Sunday, 3 May 2015

8.2 धर्मान्धता और वैज्ञानिकता

8.2  धर्मान्धता और वैज्ञानिकता
सभ्यता के प्रारंभिक काल में प्रकृति पूजा या जड़ोपासना का प्रचलन था। पहाड़ नदी, वृक्ष लता, वन समुद्र, ऊषा, संन्ध्या, या वज्र, विद्युत आदि की उपासना करनें पर जब मनुष्य की भूख नहीं मिटी तब उच्च ज्ञान प्राप्त व्यक्ति या शक्तिशाली व्यक्ति को अपने आराध्य के रूप में ग्रहण किया गया। खंड के ऊपर पूर्ण ब्रह्मत्व का आरोप कर एक प्रकार के अवतारवाद की सृष्टि हुई और परंपरागत भाव से धर्म के नाम पर मनुष्य समाज में यह अवतारवाद चलता रहा। किन्तु मनुष्य के प्राणों की क्षुधा अनंत है। ज्ञान मंदिर में, स्वरूप में, प्रतिष्ठित होने की इच्छा उसे धीरे धीरे दार्शनिकता  के पथ पर ले गई। इसी दार्शनिक  ज्ञानचर्चा के फलस्वरूप उसकी विचारधाराओं ने भी धीरे धीरे मोड़ लिया। साधारण मनुष्य गूढ़ ब्रह्मतत्व को सहज ही समझ सकने में समर्थ नहीं हो सके, इसलिये जप यज्ञादि बर्हिमुखी क्रियाकलाप को धर्मसाधना समझ कर उन्होंने उसे जकड़ रखने  का प्रयत्न किया। सामान्य जनता श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा स्थापित किये गये रास्ते का ही अनुसरण करती है अतः समय समय पर पथ और पथप्रदर्शक  बदलते रहे और अब तो उनकी संख्या गिनना भी कठिन हो गया है। यह विश्व  ब्रह्माण्ड ब्रह्म का मानसिक विकास है। कल्पना मात्र ही अस्थिर और गतिशील है, इसीलिये सगुण ब्रह्म का मानसिक विकास यह जगत भी अस्थिर और चंचल है। आज जो अति सुन्दर है वह कल वैसा ही रहेगा, ऐंसा नहीं कहा जा सकता। आज जो मिठाई खाने में सुस्वादु है कुछ दिन बाद वह खाने योग्य नहीं रहेगी उसका रूप भी वैसा नहीं रहेगा। स्पष्ट है कि प्रत्येक खंड वस्तु परिवर्तनशील है और इसी कारण खंड का आनन्द शाश्वत  नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक खंड वस्तु में ही ईश्वरीय भावना भरना पड़ेगी क्योंकि सब कुछ तो परमात्मा का ही विकास है। परंतु यह क्या इतना सरल है?
धर्म का अर्थ है आभ्यान्तरिक लक्षण, और मानव का अनिवार्य आभ्यान्तरिक लक्षण है सद्गुणों के साथ साधना द्वारा उस परम तत्व को प्राप्त करने की भूख। अतः तत्व ज्ञान यह है कि जड़ की उपासना जड़ की ओर ही ले जाती है। परंतु मनुष्य, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जड़ के त्याग करने की बात तो दूर रही जड़ को पाने की चेष्टा का भी त्याग नहीं कर सकता। किन्तु भोजन, वस्त्र या अन्य शारीरिक आववश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर भी तो मनुष्य के प्राणों की भूख नहीं मिटती है। जिन्होंने साधना कर आत्म तत्व का अनुसंधान किया और अपने स्वरूप को जाना उन्होंने जनसाधारण के कल्याण के लिये अपने अनुभवों को सरल रूप में  प्रस्तुत कर अपेक्षा की कि धीरे धीरे ये अपने लक्ष्य की ओर अवश्य  बढ़ेंगे, पर स्वार्थ और निर्विवेकी अन्धानुकरण करने के कारण वे भटकते गये और धर्मान्धता और धर्म के नाम पर शोषण जैसे विध्वंसक कारनामों से मानवता कराह उठी है। सत्य को जानने की जिज्ञासा ही समाप्त प्राय है क्योंकि सत्य की परिभाषा ही सुविधानुसार बदली जाने लगी । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जिनसे इस कथन की प्रामाणिकता सिद्ध हो सकेगी।

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