8 -3 (पिछली पोस्ट का शेष )
आधुनिक विज्ञान कम तरंग लंबाईयों और अधिक आवृत्तियों के सहारे आगे बढ़ता है जबकि आध्यात्मिक विज्ञान अधिक तरंग लंबाईयों और कम से कम आवृत्तियों पर आधारित होता है। भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न उपकरणों सहित लेबोरेटरी की आवश्यकता होती है जबकि आध्यात्मिक विज्ञान में मनुष्य का शरीर ही लेबोरेटरी होता है तथा मन बुद्धि, चित्त, अहंकार और मस्तिष्क यह सब उपकरण होते हैं केवल सही सही आवृत्तियों को पहचानने अनुभव करने तथा विश्लेषण करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए लगातार अभ्यास करना होता है।
इस अभ्यास में सात्विक भोजन और आसन द्वारा शरीर द्रढ़ करना, यम नियम द्वारा मन को शुद्ध करना, प्राणायाम द्वारा जीवनी शक्ति को एकाग्र करना, प्रत्याहार द्वारा समस्त ज्ञानेद्रियों और कर्मेन्द्रियों को नियंत्रित कर एकाग्र करना, धारणा द्वारा निर्धारित लक्ष्य पर एकाग्र की हुई प्राण शक्ति को संयुक्त करना, ध्यान द्वारा प्राप्त ज्ञान की व्याख्या करना, और समाधि द्वारा परम सत्ता का साक्षात्कार करना आदि सम्मिलित होते हैं।
आधुनिक विज्ञान इस विवरण को स्वीकृति नहीं देता क्योंकि इसे भौतिकी की प्रयोगशाला में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता जबकि ‘‘इलेक्ट्रोऐंसफेलोग्राम’’ द्वारा मन की पूर्वोक्त गतिविधियों का ग्राफीय प्रदर्शन किया जा सकता है। चूंकि यह एक कष्ट साध्य लंबी प्रक्रिया है इसलिए वे जो तत्क्षण फल प्राप्त करने की इच्छा करते हैं ऊब जाते हैं। इसमें एक रहस्य यह भी है कि एक्सपर्ट व्यक्ति द्वारा प्रयोग करने वाले की मूल आवृत्ति पहचान कर उसे लगातार अपने निर्देशन में अभ्यास कराया जाता है। जिस भौतिक वस्तु या रहस्य का पता करना होता है उसका आवृत्ति परास जानकर लगातार अभ्यास द्वारा मूल आवृत्ति के साथ ‘‘रेजोनेंस’’ कराया जाता है जिससे वस्तु का ज्ञान अथवा रहस्य का पता मन के द्वारा अनुभूत हो जाता है। मन किसी भी आवृत्ति को उत्पन्न कर सकता है तथा किसी भी आवृत्ति को ग्रहण कर सकता है। इलेक्ट्रानों की तरह मन दिखाई नहीं देता परंतु उन्हीं की तरह अपने प्रभावों से अपनी उपस्थिति का आभास करा देता है। मनोवैज्ञानिक, मन के ‘‘कानशस और सबकानशस ’’ स्तर को ही अनुभूत कर पाए हैं जबकि आध्यात्मज्ञानी इसके आगे पराचेतना या ‘‘सुपरकानशश ’’ स्तरों का अनुभव कर चुके हैं, जिन्हें क्रमशः अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष के नाम दिये गये हैं। वेस्टजर्मनी की ‘‘माइक्रोवाइटा रिसर्च लेब’’ में ध्यानस्थ संन्यासियों के ऊपर किये गये प्रयोगों से यह प्रमाणित हो चुका है कि सामान्य अवस्था में मन अपनी ऊर्जा को विभिन्न दिशाओं में विकरित करता रहता है जैसा कि ‘‘फोटान,‘‘ परंतु जब विभिन्न दिशाओं में सक्रिय इस ऊर्जा को एकश्रोत्रीय अर्थात् ‘‘कोहेरेंट’’ बना दिया जाता है तो वह भी लेसर की तरह अत्यंत शक्तिशाली हो जाता है। इस संबंध में भारत के महान् दार्शनिक और आध्यात्मिक गुरु युगपुरुष श्री श्री आनन्दमूर्तिजी ने अनेक ‘‘डिमान्सट्रेशन्स ’’ अपने शिष्यों पर ही दिखाये हैं। जीवन की उत्पत्ति का सूत्र उन्होंने ‘‘माइक्रोवाईटम’’ के नाम से संबोधित किया है जो इलेक्ट्रान के दस लाखवें भाग के बराबर बताया गया है, परंतु आधुनिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान को अखंड मानते हैं और उनकी इस बात को हंसी में उड़ा देते हैं।
आधुनिक विज्ञान में वर्णित ‘‘क्वार्क थ्योरी‘‘ की व्याख्या करने में इलेक्ट्रान को एक तिहाई और दो तिहाई द्रव्यमान के दो खंडों में मानने पर ही वह सिद्ध हो पाती है अन्यथा नहीं अतः आनन्दमूर्ति जी का पूर्वोक्त कथन विश्वसनीय हो जाता है, कि इलेक्ट्रान खंडनीय है। पूर्वोक्त तथ्यों के आधार पर होमियोपैथी दवाओं का आधार, रासायनिक प्रतिक्रियाओं का नया स्वरूप, समुद्रों का परस्पर ब्लेंड होना, रेडियो एक्टिव वेस्ट से रिवर्सल प्रोसेस द्वारा रेडिएशन के संबंध में नए रहस्यों का पता लगाना, मानव मन के सामूहिक एकत्रीकरण से माइक्रोवाइटा पर नियंत्रण करना, आदि अनेक तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया जा सकता है। स्पष्ट है कि जैसा इलेक्ट्रानों के मेनीपुलेशन से आज अनेक आश्चर्यजनक भौतिक उपलब्धियों ने दुनियाॅं को अचंभे में डाल रखा है और दुनियाॅ ‘इलेक्ट्रानिक एज‘ कहलाती है, कालान्तर में माइक्रोवाइटा का मेनीपुलेशन कर, न केवल भौतिक वरन् मनोआत्मिक रहस्यों का पता लगाया जा सकेगा और वह युग ‘माइक्रोवाइटा एज‘ कहलायेगा। दुख तो यह है कि भारतीय दार्शनिक का यह उत्कृष्ट कार्य जबतक विदेशी मुहर से प्रमाणित नहीं हो जाता, हम उस पर विचार ही नहीं करना चाहते हैं।
उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि केवल पदार्थ और ऊर्जा ही परस्पर परिवर्तनीय नहीं हैं इनके साथ मानव मन भी समतुल्यता रखता है केवल हमें इस ओर गंभीरता से प्रयोग करने की आवश्यकता है। अतः आध्यात्म, विज्ञान की ही अगली सीढ़ी है, यह आडंबर और प्रदर्शनप्रिय व्यक्तियों ने विकृत कर दिया है इसलिए इसे विशुद्ध वैज्ञानिक तरीके से ही परखा जाए तो यह ज्ञान की पराकाष्ठा सिद्ध होगा।
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