8.8: परमपुरुष, तारक ब्रह्म के रूपमें कब आते हैं? क्यों आते हैं?
इसके दो कारण हैं पहला यह कि मानव बुद्धि भावसत्ता से संतुष्ठ हो सकती है पर मानव हृदय नहीं। मानव हृदय और अधिक निकटता, और अधिक आनन्द, और अधिक संवेदन चाहता है। यही कारण है कि वह परम सत्ता अपने वंशजों को अधिक आनन्द देने , अधिक संतुष्ठ करने के लिये इन सापेक्षिक घटकों में सीमित होकर तारकब्रह्म के रूपमें आ जाते है। दूसरा कारण यह है कि इस संसार में प्रत्येक उन्नति लंबे संघर्ष के द्वारा ही हो सकती है और मानव के पास इस संघर्ष को झेलने के लिये पर्याप्त बौद्धिक क्षमता होना चाहिये पर जब उसकी बुद्धि समाज को आगे बढ़ाने हेतु कुछ नया करने में असफल हो जाती है तो परमपुरुष के पास स्वयं अपने आप को देश काल और पात्र की सीमा में बाॅंधकर मानवता का उद्धार करने के लिये आने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। वही आकर सिखाते हैं कि किस प्रकार ध्यान करने से उस अरूप से अपना संबंध जोड़ा जा सकता है और मन को कैसे उन्हीं में लगाया जा सकता है, इतना ही नहीं कैसे उनकी समीपता का हमेशा अनुभव किया जा सकता है।
प्रकृति के प्रभाव से सगुण ब्रह्म का मन अथवा सूक्ष्म संसार निर्मित होता है तथा पुरुष अथवा चेतना क्रमशः बुद्धितत्व, अहमतत्व और चित्त में रूपान्तरित होती जाती है। मानव का धर्म है साधना करके मुक्त पुरुष हो जाना और सगुण ब्रह्म का धर्म है कि अपनी प्रत्येक इकाई को इस कार्य हेतु अनुकूल अवसर जुटाना। वास्तव में सगुण ब्रह्म के द्वारा इस ब्रह्माॅंड को निर्मित करने और उसमें इन मानवों को निर्मित करने के सभी प्रयास और तत्संबंधी कष्ट अपने प्रत्येक इकाई अंश को मुक्त करने की ओर ही होते हैं। जड़त्व से सूक्ष्म की ओर गति में अर्थात् प्रतिसंचर में चेतना का स्पष्टतः प्रतिकर्षण होने लगता है और पुरुष , क्रमषः प्रकृति के बंधनों से मुक्त होने लगता है इस प्रकार प्रकृति अपने बंधनकारी गुणों को उचित रूपसे प्रभावी नहीं रख पाती और जीव मुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ने लगता है।
यह स्मरण रहना चाहिये कि सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से मानव इच्छायें अनन्त होती हैं जो सीमित सामर्थ्य के प्रयासों से संतुष्ठ नहीं की जा सकती। इस परिस्थिति में मनुष्य भौतिक जगत की एक वस्तु से दूसरी पर संतुष्ठी की चाह में तब तक उछल कूद करता रहता है जब तक कि वह पतित होकर मानव के रूपमें परजीवी न हो जाये।
सभी जीवधारी सापेक्षिक घटकों में बंधे होने के कारण नियंत्रण क्षमता में न्यून होते हैं जबकि परमपुरुष स्वर्ग और नर्क दोनों के नियंत्रक हैं। यहाॅं ध्यान यह रखना चाहिये कि मानव मन की प्रवृत्ति यदि प्रतिसंचर धारा के विपरीत हो जाती है तो वही नर्क और संचर धारा के अनुकूल निराकार ब्रह्म की ओर रहने पर स्वर्ग कहलाते हैं। स्वर्ग और नर्क का कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। इकाई मन जो सोना या चाॅंदी प्राप्त करने को अपना ध्येय बना लेता है वह पहले मानसिक तरंगों के रूप में सोने, चाॅंदी में बदल जाता है फिर जड़ समाधि के कारण जड़ सोने या चाॅंदी में। जो बाद में किसी सोने चाॅंदी के व्यापारी के घर तिजोरी में कैद रहता इसे ही नरकवास कहते हैं।
इसके दो कारण हैं पहला यह कि मानव बुद्धि भावसत्ता से संतुष्ठ हो सकती है पर मानव हृदय नहीं। मानव हृदय और अधिक निकटता, और अधिक आनन्द, और अधिक संवेदन चाहता है। यही कारण है कि वह परम सत्ता अपने वंशजों को अधिक आनन्द देने , अधिक संतुष्ठ करने के लिये इन सापेक्षिक घटकों में सीमित होकर तारकब्रह्म के रूपमें आ जाते है। दूसरा कारण यह है कि इस संसार में प्रत्येक उन्नति लंबे संघर्ष के द्वारा ही हो सकती है और मानव के पास इस संघर्ष को झेलने के लिये पर्याप्त बौद्धिक क्षमता होना चाहिये पर जब उसकी बुद्धि समाज को आगे बढ़ाने हेतु कुछ नया करने में असफल हो जाती है तो परमपुरुष के पास स्वयं अपने आप को देश काल और पात्र की सीमा में बाॅंधकर मानवता का उद्धार करने के लिये आने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। वही आकर सिखाते हैं कि किस प्रकार ध्यान करने से उस अरूप से अपना संबंध जोड़ा जा सकता है और मन को कैसे उन्हीं में लगाया जा सकता है, इतना ही नहीं कैसे उनकी समीपता का हमेशा अनुभव किया जा सकता है।
प्रकृति के प्रभाव से सगुण ब्रह्म का मन अथवा सूक्ष्म संसार निर्मित होता है तथा पुरुष अथवा चेतना क्रमशः बुद्धितत्व, अहमतत्व और चित्त में रूपान्तरित होती जाती है। मानव का धर्म है साधना करके मुक्त पुरुष हो जाना और सगुण ब्रह्म का धर्म है कि अपनी प्रत्येक इकाई को इस कार्य हेतु अनुकूल अवसर जुटाना। वास्तव में सगुण ब्रह्म के द्वारा इस ब्रह्माॅंड को निर्मित करने और उसमें इन मानवों को निर्मित करने के सभी प्रयास और तत्संबंधी कष्ट अपने प्रत्येक इकाई अंश को मुक्त करने की ओर ही होते हैं। जड़त्व से सूक्ष्म की ओर गति में अर्थात् प्रतिसंचर में चेतना का स्पष्टतः प्रतिकर्षण होने लगता है और पुरुष , क्रमषः प्रकृति के बंधनों से मुक्त होने लगता है इस प्रकार प्रकृति अपने बंधनकारी गुणों को उचित रूपसे प्रभावी नहीं रख पाती और जीव मुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ने लगता है।
यह स्मरण रहना चाहिये कि सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से मानव इच्छायें अनन्त होती हैं जो सीमित सामर्थ्य के प्रयासों से संतुष्ठ नहीं की जा सकती। इस परिस्थिति में मनुष्य भौतिक जगत की एक वस्तु से दूसरी पर संतुष्ठी की चाह में तब तक उछल कूद करता रहता है जब तक कि वह पतित होकर मानव के रूपमें परजीवी न हो जाये।
सभी जीवधारी सापेक्षिक घटकों में बंधे होने के कारण नियंत्रण क्षमता में न्यून होते हैं जबकि परमपुरुष स्वर्ग और नर्क दोनों के नियंत्रक हैं। यहाॅं ध्यान यह रखना चाहिये कि मानव मन की प्रवृत्ति यदि प्रतिसंचर धारा के विपरीत हो जाती है तो वही नर्क और संचर धारा के अनुकूल निराकार ब्रह्म की ओर रहने पर स्वर्ग कहलाते हैं। स्वर्ग और नर्क का कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। इकाई मन जो सोना या चाॅंदी प्राप्त करने को अपना ध्येय बना लेता है वह पहले मानसिक तरंगों के रूप में सोने, चाॅंदी में बदल जाता है फिर जड़ समाधि के कारण जड़ सोने या चाॅंदी में। जो बाद में किसी सोने चाॅंदी के व्यापारी के घर तिजोरी में कैद रहता इसे ही नरकवास कहते हैं।
No comments:
Post a Comment