Saturday 9 May 2015

8.3 योग, विज्ञान और आध्यात्म

8.3  योग, विज्ञान और आध्यात्म                            
भौतिक विज्ञान के इस युग में आध्यात्म को पृथक माना जाता है जबकि दोनों ही ज्ञान के विकास की क्रमागत अवस्थाएं हैं । मानव मस्तिष्क जो कि समस्त ज्ञान का संग्राहक होता है, वह स्वयं अपने आप में विशिष्ट वैज्ञानिक संरचनाओं का धारक होता है यह अलग बात है कि आज का विज्ञान उसे पूर्ण रूप से समझ ही नहीं पाया है। मस्तिष्क की सामान्य तंत्रिकाओं द्वारा पदार्थ का ज्ञान होता है, इसी ज्ञान के सहारे जब उसकी सूक्ष्म तंत्रिकाएं सक्रिय होने लगती हैं तो पदार्थ के भीतर के ज्ञान का सूत्रपात होता है अर्थात् एटम और इलेक्ट्रान तथा अन्य सूक्ष्म कणों संबंधी ज्ञान प्राप्त होता है जिसे प्रयोगशालाओं में उनके प्रभावों के अध्ययन के आधार पर ही समझा जाता है। इन सूक्ष्म कणों को आज तक किसी ने भी देखा नहीं है। वैज्ञानिकों का ही मानना है कि आइंस्टीन जैसे अत्युच्च कोटि के वैज्ञानिकों के भी केवल 8 से 10 प्रतिशत ‘ब्रेन सैल्स’ सक्रिय पाये गये हैं बाकी 90 प्रतिशत अक्रिय। मस्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म तंत्रिकाएं सक्रिय होने पर ही आगे के रहस्यों को जाना जा सकता है जो न केवल पारलौकिक जीवन और बृह्मांड के अन्य तथ्यों के साथ इस जीवन के घटकों का तारतम्य प्रकट करते हैं   वरन् स्वयं जीवन की उत्पत्ति  और विकास की तथाकथित विनाश  सहित व्याख्या भी करते हैं।  प्रश्न  यह है कि इस 90 प्रतिशत अक्रिय भाग को कैसे सक्रिय किया जाए? बस यहीं से आध्यात्म विज्ञान प्रारंभ होता है। जो लोग आध्यात्म को केवल कर्मकांड की प्रारंभिक गतिविधियों तक ही सीमित मानते हैं वह स्वयं को धोखा देने के साथ साथ पीछे आने वाली पीढ़ी के लिये भी दिग्भ्रमित करते हैं। सच्चाई यह है कि अत्यंत सूक्ष्म स्तर का चिन्तन मन को एकाग्र किये बिना संभव ही नहीं है और विज्ञान के इस युग में, जन सामान्य के लिये प्रारंभिक काल से ही प्रचलित   मन की एकाग्रता के लिये मनीषियों द्वारा  बताई  गई यह विधि  प्रासंगिक नहीं है। कर्मकांड को आय का श्रोत बनाकर मनोवैज्ञानिक ठगी करने वालों को अब चेत जाना चाहिए।
प्रकाश  है इसलिए हम देख पाते हैं परंतु प्रकाश  नहीं दिखता, ईश्वर है इसलिए हम हैं, परंतु ईश्वर दिखाई  नहीं देता। प्रकाश  में अनंत तरंग दैर्घ्य  हैं जिनके कुछ भाग पर ही हमारी आखें  संवेदनशील होतीं हैं और हम उन्हें रंग कहते हैं। ईश्वर भी अनंत तरंगदैर्घ्यों  वाला है, उसकी कुछ तरंगदैर्घ्यों  को हम विभिन्न जीवों सहित ब्रह्माण्ड की सभी ‘‘गैलेक्सीज़ और सोलर सिस्टम्स’’ के रूप में देखते हैं। ईश्वर इन्हीं तरंगदैर्घ्यों  की इकाइयों के अहंभाव में अर्थात् ‘‘एक्जिस्टेंशियल फीलिंग’’ में व्याप्त रहता है, इसीलिए उसका सर्वव्यापक स्वरूप प्रमाणित होता है। वह एक है परंतु अपनी इकाइयों में स्वयं को परावर्तित प्रतिविंव की तरह आभास कराता है, यही कारण है कि उपनिषदें उसे प्रकाश  स्वरूप कहतीं हैं ;परमात्मा जिसे सामान्यतः ईश्वर कहा जाता है, केवल साक्षी सत्ता है , ‘मन‘ जो भी कर्म करता  है उसका साक्ष्य देनेवाला। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, जैसे स्टेज पर कोई खेल हो रहा है तो प्रकाश  दिखलाता है कि खेल हो रहा है, यदि खेल नहीं हो रहा है तो भी प्रकाश  दिखलाता है कि कुछ नहीं हो रहा। प्रकाश  आत्मा है और स्टेज मन और कुछ नहीं। परमात्मा प्रकाश  श्रोत है और मन उससे निकल कर पृथक हुआ फोटान जो अपने को स्वतंत्र अस्तित्व मान वैठा है। आधुनिक भौतिक विज्ञान भी वर्षों पहले ‘‘मैटरवेव्ज’’ को प्रमाणित कर चुका है, इसका सीधा अर्थ यह है कि चाहे वह जड़ हो या चेतन प्रत्येक की अपनी अपनी मूल आवृत्ति अर्थात्,‘‘फंडामेंटल फ्रीक्वेंसी’’ होती है क्योंकि जहां तरंग है वहां उसकी कुछ न कुछ लंबाई अवश्य  होगी अतः उसकी आवृत्ति होना भी स्वयं सिद्ध है। आधुनिक उपकरणों द्वारा जिस ‘‘फ्रीक्वेंसी रेंज’’ को उत्पन्न करना और ग्राह्य करना संभव हो पाया है, उतने में ही आज के विद्वान आश्चर्यचकित हैं, जबकि इससे भी अधिक और कम आवृत्ति रेंज संभव हैं।

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