम है। चीन का भ्रामरी तारा भारत में काली देवी के नाम से स्वीकार किया गया। इन दोनों का ध्वन्यात्मक मूल एक ही ‘‘क्रीम्‘‘ है। ‘क‘ सगुण ब्रहम और ‘र‘ ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि ये वशिष्ठ बुद्ध के बहुत बाद में हुए हैं।
विवेक का ध्वन्यात्मक मूल ‘च‘ है।
विकलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘छ‘ है। इस वृत्ति में किसी का मन अच्छी तरह कार्य करते करते अचानक या तो कार्य करना बंद कर देता है या उल्टा पुल्टा कार्य करने लगता है। इसे ही nervous breakdown कहते हैं।
यह अहंकार वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग प्रायः यह कहते हैं कि मैं ने यह कार्य न किया होता तो होता ही नहीं आदि आदि...।
यह लोलुपता और लोभ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
कपटता या पाखंड वृत्ति का यह ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग दूसरों को ठग कर अपना काम निकालते हैं, या अपने को नैतिक बता कर दूसरों के पापों की आलोचना करते हैं और छिपकर वे पाप स्वयं करते हैं या दूसरे के अज्ञान या कमजोरी का फायदा उठा कर अपने आपको प्रभावी बनाते हैं।
यह वितर्क वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह वृत्ति बातूनीपन और बुरे स्वभाव का मिश्रण है। इस प्रकार के लोग अपने को वादविवाद के स्पर्धी मानते हैं पर यह अर्धसत्य है। पर यह कषाय वृत्ति का समानार्थी नहीं हैे। जैसे, आप रेलवे स्टेशन पर किसी सज्जन से विनम्रता पूर्वक पूछें कि अमुक ट्रेन क्या निकल चुकी है और वे सज्जन कहें कि कैसे मूर्ख हो ? क्या मैं रेलवे का आफिस हूॅं? या मैं कोई रेलवे का टाइम देबिल हूँ , तुम्हारे जैसों के कारण ही देश  नर्क की ओर जा रहा हैं? बगल में खड़े किसी अन्य ने तुम से कहा अभी इस ट्रेन में पाॅंच मिनट हैं, अमुक प्लेटफार्म  पर जल्दी पहुॅंचो तो पकड़ लोगे। पहले व्यक्ति की अनियंत्रित कुतर्क वृत्ति और दूसरे व्यक्ति का कथन प्रमित वाक् कहलायेगा।
यह अनुताप या पछतावे /पश्चाताप  की वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह लज्जा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह पिशूनता  वृत्ति का  ध्वन्यात्मक मूल है। व्यर्थ ही किसी को दुखद मृत्यु देना पिशूनता है पर जिस प्रकार मास खाने वाले लोग जीवों को थोड़ा काट काट कर मारते हैं यह पिशूनता नहीं हैं। यह वृत्ति नव्यमानवतावाद के विरुद्ध है।
यह ईर्ष्या  वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह जड़ता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। गहरी नींद और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक अक्रियता का भी यही बीज है।
यह विषाद वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह चिड़चिडेपऩ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जैसे कोई नम्रता पूर्वक किसी चिड़चिड़े से बोल रहा है पर वह उल्टा ही बोलेगा और यदि कोई उससे कर्कश  बोलता है तो वह धीमे से बोलेगा।
यह तृष्णा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। धन, मान और शक्ति की असीमित चाह रखना तृष्णा कहलाता है।
यह मोह वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह समय, स्थान ,विचार और व्यक्ति के अनुसार चार प्रकार की होती है।
यह घृणा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह मनुष्य के आठ पाशों  में से एक है और छः शत्रुओं में से मोह के अधिक निकट है।
यह भय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यद्यपि भय एक से अधिक कारणों से होता हेै पर यह मोह शत्रु से उत्पन्न होता है।
यह अवज्ञा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जब कोई अस्वीकार्य बात या वस्तु पर ध्यान नहीं देता उसे उपेक्षा कहते हैं पर जब कोई मूल्यवान बात को नकारता है तो उसे अवज्ञा कहते हैं।
यह मूर्छा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इसका मतलब संवेदनहीनता नहीं है वल्कि षडरिपुओं में से किसी एक के द्वारा सम्मोहित कर सामान्य ज्ञान का लोप कर देना है।
यह प्रणाश   और प्रश्रय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह अविश्वास  और वायु की भाॅंति गतिशीलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह  अग्नितत्व या प्राणशक्ति वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सर्वनाश  के विचार का भी बीज है।
यह  क्रूरता वृत्ति  और क्षिति तत्व अर्थात् ठोस घटक का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह  धर्म  तथा जलतत्व का ध्वन्यात्मक मूल है। धर्म का अर्थ है किसी को अपने स्वरूप में छिपाना या आश्रय दिलाना तथा जल तत्व का अर्थ केवल पानी नहीं कोई भी द्रव पदार्थ। यह पौराणिक देवता वरुण का भी बीज है।
यह  रजोगुण तथा  अर्थ का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह  तमोगुण तथा  साॅंसारिक इच्छाओं जिसे संस्कृत में काम कहते हैं, का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह  सतोगुण तथा  मोक्ष का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह  आकाश  तत्व, दिन के समय, सूर्य, स्वर्लोक, पराविद्या, का ध्वन्यात्मक मूल है। इसके विपरीत ‘ठ‘ है जो रात , चंद्रमा, भुवर्लोक और काममय कोष का ध्वन्यात्मक मूल है। ‘हो‘ शिव का ध्वन्यात्मक मूल है जबकि वे तॅांडव नृत्य कर रहे हों पर शिव का गुरु के रूप में ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘ऐं‘‘।
क्ष
यह  साॅंसारिक ज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान का ध्वन्यात्मक मूल है।

Thursday 14 June 2018

198 प्राणायाम से संबंधित जानने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

  198 प्राणायाम से संबंधित जानने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

हमारे देश के अमूल्य ज्ञान ‘ योग विज्ञान ’ को पूरे विश्व ने अब महत्व देना प्रारंभ किया है तो रातों रात अनेक प्रकार के योग गुरुओं की भरमार हो गई है। अपने अपने ज्ञान के हिसाब से वे जन सामान्य में इसे केवल खेल की तरह सिखा रहे हैं जबकि यह एक व्यावहारिक विज्ञान है। विज्ञान का नियम है कि पहले सैद्धान्तिक रूप से तथ्य को समझना और उसके बाद उसकी व्यावहारिक पद्धति को कुशल व्यक्ति से सीखकर उनकी देखरेख में प्रयोग करना चाहिए तभी सफलता मिलती है । आजकल ‘प्राणायाम ’ के लाभों के सम्बंध में व्याख्यान देकर अनेक लोग  इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं जो केवल श्वास को लेकर छोड़ने और छोड़कर लेने का प्रशिक्षण देते पाए जाते हैं। प्राणायाम के  पीछे क्या विज्ञान है, इसे कब और कहॉं करना चाहिए या कितनी बार कितनी संख्या में करना चाहिए  इसकी जानकारी नहीं दी जाती इसलिए लोग मनमाने ढंग से इसे करने लगते हैं और लाभ पाने के स्थान पर हानि उठा वैठते हैं और फिर योगविज्ञान को दोष देते हैं। इस लेख के माध्यम से प्राणायाम को सामान्य स्तर पर जानने योग्य पूरा विवरण समझाया जा रहा है ताकि सच्चाई जानने के बाद संबंधित सभी भ्रान्तियों का निराकरण हो सके।
अष्टॉंग योग के अन्तर्गत इसे चौथी सीढ़ी पर रखा गया है, इससे पहले यम , नियम और आसन आते हैं। स्पष्ट है कि प्राणायाम करने से पहले यम, नियम और आसन में पारंगत होना पड़ता है तभी प्राणायाम में वॉंछित सफलता और लाभ प्राप्त होता है। अहिंसा , सत्य ,अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पॉंचों को ‘यम’ कहा जाता है । शौच, सन्तोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान इन पॉचों को ‘नियम’ कहा जाता है। अनेक प्रकार की योगासनें हैं जिनमें योगमार्ग पर चलने के इच्छुक लोगों को योग्य प्रशिक्षक के माध्यम से अपने अनुकूल लगने वाली आसनों को सीखकर उनका लगातार अभ्यास करते रहना चाहिए। सामान्यतः पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन, भुजंगासन, मत्स्येन्द्र आसन, और सर्वांगासन का अभ्यास करना हितकारक होता है। इसके बाद प्राणायाम का अभ्यास किया जाना चाहिए। प्राणायाम के संबंध में शास्त्र कहते हें, ‘‘ श्वासप्रश्वासयोः गतिविच्छेदः प्राणायाम’’। अर्थात् प्राणायाम परम चेतना को अध्यारोपित करते हुए श्वास पर नियंत्रण करने की पद्धति है। यह मन को केन्द्रित करने और ध्यान करने में सहायक होता है। इसकी प्रवृत्ति के संबंध में कहा गया है ‘‘ प्राणाः यमयति एशः प्राणायाम ।’’ अर्थात् प्राणों (vital forces) को उसके कार्यक्षेत्र में यथोचित ढंग से अधिकतम विश्राम देना। मन को इधर उधर भागने और भटकने से बचाने के लिए स्वाभाविक श्वास  पर नियंत्रण करने का कार्य अष्टॉंग योग में अनिवार्य घटक माना गया है, संस्कृत में इसे प्राणायाम कहते हैं। वह विधि जिससे प्राणों  अर्थात् (vital forces)  के दसों प्रकार जैसे, प्राण (जो नाभि से कंठ के बीच श्वास प्रश्वास के लिये कार्य करता है), अपान ( जो नाभि से गुदा के बीच मल और मूत्र की गतिशीलता को नियंत्रित करता है ), समान (जो नाभि के चारों ओर गोलीय क्षेत्र में प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाता है), उदान (जो गले में रहता हुआ वाक् नलिका और वाणी पर नियंत्रण रखता है), व्यान ( जो पूरे शरीर में खून का संचार करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नाड़ियों की भौतिक क्रियाओं में सहयोग करता है ), नाग ( जो कूदते समय,या शरीर को फैलाने या वस्तुओं के फेकते समय अपना कार्य करता है), कूर्म (जो शरीर को संकुचन करने में सहायक होता है)र्, क्रिकर (जो जंभाई लेते समय सक्रिय रहता है), देवदत्त (जो भूख और प्यास लगने पर क्रियाशील होता है) और धनन्जय (जो तन्द्रा और निद्रा के लिए उत्तरदायी होता है ), इन सब पर नियंत्रण किया जाता है, प्राणायाम कहलाती है। अतः प्राणयाम की विधि वह है जो हमारे दसों प्राणों को उनकी कार्य सीमा में अधिकतम कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की  शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं तो सभी प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम (amplitude) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है। हमारा शरीर वास्तव में हमारे मन का ही विस्तार है जो पॉंच ज्ञानेन्द्रियों (ऑख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) और पॉंच कर्मेन्द्रियों ( हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ , पायु ) की सहायता से लगातार दिन रात कार्य करता रहता है। शरीर में किसी कारण से इन दस प्राणों के बीच होनेवाले असंतुलन या विकृति से ही रोगों की उत्पत्ति होती है। विशेष प्रकार के रोगों को दूर करने के लिए विशेष प्राणायाम करना पड़ता है जिनमें श्वास को निर्धारित समयान्तराल के लिए रोकना पड़ता है इसे कुंभक कहते हैं। परंतु किसी भी प्रकार के प्राणायाम को बिना उचित मार्गदर्शक  के करना वर्जित है। प्राणायाम को  साधारण, सहज, विशेष और अन्तः इन चार प्रकारों में विभाजित किया गया है ।
साधारण प्राणायाम की विधि में ऑंखें बंद कर सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर आसनशुद्धि करने के बाद मन को अष्टॉंगयोग के आचार्य के द्वारा बताये गये विंदु पर स्थिर करके चित्तशुद्धि करने के बाद अपने इष्टमंत्र के पहले अक्षर पर चिंतन करते हुए दॉंये हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका को दबाये हुए वायीं नासिका से धीरे धीरे गहरी श्वास  भीतर खींचना चाहिये और इस समय सोचना चाहिये कि अनन्त ब्रह्म जो हमारे चारों ओर है उसके किसी विंदु से अनन्त जीवनीशक्ति भीतर प्रवेश  कर रही है। पूर्ण श्वास  भर जाने के बाद वायीं नासिका को मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करते हुए दायीं नासिका से अंगूठे को हटा कर श्वास  को धीरे धीरे बाहर करते हुए सोचना चाहिये कि अनन्त जीवनीशक्ति अनन्त ब्रह्म में वापस जा रही है और साथ साथ अपने इष्ट मंत्र के दूसरे अक्षर पर चिंतन करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि श्वास  लेते हुए या छोड़ते हुए आवाज नहीं हो । पूरी श्वास  निकल जाने के बाद अब दॉयीं नासिका से धीरे धीरे पूरी श्वास  लेते हुए उसी प्रकार चिंतन करते हुए अंगूठे को उसी प्रकार दबा कर अंगुलियों को हटाकर श्वास  को पूर्णतः बाहर कर देना चाहिये । यह एक प्राणायाम हुआ।
प्राणायाम के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है व्यक्ति का इष्टमंत्र जो प्रत्येक व्यक्ति का उसके संस्कारों के अनुकूल अलग अलग होता है और पुरश्चरण की प्रक्रिया में पारंगत गुरु ही उसे ऊर्जावान बना कर प्रदान करते हैं। बिना इष्टमंत्र के किया गया प्राणायाम केवल श्वास लेना और छोड़ना ही माना जाता है और निष्फल होता है।
 एक सप्ताह तक केवल तीन प्राणायाम दोनों समय करना चाहिये, फिर प्रति सप्ताह एक एक की वृद्धि करते हुए अधिकतम सात प्राणायाम करने की सलाह दी जाती है। प्राणायाम को एक दिन में अधिकतम चार बार तक किया जा सकता है। जो नियमित रूप से दो बार प्राणायाम कर रहे हों और किसी दिन वे तीन बार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं पर उन्हें अचानक चार बार प्राणायाम नहीं करना चाहिये । इसलिये उचित यही है कि पहले पहले दोनों समय तीन और फिर एक सप्ताह बाद क्रमशः  एक एक बढ़ाते हुए अधिकतम सात की संख्या तक ही करना चाहिये। फिर भी कोई यदि किसी दिन निर्धारित संख्या में प्राणायाम नहीं कर पाया हो तो सप्ताह के अंत में उतनी संख्या बार प्राणायाम करके क्षतिपूर्ति कर लेना चाहिये। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि धूल, धुएं और दुर्गंध से दूर रहें तथा अधिक शारीरिक श्रम न करें। इसका अभ्यास प्रारंभ करने के समय प्रथम दो माह तक पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी सामग्री का उपयोग भोजन में करना चाहिये।
कुछ प्राणायाम विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिए ही प्रयुक्त किए जाते हैं जो योग्य आचार्य के मार्गदर्शन में किये जाते हैं। एक से अधिक प्रकार के प्राणायाम को किसी भी व्यक्ति को करने की सलाह नहीं दी जाती है। बीमारी को दूर करने के लिए यदि किसी प्राणायाम को करना पड़ता है तो नियमित रूप से किए जाने वाले साधारण प्राणायाम के एक घन्टे पहले और एक घंटे बाद में ही किया जाना चाहिए। ये विशेष प्राणायाम हैं, वस्तिकुंभक, शीतलीकुंभक, शीतकारीकुंभक, कर्कट प्राणायाम, और पक्षबद्ध प्राणायाम। इनकी विधियॉं कुशल आचार्य ही सिखाते हैं और उन्हीं की देखरेख में इन्हें करना पड़ता है। शरीर के जिस भाग में बीमारी या दर्द होता है उसके केन्द्र पर मन को स्थिर रखकर बताई गई विधि से उचित प्रकार का प्राणायाम करना पड़ता है इससे अनेक बीमारियॉं दूर होते देखा गया है।
अब प्रश्न उठता है कि इष्टमंत्र और प्राणायाम की सही विधि को सिखाने और अपने मार्गदर्शन में अभ्यास कराने वाले योग्यता धारक आचार्य को कहॉं खोजा जाए? इसका उत्तर है कि मन में उत्कट जिज्ञासा होने पर उचित समय पर आचार्य स्वयं आपको खोज लेते हैं।‘‘मुक्त्याकॉंक्ष्या सद्गुरु प्राप्तिः ।’’ ध्यान रहे जो अपने आचरण से सिखाते हैं वही आचार्य कहला सकते हैं।

Tuesday 5 June 2018

197 गति और प्रगति

197 गति और प्रगति
कहा जाता है कि यह व्यक्त जगत देश, काल और पात्र (अर्थात् टाइम, स्पेस और पर्सन) के अनुसार गतिशील है। अव्यक्त स्थिति में देश, काल और पात्र न होने से गतिशीलता भी नहीं है । प्रत्येक अस्तित्व गतिशील है, हमारे शरीर का प्रत्येक स्नायुतन्तु, स्नायुकोष, खून की प्रत्येक बूॅंद , मन, सभी कुछ गतिशील बना हुआ है। क्यों? इसलिए कि गति जीवन का धर्म है और गतिहीनता है मृत्यु। विद्वान लोग कहा करते हैं कि मन को स्थिर बनाओ, यह कहना त्रुटिपूर्ण लगता है क्योंकि यदि मन रुक गया तो उसकी प्रगति भी रुक जाएगी। इसलिए यह कहना उचित होगा कि अनेक दिशाओं में भटकते मन को एक विशेष दिशा में चलाओ क्योंकि देश, काल और पात्र के भीतर जो रहेंगे उन्हें चलना ही पड़ेगा चाहे वे चाहें या नहीं चाहें। दस पन्द्रह हजार वर्ष पहले मानव समाज जहाॅं था आज उससे बहुत आगे बढ़ चुका है क्यों? गतिशीलता के कारण ही। यदि कोई कहे कि पाॅंच हजार साल पहले की सामाजिक व्यवस्था ही अच्छी थी तो क्या वापस लौटना सार्थक होगा? नहीं हम आगे बढ़ते हुए और अच्छी सामाजिक व्यवस्था बनाएंगे, आगे बढ़ेंगे, गति ही नहीं प्रगति करेंगे; ‘‘चरैवेति चरैवेति’’ यही है जीवन धर्म।
यह गति एक सी बनी रहती है या उसमें प्रगति भी होती है यदि हाॅं तो कैसे होती है ?

मानलो एक वैज्ञानिक, लेबोरेटरी में बैठा चिन्तन कर रहा है कि मैं अमुक रोग की दवा बनाऊॅंगा तो दवा बनने से पहले मन में बन गई। इस व्यक्त जगत अर्थात् सृष्टि की प्रथम उत्पत्ति ब्राह्मिक मन में अर्थात् काॅस्मिक माइंड में हुई । मन का यह बीज जब अधिक शक्तिशाली हो जाता है तब इसका चित्ताणुगत ढाॅंचा पदार्थ के रूप में अर्थात् जड़ पदार्थ में रूपान्तरित हो जाता है। ब्रह्मचक्र अर्थात् ‘कॅास्मिक साइकिल’ के विकास के क्रम में इसे संचरधारा कहते हैं। जो बात काॅस्मिक माइंड के बारे में सच है वही एकाई जीव के इकाई मन के संबंध में भी सही है। मानसिक जगत में बाधाओं के कम होने से गति तेज होती है परन्तु मानस धातु जब जड़ में रूपान्तरित होना शुरु करता है अर्थात् पंचभूत में रूपान्तरित होते होते जब पदार्थ बन जाता है तो उसकी गति कमजोर हो जाती है। इसे आगे बढ़ने के लिए फिर से किसी चोट अर्थात् बल की आवश्यकता होती है जिसके कारण जड़ धातु पुनः चित्ताणु में रूपान्तरित हो जाती है और उसमें फिर से यह इच्छा जागती है कि मैं अपनी पुरानी जगह पर पहुॅंच जाऊॅं।  उस छोटे से मन में यदि अपने मूल स्तर को पाने की इच्छा जाग जाती है तब वह परमात्मा की ओर चलने लगता है । विकास के इस क्रम में यही प्रगति की प्रतिसंचर धारा कहलाती है। प्रतिसंचर में मन को अपनी  भौतिक संरचना के साथ रहना पड़ता है जो प्रायः जड़ता के आकर्षण में होने के कारण अग्रगति में बाधा का अनुभव करता है। यदि जड़ के आकर्षण से पृथक रहता तो सीधे परमपुरुष में ही मिल जाता । चूॅकि आकर्षण विश्व का नियम है इसलिए प्रत्येक संरचना विश्व के प्राणकेन्द्र के चारों ओर दौड़ रही है और केन्द्र की ओर बढ़ना चाह रही है, चाहे वह छोटी हो या बड़ी। यदि कोई अस्तित्व केन्द्र से दूर जाता प्रतीत होता है तो यह विकर्षण नहीं वरन् ऋणात्मक आकर्षण ही कहा जाएगा क्योंकि वहाॅं आकर्षण के अलावा कुछ नहीं है।

आधुनिक वैज्ञानिक भी यह कहते हैं कि गुरुत्वाकर्षण ही मात्र वह बल है जिसमें केवल आकर्षण होता है विकर्षण नहीं । यह अलग बात है कि वे अभी इस गुरुत्वाकर्षण के उद्गम के कारण को नहीं जानते इतना ही नहीं वे ‘स्पेस टाइम’ को परस्पर गुथा हुआ तो मानते हैं परन्तु उनका उद्गम कहाॅं से हुआ यह अभी भी उनके लिये शोध का कठिन विषय है। ‘कॅस्मिक माइंड’ और ‘काॅस्मिक साइकिल’ को वे नहीं मानते परन्तु काॅस्मस और उसके भीतर सेलेस्टियल वाॅडीज अर्थात् गेलेक्सीज व ब्लेक होल बगैरह को वे प्रकृति का खेल मानते हैं।

तो, बात चल रही थी अणुमानस की गति की, उसकी प्रगति की । अणुमानस की मूल प्रकृति होती है परमसत्ता की ओर जाने की, इसलिए जब यह आकर्षण के कारण आगे की ओर बढ़ता है तो अन्य अनेक अणुमानस भी परस्पर मिलते हैं और इसके फलस्वरूप बनता है ‘प्रोटोजोइक माइंड’ । इसी प्रकार की अग्रगति में त्वरित होकर अणुमानस पा लेता है एककोशीय शरीर अर्थात् ‘यूनीसेल्युलर वाॅडी’ तथा प्रगति के इसी क्रम में आगे प्रोटोजोइक माइंड रूपान्तरित हो जाता है ‘मेटाजोइक माइंड’ और ‘मल्टी सेल्युलर वाॅडी’ में। प्रगति का क्रम अभी समाप्त नहीं होता, यह मेटाजोइक माइंड ज्योंही कुछ मानसिक शक्ति अर्जित कर लेता है वह अन्य मेटाजोइक स्ट्रक्चर के सम्पर्क में आकर अधिक जटिल मन का निर्माण करता है और आगे आने वाली बाधाओं से जूझते हुए क्रमशः अनुन्नत जानवर, उन्नत जानवर के रूप में प्रगति कर लेता है। इसे कहते हैं स्वाभाविक प्रगति। स्वाभाविक प्रगति पथ पर मेटाजोइक मन की संरचना जटिल होती जाती है और ज्योंही उसे उपयुक्त आधार मिलता है मेटाजोइक शरीर भी अधिक जटिल हो जाता है। इस अधिक जटिल मेटाजोइक मन को कहते हैं मनुष्य का मन और अधिक मेटाजोइक संरचना को कहते हैं मनुष्य का शरीर। बहुकोशीय मन की गति बहुत अधिक होती है अतः वह कुछ भी कर सकता है , सब कुछ कर सकता है। इसलिए यहाॅं आकर प्रगति का अंतिम स्तर पाना ही उसका लक्ष्य होता है और वह है जहाॅं से चले थे वहीं वापस जा पहॅुचना अर्थात् परमसत्ता में मिल जाना । इसलिए, मानव के मन को सही दिशा में त्वरित गति देने के लिए उसकी छिपी हुई शक्ति को उचित दिशा अर्थात् परमात्मा की ओर जाने की दिशा देते रहने का कार्य करना पड़ता है अन्यथा वह वस्तु जगत की ओर मुड़ कर ऋणात्मक आकर्षण के प्रभाव में आकर केन्द्र से दूर जाने लगता है और अपनी प्रगति खो देता है। उचित दिशा देने का  कार्य जिससे किया जाता है उसे कहते हैं बीज मंत्र या इष्ट मंत्र। अपने इष्ट मंत्र को जान लेने के बाद लगातार उसकी मदद लेते रहने से मन भ्रमित नहीं होता और उचित दिशा में प्रगति करते हुए अपने लक्ष्य पर जा पहॅुचता है । मनुष्य की असली प्रगति यही है, भौतिक जगत की संपदा और उपलब्धियों का महत्व इसके सामने तुच्छ है। इसका अर्थ यह है कि प्रगति आन्तरिक चीज है वाह्य जगत की चीज नहीं , असली प्रगति है जड़ से मन की ओर और मन से आत्मा की ओर चलते जाना। गति ‘‘आन्तरिक  आन्तरिक’’ हो तो वाह्य जगत के क्रिया कलाप  बाधक नहीं बनते , कुछ भी करो प्रगति होगी ही।
आधुनिक जीवविज्ञानी भी इस बात को मानते हैं कि यूनीसेल्युलर वाॅडी का विकास कमशः मल्टीसेल्युर वाॅडी की ओर होता है परन्तु यूनीसेल्युलर वाॅडी कैसे आकार लेती है वे यह नहीं जानते। वे कहते हैं कि पानी में वायु  और धूल के कण जब प्रकाश की उपस्थिति में सामान्य ताप और दाब पर संयोजित होते हैं तब एक कोशीय जीव अर्थात् यूनीसेल्युलर वाॅडी जिसे हम ‘‘काई’’ कहते हैं उत्पन्न होता है । इस प्रकार जहाॅं भौतिक विज्ञानी काॅस्मिक साइकिल, काॅस्मिक माइंड, स्पेस, टाइम और गुरुत्वाकर्षण के कारण को नहीं जानते वैसे ही जीववैज्ञानिक जीवों के उद्गम के कारण और अन्तिम रूप से उनकी प्रगति के बारे में कुछ भी कहने से डरते हैं। परन्तु इन सबका उत्तर हमें आध्यात्मिक विज्ञान में तर्क और विवेक का उपयोग करने पर मिल जाता है।

हमारा मन बहुत कुछ आधुनिक भौतिकी के ‘‘फोटान’’ कण की तरह अनेक दिशाओं में अपनी ऊर्जा को विकीर्णित करता रहता है इसलिए इस अवस्था में उससे कोई विशेष कठिन कार्य नहीं कराया जा सकता परन्तु जब फोटान की ऊर्जा को एक दैशिक अर्थात् ‘यूनीडायरेक्शनल’ बना दिया जाता है तो वही ‘‘लेसर’’ किरण बनकर शक्तिशाली हो जाता है। हमारा इष्ट मंत्र, मन की ऊर्जा को अनेक दिशाओं में विकिरित होने से रोक कर उसे एक दैशिक अर्थात् ‘यूनीडायरेक्शनल’ बनाता है जिससे उसकी ऊर्जा प्रभावी होकर लक्ष्य तक पहुँचा  देती है। मन की ऊर्जा को मन्त्र की सहायता से एक दैशिक बनाने का कार्य ही योगसाधना करना कहलाता है। योगविज्ञान में जिसे इष्ट मंत्र कहा जाता है , आधुनिक विज्ञान में उसे मूल आवृत्ति या ‘‘फंडामेंटल फ्रीक्वेसी ’’ कहते हैं। विज्ञान के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अथवा जीव की अपनी अपनी मूल आवृत्ति होती है यही कारण है कि वे भिन्न भिन्न आकार प्रकार और स्वभाव के होते हैं। यदि किसी पदार्थ के संबंध में विस्तार से जानना है तो उसकी मूल आवृत्ति के साथ हमें अपनी मूल आवृत्ति का अनुनाद करना होता है। आधुनिक संचार विज्ञान इसी सिद्धान्त पर कार्य करती है; अन्तर केवल यह है कि वह उच्च और अति उच्च आवृत्तियों के क्षेत्र में क्रियाशील रहती है जबकि योगविज्ञान निम्न से निम्नतम आवृत्तियों के क्षेत्र में  सक्रिय रहती है। योगविज्ञान में भी मंत्राघात से उत्पन्न मूल आवृत्ति की तरंगें (आहत नाद ) परमसत्ता की मूल आवृत्ति (अनाहत नाद) जिसे ओंकार ध्वनि या प्रणव कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करती हैं और परमात्मा की अनुभूति कराती हैं। इस प्रक्रिया के संचालन और प्रगति का मार्ग यद्यपि तेज छुरे की धार पर चलने जैसा कहा गया है परन्तु यदि इष्टमंत्र का साथ और लक्ष्य की दृढ़ता बनी रहती है तो यही सरल बन जाता है। ओंकार से अनुनादित होने से पूर्व मन अधिकाधिक ऊर्जावान होता जाता है इसकी विभिन्न अवस्थाएं सिद्धियों के नाम से जानी जाती हैं जिन्हें अनुभवी लोग त्याज्य मानते हैं और आनन्दातिरेक की अवस्थाओं को समाधियों का नाम दिया गया है। अनुभव सिद्ध योगियों का कहना है कि मनुष्य का लक्ष्य न तो सिद्धियाॅं और न ही समाधियाॅं होना चाहिए; उसका लक्ष्य तो केवल परमपुरुष को पाना ही होना चाहिए क्योंकि जिसका जो लक्ष्य होता है परमपुरुष की इच्छा से वैसा ही सब कुछ होता है।

Sunday 3 June 2018

196 उचित तरीका जीवन का

196 उचित तरीका जीवन का

सभी जानते हैं कि ढीले तार को खींचने पर उससे आवाज नहीं निकलती और यदि तने हुए पतले तार को भी अधिक खींचा जाए तो वह टूट जाता है । मानव जीवन पर भी यही सिद्धान्त लागू होता है। जैसे, यदि कोई मनुष्य अपने शरीर से बहुत अधिक तप करता है तो मानव की सूक्ष्म संवेदनाएं छोटे छोटे खंडों में  टूट जाती हैं। मन के कोमल और संवेदनशील तन्तु जलकर राख हो जाते हैं। दूसरी ओर यदि जीवन को ढीले तार जैसा बनाया जाता है तो जीवन के आदर्श को पाने की ललक कभी पूरी नहीं होती। दूसरे शब्दों में इस प्रकार का जीवन विकृत होकर खाने पीने और सोने वाले पशु जैसा हो जाता है।
इसलिए जीवन के तन्तु कभी भी ढीले नहीं छोड़ना चाहिए और न ही बहुत अधिक तनाव से उसे टूटने की कगार पर पहॅुंचाना चाहिए। इस प्रकार का जीवन विशेष रूपसे संघर्ष करता है तथा वामपंथियों के आघात के प्रभावों से बचा रहता है या फिर, दक्षिणपंथियों के अन्याय को सहन करता है।
आदर्श जीवन वही है जिसमें न तो दायीं ओर और न ही बायीं ओर झुकाव हो पर , जिसमें परमपुरुष को पाने की तीब्र ललक हो और स्वर्ण ध्वज पर अपनी दिव्य चमक प्रदर्शित करता हो।