Tuesday 12 May 2015

8.5 नृत्य, वर्ण और दुख

8.5 नृत्य, वर्ण और दुख
कौषिकी नृत्य
    भगवान सदाशिव के द्वारा निर्धारित कौषिकी नृत्य महिला और पुरुष दोनों ही कर सकते हैं, पर महिलाओं के लिये यह अनेक व्याधियों से मुक्त करता है। योग मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिये शरीर को स्वस्थ और सक्रिय बनाये रखने के लिये इसका अभ्यास उत्तरोत्तर लाभ देता है। इसमें दोनों हाथों की हथेलियाॅं परस्पर मिला कर ऊपर सीधे खींच कर खड़े होकर दायें बायें सामने और पीछे लयबद्धता के साथ झुकते हुए पैरों को भी उसी लय में चलाना पड़ता है। यह अभ्यास करते समय किस स्थिति में क्या भावना मन में रखना चाहिये वह नीचे दी गयी है :
ऊर्ध्वाधर:-    मैं अब परमपुरुष से संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रहा हॅूं।
दाॅंयेः-           परमपुरुष , मैं आपसे निवेदन करने का सही तरीका जानता हॅूं।
वाॅंयेंः-          परमपुरुष मैं जानता हॅूं कि आपकी आज्ञा का पालन कैसे किया जाता है।
सामनेः-       मैं जानता हूँ  कि आपके समक्ष समर्पण कैसे किया जाता है।
पीछेः-          मैं कष्टों के आने पर असुविधायें सहने के लिये तैयार हॅूं।
स्टेप्सः-       ए मेरे स्वामी! मैं अब आपकी सूक्ष्म चेतना के अभिव्यक्तिकरण को व्यावहारिक रूप देने के
          लिये आपका लय प्रारंभ कर रहा हॅूं।
इस विचार का साराॅश  है कि मैं लघुब्रह्माॅंड अपने स्वामी परम ब्रह्माॅंड के नाभिक से अपना संबंध स्थापित कर रहा हॅूं।
नोटः-  कुछ भक्त उन्हें प्रसन्न करने, उनकी सेवा करने और प्यार करने के निमित्त उन्हीं के ध्यान में कौषिकी नृत्य करते हैं, पूर्वोक्त सभी पदों का पृथक से ध्यान करते हुये परमपुरुष से मन का संपर्क टूट जाने की आशंका से अधिकाॅंश  लोग विशुद्ध भक्ति भाव के साथ ही कौषिकी नृत्य करते हैं। इस में व्यक्ति को अपने अपने ढंग से विचार चुनने की स्वतंत्रता है।
ताॅंडव नृत्य
    भगवान सदाशिव के द्वारा यह नृत्य केवल पुरुषों के लिये ही निर्धारित किया गया है। मस्तिष्क की उन्नति के लिये कोई भी भौतिक अभ्यास नहीं है परंतु ताॅंडव के द्वारा मस्तिष्क के तन्तुओं को द्रढ़ बनाने में सहायता मिलती है। इस नृत्य में बहुत उछल कूद होती है जैसे धान को कूट कर जब चावल निकाले जाते हैं तो वे उछलते हैं इसी कारण उन्हें तन्दुल कहते हैं तथा तंदुलों की तरह उछल कूद जिस नृत्य में होती है उसे ताॅंडव नृत्य कहते हैं। जब तक अभ्यास करने वाला अपने शरीर को पृथ्वी से ऊपर उछाले रहता है तब तक लाभकारी कम्पन मस्तिष्क के तंतुओं में अनुकूल प्रभाव डालते रहते हैं पर ज्योंही वह पृथ्वी के संपर्क में आता है वे कंपन शरीर में अवशोषित हो जाते हैं। इस नृत्य में दोनों हाथ पृथ्वी के समानान्तर किये हुए पैरों के पंजों के बल बैठकर तीन बार इस प्रकार उछलते हैं कि एडि़याॅं एक साथ जोर से मूलाधार पर आघात करें और फिर बायें पंजे पर खड़े होकर दायें पैर के घुटनें को छाती तक लाते हुए वायें पंजे द्वारा ही जोर से ऊपर की ओर उछलते हैं, फिर यही क्रम दायें पंजे और बायें पैर के घुटने के द्वारा दुहराते हैं और इसी की पुनरावृत्ति करते जाते हैं । तान्डव, पूर्वात्य नृत्य का प्रारंभिक स्तर है पर यह करना इतना सरल नहीं है। घुटने नाभि से ऊपर तक जाना चाहिये। जब घुटने नाभि  को पार कर जाते हैं तो ब्रह्म तान्डव, जब छाती के मध्य विंदू  को पार करने लगते हैं तब विष्णु तान्डव, और जब गले को पार करने लगते हैं तब रुद्र तान्डव कहलाता है। रुद्र तान्डव करना सरल नहीं है इसमें लम्बे अभ्यास की आवश्यकता होती है। यह बहादुरों का नृत्य है, मृत्यु को जीतने का। कृपाण जीवनरक्षा का और खोपड़ी मृत्यु का प्रतीक है अतः मृत्यु को शस्त्र की सहायता से समाप्त करना तान्डव का उद्देश्य  है। यह अपने अस्तित्व को स्थापित करने का दिव्य नृत्य है, दिन में यदि कोई चाहे तो खोपड़ी के स्थान पर जीवित सर्प और रात्रि में मशाल या डमरू ले सकता है। यह व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये, बातचीत करना या इसके करते समय चिल्लाना वर्जित है। तन्त्रोपासक को भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों पर शक्तिशाली होना चाहिये अतः यह जीवन्तता की उपासना है, मृत्यु की नहीं। जीवन में प्राकृतिक रूप से अनेक विरोधी बल सक्रिय होते हैं जिनके विरुद्ध संग्राम कर जीवन को जीवन्त बनाने का प्रतिनिधित्व तान्डव करता है। अतः मृत्यु का भय और जीवन में हारने का मनोभाव पनपने ही नहीं देना चाहिये। मन में भावना यह रखते हैं के मेरे एक हाथ में मशाल  है और दूसरे में कटार और मैं मृत्यु से लड़कर उसे जीतना चाहता हॅूं।

रंगोत्सव या होली के संबंध में यथार्थता
विज्ञान के अनुसार रंग और कुछ नहीं प्रकाश की भिन्न भिन्न तरंग लम्बाइयाँ हैं। यह  अलग बात है कि हम सीमित क्षेत्र की तरंग दैर्घ्य  ही अनुभव कर पाते हैं। संस्कृत में इसे वर्ण कहते हैं। वेदान्त अर्थात् उपनिषद् का कथन है कि हमारा यह जीवन पिछले अनेक जीवनों का परिणाम है और हर जीवन के असंख्य वर्ण अर्थात् तरंग दैर्घ्य  इस जीवन में संचित हैं जो संस्कार कहलाते हैं। इन्हें समाप्त कर चुकने के बाद ही हम अपने मूल स्वरूप  को पा सकते हैं क्योंकि हमारा मूल स्वरूप अवर्ण है। इसलिए इन्हें समाप्त करने के लिए ही योगाभ्यास की साधना करने का विधान है। योग की  विशेष विधियां इन तरंग लम्बाइयों / संस्कारों को ही क्षय करने के लिए प्रयुक्त की जातीं हैं और योगी प्रतिदिन इन रंगों को ही अपने इष्ट को अर्पित करते जाते हैं जिसे वर्णार्घ्य  दान कहते हैं।  यही रंगों का त्यौहार है जो रोज ही योगाभ्यासी मनाते रहते हैं। योगी रोज ही होली खेलते हैं। यह बाहर से प्रदर्शन  करने का खेल नहीं है यह मनोआत्मिक क्रिया विज्ञान है। पर इस सत्य को लुप्त रखकर इस पवित्र त्यौहार को कैसा विकृत कर दिया गया है कि इस त्यौहार से ही घृणा होती है। सत्य के अनुसंधाता, पितृपुरुष ऋषिगण हमारे इन क्रियाकलापों से सचमुच आहत होते होंगे।  इन विकृत परम्पराओं को क्या रोका जाना सम्भव नहीं है?
दुखों का कारण और निवारण
व्यक्तिगत दुखों का कारण है  इच्छाओं की पूर्ति न होना। सब चाहते हैं कि विश्व  में सब कुछ उन की ही इच्छा से हो , पर विश्व  का निर्माता अपनी इच्छा से विश्व का   संचालन करता है। सुख तब प्राप्त होता है जब व्यक्तिगत इच्छा विश्व  के संचालक की इच्छा मेल खाती है।
सामाजिक दुखों का कारणहै  अवैज्ञानिक, अविवेकपूर्ण, अतार्किक और आडंबरी परम्पराओं का बोझ लादे फिरना।
हम क्या कर सकते हैंः- विज्ञान सम्मत आध्यात्म और आध्यात्म सम्मत विज्ञान की रचना कर स्वयं और समाज दोनों को सुखी कर सकते हैं।

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