Sunday 31 May 2015

8.10: मन्तव्य

8.10: मन्तव्य
चाहे वैज्ञानिक आधार हो या दार्शनिक आधार,  इस ब्रह्माॅंड के निर्माता को या ब्रह्माॅंड और इस मनुष्य जीवन को खंडों में नहीं समझा जा सकता। इसे सही ढंग से समझने के लिये समग्रता को एक साथ लेकर परखना होगा अर्थात् इस जीवन को केवल 100 या 120 वर्षों तक सीमित कर हम इसका रहस्य और उद्देश्य  नहीं समझ सकते और इसी प्रकार ब्रह्माॅंड को केवल पृथ्वी तक सीमित करने से पूरे ब्रह्माॅंड को नहीं जान सकते। यह ब्रह्माॅंड , उसका निर्माता,  हमारा जीवन और सभी प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन परस्पर एक दूसरे से क्रमबद्ध रूपसे जुड़ा है और जहाॅं से प्रारंभ हुआ है वहीं पर समाप्त भी होता है।‘‘ मय्येव सकलं जातं, मयि सर्वं प्रतिष्ठितम, मयि सर्वं लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्मयहम्‘‘। इसलिये इस चक्रात्मक यात्रा का जो मूल बिंदु है वही अंतिम बिंदु भी है उसी को पहचानने का कार्य करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य  है। यह मूल विंदु हम सबके भीतर ही केन्द्रित है और हमसब उसके भीतर, अतः इसे कहीं बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रवाह में अनन्त काल से आगे बढ़ते हुए हम मनुष्य के स्तर पर उस परम मूल बिंदु के पास ही पहुंच गये हैं परंतु भौतिक जगत का गुरुत्वाकर्षण हमें बार बार नीचे की ओर खींच लेता है क्योंकि हमारे संस्कार इतने भारी हैं कि वे इसकी सीमा को पार नहीं करने देते। इसलिये वे, जो अपने मूल बिंदु, जिसे दार्शनिक, ‘‘परमपुरुष‘‘ कहते हैं, को पाना चाहते हैं तो उन्हें पहले तो अपनी इस समग्र यात्रा में संचित पूर्व के सभी संस्कारों को शून्य करना  होगा और नये संस्कारों को बनने से रोकना होगा। इसके लिये महाकौल गुरु से अपना इष्टमंत्र और गुरुमंत्र प्राप्त करना होता है। इष्टमंत्र जाप के उचित अभ्यास से पूर्व के सभी जन्मों के संस्कार धीरे धीरे समाप्त होने लगते हैं और गुरु मंत्र के उचित प्रयोग से इस जन्म में नये संस्कार  बनना बंद हो जाते हैं। इन दोनों मंत्रों की सम्पूर्ण शक्ति का उपयोग करने के लिये शरीर के प्रत्येक ऊर्जा केन्द्र का यथा स्थान होना और उनका शुद्ध होना आवश्यक है अतः महाकौल गुरु इन की विधियाॅं को भी साथ में या कुछ दिन पूर्वोक्त बीज मंत्रों के अभ्यास करने के बाद सिखाते हैं। शरीर में प्राणों की पूरी शक्ति से क्रियशीलता बनी रहे और मन पर नियंत्रण रहे इसके लिये वे इष्ट मंत्र का प्रयोग करते हुए प्रणायाम किस प्रकार करना है इसकी विधि भी सिखाते हैं। इन सभी क्रियाओं में लगातार अभ्यास करने के बाद ध्यान की विधि सिखाई जाती है जिसके जान लेने और लगातार अभ्यास करने से ‘अपने आप‘ सहित सब कुछ जाना जा सकता है यही जीवन का लक्ष्य भी है। इसके पीछे आध्यात्म विज्ञान का सिद्धान्त, आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्त से मेल खाता है। बीजमंत्र (fundamental frequency) यथार्थतः प्रत्येक सबंधित व्यक्ति का अपना अपना होता है जिसका अभ्यास श्वाश प्रश्वाश  के साथ करते करते मूलाधार में प्रसुप्त देवत्व जिसे तान्त्रिक भाषा में कुंडलनी (fundamental negativity) कहा गया है, पर आघात होता है जिससे वह क्रियाशील होकर ऊर्ध्व  गामी हो जाती है और विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों जिन्हें तंत्र में चक्र (plexus) कहा गया है , को पार करते हुए सर्वोच्च स्तर सहस्त्रार (pineal gland or fundamental positivity) पर जा पहुंचती है और वहाॅं पर परमसत्ता की आवृत्ति (cosmic frequency) से मिलकर अनुनादीय स्वर(resonance) उत्पन्न करती है, (जीवविज्ञानी इस घटना को विशेष प्रकार के हारमोन्स( melatonin- a srotonin derived  hormone)  का स्राव मानते हैं, जो प्रकाश  से प्रभावित होता है और नींद के समय और मौसमी प्रभावों से अपने जीववैज्ञानिक लय में सामंजस्य बनाये रखता है।) जिससे आत्मदर्शन  होते हैं और जो भी अज्ञात होता है सब कुछ बिना पुस्तक पढ़े ज्ञात हो जाता है यही आत्म साक्षात्कार (self realization) कहलाता है यही परमानन्द (supreme bliss) कहलाता है। आधुनिक भौतिक विज्ञान की शब्दावली में इसे व्यक्तिगत आस्तित्विक आवृत्ति(existential frequency)  का,  इष्टमंत्रजाप आवृत्ति (incantative frequency)  के साथ अनुनाद(resonance)  होना और इस अनुनाद का परम सत्ता(cosmic frequency)  के साथ अनुनाद होना कहते हैं। वास्तव में यह, पूर्ण एकाग्रता की स्थिति में बनने बाली मानसिक तरंगों के शक्तिशाली हो जाने पर उन्हें उचित दिशा  में संचालित करते रहने पर ही घटित हो पाता है। ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति(big bang)  के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि (cosmic frequency)  कहते हैं और यह ब्रह्माॅंड की मूल आवृति मानी जाती है और समस्त ब्रह्माॅंड में आज भी व्याप्त है। इसे सगुण और निर्गुण का सम्मिलित रूप माना जाता है, अ, उ और म क्रमशः  उत्पत्ति, पालन और संहार के, चंद्रकार रेखा निर्गुण को सगुण में परिवर्तन करने के, और विंदु, निराकार ब्रह्म के द्योतक हैं। हमें इस ध्वनि को सुनते हुए, इससे निकली तरंगों के साथ मन को ले जाते हुए, गुरु द्वारा बताये गये उर्जा केन्द्र पर स्थिर कर, इष्टमंत्र के जाप से उत्पन्न मानसिक तरंगों को इसी केन्द्र पर एकत्रित कर निर्गुणस्वरूप ‘ विंदु ' को देखने का अभ्यास करना होता है इसे ही साधना कहते हैं जिसे अष्टाॅंग योग में विभिन्न पदों में उपरोक्तानुसार सिखाया जाता है। ( यहाॅं याद रहे कि ओंकार ध्वनि को सुनना और उसमें अपने आप का एकीकरण करना ही लक्ष्य होता है न कि ओम ओम चिल्लाना, इससे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है क्योंकि पचास वृत्तियों (propensities) के संयुक्त स्वर ‘ओम‘ को गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता।) यही एकमात्र विधि सम्पूर्ण है अन्य सभी मतों में इसके ही अनेक खंड कर, अंशों  को ही पूरा मानकर सुविधानुसार अपनी अपनी पद्धतियों को बनाया गया है और पृथक धर्म या मत या संप्रदाय के रूप में प्रचलन में लाया गया है। अतः स्पष्ट है कि जब तक पूर्णता प्राप्त नहीं होगी इन आॅंशिक विधियों से किसी को क्या लाभ हो सकता है यह सहज ही समझा जा सकता है। continued to next post--

Monday 25 May 2015

8 . 9 जन्म मृत्यु और संस्कार ,( पिछली पोस्ट से आगे )

8 . 9 जन्म मृत्यु और संस्कार ,( पिछली पोस्ट से आगे )
यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन अब देखते हैं मनुष्य का जन्म किस प्रकार होता है।
जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅंस में, मास का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र  जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल(vital fluid)  के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डलता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश  कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक  है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों  में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देषों में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता  से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा मिलने पर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है और उससे  तरंगे उत्सर्जित होती रहती हैं। पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं और वे अपनी तरंगे उत्सर्जित कर अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश  कर जाते हैं जहाॅं वे अपने को प्रदर्शित  कर पाते हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है इस प्रकार भौतिक जीवन अस्तित्व में आता हैं।
इस विवरण से स्पष्ट है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र  के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body)  में रहते हुए ही आकाश  (space)  में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त कर सकते हैं, संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल (space-time) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं  ले पाते , किस प्रकार के इष्ट मंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं। साधना करने के लिये सबसे उपयुक्त षरीर मनुष्य का ही है अन्य किसी भी प्राणी का नहीं अतः इसका अधिकतम लाभ लेना चाहिये न कि साॅंसारिक आकर्षण में उलझकर स्नायविक आनन्द को ही सब कुछ मानते हुए यहीं भटकते रहना। पिछले खंडों में तथा ऊपर दिये विवरण में भी लिंफ का महत्व समझाया गया है। यह पुनरुत्पादन करने  और प्रसुप्त देवत्व को जगाने, दोनों के लिये उपयोगी है, इसलिये इसका कुशलता से उपयोग और संरक्षण करना चाहिये। चूंकि यह भोजन का सारतत्व ही होता है अतः हमें उपयुक्त सात्विक भोजन कर इसे अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये उपयोग करना चाहिये क्योंकि वास्तव में यह मस्तिष्क का ही भोजन है। मस्तिष्क के लिये आवश्यक  भोजन से अतिरिक्त लिंफ का उपयोग संतानोत्पत्ति के लिये किया जा सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान यह सिद्ध करते हैं कि एक माह में किये गये पोषणयुक्त सात्विक भोजन से 26 दिन के भोजन से बनने वाला लिंफ केवल मस्तिष्क के सैलों को सक्रिय बनाये रखने के लिये आवश्यक  होता है और शेष 4 दिन के भोजन से उत्पन्न लिंफ ही अतिरिक्त होता है जो आवश्यक  होने पर ही संतानोत्पत्ति के लिये प्रयुक्त किया जाना चाहिये अन्यथा उसका संरक्षण करने के लिये माह में चार दिन निर्जल उपवास करना चाहिये। संन्यासियों के    यों को निर्जल उपवास करना ही चाहिये जिससे अतिरिक्त लिंफ संरक्षित रहकर मस्तिष्क की सक्रियता में प्रयुक्त किया जा सके और मन में असात्विक विचार न आ सकें। यह स्वयंसिद्ध है कि यदि चार दिन के अतिरिक्त लिंफ से अधिक का दुरुपयोग किया जाता है तो निश्चय ही अवशेष लिंफ मस्तिष्क को आवश्यक   भोजन के लिये कम पड़ेगा जिससे अन्य मानसिक और शारीरिक विषमतायें जन्म लेकर समाज में विद्रूपता (डेफोर्मेशन ) उत्पन्न करेंगी।
यहाॅं एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में यह रखना चाहिये कि मन में चाहे सात्विक या असात्विक कैसे भी  विचार क्यों न आयें और उन्हें कार्य में परिणित किया गया हो या नहीं उनके संस्कार तो बन ही जाते हैं और वे अपना क्रम आने पर अवश्य कार्य रूप लेते हैं चाहे इसके लिये कितने ही जन्मों की प्रतीक्षा क्यों न करना पड़े। अतः मन में विचार भी बड़ी सावधानी से करना चाहिये ताकि प्रतिकूल संस्कार न बनें, साधना का करने की प्रथम आवश्यक   शर्त यही है।

Friday 22 May 2015

8.9: जन्म मृत्यु और संस्कार

8.9: जन्म मृत्यु और संस्कार
पिछले खंडों में स्रष्टि चक्र को संचर और प्रतिसंचर दो धाराओं में सक्रिय होना बताया गया है जिसमें संचर सेन्ट्रीफ्युगल (centrifugal )  अर्थात् ब्राह्मिक मन में बाहर की ओर और प्रतिसंचर सेन्ट्रीपीटल (centripetal) अर्थात् भीतर की ओर गतिशील रहती हैं। इस ब्रह्म चक्र को सगुण ब्रह्म के द्वारा अपने विचार प्रक्षेप (Thought projection)  से नियंत्रित किया जाता है। संचर से प्रतिसंचर की ओर गति होने के साथ ही जीवों का अस्तित्व उनके इकाई मन और इकाई चेतना के साथ प्रारंभ होता है। इकाई मन अपनी पाॅंच ज्ञानेद्रियों और पाॅंच कर्मेद्रियों की सहायता से अन्य पदार्थों की जानकारी ग्रहण करता है। मन, जो कि बुद्धितत्व या महततत्व (existential feeling)   अहंतत्व (doer I feeling),   और चित्त तत्व (done I feeling) , का संयुक्त रूप होता है, इंद्रियों का ज्ञाता होता है इसी लिये उसे इंद्रियों का स्वामी कहा जाता है, पर क्या मन सचमुच इंद्रियों का ज्ञाता होता है? वास्तव में अस्तित्ववोध, कर्तावोध और कृतावोध सभी क्रियात्मक रूप हैं। इन क्रियात्मक रूपों को साक्ष्य कौन देता है? इस साक्षी सत्ता को जीवात्मा या इकाई चेतना कहा जाता है जो मन का भी ज्ञाता होता है। पाॅंच कर्मेंद्रियाॅं मन से निकलने वाले संस्कारों के अनुसार तन्मात्राओं को कार्यरूप में बदलती हैं पर वास्तव में यह कार्यरूप में तब तक नहीं बदल पातीं जब तक जीवात्मा की उपस्थिति न हो। इसलिये मन के प्रत्येक कार्य का होना जीवात्मा की उपस्थिति में ही संभव हो पाता है जबकि जीवात्मा क्रिया में भाग नहीं लेता वह केवल साक्ष्य देता है। यहाॅं यह स्पष्ट होता है कि मन तो सत , रज और तम के संयुक्त प्रभाव तथा लगातार होते रहने वाले परिवर्तन से उत्पन्न होता है जो कि समय , स्थान और पात्र से बंधा होता है अतः उसका साक्ष्य देने के लिये कोई निर्पेक्ष सत्ता जो देश  काल और पात्र से ऊपर हो , होना चाहिये, इसी सत्ता को जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार आत्मा ब्रह्मचक्र के सभी स्तरों पर विद्यमान रहता है।
ब्राह्मिक मन की साक्षी सत्ता को पुरुषोत्तम कहते हैं। संचर क्रिया में यही पुरुषोत्तम ओत योग से सभी इकाई मनों से जुड़े रहकर अपने आप को परावर्तित करते हैं और यही परावर्तन जीवधारियों में जीवात्मा कहलाता हैं । चूंकि मन एक लगातार परिवर्तनशील क्रियात्मक अवयव है इसलिये उसमें इसके पूर्व की स्थितियों के सभी परिवर्तनों के परिणाम संचित रहते हैं क्योंकि प्रत्येक स्थिति अपने पूर्व की स्थितियों का परिणाम होती है। इन्हें ही संस्कार कहते हैं जो इकाई मन को संवेग प्रदान कर आगे सक्रिय रखते हैं। चूॅंकि सभी प्रकार के पूर्व परिणामों, अर्थात् संचर और प्रतिसंचर , के लिये ब्राह्मिक मन ही कारण होता है अतः इकाई मन को उसी का आकर्षण और अधिक त्वरित करता जाता है। चूंकि प्रकृति के सक्रिय होने के प्रथम विंदु से संचर क्रिया के अंतिम अर्थात् जड़ पदार्थों के निर्माण होने तक यह संवेग ब्रह्म मन के द्वारा ही दिया गया है। जिस प्रथम अवस्था में इकाई मन में  अहम तत्व और महत्तत्व नहीं था अतः कोई संस्कार भी नहीं था और वह ब्रह्म चक्र के केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा था। पर  आगे की स्थितियों में जीव इकाई मन, पौधों और प्राणियों के रूपमें अपने इकाई मन में क्रमशः  अहं को विकसित करता गया जो उसकी मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करता रहा और इस प्रकार उसके संस्कार बनने लगे। इसी के उन्नत क्रम में मनुष्य आया जो प्रतिसंचर में बढ़ते हुए अपने दिव्य लक्ष्य परमपुरुष की ओर जाने के साथ साथ वापस विपरीत प्रतिसंचर और संचर मार्ग को भी अपना सकता है और मनुष्य से नीचे के प्राणी या निर्जीव के संस्कारों को भी अपने मन में ग्रहण कर संचित रख सकता है। इस प्रकार सामान्य जीव जहाॅं प्रकृति के सहारे प्रतिसंचर में आगे ही बढ़ता है क्योंकि उसका अहं बहुत कम होता है, पर मनुष्य का अहं अधिक होने के कारण वह आगे पीछे कहीं भी जा सकता है। प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे किसी कुत्ते का मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  जाने पर एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बिठा पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार कुत्ता को उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है। अहिल्या की साॅंकेतिक कहानी यही प्रकट करती है। कहने का अर्थ यह है कि उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर एक्स मिस्टर वाय हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर , भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

 प्राण पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य वायुओं का संयुक्त नाम है। आन्तरिक वायु हैं प्राण , अपान, उदान, व्यान और समान, तथा वाह्य वायु हैं नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनन्जय। प्राण वायु, नाभि से कंठ तक श्वाश लेने  और छोड़ने का कार्य करती है। अपान वायु , गुदा से नाभि तक कार्य करती है और मल मूत्र के सिर्जन में सहायता करती है। समान वायु , नाभि के चारों ओर रहती है और प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाये रखती है। उदान वायु , गले में रहकर बोलने में सहायता करती है। व्यान वायु , खून को शुद्ध  करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नर्व्ज को नियंत्रण करती हैं। नाग वायु , उछलने कूदने और किसी वस्तु को फेकने में , कूर्मवायु , शरीर को संकोचन करने में, क्रिकर वायु , जंभांई लेने में, देवदत्त वायु ,  भूख और प्यास में तथा धनंजय वायु , निद्रा और तंद्रा के लिये सहायक होती हैं। शरीर के किसी भाग में दोष उत्पन्न होने से यदि प्राण और अपान में संतुलन बिगड़ता है तो उससे समान में भी असंतुलन पैदा होेता है , इस के बाद यह तीनों उदान में भी असंतुलन पैदा कर व्यान पर आघात करती है और फिर पाॅंचों मिलकर शरीर के हर कमजोर भाग पर अपना संयुक्त दाब डालकर वाहर निकल जाती है। इस प्रकार धनंजय को छोड़कर सभी वायुएं भौतिक शरीर से बाहर निकल जाती हैं। धनंजय तब तक शरीर में रहती है जब तक उसे जला नहीं दिया जाता । स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन का समाप्त होना मृत्यु कहलाता है। भौतिक शरीर से नौ वायुओं के निकल जाने पर मानसिक शरीर भी अब भौतिक शरीर से सामंजस्य नहीं रख पाता अतः अपने संस्कारों के साथ प्रकृति के नियमानुसार अन्य भौतिक शरीर तलाशने में जुट जाता है जहाॅं वह अपने संचित संस्कार भोग सके। कास्मिक रजोगुण का यह दायित्व होता है कि वह इस मानसिक शरीर को एंसी  सूक्ष्म संरचना उप्लब्ध कराये जहाॅं वह अपने संचित संस्कारों को भोग सके।  इस प्रकार विच्छेदित मानसिक शरीर में जीवात्मा साक्षी स्वरूप होता है जो अब कर्माशय या कर्म प्रतिक्रिया के रूपमें सुप्तावस्था में रहता है।


Wednesday 20 May 2015

8.8: परमपुरुष, तारक ब्रह्म के रूपमें कब आते हैं? क्यों आते हैं?

8.8: परमपुरुष, तारक ब्रह्म के रूपमें कब आते हैं? क्यों आते हैं?
           इसके दो कारण हैं पहला यह कि मानव बुद्धि भावसत्ता से संतुष्ठ हो सकती है पर मानव हृदय नहीं। मानव हृदय और अधिक निकटता, और अधिक आनन्द, और अधिक संवेदन चाहता है। यही कारण है कि वह परम सत्ता अपने वंशजों को अधिक आनन्द देने , अधिक संतुष्ठ करने के लिये इन सापेक्षिक घटकों में  सीमित होकर तारकब्रह्म के रूपमें आ जाते है। दूसरा कारण यह है कि इस संसार में प्रत्येक उन्नति लंबे संघर्ष के द्वारा ही हो सकती है और मानव के पास इस संघर्ष को झेलने के लिये पर्याप्त बौद्धिक क्षमता होना चाहिये पर जब उसकी बुद्धि समाज को आगे बढ़ाने हेतु कुछ नया करने  में असफल हो जाती है तो परमपुरुष के पास स्वयं अपने आप को देश  काल और पात्र की सीमा में बाॅंधकर मानवता का उद्धार करने के लिये आने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। वही आकर सिखाते हैं कि किस प्रकार ध्यान करने से उस अरूप से अपना संबंध जोड़ा जा सकता है और मन को कैसे उन्हीं में लगाया जा सकता है, इतना ही नहीं कैसे उनकी समीपता का हमेशा  अनुभव किया जा सकता है।
            प्रकृति के प्रभाव से सगुण ब्रह्म का मन अथवा सूक्ष्म संसार निर्मित होता है तथा पुरुष अथवा चेतना क्रमशः  बुद्धितत्व, अहमतत्व और चित्त में रूपान्तरित होती जाती है। मानव का धर्म है साधना करके मुक्त पुरुष हो जाना और सगुण ब्रह्म का धर्म है कि अपनी प्रत्येक इकाई  को इस कार्य हेतु अनुकूल अवसर जुटाना। वास्तव में सगुण ब्रह्म के द्वारा इस ब्रह्माॅंड को निर्मित करने और उसमें इन मानवों को निर्मित करने के सभी प्रयास और तत्संबंधी कष्ट अपने प्रत्येक इकाई अंश  को मुक्त करने की ओर ही होते हैं। जड़त्व से सूक्ष्म की ओर गति में अर्थात् प्रतिसंचर में चेतना का स्पष्टतः प्रतिकर्षण होने लगता है और पुरुष , क्रमषः प्रकृति के बंधनों से मुक्त होने लगता है इस प्रकार प्रकृति अपने बंधनकारी गुणों को उचित रूपसे प्रभावी नहीं रख पाती और जीव मुक्त होने की दिशा  में आगे बढ़ने लगता है।
            यह स्मरण रहना चाहिये कि सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से मानव इच्छायें अनन्त होती हैं जो सीमित सामर्थ्य  के प्रयासों से संतुष्ठ नहीं की जा सकती। इस परिस्थिति में मनुष्य भौतिक जगत की एक वस्तु से दूसरी पर संतुष्ठी की चाह में तब तक उछल कूद करता रहता है जब तक कि वह पतित होकर मानव के रूपमें परजीवी न हो जाये।
             सभी जीवधारी सापेक्षिक घटकों में बंधे होने के कारण नियंत्रण क्षमता में न्यून होते हैं जबकि परमपुरुष स्वर्ग और नर्क दोनों के नियंत्रक हैं। यहाॅं ध्यान यह रखना चाहिये कि मानव मन की प्रवृत्ति यदि प्रतिसंचर धारा के विपरीत हो जाती है तो वही नर्क और संचर धारा के अनुकूल निराकार ब्रह्म की ओर रहने पर स्वर्ग कहलाते हैं। स्वर्ग और नर्क का कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। इकाई मन जो सोना या चाॅंदी प्राप्त करने को अपना ध्येय बना लेता है वह पहले मानसिक तरंगों के रूप में सोने, चाॅंदी में बदल जाता है फिर जड़ समाधि के कारण जड़ सोने या चाॅंदी में। जो बाद में किसी सोने चाॅंदी के व्यापारी के घर तिजोरी में कैद रहता इसे ही नरकवास कहते हैं।

Monday 18 May 2015

8.7 मतवाद और मत

8.7: मतवाद और मत
8.7 मतवाद और मत 
पातंजल और साॅंख्य दोनों ही अनेक ‘‘पुरुषों‘‘में विश्वाश  रखते हैं और मानते हैं कि ब्रह्माॅंड प्रकृति के द्वारा निर्मित किया गया है, पर यह सही नहीं है क्योंकि मन के बिना भोग नहीं हो सकता और उनके अनुसार पुरुषों के पास मन नहीं होता अतः प्रकृति के द्वारा ब्रह्माॅंड के निर्माण करने से वे संतुष्ठ नहीं हो सकते। वे यह भी मानते हैं कि प्रकृति, पुरुष से अलग है यह भी सत्य नहीं है क्यों कि वह पुरुष की ऊर्जा है ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति है जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। साॅंख्य में  ईश्वर  नहीं है अतः निरीश्वरवाद कहलाता है पर पातंजल ईश्वर  मे विश्वाश  करता हैं पर ब्र्रह्म में नहीं अतः वह सैश्वरवाद  कहलाता है। भयबोध विश्वाशों   (sematic faith ) जैसे, मुस्लिम , क्रिश्चियन और ज्यू आदि में क्रिश्चियन की सामाजिक संरचना थोड़ी सी इन दोनों से भिन्न है पर इन का धार्मिक साहित्य पुरानी अरबी में है और हिब्रू उनकी समानान्तर भाषा है। इन में अन्य किसी धर्म या विश्वास के प्रति कोई आदर नहीं है। इनका कोई दर्शन  नहीं है केवल कट्टर धार्मिक सोच है, वे मानते हैं कि यह सब ईश्वर  के वाक्य हैं जिन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। इनमें ‘‘शैतान‘‘ का भय दिखाया गया है और स्वर्ग नर्क की अवधारणा को माना गया है। प्रोटेस्टेंटों, जिनका विचार कुछ भिन्न है , को छोड़कर  अन्य कोई भी आत्मा का परागमन स्वीकार नहीं करता। उनका विश्वास  है कि पैगम्बर या अवतारों द्वारा पाप को क्षमा किया जा सकता है। नर्क का भय दिखा कर तीनों में शोषण को ही प्रमुखता दी गयी है।
अब, यदि उनका धार्मिक साहित्य ईश्वर  के द्वारा सीधे ही कहा गया है और वे मानते हैं कि ईश्वर  का कोई आकार नहीं है तो यह कैसे संभव है, क्यों कि शब्दों को कहने के लिये गला और मुंह चाहिये जो आकार के बिना संभव नहीं है अतः या तो उनका ईश्वर  निराकार नहीं है या फिर उनका साहित्य ईष्वर के शब्द नहीं है। इन तीनों में ब्रह्माॅंड के उत्पन्न करने का कारण स्पष्ट नहीं किया गया है। वे केवल मानते हैं कि संसार ईश्वर  की पूजा के लिये बनाया गया है पर यह भी कहते हैं कि ईश्वर  दयालु है। जब ईश्वर  दयालु है तो उसकी कृपा पाने के लिये वह अपनी पूजा क्योें कराना चाहते है? यह तो उसकी साधारण मनुष्य जैसी प्रकृति ही मानी जायेगी जो कि वाॅंछनीय नहीं है।  क्रिश्चियन कहते हैं कि जीसस ईश्वर  के पुत्र हैं, परतु जब उनका ईश्वर  निराकार है तो उनका पुत्र कैसे हो सकता है, इस तर्क का वे कोई उत्तर नहीं दे पाते। तीनों धर्म यह मानते हैं कि शैतान वह सब करता है जो ईश्वर  के कार्य के विपरीत होता है जिसका सीधा अर्थ है कि शैतान भी उतना ही शक्तिशाली है जितना ईश्वर । इस प्रकार दो पृथक शक्तियों का अस्तित्व पाया जाना स्वीकृत हुआ अतः इस प्रकार के ईश्वर को   सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। इसलिये शैतान का पृथक अस्तित्व माना जाना अतार्किक है।
यह भी माना गया है कि शैतान का अस्तित्व संसार के निर्माण के पहले से ही है अर्थात शैतान का निर्माण ईश्वर  के द्वारा नहीं हुआ है वह नकारात्मक शक्ति है अतः दो प्रकार के  ईश्वर प्राप्त होते हैं एक अच्छा और दूसरा बुरा। अब प्रश्न  उठता है कि क्या  ईश्वर वहाॅं पाया जा सकता है जहाॅं शैतान उपस्थित हो? इस प्रकार दोनों प्रकार के कथन एक दूसरे के विपरीत हो जाते हैं। इन मतों के अनुसार जो ईश्वर की पूजा नहीं करता उसे नर्क में फेक दिया जाता है जहाॅं से कभी वापस नहीं आ सकते, यह भी अतार्किक है क्योंकि किसी को भी हमेशा  के लिये बंधन में नहीं रखा जा सकता। वे कहते हैं कि संसार को ईश्वर ने बनाया पर यह नहीं बताते कि किस पदार्थ से बनाया, इस प्रकार  ईश्वरऔर संसार दो अलग अलग अस्तित्व हुए। अब यदि संसार  ईश्वरका हिस्सा नहीं है तो वह  शैतान का हिस्सा हुआ, पर शैतान  को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्रष्टि का केन्द्र नहीं माना गया है अतः संसार उसका हिस्सा नहीं हो सकता। इस प्रकार तीन  ईश्वर हुए , एक तो असली दूसरा शैतान और तीसरा वह पदार्थ जिससे संसार का निर्माण हुआ। इन धर्मों का एक समान उद्गम भयपूर्ण नर्क से हुआ है जो इनके अस्तित्व को बनाये रखने का कारण है।
इस विवरण से स्पष्ट होता है कि ये सब ‘मत‘ या विचारधारायें ही है इन्हें दर्शन  की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

Saturday 16 May 2015

--8-6 भूत प्रेत और विभ्रम (पिछली पोस्ट का शेष -----)


8-6  भूत प्रेत और विभ्रम  (पिछली  पोस्ट का शेष -----)

भौतिक शरीर का संचालन नाड़ीतंतुओं द्वारा करता है। गंध, रूप, स्पर्श , स्वाद आदि के रूप में प्राप्त कम्पन इन नाड़ी तंतुओं द्वारा प्राप्त किये या बाहर प्रक्षिप्त किये जाते हैं। परंतु सूक्ष्म शरीरों की नाडि़यां होती नहीं हैं अतः वे भौतिक संचालन कैसे करेंगी? केवल एक प्रकार बचता है अपने आप में स्वप्रेरित सूचना उत्पन्न कर किसी कंपन को अनुभूत करना। ये सूक्ष्म शरीर भूत नहीं हैं और न ही स्वप्रेरित या वाह्य प्रेरित तरंगों के वशीभूत होते हैं। यदि किन्हीं परिस्थितियों में किसी को ये सूक्ष्म शरीर दिखते हैं तो वह सोच सकता है कि वह भूत है परंतु , वह सूक्ष्म शरीर है । यह दिन में दिखाई नहीं देता पूर्ण अंधकार में यह संभव है परंतु हर जगह नहीं । सूक्ष्म शरीर सात प्रकार के होते हैं, यक्ष, सिद्ध, गंधर्व, किन्नर, विद्याधर, प्रकृतिलीन और विदेहलीन। यक्षः- मानलो कोई उच्च स्तरीय साधक परम पुरुष की साधना करते हुए बहुत आगे बढ़ गया परंतु उसे द्रव्य का लोभ रह गया और उसने भले ही ईश्वर  से कुछ नहीं मांगा परंतु यह धारणा रखी कि जब इतना भजन पूजन किया है तो ईश्वर  उसे इतना धन तो अवश्य  दे देंगे कि धनाड्य हो जाउंगा और यह सोचते सोचते शरीर को छोड़ देता है तो यक्ष नामक सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। सिद्धः- वे साधक जिन्हें परमपुरुष से वेहद प्यार है परंतु विभिन्न सिद्धियों की चाह मन में छिपी हुई है तो मरने के बाद ये सिद्ध नामक सूक्ष्म शरीर पाते हैं। इनकी स्थिति सभी सूक्ष्म शरीरों में श्रेष्ठ होती है और वे साधकों को साधना के मार्ग में मदद करते हैं। विद्याधरः- प्रभु भक्ति करते करते जिनकी इच्छा ज्ञान की प्रकांडता प्राप्त करने की होती है और इसी बीच वे शरीर छोड़ देते है तो उन्हे विद्याधर नामक सूक्ष्मशरीर प्राप्त होता है। गंधर्वः-संगीत विज्ञान में उत्कृष्ट निपुणता के लिये जो साधक साधना करते करते देह त्याग करते हैं वे गंधर्व नामक सूक्ष्मशरीर प्राप्त करते हैं। किन्नरः- भौतिक सुन्दरता की चाह में जो साधक साघना करते हैं वे देह त्याग के बाद किन्नर नामक सूक्ष्मशरीर प्राप्त करते हैं। इन पांचों सूक्ष्मशरीरों को संयुक्त रूपसे देवयोनि कहा जाता है। इसके अलावा विदेहलीन और प्रकृतिलीन नामक सूक्ष्मशरीर भी होते हैं। जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान को तत्काल पहुंचने की दिव्यशक्ति प्राप्त करने की इच्छा से साधना करते हैं वे विदेहलीन और जो परमपुरुष को पहाड़ों, पत्थरों या अन्य स्थानों में या रूपों में स्थापित मानकर पूजा करते हैं वे प्रकृतिलीन नामक सूक्ष्मशरीर पाते हैं। ये सभी सूक्ष्मशरीर होते हैं भूत नहीं और न ही विभ्रम।
           अतः जब भूत पिशाच न तो धनात्मक न ऋणात्मक विभ्रम हैं और, न देवयोनि, तो क्या हैं? वास्तव में जब किसी की अतृप्त इच्छाओं के संचित संस्कार, मृत्यु के समय, जबकि  मन शरीर से प्रथक हो रहा होता है तो उसके साथ जुड़ जाते हैं। अतः यद्यपि भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है और मन क्रियाशील नहीं हो पाता है परंतु उसकी शक्तियां पोटेंशियल रूप (potential form) में रहती हैं अतः यदि अनुकूल परिस्थतियों में किसी जीते जागते व्यक्ति का एक्टोप्लाज्म अर्थात् मनोभौतिक तंतु शरीरहीन मन के पोटेशियल फार्म से जुड़ जाता है तो शरीरहीन मन बहुत थोड़े समय के लिये अस्थायी मानसिक शरीर धारण कर लेता है और जीते जागते व्यक्ति के भौतिक शरीर के स्नायु तंतुओं द्वारा अपना फंक्शन  करने लगता है। इसे प्रशीत  मनस् कहा जाता है और जनसामान्य कहते हैं कि अमुक को प्रेत ने ग्रस्त कर लिया है। ये न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक विभ्रम है  और न ही देवयोनि। वास्तव में जीवित व्यक्ति के एक्टोप्लाज्मिक सैल किसी मृत व्यक्ति का मानसिक शरीर बन जाते हैं। दो चार मिनटों में यह शरीर भी मर जाता है, यह रिक्रियेटेड माइंड कहलाता है। कुछ व्यक्ति प्रशीत मनस् द्वारा अच्छे काम कराते हैं परंतु इन्हें नाड़ी तंतुओं पर पूरा कंट्रोल होना चाहिये। बुरे लोग प्रशीत् मनस् का दुरुपयोग करते हैं, लोगों के घरों में नुकसान करते हैं, फरनीचर तोड़वा देते हैं हड्डियां फिकवाते हैं आदि आदि, परंतु यह दो चार मिनट से ज्यादा नहीं होता । इसतरह हम देखते हैं कि तथाकथित भूतप्रेत न तो विभ्रम और न ही सिद्ध या प्रशीत मनस होते हैं यथार्थतः हम इनमें से किसी का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर सकते। जहां तक धनात्मक विभ्रम का प्रश्न  है उसका वास्तविक अस्तित्व है ही नहीं यदि किसी को धनात्मक विभ्रम है तो वह मानसिक रोग है। यदि कभी इस प्रकार के प्रशीत मनस् आपको दिखाई दें तो इसका एकमात्र उपाय प्रभुकीर्तन ही है। एक मिनट तक अपना बीजमंत्र मन ही मन उच्चारित करने या कीर्तन करने से भूत पिशाच तत्क्षण वायु में विलीन हो जावेगा। अतः किसी भी परिस्थति में हमें इनसे डरना नहीं चाहिये।
            इससे स्पष्ट है कि तथाकथित भूत कमजोर और असुरक्षा अनुभव करने वाले मन की कल्पना है जो भय के समय पुरानी कल्पनाओं के अनुसार आकार ले लेती हैं। जब भय, सम्मोहन या जड़ता के कारण मन का काममय कोष अस्थायी रूपसे निलंबित हो जाता है तो मनोमय कोष में होने वाले कम्पन सत्य प्रतीत होने लगते हैं। जैसे, स्वप्न देखते समय भी यही घटना होती है। मनोविज्ञान के अनुसार भूत, देवी, देवता आदि का दिखाई देना उपरोक्त कारण से ही होता है इन में से किसी का भी अस्तित्व नहीं है। प्रबल इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति द्वारा कमजोर मन वाले व्यक्ति को धनात्मक या ऋणात्मक विभ्रम देकर हिपनोटाइज किया जाने पर कमजोर मन वह देखने लगता है जो बाहर से प्रबल मन का व्यक्ति प्रेरित करता है। इस प्रकार का प्रबल मन वाला व्यक्ति अपने एक्टोप्लाज्म की सहायता से शरीरहीन अर्थात् मृत व्यक्ति की आत्मा में अपनी इच्छानुसार आकार बनाने या काम करने का आदेश  देकर कमजोर मन को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि कमजोर मन इन आकारों को स्पष्टतः देख सकता है। जब यह घटना स्वयं को हिपनोटाइज करने पर घटित होती है तो कोई अपने संस्कारों के अनुरूप देवी या देवता के अपने ऊपर आने की अनुभूति करता है और प्रश्नो   के उत्तर या रोगों को ठीक करने की दवा बतलाता है वह अपने सबकान्शस  अर्थात् अवचेतन मन की सहायता से करता है क्योंकि हिपनोटाईज्ड मन अधिक शक्तिशाली हो जाता है। स्पष्ट है कि यह सब मन की ही अवस्थायें हैं। जब किसी को भूतप्रेत लग जाते है तो उसका काममयकोष अक्रिय/निलंवित हो जाता है और मनोमय कोष आत्मनिर्भता से सोच नहीं पाता है, इसी लिये ओझालोग उसके नर्वस सिस्टम को सक्रिय करने के उपाय करते हैं, जैसे अंगुलियों पर जोर का दवाव देना, मिर्च या तीखे धुएं की वौछार नाक पर डालना, या अन्य उपाय करना जिससे वह चैतन्य अवस्था में आ जावे । वे जानते हैं कि एक वार चैतन्य अवस्था आ गई तो देवी देवता और भूत प्रेत सब भाग जावेंगे। अतः इस मनोवैज्ञानिकता को याद रखना चाहिये और कभी भी अपनी मानसिक तरंगों को कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिये, प्रबल इच्छाशक्ति हर स्तर पर सहायता करती है।

Friday 15 May 2015

8.6 भूत प्रेत और विभ्रम

8.6  भूत प्रेत और विभ्रम
        आश्चर्य, चमत्कार और रहस्य ऐंसे शब्द हैं, जो प्रत्येक का मन आकर्षित करते हैं। भूत प्रेतों की कहानियाॅं तो प्रत्येक ने सुनी और सुनाई होती हैं। इन कहानियों को सुनकर मैं बाल्यावस्था से ही इनके पीछे क्या रहस्य है यह जानने की चेष्टा करता रहा हूं परंतु न तो मुझे कभी प्रेतों के दर्शन  हुए और न ही अन्य वैज्ञानिक समाधान। विभ्रम या हेलुसिनेशन में प्रकाशकीय नाडि़यों में कोई दोष नहीं होता केवल आंख के द्रश्य  में दोष होता है जो विभिन्न विचारों के द्वारा प्रभावित होता रहता है। विभ्रम दो प्रकार के होते हैं धनात्मक और ऋणात्मक। धनात्मक विभ्रम में भौतिक द्रश्यों  में गड़बड़ी नहीं होती वरन् देखने वाले की द्रष्टि विचार तरंगों द्वारा इतनी प्रभावित कर ली जाती है कि वह यथार्थ वस्तु से भिन्न स्वरूप देखना चाहती है। ऋणात्मक विभ्रम में भी द्रष्टि में दोष नहीं होता परंतु विचार तरंगों के तीव्र दबाव से, जिसे आटो सजेशन कहते हैं, वह वास्तविकता से भिन्न देखना चाहती है। बहुत विद्वानों ने  तथाकथित भूतों को धनात्मक विभ्रम और बहुतेरों ने ऋणात्मक विभ्रम भी कहा है। ये लोग कहते हैं कि भूतों को देखते समय आप्टीकल नर्व द्रष्टा को  धोखा देती है परंतु ऐंसा नहीं हैं यहां प्रधान भूमिका विचार तरंगों द्वारा ही प्रस्तुत की जाती है न कि भौतिक शरीर या मानसिक तंतुओं या एक्टोप्लाज्मिक सैलों द्वारा।
         कहा जाता है कि ‘‘ अभिभावनात् प्रेत दर्शनम्‘‘ । अभिभावना अर्थात्, तंतुओं द्वारा दी गई सूचना जिसमें मन और तंतु दोनों प्रभावित होते हैं, अतः दोषपूर्ण प्रतिक्रिया के कारण जो नहीं होता उससे भिन्न दिखाई देने लगता है। तंत्रिकाओं द्वारा दी गई सूचना स्वप्रेरित या वाह्य प्रेरित किसी भी प्रकार से हो सकती है। स्वप्रेरित सूचना का क्षेत्र सोचने वाले के मन के दायरे में ही होता है जबकि वाह्य प्रेरित सूचना में किसी अन्य शक्तिशाली मन द्वारा कमजोर मन को प्रभावित कर लिया जाता है। जब कमजोर मन को शक्तिशाली मन द्वारा अत्यधिक प्रभावित कर लिया जाता है तब या तो जो है वह नहीं दिखता अन्य कुछ दिखता है, या कुछ भी नहीं दिखता। दार्शनिक रूप में हम कह सकते हैं कि परमसत्ता द्वारा निर्मित यह संसार, नक्षत्र और सारा ब्रह्मांड भी धनात्मक विभ्रम है क्यों कि वह जो सोचता है वह व्यक्ति विशेष द्वारा देखा जाता है। व्यावहारिक जगत और भूतों में अंतर  यह है कि भूतों के केस में सूचना व्यक्तिगत होती है जबकि जगत के केस में सूचना बाहर से अर्थात् परमात्मा से आती है । परंतु जब व्यक्ति तथाकथित भूत देखते हैं  तो क्या वे धनात्मक विभ्रम हैं? नहीं वे नहीं हैं। संसार में जो कुछ हम देखते हैं वह ठोस, द्रव, वायु, अग्नि और आकाश  से इस प्रकार बना होता है कि वह अपने  आप संचालित होता है । यह आन्तरिक क्रिया परमपुरुष के द्वारा प्रेरित होती है, यह हो सकता है कि कुछ अस्तित्वों में भोजन पानी की आवश्यकता  न हो  परंतु जो ठोस और द्रव पदार्थों से मिलकर बना है अवश्य  ही भोजन पानी पर निर्भर करेगा क्यों कि भोजन मूलतः ठोस पदार्थ और पेय मूलतः तरल पदार्थों से निर्मित होता है। परंतु कोई चीज यदि ऊष्मा ,वायु और ईथर से बनी हो तो उसे भोजन की आवश्यकता नहीं होगी इसे ल्यूमनस बॅाडी या सूक्ष्म शरीर कह सकते हैं।

Tuesday 12 May 2015

8.5 नृत्य, वर्ण और दुख

8.5 नृत्य, वर्ण और दुख
कौषिकी नृत्य
    भगवान सदाशिव के द्वारा निर्धारित कौषिकी नृत्य महिला और पुरुष दोनों ही कर सकते हैं, पर महिलाओं के लिये यह अनेक व्याधियों से मुक्त करता है। योग मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिये शरीर को स्वस्थ और सक्रिय बनाये रखने के लिये इसका अभ्यास उत्तरोत्तर लाभ देता है। इसमें दोनों हाथों की हथेलियाॅं परस्पर मिला कर ऊपर सीधे खींच कर खड़े होकर दायें बायें सामने और पीछे लयबद्धता के साथ झुकते हुए पैरों को भी उसी लय में चलाना पड़ता है। यह अभ्यास करते समय किस स्थिति में क्या भावना मन में रखना चाहिये वह नीचे दी गयी है :
ऊर्ध्वाधर:-    मैं अब परमपुरुष से संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रहा हॅूं।
दाॅंयेः-           परमपुरुष , मैं आपसे निवेदन करने का सही तरीका जानता हॅूं।
वाॅंयेंः-          परमपुरुष मैं जानता हॅूं कि आपकी आज्ञा का पालन कैसे किया जाता है।
सामनेः-       मैं जानता हूँ  कि आपके समक्ष समर्पण कैसे किया जाता है।
पीछेः-          मैं कष्टों के आने पर असुविधायें सहने के लिये तैयार हॅूं।
स्टेप्सः-       ए मेरे स्वामी! मैं अब आपकी सूक्ष्म चेतना के अभिव्यक्तिकरण को व्यावहारिक रूप देने के
          लिये आपका लय प्रारंभ कर रहा हॅूं।
इस विचार का साराॅश  है कि मैं लघुब्रह्माॅंड अपने स्वामी परम ब्रह्माॅंड के नाभिक से अपना संबंध स्थापित कर रहा हॅूं।
नोटः-  कुछ भक्त उन्हें प्रसन्न करने, उनकी सेवा करने और प्यार करने के निमित्त उन्हीं के ध्यान में कौषिकी नृत्य करते हैं, पूर्वोक्त सभी पदों का पृथक से ध्यान करते हुये परमपुरुष से मन का संपर्क टूट जाने की आशंका से अधिकाॅंश  लोग विशुद्ध भक्ति भाव के साथ ही कौषिकी नृत्य करते हैं। इस में व्यक्ति को अपने अपने ढंग से विचार चुनने की स्वतंत्रता है।
ताॅंडव नृत्य
    भगवान सदाशिव के द्वारा यह नृत्य केवल पुरुषों के लिये ही निर्धारित किया गया है। मस्तिष्क की उन्नति के लिये कोई भी भौतिक अभ्यास नहीं है परंतु ताॅंडव के द्वारा मस्तिष्क के तन्तुओं को द्रढ़ बनाने में सहायता मिलती है। इस नृत्य में बहुत उछल कूद होती है जैसे धान को कूट कर जब चावल निकाले जाते हैं तो वे उछलते हैं इसी कारण उन्हें तन्दुल कहते हैं तथा तंदुलों की तरह उछल कूद जिस नृत्य में होती है उसे ताॅंडव नृत्य कहते हैं। जब तक अभ्यास करने वाला अपने शरीर को पृथ्वी से ऊपर उछाले रहता है तब तक लाभकारी कम्पन मस्तिष्क के तंतुओं में अनुकूल प्रभाव डालते रहते हैं पर ज्योंही वह पृथ्वी के संपर्क में आता है वे कंपन शरीर में अवशोषित हो जाते हैं। इस नृत्य में दोनों हाथ पृथ्वी के समानान्तर किये हुए पैरों के पंजों के बल बैठकर तीन बार इस प्रकार उछलते हैं कि एडि़याॅं एक साथ जोर से मूलाधार पर आघात करें और फिर बायें पंजे पर खड़े होकर दायें पैर के घुटनें को छाती तक लाते हुए वायें पंजे द्वारा ही जोर से ऊपर की ओर उछलते हैं, फिर यही क्रम दायें पंजे और बायें पैर के घुटने के द्वारा दुहराते हैं और इसी की पुनरावृत्ति करते जाते हैं । तान्डव, पूर्वात्य नृत्य का प्रारंभिक स्तर है पर यह करना इतना सरल नहीं है। घुटने नाभि से ऊपर तक जाना चाहिये। जब घुटने नाभि  को पार कर जाते हैं तो ब्रह्म तान्डव, जब छाती के मध्य विंदू  को पार करने लगते हैं तब विष्णु तान्डव, और जब गले को पार करने लगते हैं तब रुद्र तान्डव कहलाता है। रुद्र तान्डव करना सरल नहीं है इसमें लम्बे अभ्यास की आवश्यकता होती है। यह बहादुरों का नृत्य है, मृत्यु को जीतने का। कृपाण जीवनरक्षा का और खोपड़ी मृत्यु का प्रतीक है अतः मृत्यु को शस्त्र की सहायता से समाप्त करना तान्डव का उद्देश्य  है। यह अपने अस्तित्व को स्थापित करने का दिव्य नृत्य है, दिन में यदि कोई चाहे तो खोपड़ी के स्थान पर जीवित सर्प और रात्रि में मशाल या डमरू ले सकता है। यह व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये, बातचीत करना या इसके करते समय चिल्लाना वर्जित है। तन्त्रोपासक को भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों पर शक्तिशाली होना चाहिये अतः यह जीवन्तता की उपासना है, मृत्यु की नहीं। जीवन में प्राकृतिक रूप से अनेक विरोधी बल सक्रिय होते हैं जिनके विरुद्ध संग्राम कर जीवन को जीवन्त बनाने का प्रतिनिधित्व तान्डव करता है। अतः मृत्यु का भय और जीवन में हारने का मनोभाव पनपने ही नहीं देना चाहिये। मन में भावना यह रखते हैं के मेरे एक हाथ में मशाल  है और दूसरे में कटार और मैं मृत्यु से लड़कर उसे जीतना चाहता हॅूं।

रंगोत्सव या होली के संबंध में यथार्थता
विज्ञान के अनुसार रंग और कुछ नहीं प्रकाश की भिन्न भिन्न तरंग लम्बाइयाँ हैं। यह  अलग बात है कि हम सीमित क्षेत्र की तरंग दैर्घ्य  ही अनुभव कर पाते हैं। संस्कृत में इसे वर्ण कहते हैं। वेदान्त अर्थात् उपनिषद् का कथन है कि हमारा यह जीवन पिछले अनेक जीवनों का परिणाम है और हर जीवन के असंख्य वर्ण अर्थात् तरंग दैर्घ्य  इस जीवन में संचित हैं जो संस्कार कहलाते हैं। इन्हें समाप्त कर चुकने के बाद ही हम अपने मूल स्वरूप  को पा सकते हैं क्योंकि हमारा मूल स्वरूप अवर्ण है। इसलिए इन्हें समाप्त करने के लिए ही योगाभ्यास की साधना करने का विधान है। योग की  विशेष विधियां इन तरंग लम्बाइयों / संस्कारों को ही क्षय करने के लिए प्रयुक्त की जातीं हैं और योगी प्रतिदिन इन रंगों को ही अपने इष्ट को अर्पित करते जाते हैं जिसे वर्णार्घ्य  दान कहते हैं।  यही रंगों का त्यौहार है जो रोज ही योगाभ्यासी मनाते रहते हैं। योगी रोज ही होली खेलते हैं। यह बाहर से प्रदर्शन  करने का खेल नहीं है यह मनोआत्मिक क्रिया विज्ञान है। पर इस सत्य को लुप्त रखकर इस पवित्र त्यौहार को कैसा विकृत कर दिया गया है कि इस त्यौहार से ही घृणा होती है। सत्य के अनुसंधाता, पितृपुरुष ऋषिगण हमारे इन क्रियाकलापों से सचमुच आहत होते होंगे।  इन विकृत परम्पराओं को क्या रोका जाना सम्भव नहीं है?
दुखों का कारण और निवारण
व्यक्तिगत दुखों का कारण है  इच्छाओं की पूर्ति न होना। सब चाहते हैं कि विश्व  में सब कुछ उन की ही इच्छा से हो , पर विश्व  का निर्माता अपनी इच्छा से विश्व का   संचालन करता है। सुख तब प्राप्त होता है जब व्यक्तिगत इच्छा विश्व  के संचालक की इच्छा मेल खाती है।
सामाजिक दुखों का कारणहै  अवैज्ञानिक, अविवेकपूर्ण, अतार्किक और आडंबरी परम्पराओं का बोझ लादे फिरना।
हम क्या कर सकते हैंः- विज्ञान सम्मत आध्यात्म और आध्यात्म सम्मत विज्ञान की रचना कर स्वयं और समाज दोनों को सुखी कर सकते हैं।

Monday 11 May 2015

8.4 ब्रह्माॅंड के निर्माण, नियंत्रण और संचालन का दिव्य सिद्धान्त

8.4 ब्रह्माॅंड के निर्माण, नियंत्रण और संचालन का दिव्य सिद्धान्त
विद्यातंत्र में एक शब्द है ‘‘प्रमा‘‘ ( शाब्दिक व्युत्पत्ति यह है,  प्र - मा + ड + टा=  प्रमा ) जिसकी सहायता से ब्रह्माॅंड के सभी निकायों और जीवधारियों के मानसिक , सामाजिक और आघ्यात्मिक जगत में विकास की चरम अवस्था लाये जाने की संभावनाओं को स्थापित किया गया है । यहाॅं प्रारंभिक रूप में कुछ विवरण देकर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

ब्रह्र्म की निर्गुण अवस्था में प्रकृति के तीनों गुण साम्यावस्था में होते हैं और वे आपस में एक दूसरे में रूपान्तरित होते रहते हैं परंतु इस रूपान्तरण की किसी अवस्था में जब यह संतुलन टूट जाता है तो किसी एक विन्दु से स्रष्टि का स्रजन प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार प्राप्त हुई नयी संतुलन की अवस्था लोक त्रिकोण कहलाती है क्योंकि इसमें भौतिक जगत , मानसिक जगत, और आध्यात्मिक जगत तीनों का साम्य वांच्छनीय होता है। इस समग्र निकाय को, जिसे हम ब्रह्माॅंड कहते हैं, में आन्तरिक और वाह्य बलों की सक्रियता बनी रहती है जो पूरी निकाय के भीतर और बाहर के सभी आकारों को प्रमा त्रिकोण या लोक त्रिकोण के भीतर व्यवस्थित बनाये रखने के लिये उत्तरदायी होती है। आन्तरिकबलों (अर्थात् विद्युतीय, चुम्बकीय और नाभिकीय) का साम्य बलसाम्य (equilibrium)  और वाह्यबलों (अर्थात् गुरुत्वीय) का साम्य भारसाम्य (equipoise) कहलाता है। बलसाम्य और भारसाम्य रहने पर ही कोई निकाय अपना अस्तित्व बनाये रख पाती है अतः इन्हीं का सम्मिलित नाम प्रमा कहलाता है।

किसी के व्यक्तिगत , सामाजिक और साॅंस्कृतिक जीवन में प्रमा होने पर ही वह उत्कर्ष पा सकता है अन्यथा नहीं । जैसे पृथ्वी पर 10 लाख वर्ष पूर्व मानव आ चुका था पर आज से केवल 15000 वर्ष पूर्व से ही आधुनिक सभ्यता का उद्गम हो पाया। इसमें भीपाश्चात्य देशों  में भौतिक प्रगति से केवल आंशिक  प्रमा ही आ सकती है क्योंकि वे आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रमा स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। पृथ्वी पर भारत ही वह देश   है जहाॅं  आध्यात्मिक प्रमा के क्षेत्र में कार्य किया गया पर उन्नति की पराकाष्ठा नहीं मिली क्योंकि भौतिक और मानसिक स्तरों पर प्रमा नहीं बन पायी जबकि इसे प्राप्त करने की पूरी संभावना रही है। यही कारण है कि आज भी व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में प्रमा की स्थापना न होने से भावजड़ता, भ्रान्त जीवनधारा, सामाजिक और अर्थनैतिक त्रुटिपूर्ण व्यवस्था दिखाई देती है।

भौतिक रूप से प्रकृति ने पृथ्वी के ऊपर और भीतर प्रचुर खनिज, जलज, कृषिज और भेषज सम्पदा भर दी है परंतु फिर भी अनेक देशो  में चरम दरिद्रता, निम्न जीवन स्तर, शिल्प और कृषि में पिछड़ापन, भोजन , वस्त्र ,आवास चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की कमी देखी जाती है। इसका मुख्य कारण प्रमा का अभाव ही है। मानसिक रूप में प्रमा का न होना साहित्य, कला, संगीत,  विज्ञान और दर्शन  के क्षेत्र में वाॅंछित प्रगति रोक देता है। जैसे कविता में भाव , भाषा, रस और छंद का सुंदर समन्वय होना चाहिये परंतु यदि केवल भावों की गंभीरता भरी हो और छंद  या रस का अभाव हो तो प्रमा नहीं रहेगी और कविता प्रभावहीन हो जायेगी। दर्शन  में भी कोई भाववादी और कोई जड़वादी हैं पर दर्शन  का मूल उद्देश्य  है स्रष्टा और स्रष्टि के बीच वास्तविक संबंध का निर्णय करना, पर प्रचलित सभी सिद्धान्त भावजड़ता से भरे बौद्धिक जंजाल में फंसे हैं। आध्यात्मिकता का लक्ष्य है कि मानव के अस्तित्व के भीतर जो शिव  छिपे हुए हैं उन्हें प्राप्त करना, भूमा के साथ अणु का, परमात्मा के साथ जीवात्मा का, और शिव के साथ जीव का महा मिलन करना। पर इस मूल धर्म को  भूल कर उपधर्मों से प्रभावित हो कर दूर दूर तीर्थों में जाने के लिये अपना पराक्रम, समय और धन नष्ट करना सिखाया गया है, इससे किसी का कोई भी आध्यात्मिक लाभ नहीं होता, ऐंसे अनेक उदाहरण और दिये जा सकते हैं ।  यह आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रमाहीनता का सबसे अच्छा उदाहरण है।
भौतिक जगत में व्यक्ति और समाज, जब विकास के चरम स्तर पर पहुंचकर आध्यात्मिक विकास के साथ साम्य स्थापित कर लेता है तो उसे प्रमासंवृद्धि कहते हैं। मानसिक विकास में संतुलन स्थापित कर व्यक्ति और समाज के साथ आध्यात्मिक विकास में सामंजस्य की रक्षा होने पर प्रमाऋद्धि कहलाती है। जब व्यक्ति और समाज भौतिक जगत और मानसिक जगत में सामंजस्य बनाते हुए मानसाध्यात्मिक स्तर पर उच्चावस्था में पहुंचकर विकास की साम्यावस्था में उन्नत होता है तब प्रमासिद्धि कहलाती है।
इस विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि आज का समाज अर्थनैतिक दिवालियापन, सामाजिक अस्थिरता, सांस्कृतिक अवक्षय और धार्मिक कुसंस्कारों के भयावह गर्त में गिरता जा रहा है जिसका कारण प्रमा साम्य का अभाव ही है। इस परिस्थति में भौतिक स्तर पर प्रमा के नष्ट हो जाने के कारण विपर्यय ज्ञानवाले धूर्तों का साम्राज्य हो जाता है जो मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रमा को नष्ट करने लगते हैं।  इसलिये लोक त्रिकोण और प्रमात्रिकोण को पारस्परिक समरसता में बनाये रखने के लिये प्रत्येक स्तर पर छोटे छोटे प्रमा त्रिकोण बनाकर उनमें समरसता का उपाय करना होगा, जिसके बाद सभी लधु प्रमात्रिकोणों को एक विराट प्रमात्रिकोण में एकत्रित कर लोकत्रिकोण के केन्द्र से मिलाने का कार्य करना होगा। जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता भौतिक जगत में असमानता, लूटपाट , मारपीट, व्यभिचार और अमानवीय कृत्यों की भरमार रहेगी। स्पष्ट है कि जब भौतिक क्षेत्र में ही प्रमा नहीं रहेगी तो अन्य क्षेत्रों जैसे मानसिक और आध्यात्मिक, में वह कैसे रह सकेगी?
इसका एकमात्र समाधान यह है कि, हमें विज्ञान सम्मत आध्यात्म और आध्यात्म सम्मत विज्ञान बनाने के लिये जी जान से जुट जाना चाहिये अन्यथा प्रमाहीनता का प्रभाव बढ़ता जायेगा और हमें आदिम युग में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा।

Sunday 10 May 2015

8.3 योग, विज्ञान और आध्यात्म


8 -3 (पिछली पोस्ट का शेष )
आधुनिक विज्ञान कम तरंग लंबाईयों और अधिक आवृत्तियों के सहारे आगे बढ़ता है जबकि आध्यात्मिक विज्ञान अधिक तरंग लंबाईयों और कम से कम आवृत्तियों पर आधारित होता है। भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को प्रदर्शित  करने के लिए विभिन्न उपकरणों सहित लेबोरेटरी की आवश्यकता होती है जबकि आध्यात्मिक विज्ञान में मनुष्य का शरीर ही लेबोरेटरी होता है तथा मन बुद्धि, चित्त, अहंकार और मस्तिष्क यह सब उपकरण होते हैं केवल सही सही आवृत्तियों को पहचानने अनुभव करने तथा विश्लेषण करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए लगातार अभ्यास करना होता है।
इस अभ्यास में सात्विक भोजन और आसन द्वारा शरीर द्रढ़ करना, यम नियम द्वारा मन को शुद्ध करना, प्राणायाम द्वारा जीवनी शक्ति को एकाग्र करना, प्रत्याहार द्वारा समस्त ज्ञानेद्रियों और कर्मेन्द्रियों को नियंत्रित कर एकाग्र करना, धारणा द्वारा निर्धारित लक्ष्य पर एकाग्र की हुई प्राण शक्ति को संयुक्त करना, ध्यान द्वारा प्राप्त ज्ञान की व्याख्या करना, और समाधि द्वारा परम सत्ता का साक्षात्कार करना आदि सम्मिलित होते हैं। 

आधुनिक विज्ञान इस विवरण को स्वीकृति नहीं देता क्योंकि इसे भौतिकी की प्रयोगशाला  में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता जबकि ‘‘इलेक्ट्रोऐंसफेलोग्राम’’ द्वारा मन की पूर्वोक्त गतिविधियों का ग्राफीय प्रदर्शन  किया जा सकता है। चूंकि यह एक कष्ट साध्य लंबी प्रक्रिया है इसलिए वे जो तत्क्षण फल प्राप्त करने की इच्छा करते हैं ऊब जाते हैं। इसमें एक रहस्य यह भी है कि एक्सपर्ट व्यक्ति द्वारा प्रयोग करने वाले की मूल आवृत्ति पहचान कर उसे लगातार अपने निर्देशन  में अभ्यास कराया जाता है। जिस भौतिक वस्तु या रहस्य का पता करना होता है उसका आवृत्ति परास जानकर लगातार अभ्यास द्वारा मूल आवृत्ति के साथ ‘‘रेजोनेंस’’ कराया जाता है जिससे वस्तु का ज्ञान अथवा रहस्य का पता मन के द्वारा अनुभूत हो जाता है। मन किसी भी आवृत्ति को उत्पन्न कर सकता है तथा किसी भी आवृत्ति को ग्रहण कर सकता है। इलेक्ट्रानों की तरह मन दिखाई नहीं देता परंतु उन्हीं की तरह अपने प्रभावों से अपनी उपस्थिति का आभास करा देता है। मनोवैज्ञानिक, मन के ‘‘कानशस   और सबकानशस  ’’ स्तर को ही अनुभूत कर पाए हैं जबकि आध्यात्मज्ञानी इसके आगे पराचेतना या ‘‘सुपरकानशश ’’ स्तरों  का अनुभव कर चुके हैं, जिन्हें क्रमशः  अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष के नाम दिये गये हैं। वेस्टजर्मनी की ‘‘माइक्रोवाइटा रिसर्च लेब’’ में ध्यानस्थ संन्यासियों के ऊपर किये गये प्रयोगों से यह प्रमाणित हो चुका है कि सामान्य अवस्था में मन अपनी ऊर्जा को विभिन्न दिशाओं में विकरित करता रहता है जैसा कि ‘‘फोटान,‘‘ परंतु जब विभिन्न दिशाओं में सक्रिय इस ऊर्जा को एकश्रोत्रीय अर्थात् ‘‘कोहेरेंट’’ बना दिया जाता है तो वह भी लेसर की तरह अत्यंत शक्तिशाली हो जाता है। इस संबंध में भारत के महान् दार्शनिक  और आध्यात्मिक गुरु युगपुरुष श्री श्री आनन्दमूर्तिजी   ने अनेक ‘‘डिमान्सट्रेशन्स  ’’ अपने शिष्यों पर ही दिखाये हैं। जीवन की उत्पत्ति का सूत्र उन्होंने ‘‘माइक्रोवाईटम’’ के नाम से संबोधित किया है जो इलेक्ट्रान के दस लाखवें भाग के बराबर बताया गया है, परंतु आधुनिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान को अखंड मानते हैं और उनकी इस बात को हंसी में उड़ा देते हैं।

आधुनिक विज्ञान में वर्णित ‘‘क्वार्क थ्योरी‘‘ की व्याख्या करने में इलेक्ट्रान को एक तिहाई और दो तिहाई द्रव्यमान के दो खंडों में मानने पर ही वह सिद्ध हो पाती है अन्यथा नहीं अतः आनन्दमूर्ति   जी का पूर्वोक्त कथन विश्वसनीय हो जाता है, कि इलेक्ट्रान खंडनीय है। पूर्वोक्त तथ्यों के आधार पर होमियोपैथी दवाओं का आधार, रासायनिक प्रतिक्रियाओं का नया स्वरूप, समुद्रों का परस्पर ब्लेंड होना, रेडियो एक्टिव वेस्ट से रिवर्सल प्रोसेस द्वारा रेडिएशन के संबंध में नए रहस्यों का पता लगाना, मानव मन के सामूहिक एकत्रीकरण से माइक्रोवाइटा पर नियंत्रण करना, आदि  अनेक तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया जा सकता  है। स्पष्ट है कि जैसा इलेक्ट्रानों के मेनीपुलेशन से आज अनेक आश्चर्यजनक भौतिक उपलब्धियों ने दुनियाॅं को अचंभे में डाल रखा है और दुनियाॅ ‘इलेक्ट्रानिक एज‘ कहलाती है, कालान्तर में माइक्रोवाइटा का मेनीपुलेशन कर, न केवल भौतिक वरन् मनोआत्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकेगा और वह युग ‘माइक्रोवाइटा एज‘ कहलायेगा। दुख तो यह है कि भारतीय दार्शनिक का यह उत्कृष्ट कार्य जबतक विदेशी  मुहर से प्रमाणित नहीं हो जाता, हम उस पर विचार ही नहीं करना चाहते हैं।
        उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि केवल पदार्थ और ऊर्जा ही परस्पर परिवर्तनीय नहीं हैं इनके साथ मानव मन भी समतुल्यता रखता है केवल हमें इस ओर गंभीरता से प्रयोग करने की आवश्यकता है। अतः आध्यात्म, विज्ञान की ही अगली सीढ़ी है, यह आडंबर और प्रदर्शनप्रिय व्यक्तियों ने विकृत कर दिया है इसलिए इसे विशुद्ध वैज्ञानिक तरीके से ही परखा जाए तो यह ज्ञान की पराकाष्ठा सिद्ध होगा।

Saturday 9 May 2015

8.3 योग, विज्ञान और आध्यात्म

8.3  योग, विज्ञान और आध्यात्म                            
भौतिक विज्ञान के इस युग में आध्यात्म को पृथक माना जाता है जबकि दोनों ही ज्ञान के विकास की क्रमागत अवस्थाएं हैं । मानव मस्तिष्क जो कि समस्त ज्ञान का संग्राहक होता है, वह स्वयं अपने आप में विशिष्ट वैज्ञानिक संरचनाओं का धारक होता है यह अलग बात है कि आज का विज्ञान उसे पूर्ण रूप से समझ ही नहीं पाया है। मस्तिष्क की सामान्य तंत्रिकाओं द्वारा पदार्थ का ज्ञान होता है, इसी ज्ञान के सहारे जब उसकी सूक्ष्म तंत्रिकाएं सक्रिय होने लगती हैं तो पदार्थ के भीतर के ज्ञान का सूत्रपात होता है अर्थात् एटम और इलेक्ट्रान तथा अन्य सूक्ष्म कणों संबंधी ज्ञान प्राप्त होता है जिसे प्रयोगशालाओं में उनके प्रभावों के अध्ययन के आधार पर ही समझा जाता है। इन सूक्ष्म कणों को आज तक किसी ने भी देखा नहीं है। वैज्ञानिकों का ही मानना है कि आइंस्टीन जैसे अत्युच्च कोटि के वैज्ञानिकों के भी केवल 8 से 10 प्रतिशत ‘ब्रेन सैल्स’ सक्रिय पाये गये हैं बाकी 90 प्रतिशत अक्रिय। मस्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म तंत्रिकाएं सक्रिय होने पर ही आगे के रहस्यों को जाना जा सकता है जो न केवल पारलौकिक जीवन और बृह्मांड के अन्य तथ्यों के साथ इस जीवन के घटकों का तारतम्य प्रकट करते हैं   वरन् स्वयं जीवन की उत्पत्ति  और विकास की तथाकथित विनाश  सहित व्याख्या भी करते हैं।  प्रश्न  यह है कि इस 90 प्रतिशत अक्रिय भाग को कैसे सक्रिय किया जाए? बस यहीं से आध्यात्म विज्ञान प्रारंभ होता है। जो लोग आध्यात्म को केवल कर्मकांड की प्रारंभिक गतिविधियों तक ही सीमित मानते हैं वह स्वयं को धोखा देने के साथ साथ पीछे आने वाली पीढ़ी के लिये भी दिग्भ्रमित करते हैं। सच्चाई यह है कि अत्यंत सूक्ष्म स्तर का चिन्तन मन को एकाग्र किये बिना संभव ही नहीं है और विज्ञान के इस युग में, जन सामान्य के लिये प्रारंभिक काल से ही प्रचलित   मन की एकाग्रता के लिये मनीषियों द्वारा  बताई  गई यह विधि  प्रासंगिक नहीं है। कर्मकांड को आय का श्रोत बनाकर मनोवैज्ञानिक ठगी करने वालों को अब चेत जाना चाहिए।
प्रकाश  है इसलिए हम देख पाते हैं परंतु प्रकाश  नहीं दिखता, ईश्वर है इसलिए हम हैं, परंतु ईश्वर दिखाई  नहीं देता। प्रकाश  में अनंत तरंग दैर्घ्य  हैं जिनके कुछ भाग पर ही हमारी आखें  संवेदनशील होतीं हैं और हम उन्हें रंग कहते हैं। ईश्वर भी अनंत तरंगदैर्घ्यों  वाला है, उसकी कुछ तरंगदैर्घ्यों  को हम विभिन्न जीवों सहित ब्रह्माण्ड की सभी ‘‘गैलेक्सीज़ और सोलर सिस्टम्स’’ के रूप में देखते हैं। ईश्वर इन्हीं तरंगदैर्घ्यों  की इकाइयों के अहंभाव में अर्थात् ‘‘एक्जिस्टेंशियल फीलिंग’’ में व्याप्त रहता है, इसीलिए उसका सर्वव्यापक स्वरूप प्रमाणित होता है। वह एक है परंतु अपनी इकाइयों में स्वयं को परावर्तित प्रतिविंव की तरह आभास कराता है, यही कारण है कि उपनिषदें उसे प्रकाश  स्वरूप कहतीं हैं ;परमात्मा जिसे सामान्यतः ईश्वर कहा जाता है, केवल साक्षी सत्ता है , ‘मन‘ जो भी कर्म करता  है उसका साक्ष्य देनेवाला। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, जैसे स्टेज पर कोई खेल हो रहा है तो प्रकाश  दिखलाता है कि खेल हो रहा है, यदि खेल नहीं हो रहा है तो भी प्रकाश  दिखलाता है कि कुछ नहीं हो रहा। प्रकाश  आत्मा है और स्टेज मन और कुछ नहीं। परमात्मा प्रकाश  श्रोत है और मन उससे निकल कर पृथक हुआ फोटान जो अपने को स्वतंत्र अस्तित्व मान वैठा है। आधुनिक भौतिक विज्ञान भी वर्षों पहले ‘‘मैटरवेव्ज’’ को प्रमाणित कर चुका है, इसका सीधा अर्थ यह है कि चाहे वह जड़ हो या चेतन प्रत्येक की अपनी अपनी मूल आवृत्ति अर्थात्,‘‘फंडामेंटल फ्रीक्वेंसी’’ होती है क्योंकि जहां तरंग है वहां उसकी कुछ न कुछ लंबाई अवश्य  होगी अतः उसकी आवृत्ति होना भी स्वयं सिद्ध है। आधुनिक उपकरणों द्वारा जिस ‘‘फ्रीक्वेंसी रेंज’’ को उत्पन्न करना और ग्राह्य करना संभव हो पाया है, उतने में ही आज के विद्वान आश्चर्यचकित हैं, जबकि इससे भी अधिक और कम आवृत्ति रेंज संभव हैं।

Friday 8 May 2015

8.25..योग

8.25..योग 
. आजकल लोगों को योग के संबंध में चर्चा करते बहुधा सुना जाता है, वे भी क्या करें उन्हें केवल यह बताया जाता है कि इस आसन से यह रोग ठीक हो जाता है और उससे वह। इसी के आकर्षण में कुछ आसनें  सीखकर योगी बन जाते  है, कभी कभी कोई प्रभाव न होने पर योग की आलोचना करने लगते हैं। ज्ञान की अपूर्णता अथवा त्रुटिपूर्ण ब्याख्या सदैव ही विवादों को जन्म देती है। इसीलिये कहा गया है कि ‘अ लिटिल नालेज इज द डेंजरस थिंग‘। अन्य धर्म या मतों के कुछ लोग योग पर अनावश्यक विवाद करते देखे गये हैं वह भी इसी का परिणाम है।  गीता में योग यथार्थतः आठ परतों का बताया गया है, यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। कुछलोग इसकी एक दो परतों को ही जानकर अपनी प्रकाण्डता का प्रदर्शन इस प्रकार करने लगते हैं कि वे स्वयं भटक जाते हैं और दूसरों को भी भटका कर समाज में अंधानुकरण के बीज बो जाते हैं जिससे समाज में विघटन होने लगता है और शांति छिन्न भिन्न होने लगती है।

वर्तमान में योग को केवल कुछ आसनों तक केन्द्रित कर रोगों को भगानें के साधनों के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जो आवश्यक नहीं कि सबके लिये समान रूप से लाभदायी हो। उपरोक्त क्रम के अनुसार जब तक यम और नियम का पालन नहीं होता है, आसन सिद्ध नहीं हो सकता। आसन सिद्ध होने पर ही वह पूरा परिणाम देता है अन्यथा नहीं। यम के पांच प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह, हैं तथा नियम के पांच प्रकार शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान हैं। सैकड़ों प्रकार के आसन हैं। प्राणायाम भी केवल एक ओर से सांस लेकर दूसरी ओर से छोड़ने का नाम नहीं। विभिन्न प्रकार के प्राणायामों  में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है बीजमंत्र की, जो योग सिद्ध व्यक्ति संबंधित के संस्कारों केा ध्यान में रखते हुए सिखाता है। इसी क्रम में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तक पहुंचने की क्रिया का नाम योग कहलाता है। भारतीय दर्शन में इसे मन को नियंत्रित करने , आत्मसाक्षात्कार करने और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि के रूप में स्वीकृत किया गया है। ‘‘योगः चित्तवृत्ति निरोधः‘’, ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्,‘‘ ‘‘सर्व चिन्ता परित्यागो निश्चिन्तो योगुच्यते,’’ तथा ‘‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः’’ आदि, योग की चार प्रकार की प्रमुख परिभाषाओं में पूर्वोक्त आठों परतों से प्रशिक्षित होते हुए मन के ही अनुभवों को व्यक्त किया गया है। इस विवरण से स्पष्ट है कि योग का पालन करना औेर कराना इतना सरल नहीं है, इसके लिये द्रढ़ संकल्प चाहिए अतः जिन्हें यह अच्छी तरह समझ में आ गया है वे इस विषय पर अनावश्यक विवाद नहीं करें और इसे पूर्णता से समझ कर अपना और समाज का अधिकतम कल्याण करें।

Thursday 7 May 2015

8.24..मन्त्र

8.24..मन्त्र

मंत्रों के संबंध में भी बड़ी ही भ्रान्तियां फैली हुई है। मंत्र की परिभाषा है ‘‘ मननात् तारयेत् यस्तु मंत्रः प्रर्कीिर्ततः‘‘ अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति मिले वह मंत्र कहलाता है। यह भी कहा गया है कि ‘‘अमंत्रमक्षरं नास्ति पत्रं नास्ति निरौषधम, अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः‘‘ अर्थात् कोई भी अक्षर ऐसा नहीं है जो मंत्र न हो, कोई भी पत्ता ऐंसा नहीं जो औषाधि न हो, कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं केवल पहचानने बाला ही दुर्लभ होता है। अतः वर्णमाला के 50 अक्षरों में सभी में मंत्रशक्ति है पर वह किस किस काम में लाई जा सकती है यह कौन जानता है? वैज्ञानिक सिद्धान्त भी यह कहते हैं कि प्रत्येक अक्षर की निर्धारित आवृत्ति होती है और प्रत्येक वस्तु की भी निर्धारित आवृत्ति होती है अतः उच्चारण की शुद्धता द्वारा अक्षरों अर्थात् मंत्रों, की सहायता से संबंधित बस्तुओं और व्यक्तियों को न केवल नियंत्रित किया जा सकता है वरन् उनकी आंतरिक संरचना और गुणधर्मों के संबंध में भी जाना जा सकता है। आप स्वयं देखें और विचार करें कि चाहे कोई स्वयं तथाकथित पूजा पाठ करे या तथाकथित पंडित से कराये, यदि किसी को भी मंत्र की आवृत्तियेां के बारे में कोई ज्ञान नहीं है तो उनके उस पूजा करने का क्या कोई फल प्राप्त होगा? यही कारण है कि विना आवृत्तियों के सही सही उच्चारण किये जो भी काम किये जाते हैं वे फलित नहीं होते, फिर भी सभी लोग आडंबर के वशीभूत होकर अपने अपने विश्वास के आधार पर यह कार्य जारी रखे हुए हैं। सच्चाई यही है कि जानकार व्यक्ति नहीं है, जो सच्चाई के साथ बताना भी चाहे तो लोग उसे सुनना ही नहीं चाहते क्याकि वे तो केवल वाह्य प्रदर्शन को ही महत्व देने बाले होते हैं और समय की कमी का बहाना बनाकर फार्मेलिटि निभाने में ही विश्वास करते हैं। ये व्यक्ति न केवल अपनी अधोगति करते हैं वरन् अपने से जुड़े सभी को पतन की और धकेलने के दोषी हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि मनुष्य को मन होने के कारण ही मनुष्य कहा जाता है और वह इस मन की माया में ही उत्तरोत्तर उच्च आवृ्त्तियों पर कार्य करते रहने में आनंदित होता है। ये उच्च आवृत्तियां काममय और मनोमय कोष तक ही फैली रहती हैं, ज्योंही  उन आवृत्तियों को घटाने का अभ्यास किया जाता है, यही मन, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष की ओर जाने लगता है जिनमें सर्वज्ञता का खजाना छिपा रहता है पर इन कम आवृत्तियों पर अधिक देर तक रुके रहना बड़ा ही कठिन होता है अतः अधिकांश  लोग प्रारंभिक अवस्था में ही इन्हें कष्टदायी मानकर त्याग देते हैं और अपने उस प्रदर्शनकारी आरती चंदन और स्तुति आदि में ही संतुष्ठ होकर संसार का राज्य प्राप्त कर लेने का दंभ भरते हैं । स्पष्ट है कि सभी जागरूक व्यक्तियों को चाहिये कि वे इस मंत्र विज्ञान के जानकार सही  व्यक्ति के पास जाकर अपनी मूल आवृत्ति की पहचान कर लें और निर्देशानुसार मनन का अभ्यास करते हुए अतिमानस , विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष की ओर अपने मन की गति को बढ़ाते जाकर उसे स्थिर करें जिससे उसमें वांछित आवृत्ति को उत्पन्न करने और ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो सके। यह प्राप्त हो जाने पर फिर कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं होगा। ध्यान रहे यही जानकार व्यक्ति  पंडित कहलाने की पात्रता रखता है अन्य नहीं।

Wednesday 6 May 2015

8.23... स्वप्न विज्ञान

8.23... स्वप्न विज्ञान
स्वप्नों के बारे में भी लोगों को बहुत ही भ्राॅंतियां हैं। आइये इनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या की जाय। सुसुप्तावस्था में जब काममय कोष या मनोमय कोष कुछ भी काम नहीं करते हैं तो किसी प्रकार का स्वप्न दिखाई नहीं पड़ता। जाग्रत अवस्था में काममय और मनोमय दोनों ही कोष काम करते हैं अतः मनोमय कोष के माध्यम से उसका क्रियान्वयन होता है। किन्तु स्वप्नावस्था में मनोमय कोष शारीरिक जड़ता के कारण काममय कोष का ठीक ढंग से नियंत्रण नहीं कर सकता  है इसलिये वहां मनोमय कोष ही प्रधान है।

सुसुप्तावस्था में दैहिक जड़ता के साथसाथ चिन्ता करने की शक्ति भी अर्थात् मनोमय कोष भी निष्क्रिय हो जाता है केवल कारण मन अर्थात् अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष रह जाते हैं। अब प्रश्न  उठता है कि स्वप्न कैसे उत्पन्न होता है? सच्चाई यह है कि विशेष विशेष इन्द्रिय द्वारा प्राप्त किया गया भाव जब काममय कोष को आन्दोलित कर देता है अथवा काममय कोष में इन्द्रियात्मक  या जड़ात्मक किसी भावधारा के उग्र भाव से उठने पर उस समय काममय कोष का तथा मन का स्थूल आधार, स्नायु पुंज चंचल हो उठता है तथा स्नायु कोष में उस चंचलता की छाप (impression) बन जाती है, तो यह छाप अपने गुरुत्व के अनुसार कभी अल्पस्थायी, कभी दीर्घ स्थायी होती है। गुरुत्वपूर्ण छाप भी कभी कभी विरुद्ध धर्मी आन्दोलन या चंचलता के प्रभाव से, या उससे उत्पन्न नवीन छाप को ग्रहण करने के लिये वाध्य हो जाती है और पूर्वग्रहीत छाप का दीर्घ स्थायित्व नष्ट हो जाता है। निद्रित अवस्था में यदि किसी के शारीरिक कारणों से स्नायुतंतु चंचल हो जाते हैं और उसके फलस्वरूप अथवा उग्र भाव से चिन्ता करने के करण मस्तिष्क में उत्पन्न ताप के कारण भी स्नायु कोष में चंचलता आ जाती है। यह चंचलता स्नायुकोष में संचित छाप के ही अनुरूप मानस भूमि में वृत्ति उत्पन्न करती है। इस तरह आन्दोलित मनोमय कोष उस समय एकाधिक छाप से उत्पन्न कल्पनाधारा को सत्य मान कर ग्रहण करता है। स्थूल इंद्रियाँ  का काम बंद होने के फलस्वरूप पूर्व ग्रहीत वृत्तियों से उत्पन्न आकारों को काल्पनिक न समझकर वास्तविक मानतीं हैं। ऐंसा स्वप्न अधिकांशतः मिथ्या होता है क्योंकि  ये केवल विछिन्न कल्पनाओं का संग्रहण ही होती हैं।

      मस्तिष्क के रोगग्रस्त होने पर अथवा बहुत दिनों तक रोगी रहने के कारण जिनके स्नायुतन्तु दुर्बल हो गये हैं या जिनके पाक यंत्र दुर्बल हो गये हैं वे ही साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। स्पष्ट है कि ये स्वप्न पूर्व चिन्तित विषयों या चिन्ता समूह की यथायथ अथवा विच्छिन्न अभिव्यक्तियां हैं। अतिभोजन के कारण भी बहुत से लोग इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। जिनकी चिन्ता पवित्र रहती है जिनके विचार पवित्र रहते हैं और भोजन में भी संयम रहता है उन्हें साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न कम दिखते हैं। इस प्रकार का स्वप्न कभी भी गंभीर निद्रावस्था में नहीं आता है।
      जब मनुष्य घोर निद्रा में रहता है, उस समय भी उसके मनोमय कोष में बड़ी विपत्ति, सुसंवाद या दुःसंवाद स्वप्न रूप में उदित होता है। सर्वज्ञ कारण मन, काम मय और मनोमय कोषों की चंचलता के कारण तथा अपनी अभिव्यक्तिगत अक्षमता के कारण उस सर्वज्ञता को प्रकाशित नहीं कर पाता। परंतु जिन विशेष भावों से वह व्यक्ति लिप्त रहा है या हो सकता है, उन्हें यह ‘कारणमन‘ (causal mind) घोर निद्रा में पड़े मनुष्य के शान्त मनोमय या काममय कोष में जाग्रत कर सकता है। ‘कारणमन‘ के द्वारा ज्राग्रत यह स्पन्दनधारा जब मनोमय कोष को स्पन्दित कर देती है तो वह भी एक स्वप्न ही होता है और वह निरर्थक नहीं होता क्योंकि उसका प्रेरक सर्वज्ञ ‘कारणमन‘ है। कभी कभी जाग्रत अवस्था में भी मानसिक एकाग्रता करने पर कारणमन का ज्ञान प्रवाह ‘सूक्ष्ममन‘ (subconscious mind) में प्रवाहित होने लगता है अतः बैठे बैठे दूर दूर के प्रिय जनों की घटनाओं को भी जाना जा सकता है। इसे ( telepathic vision ) टेलीपैथिक विजन कहा जाता है। इस प्रकार के लगाातार द्रढ़ अभ्यास से जब स्थूल मन अधिकाधिक स्थिर भाव प्राप्त करता है वह दूरस्थ अपने प्रियजन से संबंधित घटनाओं को आॅंखों के सामने बाह्य जगत में भी देख सकता है। उसे टेलीपैथिक क्लेयरवोयेंस (telepathic clairvoyance ) कहतेे हैं। कुछ लोग इसे प्रेतात्मा की क्रिया समझकर प्रेतों की मान्यता दे बैठते हैं। भूत प्रेत में विश्वाश  करना प्रागैतिहासिक मानवों की भीरु मानसिकता का ही समर्थन करने के सिवा कुछ नहीं है। इस प्रकार के ज्ञानज स्वप्न के संबंध में बहुत बार मनुष्य अपने संस्कारों के कारण विषय की सही सही जानकारी नहीं दे पाता। अतः स्वप्न के माध्यम से सत्य जानने के लिये मनुष्य को मनोमय और काममय कोष के ऊपर  कुछ अधिक परिमाण में अधिकार रखने की आवश्यकता होती है। जिन्होंने मनोमय और काममय कोष के ऊपर साधना के द्वारा नियंत्रण पा लिया है वे जाग्रद अवस्था में भी अतीत, वर्तमान और भविष्य का चित्र अल्प चेष्टा से देख सकते हैं। ध्यान योग में ऋषियों मुनियों को दिव्यदर्शन या दूरदर्शन  इसी प्रकार होता है। स्फटिक दर्शन , नखदर्पण, मुकुर दर्शन  आदि। 

Tuesday 5 May 2015

8.22 ध्वन्यात्मक विज्ञान :(Acoustic Science):

8.22 ध्वन्यात्मक विज्ञान :(Acoustic Science):

 आज विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि भौतिक जगत की प्रत्येक वस्तु की अपनी अपनी आस्तित्विक आवृत्ति अर्थात् (Existential Fundamental Frequency) होती है। अतः उनका रंग यानी (wavelength)  और ध्वनि यानी (sound)  भी होती है। यह अलग बात है कि हम उसे देख या सुन नहीं पाते, क्योंकि  हमारी यह क्षमतायें सीमित हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनका अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि वे हमारे लिये  वोधगम्य नहीं हैं। अनेक प्राणी जैसे कुत्ते, शेर, चमगीदड़ आदि की घ्राण और श्रवण शक्ति मनुष्य से अधिक है। यथार्थतः प्रत्येक एक्सप्रेशन(expression)  की अपनी ध्वनि होती है और सभी ध्वनियों का एकीकृत स्वरूप औंकार ध्वनि (Cosmic Sound) के रूप में प्राप्त होता है। इस ध्वनि को भी अ, उ, और म इन तीन अक्षरों को उच्चारित करने से बननें बाली ध्वनि का संयुक्त स्वरूप माना जाता है जो क्रमशः  उत्पत्ति, स्थिति और लय का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह किसी विशेष कंपन से उत्पन्न ध्वनि को उसकी मूल ‘ध्वनि‘ (acoustic root)  कहते हैं। तथाकथित देवी देवताओं की संकल्पना भी इन्हीं  एकास्कि रूट्स पर आधारित है जो कि यथार्थतः उस परम सत्ता से ही निकलती हैं और प्रत्येक दिशा  में प्रवाहित होती रहती हैं। यदि इस ओम ध्वनि को विश्लेषित किया जाता है तो हम 50 मूल ध्वनियां (fundamental frequencies) पाते हैं। ये मूल ध्वनियां ‘‘समय‘‘ के व्यापक वर्णक्रम में व्याप्त होती हैं ।
परंतु समय क्या है? समय, किसी क्रिया की गतिशीलता का मानसिक माप है। समय अक्षत प्रवाह नहीं है, वह असंयुक्त खंडों का क्रमागत समूह होता है जो परस्पर इतने निकट होते हैं कि वह एक अविभक्त इकाई की तरह अनुभूत होता है। फिर भी ये 50 प्रथक प्रथक ध्वनियां इस तथाकथित ‘‘समय‘‘ अर्थात् (temporal factor) में ही अस्तित्व पाती हैं। ये अ आ इ ई उ ऊ.........क्ष त्र ज्ञ हैं। इसे आप वर्णमाला के नाम से या अक्षमाला के नाम से जानते हैं अर्थात् 50 अक्षरों की या रंगों की माला। यह यों  ही नहीं कहलाती है, इसके पीछे पूर्वोक्त ध्वन्यात्मक विज्ञान(Acoustic Science) छिपी हुई है।
     अब थोड़ा इस ओम अक्षर की आध्यात्मिक विज्ञान (Spiritual Science) के आधार पर व्याख्या की जाय। प्रकृति के संयोग से पुरुष के जो तीन प्रकार के भाव या अवस्थाओं की सृष्टि होती है उन्हीं को त्रिपुर कहा जाता है। जीवभाव में यह त्रिपुर उसकी जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति अवस्थाएॅं हैं। इन तीनों  भावों से बाहर जो साक्षी स्वरूप सत्ता हैं वे ही आत्मा या पुरुष हैं। यह विचित्र जगत अर्थात् दृष्यमान जगत पुरत्रयात्मक भाव लेकर ही खड़ा है और जीवों के बीच काम करता चलता है। जीवों का भोग्य यही विराट पुरत्रययुक्त जगत् है जो क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव नाम से प्रसिद्ध है। उनकी सृष्टि परम पुरुष की कल्पना से हुई है, उन्हीं के सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणात्मक अभिमान के फलस्वरूप। इन तीनों अवस्थाओं का जो आधार है उसी को चतुर्थ पुर कहते हैं। यह चतुर्थपुर त्रिगुणातीत है। इसीलिये इसकी सत्ता देश , काल और पात्र के परिमाप के बाहर है, त्रिपुर के उर्ध्व  है। इसी चतुर्थ अवस्था को निर्गुण, कैवल्य या तुरीय अवस्था कहा जाता है। अणु जीव का संस्कार जब तक बाकी रहता है तब तक वह भोग के लिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों  पुरों में विचरण करता है और साधना के द्वारा जब संस्कारों से मुक्त हो जाता है तब वह त्रिपुर से बाहर तुरीयपद, परम पद में समाहित हो जाता है। ऊॅं, या प्रणव या ओंकार चार वर्णों से युक्त मंत्र है। वे हैं अ, उ, म, और नाद विंदु। यही नाद विंदु चतुर्थ अवस्था अर्थात् निर्गुण सत्ता का द्योतक है। इसमें सत्व, रज या तम का कोई भी गुण स्फुट अवस्था में नहीं है। जीव भाव का ‘अ‘ सत्वगुण प्राधान्य का द्योतक और जाग्रद अवस्था का सूचक है। ‘उ‘ रजोगुण प्राधान्य का द्योतक और स्वप्नावस्थाका सूचक है। ‘म‘ तमो गुणप्राधान्य का द्योतक और सुषुप्तावस्था का सूचक है। सगुण ब्रह्म में अ,उ,म यथाक्रम से क्षीराब्धि, गार्भोदक और कारणार्णव का सूचक हैं। विन्दु चतुर्थ व तुरीय अवस्था का द्योतक तथा निर्गुण ब्रह्म का सूचक है। गणित में विन्दु को पारिभाषित किया गया है कि उसकी स्थिति होती है परंतु माप नहीं। निर्गुण ब्रह्म के संबंध में हम लोग कुछ न तो कह सकते हैं और न ही सोच सकते हैं। केवल समझाने  के लिये  विन्दु का व्यवहार किया गया है। निर्गुण ब्रह्म वाचक विन्दु ( . ) और सगुण ब्रह्म वाचक ओम  तथा बीच में लगाया गया चिन्ह (चन्द्राकार   ॅ ) अव्यक्ता प्रकृति की व्यक्तावस्था में परिणति का ज्ञापक है।

     जीव में जाग्रद अवस्था के अभिमानी पुरुष को विश्व  (दार्शनिक  शब्द) व विषयी पुरुष कहा जाता है। सर्व इंद्रियों के द्वारा विषयभोग जाग्रद अवस्था में ही सम्भव होने के कारण इस अवस्था के पुरुष को विषयी पुरुष कहते हैं। जीव भाव में स्वप्नावस्था के अभिमानी पुरुष को ‘तेजस‘ और सुषुप्ति के अभिमानी पुरुष को ‘प्राज्ञ‘ कहते हैं। सगुण ब्रह्म की क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था के अभिमानी पुरुष को क्रमशः  विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर  (दार्शनिक  शब्द) कहते हैं। अतएव हम देखते हैं कि ‘अ‘ विश्व  और विराट का बीजाक्षर है, ‘उ‘ तेजस और हिरण्यगर्भ का और ‘म‘ प्राज्ञ तथा ईश्वर  का बीजाक्षर है। तुरीय अवस्था में जीवभाव और ब्रह्म भाव में कोई भेद नहीं है क्यों कि उस अवस्था में ‘‘मैं हूॅं बोध‘‘ नहीं है। इसलिये इस अवस्था में कोई बीजाक्षर भी नहीं है। क्योंकि बीज, उत्पत्ति के कारण को कहते हैं अतः जहां उत्पत्ति, अनुत्पत्ति, सृष्टि, स्थिति और लय का कोई प्रश्न  ही पैदा नहीं होता वहां बीज का प्रश्न  भी पैदा नहीं होता। तुरीयावस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों  एक ही हो जाते हैं इसीलिये इसका वाचक नाद विंदु है। उसी परम पद को ईश्वरग्रास कहते हैं अर्थात् उसमें ईश्वर  भी ग्रस्त हो जाता है। यह पुरत्रय निर्गुण में ही लीन हो जाता है अतः इसका नाम ईश्वरग्रास  रखना अत्यंन्त समीचीन है।


   उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि प्रणव और उसके पीछे क्या विज्ञान है। परंतु क्या आप जिन्हें तथाकथित पंडितजी की उपाधि देकर अपनें सभी शुभकार्यों में उनकी उपस्थिति से धन्य हो जाते हैं  वे जब अपने कर्मकांडीय प्रदर्शनों  में ‘‘औंम‘‘ ‘‘औंम‘‘ आदि की रट लगाकर वातावरण गुंजायमान करते हैं तब उनकी मानसिकता और उच्चारण ओंकार की सही सही मूल आवृत्ति को पकड़ पाते हैं या नहीं? वे यह अनुभव कर सकते हैं या नहीं? आपने यह भी अब तक समझ ही लिया होगा कि ‘प्रणव‘ ध्वनि वास्तव में उच्चारण करनें के लिये है ही नहीं, वह तो अनुभव करने के लिये है। वह किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की जाती वरन् वह तो सृष्टि के प्रारंभ से ही पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है और पूर्वोक्त 50 अक्षरों के संयुक्त स्वर को प्रकट करती है जो किसी भी मनुष्य के गले से उच्चारित नहीं की जा सकती। दुख तो यह है कि इस सच्चाई को कोई जानना ही नहीं चाहता, सच्चाई से स्वयं भी दूर रहता है और अपने शब्दाडंबर से दूसरों को भी दूर ही रखना चाहता है। मनुष्य देह पाने का वे अर्थ नहीं जानते वे केवल इसे उपभोग की वस्तु के रूप में ही मान्यता देते है। वे नहीं जानते कि यह अमूल्य और दुर्लभ प्रयोगशाला  अपनी मूल आवृत्ति अथवा वेवलेंग्थ को पहचानकर उस परम पुरुष की मूल आवृत्ति या वेवलेंग्थ  के साथ अनुनाद स्थापित करने के लिये प्राप्त हुई है। वे नहीं जानते कि हमारे पितृपुरुष कह गये है कि उठो जागो और वरिष्ठ जानकार व्यक्ति के पास जाकर अनुरोध पूर्वक यह रहस्य जान लो कि मैं कौन हूॅं , कहाॅं से आया हूं , कहाॅं जाऊंगा। वे ‘‘उत्तिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरान्निबोधत्‘‘  उपनिषद वाक्य को सुनते ही नहीं फिर समझने का तो प्रश्न  ही नहीं उठता।

Monday 4 May 2015

8.21.. नवदुर्गा और नवपत्रिका

8.21.. नवदुर्गा और नवपत्रिका 
  प्रागैतिहासिक युग के लोग फार्मेकोलाजी से अपरिचित थे अतः वे पेड़ पौधों को सीधे ही रोगों को दूर करने में प्रयुक्त करते थे। उन दिनों विशेषतः भारत में लोग नौ प्रकार के पैड़ पौधों के संपर्क में आये जो दवाओं या भोजन के रूप में अत्यंन्त लाभदायी थे। वे उन्हें जीवनदायी मानकर उन्हें अत्यधिक आदर के साथ पालते और रक्षा करते। उन्हें नष्ट होने से बचाने के उद्देश्य  से उनमें देवी देवताओं का स्वरूप दे दिया गया जिसका परिणाम अन्धानुकरण और आडम्बर के रूप में आज तक दिखाई दे रहा है। ये नौ पौधे जिनमें भारत के लोगों ने विशेष औषधीय गुण पाये, वे हैं, कदली (plantain), कचु अर्थात् अरबी अरुम, हरिद्रा (turmeric), जयंती, अशोक, विल्व, दाडि़म्ब अर्थात् अनार (pomegrenete), मान अर्थात् कन्द और धान्य अर्थात् (paddy),।
अब देखिये, कदली एक अच्छा न्युट्रिशियस भोजन है और एक दिन के अंतर से आने वाले ज्वर के लिये बढि़या औषधि है, इसके अलावा वह पेंक्रियाज और किडनी के लिये अच्छी तरह क्रियाशील बनाये रखने में भी सहायक है। वह डिसेंट्री के लिये औषधि है ही। उन माताओं के लिये यह अच्छा भेाजन है जिनके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते हैं। उन बच्चों के लिये जिनकी माॅं की मृत्यु हो जाने के कारण दूध के न मिल पाने से रिकेट्स की बीमारी हो जाती है, यह काले चिट्टे वाले अधिक पके केले के रूप में खिलाये जाने पर रामवाण औषधि है। इतना ही नहीं यह, वे बछड़े जिनकी माॅं मर गयी हो उनको अधिक पके  केले और सत्तू के एक अनुपात दो के अनुपात में पेस्ट के रूप में खिलाने पर स्वस्थ हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कदली में अनेक जीवनदायी गुणों के कारण लोगों ने उसे देवता की तरह आदर देना प्रारंभ किया।
दूसरा है कचु या अरबी अर्थात् अरुम, इसकी भोजन के रूप में कम उपयोगिता है परंतु किडनी के लिये यह बहुत ही उपयोगी है।
तीसरा है हरिद्रा अर्थात् टर्मेरिक, यह एन्टीसेप्टिक होती है और अच्छा मसाला भी है। भोजन में प्रयुक्त होने वाली हल्दी धूप में सुखाई गई होती है, सीधे खेत से लाई गई हरी हल्दी विषैली होती है अधिक उपयोग करने पर मृत्यु भी हो सकती है, परंतु ऐंटीसेप्टिक है वह खून को साफ करती है तथा त्वचा के रोगों को दूर करती है। जब किसी के घर कोई्र बड़ा समारोह आयोजित होता है तो आज भी एकत्रित होने वाली महिलाओं में हल्दी का उबटन लगाने की प्रथा है खास तौर पर विवाह के अवसरों पर, क्योंकि  अनेक स्थानों के व्यक्ति एकत्रित होने से इन्फेक्शस डिजीज होने की संभावना रहती है।
अगला है जयन्ती, इसकी जड़ों में औषधीय गुण अधिक होते हैं, यह श्वेत कुष्ठ के लिये सही दवा है। यथार्थतः यह सात प्रकार के त्वचीय रोगों में से चार प्रकार के लिये अधिक उपयोगी है।
इसके बाद है अशोक, अर्थात् सीता अशोक, केवल अशोक का अर्थ है देवदारु। सीता अशोक में ही औषधीय गुण पाये जाते हैं। यह सभी प्रकार के स्त्री रोगों की आदर्श  औषधि है।
अगला है विल्व, अर्थात् बेल का फल। बिना पका बेल हर प्रकार के पेट रोग की दवा है। कच्चे बेल फल को भूंन कर खाना चाहिये। बिल का अर्थ है सूक्ष्म छिद्र अतः विल्व का अर्थ है ‘वह जो छोटे से छोटे छिद्र में प्रवेश  कर पेट को अधिकतम लाभ पहुंचाता है‘। इसकी असाधारण क्वालिटीज के कारण इसे  श्रीफल भी कहते है जिसका मतलब है उत्तम गुणों वाला फल।
दाडि़म्ब की छाल, जड़ें और फल सभी महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों की अच्छी दवा है। चीन और भारत की आयुर्वेदिक पद्धतियों में दाडि़म्ब के ये गुण मान्यता प्राप्त हैं।
अगला है मान अर्थात् कंन्द, जो मनुष्य के शरीर में मास बढ़ाने बाले सभी प्रकार के स्टार्ची खाद्य पदार्थों में अतुलनीय है। यह आलु अथवा कटहल के बीजों की तुलना में अधिक अच्छा है। कटहल के बीज आलु से ढाई गुने अच्छे हैं। भारत में आलु के आने के पहले यहाॅं इन्हीं बीजों का उपयोग करते थे, मान इन बीजों से भी अधिक मूल्य रखता है। इसके अलावा मान के द्वारा मानव शरीर पर ठंडा प्रभाव डाला जाता है। गर्मी के समय यह अच्छी दवा है, जब शरीर गर्मी से प्रभावित होकर नाक से खून बहाने लगता है तो यह औषधि और भोजन दोनों की तरह काम में लाया जाता है।
अगला है धान्य अर्थात् पैडी जिसके अनेक उपयोग हैं, सबसे सरल तो यह है कि इससे अल्कोहल बनाया जाता है जो अनेक प्रकार की दवायें बनानें के काम आता है।
    इन नौ प्रकार के पौधों के विशेष गुणों के कारण ही उनमें लोगों ने अपना पूज्य भाव स्थापित किया और पौराणिक काल में उनमें नौ प्रकार की चंडिका शक्ति के वास स्थान होने की कल्पना की गई,  जैसे,  कदली में ब्राह्मणी, अरुम में कालिका, हरिद्रा में दुर्गा, जयंति में कार्तिकी, अशोक में शोकरहिता, विल्व में शिव, दाडिंब में रक्तदन्तिका, मान में चामुंडा, और धान्य में लक्ष्मी। आज भी यदि किसी के पैर भूल से चावल के दानों से छू जावें तो वह फौरन ‘‘ओ माता लक्ष्मी‘‘ कह कर क्षमा मागते हुए प्रणाम करने लगता है। इस प्रकार का सोच उस समय लोगों का था। अभी भी देवी शक्तियों को लोग संयुक्त रूप से उसी प्रकार इन पौधों में होने की मान्यता देते हैं और नवदुर्गा का नाम देकर पूजते हैं अर्थात् अगरबत्ती लगाकर घी के दीपक जलाकर आरती उतारते हैं और चंदन का तिलक लगाते हैं और उन पौधों को संयुक्त रूप में नव पत्रिका का नाम देते हैं।
सोचिये, पौधों की पूजा उन्हें पालने, पानी, खाद और अन्य पोषक तत्वों से उनका संवर्धन करने में होता है या केवल आरती और चंदन या अगरबत्ती से। बस, यहीं से अन्धानुकरण और आडंबर ने जन्म लिया और बढ़ता ही जा रहा है।

Sunday 3 May 2015

8.2 धर्मान्धता और वैज्ञानिकता

8.2  धर्मान्धता और वैज्ञानिकता
सभ्यता के प्रारंभिक काल में प्रकृति पूजा या जड़ोपासना का प्रचलन था। पहाड़ नदी, वृक्ष लता, वन समुद्र, ऊषा, संन्ध्या, या वज्र, विद्युत आदि की उपासना करनें पर जब मनुष्य की भूख नहीं मिटी तब उच्च ज्ञान प्राप्त व्यक्ति या शक्तिशाली व्यक्ति को अपने आराध्य के रूप में ग्रहण किया गया। खंड के ऊपर पूर्ण ब्रह्मत्व का आरोप कर एक प्रकार के अवतारवाद की सृष्टि हुई और परंपरागत भाव से धर्म के नाम पर मनुष्य समाज में यह अवतारवाद चलता रहा। किन्तु मनुष्य के प्राणों की क्षुधा अनंत है। ज्ञान मंदिर में, स्वरूप में, प्रतिष्ठित होने की इच्छा उसे धीरे धीरे दार्शनिकता  के पथ पर ले गई। इसी दार्शनिक  ज्ञानचर्चा के फलस्वरूप उसकी विचारधाराओं ने भी धीरे धीरे मोड़ लिया। साधारण मनुष्य गूढ़ ब्रह्मतत्व को सहज ही समझ सकने में समर्थ नहीं हो सके, इसलिये जप यज्ञादि बर्हिमुखी क्रियाकलाप को धर्मसाधना समझ कर उन्होंने उसे जकड़ रखने  का प्रयत्न किया। सामान्य जनता श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा स्थापित किये गये रास्ते का ही अनुसरण करती है अतः समय समय पर पथ और पथप्रदर्शक  बदलते रहे और अब तो उनकी संख्या गिनना भी कठिन हो गया है। यह विश्व  ब्रह्माण्ड ब्रह्म का मानसिक विकास है। कल्पना मात्र ही अस्थिर और गतिशील है, इसीलिये सगुण ब्रह्म का मानसिक विकास यह जगत भी अस्थिर और चंचल है। आज जो अति सुन्दर है वह कल वैसा ही रहेगा, ऐंसा नहीं कहा जा सकता। आज जो मिठाई खाने में सुस्वादु है कुछ दिन बाद वह खाने योग्य नहीं रहेगी उसका रूप भी वैसा नहीं रहेगा। स्पष्ट है कि प्रत्येक खंड वस्तु परिवर्तनशील है और इसी कारण खंड का आनन्द शाश्वत  नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक खंड वस्तु में ही ईश्वरीय भावना भरना पड़ेगी क्योंकि सब कुछ तो परमात्मा का ही विकास है। परंतु यह क्या इतना सरल है?
धर्म का अर्थ है आभ्यान्तरिक लक्षण, और मानव का अनिवार्य आभ्यान्तरिक लक्षण है सद्गुणों के साथ साधना द्वारा उस परम तत्व को प्राप्त करने की भूख। अतः तत्व ज्ञान यह है कि जड़ की उपासना जड़ की ओर ही ले जाती है। परंतु मनुष्य, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जड़ के त्याग करने की बात तो दूर रही जड़ को पाने की चेष्टा का भी त्याग नहीं कर सकता। किन्तु भोजन, वस्त्र या अन्य शारीरिक आववश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर भी तो मनुष्य के प्राणों की भूख नहीं मिटती है। जिन्होंने साधना कर आत्म तत्व का अनुसंधान किया और अपने स्वरूप को जाना उन्होंने जनसाधारण के कल्याण के लिये अपने अनुभवों को सरल रूप में  प्रस्तुत कर अपेक्षा की कि धीरे धीरे ये अपने लक्ष्य की ओर अवश्य  बढ़ेंगे, पर स्वार्थ और निर्विवेकी अन्धानुकरण करने के कारण वे भटकते गये और धर्मान्धता और धर्म के नाम पर शोषण जैसे विध्वंसक कारनामों से मानवता कराह उठी है। सत्य को जानने की जिज्ञासा ही समाप्त प्राय है क्योंकि सत्य की परिभाषा ही सुविधानुसार बदली जाने लगी । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जिनसे इस कथन की प्रामाणिकता सिद्ध हो सकेगी।

Friday 1 May 2015

(द) भगवान शिव, कृष्ण और आनन्दमूर्ति :

(द) भगवान शिव, कृष्ण और आनन्दमूर्ति :
   हजारों वर्ष पुरानी मानव सभ्यता में जब जब भी जटिलता और दिशा हीनता आई वहीं निर्पेक्ष परम सत्ता सगुण रूपमें आकर मनुष्यों को सही दिशा  दिखाती रही है। भगवान सदाशिव आज से सात हजार वर्ष पहले तारक ब्रह्म के रूपमें आये और मानव सभ्यता में पनप रही विद्रूपता और शोषण को तात्कालिक आवश्यकता के अनुसार बल , बुद्धि और विवेक के अनुसार नई दिशा  दी। विशेष व्यवस्था के अनुसार जीवन यापन करने अर्थात् ‘‘विवाह‘‘ नामक सामाजिक व्यवस्था उन्होंने ही स्थापित की। अलग अलग लोगों के अलग अलग कौशल को मान्यता देकर किसी को कृषि कार्य में, किसी को पशुपलन में, किसी को व्यवसाय में , किसी को रक्षा कार्य में, किसी को बौद्धिक कार्यों में प्रशिक्षित कर समाज सेवा में आगे बढ़ने की शिक्षा दी। इतना ही नहीं मानव स्वभाव के मनोवैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन कर तन्त्रविज्ञान, वैद्यकशास्त्र, संगीत  और भवन निर्माण कला में विशेष योग्यता देकर क्रमशः  भैरव, धनवन्तरी, भरत मुनि और विश्वकर्मा को प्रशिक्षित कर सारे विश्व  को सिखाने का दायित्व सौंपा। अलग अलग मतों और संकीर्ण विचारों में अपने अपने को श्रेष्ठ करने में संघर्षरत तत्कालीन आर्य, मंगोल और द्रविड़ तीनों को एकीकृत करने का कार्य उन्होंने ही किया। उनकी विशेषता यह थी कि वे जनजन में इतने लोकप्रिय थे कि सब उन्हें अपना निकटतम संबंधी , अत्यंत हितैषी और संरक्षक, हर समस्या का तत्काल समाधान करने वाला, मानकर पूजने लगे। इसके बाद आज तक हजारों मतों और संप्रदायों का समाज में आगमन हुआ पर शिव को अलग करने का किसी का साहस नहीं हुआ। यही उनकी महानता का परिचय है, वे महासंभूति थे। आज, लोग उनके इन कार्यों को भूल कर केवल उनकी मूर्ति बनाकर पानी, धतूरे और अन्य विषैले पदार्थ चढ़़ा कर अपनी भक्ति प्रदर्शित  करते हैं और उनके द्वारा सिखाई गई तान्त्रिक साधना पद्धति को भूलचुके हैं, कितनी मूर्खता है।
    इसी क्रम में आज से तीन हजार पाॅंचसौ वर्ष पहले महासंभूति कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। उनके कार्यों से सभी परिचित हैं। तात्कालिक समाज में स्वार्थ और अहंकार का साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में , समग्र विश्व  में फैलकर मानवता को जड़ से समाप्त करने तुला था। कृष्ण ने मानव सभ्यता की रक्षा के लिये सभी को एकीकृत कर महाभारत बनाया और छल बल कौशल तीनों की जहाॅं जितनी आवश्यकता हुई उनका उपयोग किया। कर्म करो और फल की इच्छा का त्याग करो यही उनका मूल मंत्र था। आघ्यात्मिक उन्नति के लिये अष्टाॅंग योग का नये ढंग से प्रतिपादन किया और बतलाया कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न की जा सकती है अन्य सब तो केवल आडम्बर है। भगवान कृष्ण के ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय ने समाज को आत्मोन्नति के लिये नया रास्ता दिखाया और वे महासंभूति के साक्षात स्वरूप कहलाये। पर आज लोगों ने उन्हें क्या से क्या बना दिया और उपासना पद्धतियों में भी मनमाना परिवर्तन कर दिया और चाहने लगे कि कृष्ण उन्हें मोक्ष दे देंगे। कितना आश्चर्य  है। भगवान सदाशिव और कृष्ण के संबंध में विस्तार से अध्याय चार ‘‘महासंभूतियाॅं‘‘ नामक खंडशीर्षक में समझाया गया है।
    आज के वैज्ञानिक युग में मानवता फिर कराह रही है, अनाचार और अनैतिक कार्य समाज में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं, कोई भी सुरक्षित नहीं है, महिलायें खिलौना बन चुकी हैं, शोषण, अत्याचार और भृष्टाचार सभी सदाचार के पर्याय बन गये हैं, धर्म, आडम्बर और कपट का आधार बन गया है। इस दशा  में फिर से मानवता की प्रतिष्ठा वापस दिलाने, धर्मराज्य की स्थापना करने, विज्ञान धर्म और नैतिकता को मानवता से संलग्न करने और विश्व  को महाविश्व  बनाने का संकल्प लेकर परम गुरु श्रीश्री आनन्दमूर्ति जी  इस धूलधूसरित धरा को पवित्र करने महासंम्भूति और तारक ब्रह्म के रूप में आये । अन्य संभूतियों ने शस्त्र उठाकर ही मानवता और हमारा कल्याण किया जबकि श्रीश्री आनन्दमूर्ति  ने शास्त्र से। यहाॅं एक बार फिर बता दें कि तारक ब्रह्म और महासंभूति दार्शनिक  पद हैं, वे महात्मा जो कभी हमारी तरह ही संस्कारों में बद्ध होकर धरती पर जन्म लिये पर अपनी उन्नत साधना के बल पर उस निर्पेक्ष परमचैतन्य सच्चिदानन्द अवस्था को इसी जन्म में अनुभव कर मानव समाज के कल्याण हेतु स्वेच्छा से संकल्प लेकर सगुण ब्रह्म की सहायतार्थ कुछ अधिक काल तक भौतिक शरीर धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा करने के बाद महाप्रयाण कर गये वे महान आत्मा, महासंभूति या तारक ब्रह्म कहलाते हैं। आज महासंभूति श्रीश्री आनन्दमूर्ति  की शिक्षायें सभी के लिये अनुकरणीय हैं और उनके मनोआत्मिक सिद्धान्त और प्रक्रियाएं वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के लिये शोध का विषय हैं। मानव कल्याण के लिये जितने समय का उन्होने संकल्प लिया था उसके एक एक सेकेंड का उपयोग उन्होंने किया और लगातार चैबीसों घंटे काम करते रहे। जीवन में प्रमासंवृद्धि, प्रमारिद्धि और प्रमासिद्धि के लिये उन्होंने कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा जिसमें उचित कार्य करने के दिशा  निर्देश  न दिये हों। आध्यात्म जगत के रहस्यों के अलावा शिक्षा, संगीत, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, राजनीति, अर्थशास्त्र , वन और भूसंपदा, भूगोल, इतिहास, परामनोविज्ञान, जीवविज्ञान, माइक्रोवइटा जैसे वैज्ञानिक शोध के नये क्षेत्रों में क्या और कैसे किया जाये ताकि अधिकतम मानव समाज का हित संपन्न हो इसके स्पष्ट मार्गदर्शन  उन्होंने दिये हैं। इन सबसे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि इतना वहुआयामी व्यक्तित्व और ज्ञान संपदा का धनी साधारण व्यक्ति तो नहीं हो सकता अतः वे महासंभूति ही थे। इस प्रकार उन्हें महासंभूति कहा जाना सर्वथा उचित ही कहा जायेगा। उनके द्वारा दिया गया अनन्त ज्ञान समझने के लिये यह पूरा जीवन ही कम है फिर इस लघु पुस्तक में किस प्रकार समाहित किया जा सकता है? केवल यही कहा जा सकता है कि यहाॅं जो कुछ भी कहा गया है वह उन्हीं की शिक्षाओं के कुछ कण मात्र हैं। आज आवश्यकता है उनके सिद्धान्तों और क्रिया पद्धतियों को पालन कर समाज को द्रुत गति से आगे बढ़ाने की ।