8.23... स्वप्न विज्ञान
स्वप्नों के बारे में भी लोगों को बहुत ही भ्राॅंतियां हैं। आइये इनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या की जाय। सुसुप्तावस्था में जब काममय कोष या मनोमय कोष कुछ भी काम नहीं करते हैं तो किसी प्रकार का स्वप्न दिखाई नहीं पड़ता। जाग्रत अवस्था में काममय और मनोमय दोनों ही कोष काम करते हैं अतः मनोमय कोष के माध्यम से उसका क्रियान्वयन होता है। किन्तु स्वप्नावस्था में मनोमय कोष शारीरिक जड़ता के कारण काममय कोष का ठीक ढंग से नियंत्रण नहीं कर सकता है इसलिये वहां मनोमय कोष ही प्रधान है।
सुसुप्तावस्था में दैहिक जड़ता के साथसाथ चिन्ता करने की शक्ति भी अर्थात् मनोमय कोष भी निष्क्रिय हो जाता है केवल कारण मन अर्थात् अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष रह जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि स्वप्न कैसे उत्पन्न होता है? सच्चाई यह है कि विशेष विशेष इन्द्रिय द्वारा प्राप्त किया गया भाव जब काममय कोष को आन्दोलित कर देता है अथवा काममय कोष में इन्द्रियात्मक या जड़ात्मक किसी भावधारा के उग्र भाव से उठने पर उस समय काममय कोष का तथा मन का स्थूल आधार, स्नायु पुंज चंचल हो उठता है तथा स्नायु कोष में उस चंचलता की छाप (impression) बन जाती है, तो यह छाप अपने गुरुत्व के अनुसार कभी अल्पस्थायी, कभी दीर्घ स्थायी होती है। गुरुत्वपूर्ण छाप भी कभी कभी विरुद्ध धर्मी आन्दोलन या चंचलता के प्रभाव से, या उससे उत्पन्न नवीन छाप को ग्रहण करने के लिये वाध्य हो जाती है और पूर्वग्रहीत छाप का दीर्घ स्थायित्व नष्ट हो जाता है। निद्रित अवस्था में यदि किसी के शारीरिक कारणों से स्नायुतंतु चंचल हो जाते हैं और उसके फलस्वरूप अथवा उग्र भाव से चिन्ता करने के करण मस्तिष्क में उत्पन्न ताप के कारण भी स्नायु कोष में चंचलता आ जाती है। यह चंचलता स्नायुकोष में संचित छाप के ही अनुरूप मानस भूमि में वृत्ति उत्पन्न करती है। इस तरह आन्दोलित मनोमय कोष उस समय एकाधिक छाप से उत्पन्न कल्पनाधारा को सत्य मान कर ग्रहण करता है। स्थूल इंद्रियाँ का काम बंद होने के फलस्वरूप पूर्व ग्रहीत वृत्तियों से उत्पन्न आकारों को काल्पनिक न समझकर वास्तविक मानतीं हैं। ऐंसा स्वप्न अधिकांशतः मिथ्या होता है क्योंकि ये केवल विछिन्न कल्पनाओं का संग्रहण ही होती हैं।
मस्तिष्क के रोगग्रस्त होने पर अथवा बहुत दिनों तक रोगी रहने के कारण जिनके स्नायुतन्तु दुर्बल हो गये हैं या जिनके पाक यंत्र दुर्बल हो गये हैं वे ही साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। स्पष्ट है कि ये स्वप्न पूर्व चिन्तित विषयों या चिन्ता समूह की यथायथ अथवा विच्छिन्न अभिव्यक्तियां हैं। अतिभोजन के कारण भी बहुत से लोग इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। जिनकी चिन्ता पवित्र रहती है जिनके विचार पवित्र रहते हैं और भोजन में भी संयम रहता है उन्हें साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न कम दिखते हैं। इस प्रकार का स्वप्न कभी भी गंभीर निद्रावस्था में नहीं आता है।
जब मनुष्य घोर निद्रा में रहता है, उस समय भी उसके मनोमय कोष में बड़ी विपत्ति, सुसंवाद या दुःसंवाद स्वप्न रूप में उदित होता है। सर्वज्ञ कारण मन, काम मय और मनोमय कोषों की चंचलता के कारण तथा अपनी अभिव्यक्तिगत अक्षमता के कारण उस सर्वज्ञता को प्रकाशित नहीं कर पाता। परंतु जिन विशेष भावों से वह व्यक्ति लिप्त रहा है या हो सकता है, उन्हें यह ‘कारणमन‘ (causal mind) घोर निद्रा में पड़े मनुष्य के शान्त मनोमय या काममय कोष में जाग्रत कर सकता है। ‘कारणमन‘ के द्वारा ज्राग्रत यह स्पन्दनधारा जब मनोमय कोष को स्पन्दित कर देती है तो वह भी एक स्वप्न ही होता है और वह निरर्थक नहीं होता क्योंकि उसका प्रेरक सर्वज्ञ ‘कारणमन‘ है। कभी कभी जाग्रत अवस्था में भी मानसिक एकाग्रता करने पर कारणमन का ज्ञान प्रवाह ‘सूक्ष्ममन‘ (subconscious mind) में प्रवाहित होने लगता है अतः बैठे बैठे दूर दूर के प्रिय जनों की घटनाओं को भी जाना जा सकता है। इसे ( telepathic vision ) टेलीपैथिक विजन कहा जाता है। इस प्रकार के लगाातार द्रढ़ अभ्यास से जब स्थूल मन अधिकाधिक स्थिर भाव प्राप्त करता है वह दूरस्थ अपने प्रियजन से संबंधित घटनाओं को आॅंखों के सामने बाह्य जगत में भी देख सकता है। उसे टेलीपैथिक क्लेयरवोयेंस (telepathic clairvoyance ) कहतेे हैं। कुछ लोग इसे प्रेतात्मा की क्रिया समझकर प्रेतों की मान्यता दे बैठते हैं। भूत प्रेत में विश्वाश करना प्रागैतिहासिक मानवों की भीरु मानसिकता का ही समर्थन करने के सिवा कुछ नहीं है। इस प्रकार के ज्ञानज स्वप्न के संबंध में बहुत बार मनुष्य अपने संस्कारों के कारण विषय की सही सही जानकारी नहीं दे पाता। अतः स्वप्न के माध्यम से सत्य जानने के लिये मनुष्य को मनोमय और काममय कोष के ऊपर कुछ अधिक परिमाण में अधिकार रखने की आवश्यकता होती है। जिन्होंने मनोमय और काममय कोष के ऊपर साधना के द्वारा नियंत्रण पा लिया है वे जाग्रद अवस्था में भी अतीत, वर्तमान और भविष्य का चित्र अल्प चेष्टा से देख सकते हैं। ध्यान योग में ऋषियों मुनियों को दिव्यदर्शन या दूरदर्शन इसी प्रकार होता है। स्फटिक दर्शन , नखदर्पण, मुकुर दर्शन आदि।
स्वप्नों के बारे में भी लोगों को बहुत ही भ्राॅंतियां हैं। आइये इनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या की जाय। सुसुप्तावस्था में जब काममय कोष या मनोमय कोष कुछ भी काम नहीं करते हैं तो किसी प्रकार का स्वप्न दिखाई नहीं पड़ता। जाग्रत अवस्था में काममय और मनोमय दोनों ही कोष काम करते हैं अतः मनोमय कोष के माध्यम से उसका क्रियान्वयन होता है। किन्तु स्वप्नावस्था में मनोमय कोष शारीरिक जड़ता के कारण काममय कोष का ठीक ढंग से नियंत्रण नहीं कर सकता है इसलिये वहां मनोमय कोष ही प्रधान है।
सुसुप्तावस्था में दैहिक जड़ता के साथसाथ चिन्ता करने की शक्ति भी अर्थात् मनोमय कोष भी निष्क्रिय हो जाता है केवल कारण मन अर्थात् अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष रह जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि स्वप्न कैसे उत्पन्न होता है? सच्चाई यह है कि विशेष विशेष इन्द्रिय द्वारा प्राप्त किया गया भाव जब काममय कोष को आन्दोलित कर देता है अथवा काममय कोष में इन्द्रियात्मक या जड़ात्मक किसी भावधारा के उग्र भाव से उठने पर उस समय काममय कोष का तथा मन का स्थूल आधार, स्नायु पुंज चंचल हो उठता है तथा स्नायु कोष में उस चंचलता की छाप (impression) बन जाती है, तो यह छाप अपने गुरुत्व के अनुसार कभी अल्पस्थायी, कभी दीर्घ स्थायी होती है। गुरुत्वपूर्ण छाप भी कभी कभी विरुद्ध धर्मी आन्दोलन या चंचलता के प्रभाव से, या उससे उत्पन्न नवीन छाप को ग्रहण करने के लिये वाध्य हो जाती है और पूर्वग्रहीत छाप का दीर्घ स्थायित्व नष्ट हो जाता है। निद्रित अवस्था में यदि किसी के शारीरिक कारणों से स्नायुतंतु चंचल हो जाते हैं और उसके फलस्वरूप अथवा उग्र भाव से चिन्ता करने के करण मस्तिष्क में उत्पन्न ताप के कारण भी स्नायु कोष में चंचलता आ जाती है। यह चंचलता स्नायुकोष में संचित छाप के ही अनुरूप मानस भूमि में वृत्ति उत्पन्न करती है। इस तरह आन्दोलित मनोमय कोष उस समय एकाधिक छाप से उत्पन्न कल्पनाधारा को सत्य मान कर ग्रहण करता है। स्थूल इंद्रियाँ का काम बंद होने के फलस्वरूप पूर्व ग्रहीत वृत्तियों से उत्पन्न आकारों को काल्पनिक न समझकर वास्तविक मानतीं हैं। ऐंसा स्वप्न अधिकांशतः मिथ्या होता है क्योंकि ये केवल विछिन्न कल्पनाओं का संग्रहण ही होती हैं।
मस्तिष्क के रोगग्रस्त होने पर अथवा बहुत दिनों तक रोगी रहने के कारण जिनके स्नायुतन्तु दुर्बल हो गये हैं या जिनके पाक यंत्र दुर्बल हो गये हैं वे ही साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। स्पष्ट है कि ये स्वप्न पूर्व चिन्तित विषयों या चिन्ता समूह की यथायथ अथवा विच्छिन्न अभिव्यक्तियां हैं। अतिभोजन के कारण भी बहुत से लोग इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं। जिनकी चिन्ता पवित्र रहती है जिनके विचार पवित्र रहते हैं और भोजन में भी संयम रहता है उन्हें साधारणतः इस प्रकार के स्वप्न कम दिखते हैं। इस प्रकार का स्वप्न कभी भी गंभीर निद्रावस्था में नहीं आता है।
जब मनुष्य घोर निद्रा में रहता है, उस समय भी उसके मनोमय कोष में बड़ी विपत्ति, सुसंवाद या दुःसंवाद स्वप्न रूप में उदित होता है। सर्वज्ञ कारण मन, काम मय और मनोमय कोषों की चंचलता के कारण तथा अपनी अभिव्यक्तिगत अक्षमता के कारण उस सर्वज्ञता को प्रकाशित नहीं कर पाता। परंतु जिन विशेष भावों से वह व्यक्ति लिप्त रहा है या हो सकता है, उन्हें यह ‘कारणमन‘ (causal mind) घोर निद्रा में पड़े मनुष्य के शान्त मनोमय या काममय कोष में जाग्रत कर सकता है। ‘कारणमन‘ के द्वारा ज्राग्रत यह स्पन्दनधारा जब मनोमय कोष को स्पन्दित कर देती है तो वह भी एक स्वप्न ही होता है और वह निरर्थक नहीं होता क्योंकि उसका प्रेरक सर्वज्ञ ‘कारणमन‘ है। कभी कभी जाग्रत अवस्था में भी मानसिक एकाग्रता करने पर कारणमन का ज्ञान प्रवाह ‘सूक्ष्ममन‘ (subconscious mind) में प्रवाहित होने लगता है अतः बैठे बैठे दूर दूर के प्रिय जनों की घटनाओं को भी जाना जा सकता है। इसे ( telepathic vision ) टेलीपैथिक विजन कहा जाता है। इस प्रकार के लगाातार द्रढ़ अभ्यास से जब स्थूल मन अधिकाधिक स्थिर भाव प्राप्त करता है वह दूरस्थ अपने प्रियजन से संबंधित घटनाओं को आॅंखों के सामने बाह्य जगत में भी देख सकता है। उसे टेलीपैथिक क्लेयरवोयेंस (telepathic clairvoyance ) कहतेे हैं। कुछ लोग इसे प्रेतात्मा की क्रिया समझकर प्रेतों की मान्यता दे बैठते हैं। भूत प्रेत में विश्वाश करना प्रागैतिहासिक मानवों की भीरु मानसिकता का ही समर्थन करने के सिवा कुछ नहीं है। इस प्रकार के ज्ञानज स्वप्न के संबंध में बहुत बार मनुष्य अपने संस्कारों के कारण विषय की सही सही जानकारी नहीं दे पाता। अतः स्वप्न के माध्यम से सत्य जानने के लिये मनुष्य को मनोमय और काममय कोष के ऊपर कुछ अधिक परिमाण में अधिकार रखने की आवश्यकता होती है। जिन्होंने मनोमय और काममय कोष के ऊपर साधना के द्वारा नियंत्रण पा लिया है वे जाग्रद अवस्था में भी अतीत, वर्तमान और भविष्य का चित्र अल्प चेष्टा से देख सकते हैं। ध्यान योग में ऋषियों मुनियों को दिव्यदर्शन या दूरदर्शन इसी प्रकार होता है। स्फटिक दर्शन , नखदर्पण, मुकुर दर्शन आदि।
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