Tuesday 5 May 2015

8.22 ध्वन्यात्मक विज्ञान :(Acoustic Science):

8.22 ध्वन्यात्मक विज्ञान :(Acoustic Science):

 आज विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि भौतिक जगत की प्रत्येक वस्तु की अपनी अपनी आस्तित्विक आवृत्ति अर्थात् (Existential Fundamental Frequency) होती है। अतः उनका रंग यानी (wavelength)  और ध्वनि यानी (sound)  भी होती है। यह अलग बात है कि हम उसे देख या सुन नहीं पाते, क्योंकि  हमारी यह क्षमतायें सीमित हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनका अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि वे हमारे लिये  वोधगम्य नहीं हैं। अनेक प्राणी जैसे कुत्ते, शेर, चमगीदड़ आदि की घ्राण और श्रवण शक्ति मनुष्य से अधिक है। यथार्थतः प्रत्येक एक्सप्रेशन(expression)  की अपनी ध्वनि होती है और सभी ध्वनियों का एकीकृत स्वरूप औंकार ध्वनि (Cosmic Sound) के रूप में प्राप्त होता है। इस ध्वनि को भी अ, उ, और म इन तीन अक्षरों को उच्चारित करने से बननें बाली ध्वनि का संयुक्त स्वरूप माना जाता है जो क्रमशः  उत्पत्ति, स्थिति और लय का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह किसी विशेष कंपन से उत्पन्न ध्वनि को उसकी मूल ‘ध्वनि‘ (acoustic root)  कहते हैं। तथाकथित देवी देवताओं की संकल्पना भी इन्हीं  एकास्कि रूट्स पर आधारित है जो कि यथार्थतः उस परम सत्ता से ही निकलती हैं और प्रत्येक दिशा  में प्रवाहित होती रहती हैं। यदि इस ओम ध्वनि को विश्लेषित किया जाता है तो हम 50 मूल ध्वनियां (fundamental frequencies) पाते हैं। ये मूल ध्वनियां ‘‘समय‘‘ के व्यापक वर्णक्रम में व्याप्त होती हैं ।
परंतु समय क्या है? समय, किसी क्रिया की गतिशीलता का मानसिक माप है। समय अक्षत प्रवाह नहीं है, वह असंयुक्त खंडों का क्रमागत समूह होता है जो परस्पर इतने निकट होते हैं कि वह एक अविभक्त इकाई की तरह अनुभूत होता है। फिर भी ये 50 प्रथक प्रथक ध्वनियां इस तथाकथित ‘‘समय‘‘ अर्थात् (temporal factor) में ही अस्तित्व पाती हैं। ये अ आ इ ई उ ऊ.........क्ष त्र ज्ञ हैं। इसे आप वर्णमाला के नाम से या अक्षमाला के नाम से जानते हैं अर्थात् 50 अक्षरों की या रंगों की माला। यह यों  ही नहीं कहलाती है, इसके पीछे पूर्वोक्त ध्वन्यात्मक विज्ञान(Acoustic Science) छिपी हुई है।
     अब थोड़ा इस ओम अक्षर की आध्यात्मिक विज्ञान (Spiritual Science) के आधार पर व्याख्या की जाय। प्रकृति के संयोग से पुरुष के जो तीन प्रकार के भाव या अवस्थाओं की सृष्टि होती है उन्हीं को त्रिपुर कहा जाता है। जीवभाव में यह त्रिपुर उसकी जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति अवस्थाएॅं हैं। इन तीनों  भावों से बाहर जो साक्षी स्वरूप सत्ता हैं वे ही आत्मा या पुरुष हैं। यह विचित्र जगत अर्थात् दृष्यमान जगत पुरत्रयात्मक भाव लेकर ही खड़ा है और जीवों के बीच काम करता चलता है। जीवों का भोग्य यही विराट पुरत्रययुक्त जगत् है जो क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव नाम से प्रसिद्ध है। उनकी सृष्टि परम पुरुष की कल्पना से हुई है, उन्हीं के सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणात्मक अभिमान के फलस्वरूप। इन तीनों अवस्थाओं का जो आधार है उसी को चतुर्थ पुर कहते हैं। यह चतुर्थपुर त्रिगुणातीत है। इसीलिये इसकी सत्ता देश , काल और पात्र के परिमाप के बाहर है, त्रिपुर के उर्ध्व  है। इसी चतुर्थ अवस्था को निर्गुण, कैवल्य या तुरीय अवस्था कहा जाता है। अणु जीव का संस्कार जब तक बाकी रहता है तब तक वह भोग के लिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों  पुरों में विचरण करता है और साधना के द्वारा जब संस्कारों से मुक्त हो जाता है तब वह त्रिपुर से बाहर तुरीयपद, परम पद में समाहित हो जाता है। ऊॅं, या प्रणव या ओंकार चार वर्णों से युक्त मंत्र है। वे हैं अ, उ, म, और नाद विंदु। यही नाद विंदु चतुर्थ अवस्था अर्थात् निर्गुण सत्ता का द्योतक है। इसमें सत्व, रज या तम का कोई भी गुण स्फुट अवस्था में नहीं है। जीव भाव का ‘अ‘ सत्वगुण प्राधान्य का द्योतक और जाग्रद अवस्था का सूचक है। ‘उ‘ रजोगुण प्राधान्य का द्योतक और स्वप्नावस्थाका सूचक है। ‘म‘ तमो गुणप्राधान्य का द्योतक और सुषुप्तावस्था का सूचक है। सगुण ब्रह्म में अ,उ,म यथाक्रम से क्षीराब्धि, गार्भोदक और कारणार्णव का सूचक हैं। विन्दु चतुर्थ व तुरीय अवस्था का द्योतक तथा निर्गुण ब्रह्म का सूचक है। गणित में विन्दु को पारिभाषित किया गया है कि उसकी स्थिति होती है परंतु माप नहीं। निर्गुण ब्रह्म के संबंध में हम लोग कुछ न तो कह सकते हैं और न ही सोच सकते हैं। केवल समझाने  के लिये  विन्दु का व्यवहार किया गया है। निर्गुण ब्रह्म वाचक विन्दु ( . ) और सगुण ब्रह्म वाचक ओम  तथा बीच में लगाया गया चिन्ह (चन्द्राकार   ॅ ) अव्यक्ता प्रकृति की व्यक्तावस्था में परिणति का ज्ञापक है।

     जीव में जाग्रद अवस्था के अभिमानी पुरुष को विश्व  (दार्शनिक  शब्द) व विषयी पुरुष कहा जाता है। सर्व इंद्रियों के द्वारा विषयभोग जाग्रद अवस्था में ही सम्भव होने के कारण इस अवस्था के पुरुष को विषयी पुरुष कहते हैं। जीव भाव में स्वप्नावस्था के अभिमानी पुरुष को ‘तेजस‘ और सुषुप्ति के अभिमानी पुरुष को ‘प्राज्ञ‘ कहते हैं। सगुण ब्रह्म की क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था के अभिमानी पुरुष को क्रमशः  विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर  (दार्शनिक  शब्द) कहते हैं। अतएव हम देखते हैं कि ‘अ‘ विश्व  और विराट का बीजाक्षर है, ‘उ‘ तेजस और हिरण्यगर्भ का और ‘म‘ प्राज्ञ तथा ईश्वर  का बीजाक्षर है। तुरीय अवस्था में जीवभाव और ब्रह्म भाव में कोई भेद नहीं है क्यों कि उस अवस्था में ‘‘मैं हूॅं बोध‘‘ नहीं है। इसलिये इस अवस्था में कोई बीजाक्षर भी नहीं है। क्योंकि बीज, उत्पत्ति के कारण को कहते हैं अतः जहां उत्पत्ति, अनुत्पत्ति, सृष्टि, स्थिति और लय का कोई प्रश्न  ही पैदा नहीं होता वहां बीज का प्रश्न  भी पैदा नहीं होता। तुरीयावस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों  एक ही हो जाते हैं इसीलिये इसका वाचक नाद विंदु है। उसी परम पद को ईश्वरग्रास कहते हैं अर्थात् उसमें ईश्वर  भी ग्रस्त हो जाता है। यह पुरत्रय निर्गुण में ही लीन हो जाता है अतः इसका नाम ईश्वरग्रास  रखना अत्यंन्त समीचीन है।


   उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि प्रणव और उसके पीछे क्या विज्ञान है। परंतु क्या आप जिन्हें तथाकथित पंडितजी की उपाधि देकर अपनें सभी शुभकार्यों में उनकी उपस्थिति से धन्य हो जाते हैं  वे जब अपने कर्मकांडीय प्रदर्शनों  में ‘‘औंम‘‘ ‘‘औंम‘‘ आदि की रट लगाकर वातावरण गुंजायमान करते हैं तब उनकी मानसिकता और उच्चारण ओंकार की सही सही मूल आवृत्ति को पकड़ पाते हैं या नहीं? वे यह अनुभव कर सकते हैं या नहीं? आपने यह भी अब तक समझ ही लिया होगा कि ‘प्रणव‘ ध्वनि वास्तव में उच्चारण करनें के लिये है ही नहीं, वह तो अनुभव करने के लिये है। वह किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की जाती वरन् वह तो सृष्टि के प्रारंभ से ही पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है और पूर्वोक्त 50 अक्षरों के संयुक्त स्वर को प्रकट करती है जो किसी भी मनुष्य के गले से उच्चारित नहीं की जा सकती। दुख तो यह है कि इस सच्चाई को कोई जानना ही नहीं चाहता, सच्चाई से स्वयं भी दूर रहता है और अपने शब्दाडंबर से दूसरों को भी दूर ही रखना चाहता है। मनुष्य देह पाने का वे अर्थ नहीं जानते वे केवल इसे उपभोग की वस्तु के रूप में ही मान्यता देते है। वे नहीं जानते कि यह अमूल्य और दुर्लभ प्रयोगशाला  अपनी मूल आवृत्ति अथवा वेवलेंग्थ को पहचानकर उस परम पुरुष की मूल आवृत्ति या वेवलेंग्थ  के साथ अनुनाद स्थापित करने के लिये प्राप्त हुई है। वे नहीं जानते कि हमारे पितृपुरुष कह गये है कि उठो जागो और वरिष्ठ जानकार व्यक्ति के पास जाकर अनुरोध पूर्वक यह रहस्य जान लो कि मैं कौन हूॅं , कहाॅं से आया हूं , कहाॅं जाऊंगा। वे ‘‘उत्तिष्ठत् जाग्रत् प्राप्यवरान्निबोधत्‘‘  उपनिषद वाक्य को सुनते ही नहीं फिर समझने का तो प्रश्न  ही नहीं उठता।

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