3.4 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (संशोधित )
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कंपन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कंपन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कंपन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पंदनिक रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे संबद्ध होते हैं उनके बीज मंत्र मान सकते हैं।
अ
'अ' ध्वनि सृजन का ध्वन्यात्मक मूल है। यही कारण है कि वह " भारतीय स्वर सप्तक" ( स, रे, ग, म, प, ध, नि ) का नियंत्रक है। भगवान सदाशिव ने इस ध्वनि विज्ञान को आकार दिया और संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। रंग, वर्ण या अक्षर और राग एक ही मूलक्रिया "रंज" में 'घइ ´ प्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं जिसका अर्थ है किसी चीज को रंगना। क्रमचय और संचय विधियों से सदाशिव ने इन ध्वनियों को अनेक रूपों में रंग दिया जिन्हें छः राग और छत्तीस रागिनियाॅं कहते हैं। इस प्रकार संगीत के संसार को विस्त्रित करने के लिये उन्होंने महर्षि भरत को प्रशिक्षित किया जिन्होंने इसे बौद्धिक स्तर पर उन्नत लोगों में प्रचारित किया। अब तक नये अनुसंधान से अनेक राग और रागिनियाॅं भारतीय संगीत में जुड़ चुके हैं।
आ
‘‘आ‘‘ ध्वनि संगीत के ऋषभ अर्थात् दूसरे स्वर को प्रकट करता है जो ऋषभ को प्रत्यक्ष और गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
इ
इन्डो आर्यन वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ‘ से ‘क्ष‘ तक अपनी अपनी ध्वन्यात्मक मूल को निर्मित करता है। अतः सभी पचास वर्ण मनुष्य की पचास वृत्तियों को प्रकट करते हैं। तीसरा अक्षर ‘‘इ‘‘ गाॅंधार का ध्वन्यात्मक मूल है और इसे प्रत्यक्षतः और अगले मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
ई
सुर सप्तक के चौथे स्वर मध्यम ‘‘म‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल ‘‘ई‘‘ है जो इसे प्रत्यक्षतः और पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
उ
पंचम अर्थात् ‘प‘ का ध्वन्यात्मक मूल छोटा ‘‘उ‘‘ है जो पंचम को प्रत्यक्ष और धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
ऊ
धैवत्य अर्थात् ‘‘ध‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल बड़ा ‘‘ऊ‘‘ है जो धैवत्य को प्रत्यक्ष और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
ऋ
यह निषाद ‘‘नि‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सीधे ही सातवें स्वर को नियंत्रित करता है । चूंकि यह अर्धाक्षर है इसकी कोई स्वरात्मक ध्वनि नहीं है। यह किसी अन्य ध्वनि को नियंत्रित नहीं करता।
ऋृ
‘ऋृ‘ ध्वनि, ओम का ध्वन्यात्मक मूल है। अब चूँकि ओम तो स्वयं स्रष्टि के सृजन पालन और ध्वंस का अर्थात् सगुण और निर्गुण का ध्वन्यात्मक मूल है फिर ऋृ , औंकार कर मूल कैसे हो सकता है यह प्रश्न उठता है। ऊॅं में पाॅंच संकेत मिले हुए हैं, सृजन का बीज(अ), संरक्षण का बीज(उ), संहार का बीज ,(म), निर्गुण का बीज (विंदु) और निर्गुण से सगुण में रूपान्तर का बीज(चंद्राकार) । अधिकाॅंश ध्वन्यात्मक मूलों का श्रोत तंत्रविज्ञान है, यद्यपि वेदों में भी कुछ मूल पहले से ही मौजूद थे जो तंत्र में बाद में स्वीकार किये गये। ओम अन्य अक्षरों की तरह एक अक्षर है जो दक्षिणाचार तंत्र में ध्वंस को न स्वीकारे जाने के कारण ‘उमा‘ उच्चारित किया जाता है जो परमा प्रकृति का ही नाम है। ओंकार को प्रणव भी कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जो परम स्तर को प्राप्त कराने में अत्यधिक सहायता करता हो।‘ इसलिये ओंकार जो कि व्यक्त संसार के दस ध्वन्यात्मक मूलों को प्रकट करता है और पाॅंच ध्वनियों को अपने में समाहित किये है, वह अपने आपका भी ध्वन्यात्मक मूल चाहता है। किसी अन्य मूल का ध्वन्यात्मक मूल ‘अतिबीज‘ या ‘महाबीज‘ कहलाता है। इसलिये ‘ऋृ‘ ओंकार का महाबीज हुआ। इसलिये ध्वनिविज्ञान और संधि विज्ञान के दृष्टिकोण से ऋृ आवश्यक घ्वनि है।
लृ
लृ ध्वनि, हुंम ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल और उसका आन्तरिक प्रवाह है। हुंम ध्वनि स्वयं साधना के संघर्ष का ध्वन्यात्मक मूल है और तंत्र के अनुसार कुंडलनी का। जब साधना में आध्यात्मिक प्रगति होती है तब कभी कभी साधकों के गले से हुंम की ध्वनि निकलती है। तंत्र के अनुसार कुंडलनी प्रसुप्त देवत्व है अतः साधना के अभ्यास के समय मंत्राघात और मंत्रचैतन्य के प्रभाव से सभी बाधाओं को पार करते हुए कुंडलनी सहस्त्रार तक पहुंच जाती है। कुंडलनी को इस प्रकार जाग्रत करने का अभ्यास पुरश्चरण कहलाता है। चूंकि यह मूलाधार में सोती रहती है अतः इसे जगाना बड़े ही संधर्ष से संभव हो पाता है अतः इसका बीज मंत्र हुंम कहलाता है। बुद्धतंत्र में मूलाधार को मणिपद्म या महामणिपद्म भी कहा गया है। वे धर्मचक्र को चलाते हुए ओम मणिपद्मे हुंम्म यह कहते हैं।
लृर्
यह ‘फट्‘ ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल है जो स्वयं ‘‘सिद्धान्त को व्यवहार में लाने‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है अतः लृर्, ‘फट्‘ का अतिबीज या महाबीज हुआ। वैसे ही जैसे बीज का अचानक प्रस्फुटित होना। जैसे सोते से अचानक वास्तविक जगत में आने पर किसी के द्वारा जो ध्वनि की जाती है उसे बोलचाल की भाषा में ‘फट्‘ इस प्रकार कहते है। प्रत्येक अक्षर मातृकावर्ण (causal matrix)कहलाता है क्योंकि प्रत्येक अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण घटक जैसे ध्वनि, स्पंदन, दिव्य या राक्षसी प्रवृत्ति, मानव गुण या सूक्ष्म अभिव्यक्तिकरण हो सकता है। इसलिये किसी भी अक्षर को वर्णमाला से नहीं हटाना चाहिये भले उसका कम उपयोग होता हो।
इ
साॅंसारिक ज्ञान का लयबद्ध अभिव्यक्तिकरण या उद्गम, साॅंसारिक भलाई, या इसके संबंध में सोचना आदि को ‘‘वोषट‘‘ से संवोधित किया जाता है। ध्वनि ‘इ‘ महाबीज या अतिबीज है ‘वोषट‘ के स्पंदनों का। पुराने जमाने में राजा लोग जो भूमि और अधिक क्षेत्र में राज्य फैलाने के भूखे होते थे वे राजसूय या अश्वमेघ यज्ञ करके ‘‘इम इन्द्राय वोषट‘‘ कहा करते थे ताकि उनका राज्य फैलता रहे।
ई
सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई करने का विचार और उसका क्रियान्वयन ‘‘वषट‘‘ से प्रकट किया जाता है। वे जो शिव से सार्वभौमिक भलाई के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं ‘एैम शिवाय वषट‘ , वे जो सूक्ष्म ज्ञान को प्राप्त करना चाहते हैं अपने गुरु से निवेदन करते हैं ‘‘ एैम गुरवे वषट‘‘ वे जो बाढ़ आदि से बचने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं‘‘ वरुणाय वोषट‘‘ ( यहाॅं भले की भावना केवल भौतिक क्षेत्र के लिये ही की गई है) परंतु वे जो दुष्टों से किये जा रहे युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं ‘‘वरुणाय वषट‘‘। अतः वषट के ध्वन्यात्मक मूल में सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई की भावना होती है, इसलिये वह सूक्ष्म क्षेत्र में आशीष देने के विचार से उस भावना का अति बीज या महाबीज है।
किसी जाप के उच्चारण करने में यह सामान्य प्रचलन है कि ध्वन्यात्मक मूल के अंत में ‘म‘ जोड़ दिया जावे। इसीलिये ई को एैम लिखा गया है। एैम , उच्चारण का ध्वन्यात्मक मूल है। वाचिक अभिव्यक्तिकरण छः प्रकार का होता है, परा, पश्यन्ति , मध्यमा, द्योतमाना, वैखरी और श्रुतिगोचरा। व्यक्ति जो कुछ कहता है या भविष्य में कहेेगा, यह भीतर ही सुप्तावस्था में रहता है जैसे छोटे से बीज के भीतर बृहदाकार वट बृक्ष छिपा रहता है। इसी प्रकार मनुष्य की कुंडलनी के भीतर अपार शक्तियाॅं पोटेशियल फार्म में होती हैं। पानी और अनुकूल वातावरण पाकर जैसे बीज से बृक्ष हो जाता है वैसे ही साधना के द्वारा मंत्राघात और मंत्रचैतन्य करने पर कुंडलनी से ये
शक्तियाॅं जाग्रत हो जाती हैं और एक के बाद एक क्षमताओं के द्वार खुलते जाते हैं। तंत्र में इसे पुरश्चरण और योग में अमृतमुद्रा या आनन्दमुद्रा कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की जीवन्तता और सुंदरता बढ़ने लगती है और अन्य लोग उसे महापुरुष कहते हैं और वह अंत में परमपुरुष के साथ एक हो जाता है। शास्त्रों में इस पद्धति को पराभ्युदय कहा गया है।
भाषाओं के अभिव्यक्तिकरण का पहला स्तर मूलाधार में बीज के रूप में रहता है जो क्रमशः अगले स्पष्ट स्तरों से होता हुआ पूर्ण भाषा में आ जाता हैं। भाषा के अभिव्यक्तिकरण की यह प्रारंभिक अवस्था पराशक्ति कहलाती है, यह परम क्रियात्मक सत्ता(supreme operative principle) से भिन्न होती है। यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि इकाई सत्ता जिस शक्ति से अपने भौतिक- मनो- आत्मिक कार्य करता है उसे अपराशक्ति कहते हैं जो उसे उच्चतर स्तर तक ले जाने और अस्तित्व बनाये रखने के लिये कार्य करती है पर जिस शक्ति से वह अपने भौतिक मनोआत्मिक ऊर्जा को सूक्ष्म उन्नति के स्तर ,दिव्य सत्ता की ओर ले जा पाता है वह पराशक्ति कहलाती है। यहाॅं भाषा के अभिव्यक्तिकरण से संबंधित बात हो रही है अतः मूलाधार में सोती हुई इस शक्ति को धीरे धीरे ऊपर उठाते हुए भाषात्मक अभिव्यक्तिकरण की ओर लाया जाता है। दूसरे स्तर पर यह स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुंचती है जहाॅं इसे ‘पश्यन्ति ‘ कहा जाता है। यह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार की दृश्यता की क्षमता रखती है पर इसकी मात्रा अधिक न होने से वह मानसिक आकार को देख नहीं पाती। विचारों को भाषा में बोलने के लिये उचित ऊर्जा को देने के लिये मणीपुर चक्र सहायता करता है जहाॅं आकर पश्यन्ति का नाम मध्यमा हो जाता है, मणिपुर चक्र, शरीर को संतुलन में रखता है और ऊर्जा का केन्द्र होता है। मध्यमाशक्ति का वाच्य रूपान्तरण मनीपुर और विशुद्ध चक्र के बीच के बिंदु पर होता है यहाॅं आकर उसका नाम द्योतमाना हो जाता है। द्योतमाना ग्रहीत विचार को भाषा में प्रकट करने के लिये बेचैन रहती है पर यदि इस प्रक्रिया के बीच मन को कोई डर लगे या कोई वृत्ति बाधक बने, या मनीपुर और विशुद्ध चक्र के बीच में कोई दोष हो तो व्यक्त की जाने वाली भाषा
शुद्ध नहीं होगी, ऐसा व्यक्ति कहेगा कि बात मन में है पर बोल नहीं पा रहा। वाच्य नाड़ी , विशुद्ध चक्र के क्षेत्र में होती है इसमें अमूर्त विचार को मूर्त विचार में बदलने की शक्ति होती है इस शक्ति को वैखरी कहते हैं। यह बोलने की प्रक्रिया का पाॅंचवाॅं स्तर होता है। जो लोग अधिक बातूनी होते हैं उनकी वैखरी शक्ति अनियंत्रित होती है। मानव कानों से बिलकुल स्वच्छ भाषा का जब अनुभव होने लगता है तो इसे श्रुतिगोचरा कहते हैं यह भाषा के अभिव्यक्तिकरण की छठवीं और अंतिम अवस्था कहा जाता है। इस प्रकार ‘एैम‘ ध्वनि उच्चारण के सभी छः स्तरों की ध्वन्यात्मक मूल है। एैम को वाग्भव बीज भी कहते हैं और इसे गुरु का बीज भी कहते हैं, गुरु से ज्ञान मिलता है अतः ‘‘ एैम गुरवे नमः‘‘ से गुरु को जगाया जाता है। जो मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं वे भी इस बीज को ज्ञान की देवी को जगाने में करते हैं ‘‘एैम सरस्वत्यै नमः‘‘ और इसे तंत्र के प्रवर्तक शिव को जगाने के लिये भी प्रयुक्त किया जाता है ‘‘ एैम शिवाय नमः‘‘ ।
ओ
क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यामिक मूल है ‘स्वाहा‘ अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक मानसिक या आध्यात्मिक कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मिक मूल है स्वाहा।
विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक मूल स्वधा से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।
प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे। जहाॅ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बाएं कंधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कंधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश मुद्रा का उपयोग किया करते थे।
औ
किसी की महानता को आदर देने के लिये जिस मुद्रा का उपयोग किया जाता है उसे नमः मुद्रा या नमोमुद्रा कहते हैं। वास्तव में किसी की महानता के कारण व्यक्ति का इस प्रकार का समर्पण करना उसके मानसिक शरीर का परमसत्ता की महानता से स्पंदित होने के कारण होता है अतः नमोमुद्रा को करने वाला लाभान्वित होता है न कि जिसको नमोमुद्रा की जाती है। गुरु को नमो मुद्रा साष्टाॅंग प्रणाम कहलाती है जिसमें हाथों की हथेलियां परस्पर समानान्तर जोड़कर उन के सामने सीधी लाठी की तरह लेट जाना होता है जिसका अर्थ है कि पूर्ण रूपसे केन्द्रित मन को परम लक्ष्य की ओर प्रेषित करना। इसमें शरीर के आठ अंग प्रयुक्त होते हैं अतः इसे साष्टाॅंग प्रणाम कहते हैं। नृत्य विज्ञान में इस प्रकार की 850 मुद्राओं को मान्यता दी गई है।
ध्वनि ‘ह‘ सूर्य और आकाश तत्व की ध्वन्यात्मक मूल है, ‘ठ‘ चंद्रमा और अन्य उपग्रहों का ध्वन्यात्मक मूल है। जब मन का प्रतिनिधि चंद्रमा और भौतिक ऊर्जा का प्रतिनिधि सूर्य मिलाकर एक किये जाते हैं तो इसे "हठ योग" कहते हैं। अर्थात् जब कोई क्रिया अचानक की जाती है तो उससे जो ऊर्जा निकलती है उसे हठात् कहते हैं। शिव की महानता आकाश की तरह विराट थी अतः लोग उन्हें नमः मुद्रा में आदर देते थे या फिर ‘औ‘ ध्वनि से। इसलिये शिवतत्व की ध्वन्यात्मक मूल ‘‘हौम‘‘ है, (हौम शिवाय नमः)। शिव के लिये अपनी साधुता, सरलता और निस्वार्थ सेवा भाव के कारण जो बहुत निकट और प्रिय थे वे भी उनकी पूजा ‘‘ह‘‘ ध्वनि से करते थे। इसलिये यह समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि शिव का ध्वन्यात्मक मूल ‘होम‘ क्यों है।
अं
‘‘अम् ‘‘ विचार का ध्वन्यात्मक मूल है। एक ही ध्वनि भिन्न भिन्न विचारों से उच्चारित करने पर भिन्न भिन्न अर्थ देती है और व्यक्ति व्यक्ति पर उसका अलग अलग प्रभाव भी पड़ता है। जैसे ‘ आओ बेटा! भोजन कर लो‘ यहा ‘बेटा’ शब्द में प्रेम है जबकि ‘‘ ठहरो बेटा! हम तुम्हारे बाप को भी नहीं छोड़ेगे‘‘ में ‘बेटा’ शब्द में सुनने वाले के मन में जहर भर जाता है। अतः इस प्रकार के जहरीली मानसिकता के शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अम्‘ और मधुरता भरने वाले शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘अह‘‘। अतः जब कभी किसी से कुछ बोलना हो या कविता पढ़ना हो या ड्रामा में भाग लेना हो तो यह ज्ञान होना चहिये कि क्या उच्चारित करना है और कैसे।
अः
ऐसे अनेक शब्द हैं जो न तो अच्छे हैं और न ही बुरे पर वे बोलने वाले की मानसिकता पर निर्भर करते हैं। जब किसी शब्द को मधुरता से बोला जाता है जो सबके कानों को अच्छा लगे तो इस भाव का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अहः‘। इसलिये गायन में कवता पाठ में या नाटक में कार्य करते समय ध्यान रखना चाहिये ।अमृत और विष दोनों का नियंत्रक विशुद्ध चक्र है अतः वक्ता को इसके क्षेत्र में स्थित कूर्म नाड़ी पर नियंत्रण करना आना चाहिये।
क
सभी मनुष्यों के सोचने का तरीका अलग अलग होता है। संसार के अधिकांश लोग दो प्रकारों, अभीप्सात्मक आशा वृत्ति और विशुद्ध संवेदनात्मक चिंता वृत्ति, इनमें सोचते हैं। अभीप्सात्मक आशा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ है और वह क्रिया ब्रह्म अर्थात् इस दृश्य जगत का भी बीज है। अतः ‘ क‘ सगुण ब्रह्म का नियंत्रक है (क + ईश = केश और नारायण दोनों होंगे) क अर्थात् सगुण ब्रह्म का ईश जो है वह केश अर्थात् नारायण और केश अर्थात् बाल भी होगा। ‘‘कै‘‘ क्रियामूल से ड प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न ‘क‘ का शाब्दिक अर्थ है जो ध्वनि उत्पन्न करता है परंतु प्राचीन काल में लोग झरनों और नदियों से पानी एकत्रित करते थे जिनसे पानी के बहने की आवाज आती थी अतः बहते जल का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ हो गया। वास्तव में पानी का ध्वन्यात्मक मूल ‘व‘ है।
ख
यह चिंता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। ख का अर्थ आकाश भी है पर यह आकाश का ध्वन्यात्मक मूल नहीं है आकाश का ध्वन्यात्मक मूल है ‘ह‘। ख का अर्थ स्वर्ग भी है पर यह उसका ध्वन्यात्मक मूल नहीं है। स्वर्ग का स्थूल पक्ष ख से और सूक्ष्म पक्ष ‘क्ष‘ से प्रदर्शित होता है।
ग
यह चेष्टा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है जिसकी मानव जीवन के भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका है। आन्तरिक विशेषताओं को बाहर प्रकट करने का अभ्यास करना चेष्टा कहलाता है।
घ
आसक्ति और ममता की वृत्ति मनुष्यों और अन्य प्राणियों में होती है जो समय, स्थान और व्यक्तिगत प्रभावों से संबंधित होती है। जैसे लोग अपने देश की घटिया वस्तुओं की तारीफ करेगा जबकि दूसरे देश के अच्छे उत्पाद की नहीं क्योंकि यह किसी स्थान विशेष से मोह को प्रदर्शित करता है। एक गाय नवजात बछड़े से जितना दुलार करती है कुछ बड़ा होने पर नहीं यह समय विशेष का प्रभाव प्रदर्शित करता है। अतः ममता वृत्ति सापेक्षिक घटकों से सीमित रहती है पर मनुष्य अपने सतत और एकाग्र प्रयत्नों से उसकी सीमायें बढ़ा सकता है जो अन्य जीवों के लिये असंभव है। ‘घ‘ ममता का ध्वन्यात्मक मूल है।
ङ
यह दम्भ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। विद्वान लोग यह मानते हैं कि महान संत वशिष्ठ, तंत्र सीखने चीन गये थे वहाॅं से इस ध्वनि का उपयोग उन्होने सीखा और लौटकर भारत में प्रारंभ किया। इन संत ने ही सबसे पहले चीन से बुद्धिष्ठ वामाचार तंत्र सीखा और तब से बौद्धिक तारा कल्ट तीन भागों में बट गया उग्रतारा या वज्र तारा भारत में ,नीलतारा या नीलतारा सरस्वती तिब्बत में और भ्रामरीतारा चीन में पूजा जाता हैं। इन्हें ही बाद में वर्णाश्रम धर्म में वज्र तारा या उग्रतारा के नाम से स्वीकार किया गया। भारत में वज्र तारा और तिब्बत में नील तारा का ध्वन्यात्मक मूल एैम है। चीन का भ्रामरी तारा भारत में काली देवी के नाम से स्वीकार किया गया। इन दोनों का ध्वन्यात्मक मूल एक ही ‘‘क्रीम्‘‘ है। ‘क‘ सगुण ब्रहम और ‘र‘ ऊर्जा को प्रदर्शित करते हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि ये वशिष्ठ बुद्ध के बहुत बाद में हुए हैं।
च
विवेक का ध्वन्यात्मक मूल ‘च‘ है।
छ
विकलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘छ‘ है। इस वृत्ति में किसी का मन अच्छी तरह कार्य करते करते अचानक या तो कार्य करना बंद कर देता है या उल्टा पुल्टा कार्य करने लगता है। इसे ही nervous breakdown कहते हैं।
ज
यह अहंकार वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग प्रायः यह कहते हैं कि मैं ने यह कार्य न किया होता तो होता ही नहीं आदि आदि...।
झ
यह लोलुपता और लोभ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
ञ
कपटता या पाखंड वृत्ति का यह ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग दूसरों को ठग कर अपना काम निकालते हैं, या अपने को नैतिक बता कर दूसरों के पापों की आलोचना करते हैं और छिपकर वे पाप स्वयं करते हैं या दूसरे के अज्ञान या कमजोरी का फायदा उठा कर अपने आपको प्रभावी बनाते हैं।
ट
यह वितर्क वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह वृत्ति बातूनीपन और बुरे स्वभाव का मिश्रण है। इस प्रकार के लोग अपने को वादविवाद के स्पर्धी मानते हैं पर यह अर्धसत्य है। पर यह कषाय वृत्ति का समानार्थी नहीं हैे। जैसे, आप रेलवे स्टेशन पर किसी सज्जन से विनम्रता पूर्वक पूछें कि अमुक ट्रेन क्या निकल चुकी है और वे सज्जन कहें कि कैसे मूर्ख हो ? क्या मैं रेलवे का आफिस हूॅं? या मैं कोई रेलवे का टाइम देबिल हूँ , तुम्हारे जैसों के कारण ही देश नर्क की ओर जा रहा हैं? बगल में खड़े किसी अन्य ने तुम से कहा अभी इस ट्रेन में पाॅंच मिनट हैं, अमुक प्लेटफार्म पर जल्दी पहुॅंचो तो पकड़ लोगे। पहले व्यक्ति की अनियंत्रित कुतर्क वृत्ति और दूसरे व्यक्ति का कथन प्रमित वाक् कहलायेगा।
ठ
यह अनुताप या पछतावे /पश्चाताप की वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
ड
यह लज्जा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
ढ
यह पिशूनता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। व्यर्थ ही किसी को दुखद मृत्यु देना पिशूनता है पर जिस प्रकार मास खाने वाले लोग जीवों को थोड़ा काट काट कर मारते हैं यह पिशूनता नहीं हैं। यह वृत्ति नव्यमानवतावाद के विरुद्ध है।
ण
यह ईर्ष्या वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
त
यह जड़ता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। गहरी नींद और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक अक्रियता का भी यही बीज है।
थ
यह विषाद वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
द
यह चिड़चिडेपऩ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जैसे कोई नम्रता पूर्वक किसी चिड़चिड़े से बोल रहा है पर वह उल्टा ही बोलेगा और यदि कोई उससे कर्कश बोलता है तो वह धीमे से बोलेगा।
ध
यह तृष्णा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। धन, मान और शक्ति की असीमित चाह रखना तृष्णा कहलाता है।
न
यह मोह वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह समय, स्थान ,विचार और व्यक्ति के अनुसार चार प्रकार की होती है।
प
यह घृणा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह मनुष्य के आठ पाशों में से एक है और छः शत्रुओं में से मोह के अधिक निकट है।
फ
यह भय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यद्यपि भय एक से अधिक कारणों से होता हेै पर यह मोह शत्रु से उत्पन्न होता है।
ब
यह अवज्ञा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जब कोई अस्वीकार्य बात या वस्तु पर ध्यान नहीं देता उसे उपेक्षा कहते हैं पर जब कोई मूल्यवान बात को नकारता है तो उसे अवज्ञा कहते हैं।
भ
यह मूर्छा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इसका मतलब संवेदनहीनता नहीं है वल्कि षडरिपुओं में से किसी एक के द्वारा सम्मोहित कर सामान्य ज्ञान का लोप कर देना है।
म
यह प्रणाश और प्रश्रय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
य
यह अविश्वास और वायु की भाॅंति गतिशीलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।
र
यह अग्नितत्व या प्राणशक्ति वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सर्वनाश के विचार का भी बीज है।
ल
यह क्रूरता वृत्ति और क्षिति तत्व अर्थात् ठोस घटक का ध्वन्यात्मक मूल है।
व
यह धर्म तथा जलतत्व का ध्वन्यात्मक मूल है। धर्म का अर्थ है किसी को अपने स्वरूप में छिपाना या आश्रय दिलाना तथा जल तत्व का अर्थ केवल पानी नहीं कोई भी द्रव पदार्थ। यह पौराणिक देवता वरुण का भी बीज है।
श
यह रजोगुण तथा अर्थ का ध्वन्यात्मक मूल है।
स
यह तमोगुण तथा साॅंसारिक इच्छाओं जिसे संस्कृत में काम कहते हैं, का ध्वन्यात्मक मूल है।
ष
यह सतोगुण तथा मोक्ष का ध्वन्यात्मक मूल है।
ह
यह आकाश तत्व, दिन के समय, सूर्य, स्वर्लोक, पराविद्या, का ध्वन्यात्मक मूल है। इसके विपरीत ‘ठ‘ है जो रात , चंद्रमा, भुवर्लोक और काममय कोष का ध्वन्यात्मक मूल है। ‘हो‘ शिव का ध्वन्यात्मक मूल है जबकि वे तॅांडव नृत्य कर रहे हों पर शिव का गुरु के रूप में ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘ऐं‘‘।
क्ष
यह साॅंसारिक ज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान का ध्वन्यात्मक मूल है।
No comments:
Post a Comment