Monday, 11 May 2015

8.4 ब्रह्माॅंड के निर्माण, नियंत्रण और संचालन का दिव्य सिद्धान्त

8.4 ब्रह्माॅंड के निर्माण, नियंत्रण और संचालन का दिव्य सिद्धान्त
विद्यातंत्र में एक शब्द है ‘‘प्रमा‘‘ ( शाब्दिक व्युत्पत्ति यह है,  प्र - मा + ड + टा=  प्रमा ) जिसकी सहायता से ब्रह्माॅंड के सभी निकायों और जीवधारियों के मानसिक , सामाजिक और आघ्यात्मिक जगत में विकास की चरम अवस्था लाये जाने की संभावनाओं को स्थापित किया गया है । यहाॅं प्रारंभिक रूप में कुछ विवरण देकर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

ब्रह्र्म की निर्गुण अवस्था में प्रकृति के तीनों गुण साम्यावस्था में होते हैं और वे आपस में एक दूसरे में रूपान्तरित होते रहते हैं परंतु इस रूपान्तरण की किसी अवस्था में जब यह संतुलन टूट जाता है तो किसी एक विन्दु से स्रष्टि का स्रजन प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार प्राप्त हुई नयी संतुलन की अवस्था लोक त्रिकोण कहलाती है क्योंकि इसमें भौतिक जगत , मानसिक जगत, और आध्यात्मिक जगत तीनों का साम्य वांच्छनीय होता है। इस समग्र निकाय को, जिसे हम ब्रह्माॅंड कहते हैं, में आन्तरिक और वाह्य बलों की सक्रियता बनी रहती है जो पूरी निकाय के भीतर और बाहर के सभी आकारों को प्रमा त्रिकोण या लोक त्रिकोण के भीतर व्यवस्थित बनाये रखने के लिये उत्तरदायी होती है। आन्तरिकबलों (अर्थात् विद्युतीय, चुम्बकीय और नाभिकीय) का साम्य बलसाम्य (equilibrium)  और वाह्यबलों (अर्थात् गुरुत्वीय) का साम्य भारसाम्य (equipoise) कहलाता है। बलसाम्य और भारसाम्य रहने पर ही कोई निकाय अपना अस्तित्व बनाये रख पाती है अतः इन्हीं का सम्मिलित नाम प्रमा कहलाता है।

किसी के व्यक्तिगत , सामाजिक और साॅंस्कृतिक जीवन में प्रमा होने पर ही वह उत्कर्ष पा सकता है अन्यथा नहीं । जैसे पृथ्वी पर 10 लाख वर्ष पूर्व मानव आ चुका था पर आज से केवल 15000 वर्ष पूर्व से ही आधुनिक सभ्यता का उद्गम हो पाया। इसमें भीपाश्चात्य देशों  में भौतिक प्रगति से केवल आंशिक  प्रमा ही आ सकती है क्योंकि वे आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रमा स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। पृथ्वी पर भारत ही वह देश   है जहाॅं  आध्यात्मिक प्रमा के क्षेत्र में कार्य किया गया पर उन्नति की पराकाष्ठा नहीं मिली क्योंकि भौतिक और मानसिक स्तरों पर प्रमा नहीं बन पायी जबकि इसे प्राप्त करने की पूरी संभावना रही है। यही कारण है कि आज भी व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में प्रमा की स्थापना न होने से भावजड़ता, भ्रान्त जीवनधारा, सामाजिक और अर्थनैतिक त्रुटिपूर्ण व्यवस्था दिखाई देती है।

भौतिक रूप से प्रकृति ने पृथ्वी के ऊपर और भीतर प्रचुर खनिज, जलज, कृषिज और भेषज सम्पदा भर दी है परंतु फिर भी अनेक देशो  में चरम दरिद्रता, निम्न जीवन स्तर, शिल्प और कृषि में पिछड़ापन, भोजन , वस्त्र ,आवास चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की कमी देखी जाती है। इसका मुख्य कारण प्रमा का अभाव ही है। मानसिक रूप में प्रमा का न होना साहित्य, कला, संगीत,  विज्ञान और दर्शन  के क्षेत्र में वाॅंछित प्रगति रोक देता है। जैसे कविता में भाव , भाषा, रस और छंद का सुंदर समन्वय होना चाहिये परंतु यदि केवल भावों की गंभीरता भरी हो और छंद  या रस का अभाव हो तो प्रमा नहीं रहेगी और कविता प्रभावहीन हो जायेगी। दर्शन  में भी कोई भाववादी और कोई जड़वादी हैं पर दर्शन  का मूल उद्देश्य  है स्रष्टा और स्रष्टि के बीच वास्तविक संबंध का निर्णय करना, पर प्रचलित सभी सिद्धान्त भावजड़ता से भरे बौद्धिक जंजाल में फंसे हैं। आध्यात्मिकता का लक्ष्य है कि मानव के अस्तित्व के भीतर जो शिव  छिपे हुए हैं उन्हें प्राप्त करना, भूमा के साथ अणु का, परमात्मा के साथ जीवात्मा का, और शिव के साथ जीव का महा मिलन करना। पर इस मूल धर्म को  भूल कर उपधर्मों से प्रभावित हो कर दूर दूर तीर्थों में जाने के लिये अपना पराक्रम, समय और धन नष्ट करना सिखाया गया है, इससे किसी का कोई भी आध्यात्मिक लाभ नहीं होता, ऐंसे अनेक उदाहरण और दिये जा सकते हैं ।  यह आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रमाहीनता का सबसे अच्छा उदाहरण है।
भौतिक जगत में व्यक्ति और समाज, जब विकास के चरम स्तर पर पहुंचकर आध्यात्मिक विकास के साथ साम्य स्थापित कर लेता है तो उसे प्रमासंवृद्धि कहते हैं। मानसिक विकास में संतुलन स्थापित कर व्यक्ति और समाज के साथ आध्यात्मिक विकास में सामंजस्य की रक्षा होने पर प्रमाऋद्धि कहलाती है। जब व्यक्ति और समाज भौतिक जगत और मानसिक जगत में सामंजस्य बनाते हुए मानसाध्यात्मिक स्तर पर उच्चावस्था में पहुंचकर विकास की साम्यावस्था में उन्नत होता है तब प्रमासिद्धि कहलाती है।
इस विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि आज का समाज अर्थनैतिक दिवालियापन, सामाजिक अस्थिरता, सांस्कृतिक अवक्षय और धार्मिक कुसंस्कारों के भयावह गर्त में गिरता जा रहा है जिसका कारण प्रमा साम्य का अभाव ही है। इस परिस्थति में भौतिक स्तर पर प्रमा के नष्ट हो जाने के कारण विपर्यय ज्ञानवाले धूर्तों का साम्राज्य हो जाता है जो मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रमा को नष्ट करने लगते हैं।  इसलिये लोक त्रिकोण और प्रमात्रिकोण को पारस्परिक समरसता में बनाये रखने के लिये प्रत्येक स्तर पर छोटे छोटे प्रमा त्रिकोण बनाकर उनमें समरसता का उपाय करना होगा, जिसके बाद सभी लधु प्रमात्रिकोणों को एक विराट प्रमात्रिकोण में एकत्रित कर लोकत्रिकोण के केन्द्र से मिलाने का कार्य करना होगा। जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता भौतिक जगत में असमानता, लूटपाट , मारपीट, व्यभिचार और अमानवीय कृत्यों की भरमार रहेगी। स्पष्ट है कि जब भौतिक क्षेत्र में ही प्रमा नहीं रहेगी तो अन्य क्षेत्रों जैसे मानसिक और आध्यात्मिक, में वह कैसे रह सकेगी?
इसका एकमात्र समाधान यह है कि, हमें विज्ञान सम्मत आध्यात्म और आध्यात्म सम्मत विज्ञान बनाने के लिये जी जान से जुट जाना चाहिये अन्यथा प्रमाहीनता का प्रभाव बढ़ता जायेगा और हमें आदिम युग में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा।

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