Sunday 26 June 2016

72 बाबा की क्लास(भगवान और उनके नाम)

72 बाबा की क्लास (भगवान और उनके नाम)
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इन्दु- बाबा! जब यह समस्त ब्रह्माॅंड एक ही परम सत्ता की कल्पना का विस्तार है तो अनेक लोग उसे अलग अलग नाम देकर अपने पसंद के नाम को ही सर्वश्रेष्ठ कहकर झगड़ा क्यों करते रहते हैं?
बाबा- अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार अनेक लोग एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं। आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एक समान आत्मा रहती है।

राजू- मैं ने कई लोगों को ‘शिव‘, 'शक्ति ' और ‘नारायण‘ इन नामों पर बहस करते देखा है?
बाबा- तुमने कभी इन नामों का विश्लेषण करके देखा है? नहीं , तो चलो इनका विश्लेषण करके देखें । ‘शिव‘ का वास्तविक अर्थ क्या है , शिव हैं अखंडसत्ता और शक्ति‘ का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। शिव और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश देना,  अर्थात् संज्ञानात्मक और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश  पर मशीन संचालित करतीं हैं, अर्थात  क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसी प्रकार ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयण माने आश्रय, इसलिये नारायण माने हुअा प्रकृति का आश्रय। परम क्रियात्मक  शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। इसलिये शिव हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव और नारायण में कोई अंतर नहीं है।

नन्दू- परन्तु एक ही सत्ता को अनेक नाम देते ही क्यों हैं जैसे कृष्ण और माधव?
बाबा- सभी लोग अपने मानसिक विचारों को शब्दों में व्यक्त करने के लिये भाषा का सहारा लेते हैं । जैसे, किसी वस्तु को देखने पर उससे आने वाली तरंगों द्वारा आॅंखों के माध्यम से मन पर जो कंपन किया जाता है उसे अनुभव करते हुए व्यक्ति अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास करता है। देश काल और पात्र के अनुसार इस अभिव्यक्तिकरण में अन्तर आता जाता है और एक ही सत्ता अनेक नाम  की हो जाती है। जैसे, किसी वस्तु से निकलने वाली तरंगें किसी स्थान और समय पर किसी व्यक्ति के द्वारा ‘धव‘ ‘धव‘ ‘धव‘ का अनुभव कराती हैं तो वह उसे ‘धवल‘ अर्थात् सफेद कहने लगता है, परंतु अन्य परिवेश और स्थान पर कोई व्यक्ति उन्हीं कंपनों को अपने मानसिक संवेदन में ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ अनुभव करता है तो शब्दों में व्यक्त करने के लिये वह वातावरण के अनुसार ‘व्हाइट‘ कहने लगता है, अतः एक ही 'सफेद' रंग को अलग अलग मानसिक परिवेशों मे जन्मे व्यक्ति धवल या वाइट दो अलग अलग नाम दे देते हैं।  इस प्रकार सभी द्रश्यमान पदार्थों का प्रारंभिक रूप से नाम दिया जाता है। फिर व्यवहार में इन्हीं शब्दों से वाक्य विन्यास और साहित्य जन्म लेता है। अब हम अन्य नाम ‘माधव‘ लेते हैं। संस्कृत में ‘मा‘ के तीन अर्थ हैं, पहला है ‘‘नहीं‘‘ जैसे मा गच्छ, अर्थात् मत जाओ। अन्य अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और तीसरा है परम क्रियात्मक सत्ता, परमा प्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमा प्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष। ‘कृष्ण‘ का अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व  ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इसप्रकार कृष्ण/माधव भी शिव और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित  करते हैं।

रवि- तो क्या ‘राम‘ को भी इसी प्रकार समझाया जा सकता है?
बाबा- हाॅं,
 ‘राम‘ यानी, रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः अर्थात् जिसमें योगीगण रमते हैं वह राम। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घईं ´ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चैंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान , वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व  और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने, "राम" क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है, रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव, माधव और राम एक ही हैं। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये।

चंदू - तो क्या परमपुरुष के इन्हीं नामों को इष्टमंत्र कहा जाता है?
बाबा- यदि किसी व्यक्ति को कौलगुरु ने इन नामों में से किसी एक को शक्ति सम्पन्न कर उसके इष्ट मंत्र के रूप में दिया है तो उसके लिये वही सब कुछ है अन्य नाम किसी काम के नहीं। साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्ट मंत्र ही है, उसी के चिंतन मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश  पायेगा। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर गुरुकृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरष्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरष्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वास प्रश्वास   की सहायता से नियमित रूपसे जाप कारते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इसे ही साधना कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic rhythm) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन  मात्र है।

Saturday 25 June 2016

71 इन्द्रजाल

71 इन्द्रजाल
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गेट पर भजन गाते भिखारी को कुछ देने के लिये शर्मा जी ज्योंही उठे सामने से मित्र गुप्ता जी गेट के भीतर आते दिखे। उन्हें नमस्कार कर बैठने का इशारा करते हुए भिखारी को पाॅंच रुपये का सिक्का देकर बोले, अभी एक भजन और सुनाओ पाॅंच रुपया और दॅूंगा, सुनकर भिखारी दूसरा भजन सुनाने के लिये अपना तम्बूरा ठीक करने लगा और शर्माजी, गुप्ता जी के पास बैठते हुए बोले ...

‘‘ कहो आज कैसे भूल पड़े ?‘‘ 

‘‘ अरे! तुम्हें मालूम नहीं? तुम्हारे एरिया के सामुदायिक भवन में एक पहॅुचे हुए संत आये हैं, उन्हीं के दर्शन करने आया था, सोचा यहाॅं तक आये हैं तो आप से भी मिलता चलॅूं।‘‘

‘‘ आपकी कृपा है, मुझे याद रखा।‘‘


‘‘ लेकिन यार! आश्चर्य है, दूर दूर से बड़े बड़े लोग संत जी से मिलने आ रहे हैं और तुम्हें पता ही नहीं है? विधायक, मंत्री और जिले के बड़े अफसर और नागरिक, सभी की भीड़ इतनी थी कि बैठने की जगह ही कम पड़ गयी, मैं भी पीछे की ओर खड़े हो कर ही उन्हें देख पाया। वाह! क्या भव्य रूप है भाई, धन्य हो गया देखकर .... .... ( गुप्ता जी अपना कथन जारी रखे थे, शर्मा जी बिना कुछ प्रतिक्रिया किये सुनते जा रहे थे, और बीच में ही भिखारी भी अपने भजन को तम्बूरे की तान पर गाने लगा था... हरि बोल , हरि बोल, हरि बोल रे मन ... ) ... ... लौटते हुए तुम्हारे घर तक लगभग एक किलोमीटर आने में एक घंटा लग गया, भीड़ केे कारण ट्रेफिक ही जाम हो गया था।‘‘


‘‘ मित्र गुप्ता जी! क्या बता सकते हो सन्त जी ने क्या कहा मिलने आई भीड़ से?‘‘


‘‘ मैंने बताया न ! कि भीड़ बहुत थी और मैं सबसे पीछे खड़ा कुछ स्पष्ट सुन ही नहीं पाया वे बहुत देर से बोल रहे थे और मेरे पहुंचने के पन्द्रह मिनट के बाद प्रवचन समाप्त हो गया।‘‘


( इसी बीच शर्माजी ने भिखारी को पास बुलाया और पाॅंच रुपये का सिक्का देते हुए कहा, बहुत अच्छा भजन गया, धन्यवाद, भिखारी सिक्का लेकर तुरन्त ही दूसरे घर जा पहुंचा ) शर्माजी बोले,


‘‘गुप्ता जी! इन व्यावसायिक प्रवचनकर्ताओं और उनके चेला मेकिंग सिस्टम में बंधे ये तथाकथित बड़े बड़े लोग इस भजन गायक भिखारी की तरह ही होते हैं‘‘


‘‘क्या मतलब?‘‘


‘‘देखा नहीं ? इस भिखारी ने भजन तो कितना मार्मिक गाया परंतु उसका अर्थ नहीं समझता रंचमात्र भी। गा रहा था ईश्वर का भजन पर उसका ध्यान था पाॅंच रुपये के सिक्के पर कि कब मिले और वह अन्य स्थान पर माॅंगने जा सके। इसी प्रकार इन विधायकों , मंत्रियों, अफसरों या अन्य श्रोतागणों का लक्ष्य भी केवल प्रवाचक के संबंध में प्रचारित किये गये गुणगान से आकर्षित होकर मान, प्रतिष्ठा, पद और धन पाने की लालसा में तथाकथित कृपा पाने के लिये ही होता है, ईश्वर को पाने के लिये तो बिलकुल नहीं।‘‘


‘‘तो क्या ...! ...! ...!‘‘


‘‘ बिल्कुल, इन व्यावसायिक प्रवचनकर्ताओं का लक्ष्य भी प्रवचन करने के रेम्युनरेशन और इन तथकथित बड़े लोगों को, ईश्वर के सबंध में बड़ी बड़ी बातें करते हुए अपने चेला मेकिंग सिस्टम के इंद्रजाल में फंसाये रखने का ही होता है ।

Monday 20 June 2016

70 बाबा की क्लास (माया)

70 बाबा की क्लास (माया)
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 इंदु- बाबा! आनन्द सूत्रम के अनुसार ‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म‘ अर्थात् ब्रह्म, शिव और शक्ति का सम्मिश्र हैं, उनका परस्पर संबंध अविच्छेद्य है। एक से दूसरे को अलग करने का प्रयास उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल देगा। वे, दूध और उसकी सफेदी, पानी और उसकी द्रवता, आग और उसकी दाहिकाशक्ति की तरह सघनता से संबद्ध हैं। इसीलिये कुछ लोग मानते हैं कि शक्ति, माया और प्रकृति समानार्थी हैं। इसमें कितनी सत्यता है?
बाबा- सैद्धान्तिक रूप से उनकी समानता प्रतीत होती है पर प्रायोगिक रूप से  उनमें अंतर है। जब प्रकृति के तीनों गुण सत, रज और तम, बलसाम्य और भारसाम्य स्थिति में होते हैं तो वह अपनी आदिकालीन सुप्तावस्था में होती है और निर्माण व्यक्त नहीं होता। इस अवस्था को वर्णन करने के लिये शब्द ‘प्रकृति‘ का उपयोग किया जाता है। पर जब ये तीनों गुण अपना बलसाम्य (equilibrium) और भारसाम्य (equipoise) खो देते हैं तब यह गुणात्मक जगत प्रकट होता है। इस अवस्था में जब प्रकृति , परमपुरुष  अर्थात् परम ज्ञानात्मक सत्ता के अनन्त शरीर के सीमित भाग पर निर्माण कार्य प्रारंभ करती है तब उसे माया अर्थात् परम रचनात्मक सत्ता  कहते हैं। विभिन्न जीवधारी, पेड़ पौधे और जानवर और अतुलनीय विभिन्नताओं वाले चारों ओर के संसार का निर्माण माया के द्वारा होता है तथा यह परम पुरुष की इच्छा और आज्ञा से ही होता है।

रवि- तो क्या प्रकृति को आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊर्जा और माया को शक्ति कहा जा सकता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि ऊर्जा का अर्थ है कार्य करने की क्षमता और शक्ति का अर्थ है कार्य करने की दर। अतः जब प्रकृति अपनी आदिकालीन सुप्तावस्था में होती है और निर्माण व्यक्त नहीं होता तब वह अपने पोटेंशियल फार्म (potential form) में और जब निर्माण कार्य प्रारंभ करने लगती है तब उसे कायनेटिक फार्म (kinetic form) में कहा जा सकता है। कायनेटिक फार्म में माया के द्वारा समय के सापेक्ष किये गये कार्य को शक्ति कहते हैं।

राजू- क्या इसे ही ‘‘महामाया‘‘ कहते हैं?
बाबा- निर्माण के क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका की अनेकता होने के कारण माया की अनेक अभिव्यक्तियां होती हैं। महामाया उनमें से एक है, जब भीतर और बाहर परम निर्माण सत्ता अपना रचनाधर्म जारी रखती है तो वह सत्ता जो गतिशीलता का वाह्य प्रभाव वनाये रखती है, वह ‘‘महामाया‘‘ कहलाती है। इस माया के प्रचंड प्रभाव के कारण ब्राह्मिक मन और पंच भूतों का निर्मााण होता है। इसके ही प्रभाव से प्रत्येक अणु और परमाणु सब अपने रूपान्तरण और परिवर्तन के स्तरों पर निर्धारित पथ का अनुसरण करते हैं और इकाई जीवों और इकाई मन अर्थात् चित्त, महत्, अहम आदि में बदलते रहते हैं। महामाया के प्रभाव से ही निर्जीव और सजीव संसार का निर्माण होता है। इसके विना सबकी सुप्त क्षमतायें विना किसी आकार के ही रह जावेंगी। ‘सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत, ततोहम विश्वरूपम् तम नमामी परमेश्वरीम्।‘ अर्थात् विश्व  का सभीकुछ उस महामाया के ही विभिन्न रूप है, मैं उस  विश्वरूप वाली महामाया को प्रणाम करता हूॅं।

नन्दू- तो फिर ‘‘विष्णुमाया‘‘ क्या है?
बाबा- जब वही माया अपनी बदली भूमिका में अपनी अतुलनीय रचनायें अंतहीनरूप से निर्मित करते हुए उनकी सुंदरता और आकर्षण में तल्लीन रहती है तो उसे विष्णु माया कहते हैं। विष्णु का अर्थ है सर्वव्याप्त सत्ता, अतः विष्णुमाया का अर्थ है जो इस अंतहीन संसार के प्रत्येक अणु परमाणु से अभिन्न रूपसे जुड़ी हुई है। भक्तों का एक समूह इस सर्वव्यापी विष्णु माया से ही अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार से अनुनय विनय करते रहते हैं, ‘‘ त्वम वैष्णवी शक्तिर्नन्तवीर्या,  विश्वस्य वीजम् परमौसि माया, संम्मोहितम देवी समस्तमेतद, त्वम वै प्रसन्नभूवि मुक्ति हेतुः।‘‘ अर्थात् हे  अनन्त समर्थ्य वाली और विश्व को जन्म देनेवाली सर्वव्याप्त माया तुमने इस व्यक्त जगत को मोहित कर रखा है, मैं अपनी मुक्ति हेतु तुम्हें प्रसन्न करने के लिये प्रार्थना करता हॅूं ।

चंदु- कहीं कहीं ‘‘ अनुमाया‘‘ शब्द भी पाया जाता है क्या यह भिन्न है?

बाबा-प्रत्येक इकाई मन में रहने वाली रचनात्मक शक्ति को अनुमाया कहते हैं। इसके प्रभाव से सभी जीव अपने अपने वर्तमान भूत और भविष्य के रंगीन विचारों में व्यस्त बने रहते हैं। कुछ विचारों को वाह्य संसार में आकार मिल जाता है और कुछ मन में आते ही नष्ट हो जाते हैं। इसी के प्रभाव से अनेक लोग लुभावने भविष्य की आषा से जानलेवा व्यवधानों से संघर्ष करते  आगे बढ़ते रहते हैं। धन, दौलत, नाम और यश  भी मानव मन के भीतर रहने वाली अनुमाया के प्रभाव से प्राप्त होते हैं।

राजू- गीता में ‘‘योगमाया‘‘ का नाम भी आया है?
बाबा-जब परमाप्रकृति जीवधारियों को परमपुरुष की ओर ले जाती है तो उसे योगमाया कहते हैं। यह संसार संचर और प्रतिसंचर के प्रवाह में लगातार परिवर्तित हो रहा है। ब्राह्मिक मन के अपकेन्द्र बल से पंच भूत और अभिकेन्द्र बल से इकाई मन और उनमें जीवन का निर्माण हुआ है। मानव मन के द्वारा योगमाया का प्रभाव अधिक स्पष्ट अनुभव किया जाता है। सूक्ष्म जीवों को परम सत्ता तक ले जाने के प्रयास में वह इकाई मन को ब्राह्मिक मन से एकीकृत कराने हेतु लगातार जुटी रहती है।

रवि- और आपने तो अनेक बार ‘‘अविद्या माया‘‘ तथा ‘‘विद्यामाया‘‘ के बारे में चर्चा की है?
बाबा- परमा प्रकृति जो जीवों को सूक्ष्मता से जड़ता ही ओर ले जाती है ‘‘अविद्यामाया‘‘ कहलाती है। सृजन  की संचर क्रिया अविद्यामाया से ग्रस्त रहती है। यह मानव मन को दो प्रकार से प्रभावित करती है दार्शनिक  रूप से एक को विक्षेपीशक्ति और दूसरी को आवरणीशक्ति कहते हैं। जब मनुष्य जड़ पदार्थ का चिंतन  करता है तो उसका मन परम सत्ता से हट जाता है और आध्यात्मिक  जागरूकता धूमिल होने लगती है यह ‘विक्षेपशक्ति‘ के कारण होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी के पास रहता है तो जरूरी नहीं कि वह उसके संबंध में सब कुछ जान ही ले जैसे , कोई वस्तु कपड़े में लपेटकर किसी के पास रखी रहे तो उसे कुछ भी पता नहीं हो सकता कि वह क्या है जब तक उसका कपड़ा न हटाया जावे। यह प्रभाव ‘आवरणीशक्ति‘ का होता है वह ज्ञान पर परदा डाल देती है। अंधेरे में  किसी वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता भले ही अस्पष्ट विचार बन जावे। अविद्यामाया की इन्हीं विक्षेपी और आवरणी शक्तियों के प्रभावी होने के कारण परम सत्ता के संबंध में मन, विभक्त विचार बना लेता है।

रवि- और ‘‘विद्यामाया‘‘?
बाबा- जड़ चिंतन से सूक्ष्म चिंतन की ओर जीवों को ले जाने वाली परमाप्रकृति ‘‘विद्यामाया‘‘ के नाम से जानी जाती है। इसके सहारे इकाई मन स्थायी प्रगति करता हुआ परम पुरुष की ओर बढ़ता जाता है और अविद्या का बंधन ढीला हो जाता है तथा यात्रा के समाप्त होने पर विद्या भी समाप्त हो जाती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिये विद्यामाया की आवश्यकता पड़ती है परंतु साधना के अंतिम स्तर पर पहुंचने पर उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती। साधना की सहायता अविद्या के द्वारा बनाये गये अंधेरे परदों को फाड़कर प्रतिसंचर के रास्ते पर बढ़ने के लिये ली जाती है। विद्यामाया अपनी दो शक्तियों के माध्यम से कार्य करती है, ‘संवित्शक्ति ‘ और ‘ह्लादनीशक्ति‘ या ‘राधिकाशक्ति‘। संवितशक्ति का काम जागरूकता लाना है वह नींद से जगा देती है और संवितशक्ति के कारण वह अपना अस्तित्व पहचान जाता है कि वह सृष्टि का शीर्ष है और उसे अविद्यामाया के आवरण को हटाकर परम सत्ता से साक्षात्कार करना है। जब यह विद्यामाया द्वारा प्रभावी बल साधक के मन में अच्छी तरह बस जाता है तो विक्षेपीशक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर वह परमपुरुष के साथ समीपता का अनुभव करता है, इसे ह्लादनीशक्ति कहते हैं। साधकों को यह शक्ति सभी बाधाओं से पार कराते हुए आनन्द रस का अनुभव कराती है। वैष्णव लोग इसे ‘श्रीराधा‘ कहते हैं।

इंदु- इसका मतलब यह हुआ कि एक ही सत्ता, किये जाने वाले कार्य के अनुसार विभिन्न नामों से जानी जाती है?
बाबा- हाॅं, वैसे ही जैसे , एक ही व्यक्ति किसी के लिए बेटा, किसी के लिए पिता , किसी के लिए चाचा  आदि से नामित होता है । परंतु अनुमाया को छोड़ कर, चर्चा की गईं सभी प्रकार की माया ‘विश्वमाया ‘ ही कहलातीं हैं। इस प्रकार इकाई मानव और  परमपुरुष के बीच माया ने अपना गहरे काले रंग का संसार बसा दिया है यही कारण है कि लोग संसार का सही अर्थ समझ ही नहीं पाते क्योंकि उनकी आंखों के सामने यह स्पष्ट विभाजन रेखा खींची  होती है। इस शक्तिशाली माया से जूझना कठिन है पर यह माया है तो परम पुरुष की ही, अतः परमपुरुष की शरण में चले जाने वालों को माया स्वयं रास्ता दे देती है।" देवी ह्येशा  गुणमयी मममाया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताम् तरन्ति ते"।

राजू- जब माया इतनी शक्तिशाली है कि उससे जूझना बड़ा कठिन है तो क्या कोई रास्ता नहीं है?
बाबा- साधना का संघर्ष करने के तीन रास्ते हैं, दक्षिणाचार, वामाचार और मध्यमाचार। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति के विरुद्ध सीधे संघर्ष करने में डरता है। वह उससे अनुनय विनय और स्तुतियों से प्रसन्न और शान्त कर मुक्ति चाहता है।  यह सोचने की महत्वपूर्ण बात है कोई शक्तिशाली व्यक्ति चापलूसी और गुणगान से प्रसन्न होकर कुछ रियायत या छूट तो  दे सकता है पर पूरी स्वतंत्रता नहीं। वामाचार में विना किसी लक्ष्य के अंधाधुंध, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़कर विजय प्राप्त कर साधक मुक्त होना चाहता है, पर इसमें उनका साहस प्रशंसनीय भले हो पर लक्ष्य का निर्धारण न होने से साधक बीच में ही भटक जाता है और अपने घोर पराक्रम से अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग कर बैठता है और असफल रहता है और जानबूझकर पाश्विक  स्तर तक गिर जाता है। मध्यमाचार में साधक का लक्ष्य ब्रहम प्राप्ति का होने से वह ब्रह्मज्योति के सहारे अविद्या के अंधेरे पर्दों को चीर कर आगे बढ़ता है और अपने लक्ष्य को पा जाता है।

चंदु- क्या योग विज्ञान और तन्त्र, मध्यमाचार के अंतर्गत आते हैं?
बाबा- हाॅं, योग विज्ञान तथा तन्त्र में मानव शरीर को ही उस परम सत्ता तक पहुंच पाने का साधन माना गया है जिसमें ‘स्पाइनल कार्ड‘ के निम्नतम भाग को क्रमशः फंडामेंटल नेगेटिविटी (fundamental positivity) और मूलाधार चक्र तथा सिर के उच्चतम भाग को फंडामेंटल पाजीटिविटी(fundamental negativity) और सहस्त्रार चक्र कहा जाता है । इस स्पाइनल कार्ड के बीच में भी अनेक भागों पर अनेक ऊर्जा केन्द्र होते हैं जिन्हें प्लेक्सस (plexus) या चक्र कहा जाता है। मूलाधार में फंडामेंटल नेगेटिविटी के रूप में माया, जिसे तन्त्र में कुलकुंडलनी कहा जाता है, अपनी सुप्त अवस्था अर्थात् पोटेशियल फार्म में रहती है जिसे अपनी मूल आवृत्ति से आघात कर साधक उसे चैतन्य (activate) करता है और विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों को क्रास करते हुए फंडामेंटल पाजीटिविटी अर्थात् सहस्त्रार तक ले जाता है जहाॅं अनुनाद होने पर वह परम पुरुष के साथ साक्षात्कार करता है। मानव जीवन का यही लक्ष्य है।

नन्दू- अब प्रश्न  यह है कि शक्तिशाली माया के बंधनों से मुक्त होने के लिये किसकी शरण ली जावे? किसे आश्रय के रूप में स्वीकार किया जावे?
बाबा- वेदों में कहा गया है कि
 ‘क्षरमप्रधानम् अम्रताक्षरम हरः, क्षारात्मनाविशते देव एकः,
 तस्याविध्यानद योजनात् तत्वभावाद् भूयशान्ते  विश्वमायानिवृत्तिः।‘
अर्थात् जब पुरुष को, प्रकृति अपने प्रभाव से इस संसार में परिवर्तित करती है तो जो भाग रूपान्तरित हो जाता है उसे क्षर कहते हैं। अतः संसार के संबंध, धन, दौलत और जमीन आदि सभी क्षर हैं इसलिये इनका लक्ष्य बना कर प्रकृति से संघर्ष करना व्यर्थ है। अक्षर, वह भाग है जो परिवर्तित नहीं होता और प्रकृति के साथ साक्षीसत्ता के रूप में रहता है। क्षर और अक्षर के अलावा एक और सत्ता होती है जिसे पुरुषोत्तम कहते हैं। परमचेतना जब तमोगुण के प्रभाव में होती है तब उसे प्रज्ञा कहते हैं। ईश्वर  भाव पुरुषोत्तम की विशेष अवस्था है इसे साधना
 की जरूरत नहीं होती। परंतु प्रज्ञा अर्थात् इकाई चेतना, प्रकृ्रति के तमोगुण के प्रभाव के विरुद्ध अपना संग्राम जारी रखती है और जब संघर्ष में सफल हो जाती है तो वह परमात्मा में मिल जाती है। परंतु प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़ने से पहले योग्य व्यक्ति से उसकी विधि सीखना पड़ती है। यह योग्यता सद्गुरु में ही होती है और सद्गुरु ब्रह्म के अलावा कोई नहीं हो सकता है। इसलिये कहा गया है कि मुक्तयाकांक्षया सदगुरु प्राप्तिः, अर्थात् मुक्ति की  तीव्र इच्छा/आकांक्षा होने पर ब्रह्म ही सद्गुरु के रूप में दीक्षा देते हैं।  इसलिये आध्यात्म के क्षेत्र में इस माया से संघर्ष करने में पद पद पर सहायक सद्गुरु और दीक्षा का बहुत महत्व है।

Sunday 12 June 2016

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बाबा की क्लास ( पराभक्ति)
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राजू- लेकिन विद्वानों को ‘भक्ति‘ के भी अनेक प्रकारों पर चर्चा और व्याख्या करते देखा गया है, हम किस को चुने और किसको छोड़ दें यह बड़ी समस्या है?
बाबा- ठीक है, इसे भी अच्छी तरह जान लो, आनन्दसूत्रम के अनुसार ‘भक्तिर्भगवदभावना न स्तुतिः नार्चना।‘ अर्थात् भक्ति का अर्थ है परमब्रह्म का चिंतन, न कि प्रशंसा या स्तुति और न ही कर्मकांडीय प्रदर्शन । स्तुति का अर्थ है किसी के सामने उसकी प्रशंसा करना। यह चापलूसी नहीं तो और क्या है? यदि कोई पुत्र अपने पिता के सामने उनकी लंबी चैड़ी तारीफ करे तो प्रसन्न होने के स्थान पर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा? अर्चना का अर्थ है फूलों और अन्य भौतिक कर्मकांडीय वस्तुओं के साथ पूजा करना। इन वस्तुओं को भेंट करने से किस स्तर का प्रेम प्रकट होगा? कर्मकांडीय प्रदर्शन  देश  काल और पात्र के बीच होता है जो इनके बीच भिन्नता पैदा कर भक्त और भगवान के बीच दूरी पैदा कर देता है। परंतु ब्रह्म के चिंतन में भक्त धीरे धीरे अपने इष्ट की ओर बढ़ता है और जैसे जैसे वह अधिक निकट बढ़ता जाता है उसका भक्तिभाव भी बढ़ता जाता है। जिस समय वह परम पुरुष को अपना व्यक्तिगत और अंतरंग आत्मा जैसा अनुभव करने लगता है वह उनके समक्ष ब्राह्मिक प्रवाह में अपना आत्मसमर्पण कर देता है। यदि व्यक्ति परमपुरुष के सामने आत्मसमर्पण नहीं कर सकता है तो वह जीवन में कभी आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता । बिना आत्मसमर्पण किये परमात्मा की कृपा नहीं मिलेगी और बिना उसकी कृृपा के कुछ भी नहीं मिलेगा। इसलिये समर्पण के अलावा रास्ता है ही नहीं। भक्ति की अन्य परिभाषा है ‘‘ सा परानुराक्तिरीशवरे‘‘ । शब्द ‘रक्ति‘ का अर्थ है आकर्षण, ‘अनुराग‘ का अर्थ है किसी के लिये आकर्षण। दो प्रकार का आकर्षण एक अपरब्रह्म अर्थात् भौतिक बस्तुओं के लिये और दूसरा परम ब्रह्म अर्थात् अनन्त सत्ता के लिये। ध्यान रहे आकर्षण प्रकृति का नियम है, प्रतिकर्षण ऋणात्मक आकर्षण ही है।

रवि- परंतु कुछ विद्वानों को ‘निर्गुणा भक्ति‘ पर जोर देते देखा जाता है वह क्या है?
बाबा- भक्ति के विभिन्न स्तरों को समझानें के लिये विद्वानों ने लक्षणों के अनुसार भक्ति को अनेक प्रकारों में बांट दिया है, निर्गुणा भक्ति उनमें से एक है। निर्गुणा भक्ति में साधक अत्यधिक प्रेम के कारण बिना किसी अपेक्षा के अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। इसमें मानसिकता यह होती है कि मैं नहीं जानता कि मैं अपने ईश्वर  को क्यों चाहता हूं पर ऐंसा करने से मुझे अच्छा लगता है। मैं उन्हें चाहता हूॅं क्योंकि वह मेरे प्राणों के प्राण और आत्मा की आत्मा हैं।

इंदु- कुछ लोग ‘‘वैधी भक्ति‘‘ की वकालत करते देखे गये हैं?
बाबा-वैधी भक्ति में साधक को ईश्वर  से कोई विशेष लवलीनता नहीं होती, । किसी प्रतिज्ञा  या व्रत के नाम पर गाय का गोबर लीपा जाता है, मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजाकर, फूल, वेल पत्र चढ़़ाकर और विशेष मंत्रों का पाठ किया जाता है यह वैधी भक्ति में आता है। इस प्रकार की भक्ति में और जो कुछ भी हो पर भक्त के हृदय की सरलता का अभाव ही दिखाई देता है।

चंदु- एक बार अनेक विद्वान ‘‘ज्ञानमिश्रा‘‘ भक्ति के बारे में व्याख्यान दे रहे थे, वह क्या है?
बाबा-ज्ञानमिश्रा भक्ति में सात्विक साधक अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुंचकर भी परम ब्रह्म को भूलता नहीं है अतः आत्मज्ञान अपने आप उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। यद्यपि यह निर्गुण भक्ति है पर इसमें भक्त में कुछ अहंकार, ज्ञान और दैवी षक्तियों के होने का भाव बना रहता है।

राजू- और, ‘‘केवला भक्ति‘‘ क्या है?
बाबा-केवला भक्ति में जब भक्त अपने लक्ष्य से एकाकार हो चुकता है तो केवल एक ही सत्ता बचती है, परंतु यह किसी के अपने प्रयास से संभव नहीं होती परम पुरुष या महापुरुषों की कृपा से ही यह संभव होती है। भक्ति की यह परमोच्च अवस्था है , इसे पराभक्ति भी कहते हैं। इसमें भक्त हर प्रकार की भेदात्मक बुद्धि और भिन्नताओं को भूल जाता है, इसे महिम्न ज्ञान कहते हैं। जबतक साधक के मन में भिन्नता का बोध रहता है वह ब्रह्म से एकाकार होने में संकोच करता है।

इंदु- ये प्रकार  तो बढ़ते ही जा रहे हैं, आप तो वह बताइये जो सर्वोत्तम हो ?
बाबा- भक्ति के सभी प्रकारों का समन्वय अन्ततः  ‘‘रागानुगा और रागात्मिका भक्ति ‘‘ के नाम से जाना जाता है। रागानुगा भक्ति में साधक की भावना रहती है कि वह भगवान को इसलिये प्रेम करता है क्योंकि इससे उन्हंे आनन्द मिलता है और इससे मुझे भी आनन्द प्राप्त होता है। रागात्मिका भक्ति में भक्त की यह भावना होती है कि मैं भगवान को प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता भले ही इसमें मुझे कष्ट हो पर मेरी भक्ति से मेरे प्रभु प्रसन्न रहें। इन दोनों में अंतर यह है कि रागानुगा में आनन्द देने के बदले में आनन्द प्राप्त करने की भावना होती है जबकि रागात्मिका में केवल आनन्द देने की ही भावना होती है। इसलिये रागात्मिका भक्त श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार के भक्त केवला भक्ति के पात्र होते है और गुरु कृपा से केवला भक्ति अर्थात् भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं। ये भक्त ही सिद्ध कहलाते हैं वे मृत्यु को जीत लेते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती वे दुख, शोक और घृणा से मुक्त हो जाते हैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांसारिक वस्तुओं की आवश्यकता  नहीं होती वे सदा ही  अपार आनन्दित अवस्था में रहते हैं। इसलिये अमरत्व के पुत्र, पुत्रियो! निर्भय होकर, हीन भावना त्यागो और अपने जन्म सिद्ध अधिकार ‘परमपुरुष का साक्षात्कार‘ को प्राप्त कर,  उन्हें अपना बना लो और अपने भीतर छिपी अपार शक्तियों, ज्ञान और तेज को प्रकाषित कर जगत का कल्याण करो और अमर हो जाओ।

रवि- यह तो बहुत ही अच्छा रहा कि आज हम लोग सच्चे रास्ते को समझ गये परंतु क्या यह बहुत कुछ सैद्धान्तिक सा ही नहीं लगता? यदि कुछ उदाहरणों से इसे समझा दिया जाये तो शायद बचे हुए छोटे मोटे भ्रम भी दूर हो जायेंगे?
बाबा- ठीक है, उदाहरण तो तुम लोग स्वयं बन कर दिखाओगे! फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा के लिये इस अंतिम और सर्वोच्च स्तर की भक्ति के संबंध में रामायण पुराण और महाभारत के कुछ द्रष्टाॅंत पुनः स्मरण कराता हॅूं उन पर गंभीरता से चिंतन करना। रामायण में ‘शवरी‘ और महाभारत में ‘विदुर की पत्नी‘ का द्रष्टान्त ‘ रागानुगा भक्ति के उदाहरण हैं। दोनों के मन में यही भावना रहती थी कि किस प्रकार वे परमपुरुष को अपने हाथ से भोजन कराकर उन्हें आनन्दित करें और स्वयं भी आनन्द पायें। रामायण में ‘लक्ष्मण‘ और ‘हनुमान‘ रागात्मिका भक्ति के उदाहरण हैं, यहाॅं दोनों के मन में सदा यही भावना रहती थी कि उनके जीवन का एक भी क्षण ऐंसा व्यय न हो जाये जिसमें अपने आराध्य की सेवा कर उन्हें आनन्दित करने से वंचित रह जाऊं, भले ही उन्हें स्वयं कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े। महाभारत में गोपियों की भक्ति रागात्मिका भक्ति का उदाहरण है, द्रष्टान्त यह है कि एक बार कृष्ण ने भक्तों से कहा कि उनके सिर में बहुत दर्द हो रहा है जो किसी भक्त के पैरों की धूल का लेप करने से दूर हो सकता है । उनके आस पास रहने और अपने को कृष्ण के अनन्य भक्त कहने वालों उन सभी ने कहा अरे! अपने प्रभु को पैरों की धूल देकर अनेक जन्मों तक नर्क में रहना पड़ेगा, इसलिये वे यह कैसे कर सकते हैं, और धीरे धीरे वहाॅं से खिसक लिये। अन्त में कृष्ण ने उद्धव को वृज की गोपियों के पास उनके पैरों की धूल लाने भेजा, गोपियाॅं यह सुनते ही अपने अपने पैरों से स्पर्शित धूल एकत्रित कर देने लगीं, तब उद्धव ने कहा, क्या अपने पैरों की धूल भगवान के मस्तक पर लगाने से तुम्हें अनेक जन्म तक नर्क का कष्ट भोगने का बिलकुल आभास नहीं है? वे सब बोलीं, हम नर्क भले ही भोग लेंगे पर हमारे प्रभु का तो तत्काल दुख दूर हो जायेगा, हमें उनकी प्रसन्नता के अलावा और क्या चाहिये।

नन्दू- महाभारत में एक व्यक्ति का द्रष्टान्त है कि वह था तो जीर्णशीर्ण और भिक्षान्न पर ही जीवित रहने वाला, परंतु तलवार कमर में बाॅंधे अर्जुन, सुदामा और द्रौपदी को मारने के लिये ढूंड़ता फिरता था, वह क्या पागल था या कुछ और?
बाबा- तुमने ठीक याद कराया, वह भी रागात्मिका भक्ति का द्रष्टान्त है। उसका मानना था कि इन तीनों ने उसके आराध्य को कष्ट पहुंचाया इसलिये वह उसका बदला लेना चाहता है। अर्जुन ने उसके आराध्य से सारथी का काम लेकर रथ चलवाया और उन्हें कष्ट दिया, सुदामा ने उसके प्रभु से अपने पैर धुलवाये और द्रोपदी ने उन्हें उस समय अपनी मदद करने के लिये पुकार लिया जब वह अपना भोजन करने के लिये बैठे ही थे, अर्थात् उन्हें भूखा रखकर कष्ट पहुंचाया । यह भक्ति की पराकाष्ठा का उदाहरण है। यथार्थता यह है कि इन द्रष्टान्तों में निहित सार तत्व और शिक्षा को ही ग्रहण करना चाहिये ये कथानक ग्रंथकार ने इसी उद्देश्य से प्रस्तुत किये हैं।

Monday 6 June 2016

68 बाबा की क्लास (ज्ञान, कर्म और भक्ति)

68 बाबा की क्लास (ज्ञान, कर्म और भक्ति)
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राजू- बाबा! अनेक लोग प्रायः ज्ञान को और अन्य लोग कर्म को तथा बहुत से भक्ति को श्रेष्ठ कहते हुए विवाद करते पाये जाते हैं, आपका क्या मत है?
बाबा-  लोग विवाद इसलिये करते हैं क्योंकि वे इनका सही सही अर्थ नहीं जानते। सच्चाई यह है कि यह तीनों शब्द आध्यात्मिक प्रगति में क्रमागत अवस्थाओं को प्रकट करते  हैं। क्या करना चाहिये क्या नहीं इसकी जानकारी जुटाना ज्ञान, इस ज्ञान के अनुसार जीवन यापन करना कर्म और ज्ञान पूर्वक कर्म करने का परिणाम होता है भक्ति। परंतु यह बात भी सत्य है कि मोक्ष प्राप्त करने के जितने भी साधन हैं उन सब में भक्ति सर्वश्रेष्ठ है।

रवि- परंतु ऋषिगण तो कहते हैं कि अपने स्वरूप का अर्थात् आत्मतत्व का अनुसंधान करना ही भक्ति है?
बाबा- हाॅं, आत्मानुसंधान करके जिस सत्ता को तुम पाने का प्रयत्न करते  हो वह परमपुरुष तुम्हारा अंतरंग स्वयं है, उनसे तुम्हारा संबंध कानूनों या न्यायालयों या समाज के द्वारा पारिभाषित नहीं किया जाना है , उनसे तो तुम्हारा आत्मिक और पारिवारिक संबंध है। तुम्हारे मन में उनसे मिलने की इच्छा तभी जागती है जब वह स्वयं तुम्हारी ओर अपना लगाव बना लेते हैं, यह सब उनकी इच्छा से ही होता है। इसलिये यह एकपक्षीय नहीं द्विपक्षीय व्यवहार है। तुम एक कदम उनकी ओर बढ़ते हो तो वह बीस कदम तुम्हारी ओर आ जाते हैं जैसे छोटा सा बालक जब अपने आप चलने का प्रयास करते हुए एक दो कदम ही आगे बढ़ने पर गिर पड़ता है तो माता पिता कितनी ही दूर हों झट से दौड़ कर उसे गोद में उठा लेते हैं। इसलिये ईश्वर से तुम्हारा संबंध व्यक्तिगत है, यह संबंध कोई दूसरा अस्तित्व नहीं बना सकता, यह तुम्हारे अस्तित्व का भाग है, तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

नन्दू- तो ज्ञान अथवा ज्ञानी लोगों का महत्व ही क्या है?
बाबा- केवल ज्ञानी होने से कुछ प्राप्त नहीं हो जाता, उसका तभी तक उपयोग है जब तक भक्ति उत्पन्न नहीं हुई है। जब हम किसी कागज की प्लेट में लेकर, स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेते हैं तो स्वाद लेने के बाद उस गंदी प्लेट को डस्ट बिन में ही फेक देते हैं, सम्हालकर तो नहीं रखते ? यहाॅं, वह कागज की प्लेट ज्ञान, भोजन कर्म अैर स्वाद भक्ति को प्रदर्शित करता है। ज्ञान बड़ा भाई है, वह अपनी छोटी बहिन भक्ति का हाथ पकड़कर चलता जाता है, रास्ते में लोग पूछते हैं, अरे! यह  तुम्हारी बहिन है?  कितनी प्यारी बच्ची है! क्या नाम है तुम्हारा? कहाॅं जा रही हो? कौन सी कक्षा में पढ़ती हो? आदि आदि । तो ज्ञान का इतना ही रोल है, सभी आकर्षण भक्ति में ही है, प्रभावी भक्ति ही है इसीलिये ज्ञान से यह जानकर कि यह उसकी बहिन ही है अन्य लोग सभी बातें ‘भक्ति‘ से ही करते हैं ‘ज्ञान‘ से नहीं।

इंदु- तो ज्ञानी और कर्मी , कभी भक्त कहला  भी सकेंगे या नहीं?
बाबा- जिस प्रकार ज्ञानी का ज्ञान यदि भक्ति मिश्रित नहीं है तो वह उसके बंधन का कारण होता है उसी प्रकार भक्ति के स्पर्श बिना कर्मी का कर्म भी मुक्ति के मार्ग में सहायक नहीं होता। भक्ति में यह चिंतन होता है कि जो भी मैं करता हॅूं वह परमपुरुष को प्रसन्न करनें  के लिये करता हॅूं। ‘भक्तिः भगवतो सेवा‘ । समाज सेवा करते समय भक्त यह सोचता है कि वह समाज को नारायण के प्रत्यक्षीकरण के रूप में उन्हें प्रसन्न करनें के लिये ही सेवा कर रहा है। इसलिये ज्ञानी और कर्मी दोनों  से भक्त के अनुभव बिलकुल स्वतंत्र होते हैं, भक्त अपने मन में यही धारणा रखता है कि नारायण के अलावा किसी की सेवा नहीं कर रहा हूँ । ज्ञानी और कर्मी दोनों  यह भूल जाते हैं कि उनके ज्ञान पाने और कर्म करने की ऊर्जा का श्रोत परमपुरुष ही हैं और उन्हें अहंकार घेर लेता है जो उनकी मुक्ति के मार्ग में बाधायें  उत्पन्न करता है। वे लोग जो अपनी छोटी आयु से ही गलत कार्यों में लग जाते हैं बृद्धावस्था में वे कुछ नहीं कर पाते क्यों कि उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है। इस प्रकार के शिक्षित लोग बुढापे में अशिक्षितों की तरह व्यवहार करने लगते हैं, क्या उनका मस्तिष्क अपनी चमक खो देता है? बुढापे में ज्ञानी और कर्मी अपनी प्रतिष्ठा खो बैठते हैं जबकि भक्त को यह देखना ही नहीं पड़ता। इसलिये वे जो अपनी प्रतिष्ठा को बचाना चाहते हैं उन्हें भक्त होना ही पड़ेगा। भक्त यह सोचता है कि परमात्मा की दी हुई बुद्धि और क्षमता से , उसके पास जो कुछ भी है वह केवल परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये ही उपयोग में ला रहा है। यह सब समाप्त हो जाने के बाद भी वह अपने पास जो भी होगा उसी से उनकी सेवा करता रहेगा, जब कुछ न बचेगा तो प्रभु के पास जाकर कहेगा कि मुझे आगे का सेवा कार्य बताइये। इसे भक्ति कहते हैं।

चंदु- आपने समझाया तो है परंतु मुझे तो अभी भी थोड़ा थोड़ा कन्फ्यूजन है, वह यह कि कुछ भी हो कर्म तो करना ही होगा, बिना कर्म के ज्ञान नहीं आयेगा और जब ज्ञान ही न होगा तो ज्ञानपूर्वक कर्म ही कैसे हो पायेगा और फिर भक्ति तो ... ..?
बाबा- औसतन हर व्यक्ति 12 से 14 धंटे, केवल अपने बारे में सोचकर व्यतीत करता है। परंतु जिस क्षण से वह समग्र ब्रह्माॅंड के बारे मे सोचने लगता है तो वह कर्मसाधक हो जाता है। अपने आप को कर्म सागर एक छोटा सा बुलबुला समझ कर जब पूरा समय संपूर्ण ब्रह्माॅंड को समर्पित कर देता है तब कर्मसिद्धि होती है। चूॅंकि प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्माॅंड का हिस्सा है अतः पूरे ब्रह्माॅंड की सेवा करने से वह भी अपने आप सेवित हो जाता है। जब यह भावना जाग्रत हो जाती है कि जो भी वह कर रहा है वह परमपुरुष को प्रसन्न करने के लिये ही है तो इसे भक्ति कहते हैं। मुक्ति मोक्ष पाना तो भक्त के वाॅंये हाथ का काम है, परंतु भक्ति बहुत कीमती ही नहीं,  अमूल्य  होती है । भक्ति तो पारसमणी है, जिसके पास होती है वह किसी भी क्षण मुक्ति मोक्ष नामक सोना बना सकती है। इस संबंध में एक कहानी बतायी जाती है, ‘‘ राम और लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे थे , राम के पैरों के स्पर्श होते ही नाविक की लकड़ी की नाव सोने की हो गयी । नाविक ने यह अपनी पत्नी को बताया तो वह घर का सभी लकड़ी से बना सामान लाने लगी ताकि राम के जादुई स्पर्श से उन्हें सोने में बदल सके। नाविक बोला कैसी मूर्खता करती है, एक एक वस्तु कहाॅं तक लायेगी, उन पैरों को ही अपने घर में आमंत्रित क्यों नहीं कर लेती जिनमें यह जादू है, इससे पूरा घर ही सोने का हो जायेगा? इस बात पर राम ने प्रसन्न हो उन्हें ‘‘काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष‘‘ इन चार फलों का वरदान दे दिया। इसके बाद लक्ष्मण आये, और बोले, नाविक! तुम्हें ये चार फल मिल तो गये हैं परंतु वे फलित तब तक नहीं होंगे जब तक मैं तुम्हें केवल एक फल, जो मेरे पास है, नहीं दे देता! और वह फल हैै ‘भक्ति‘.. .. । इसीलिये, भक्ति इन चारों फलों से भी अधिक मूल्यवान है और वह इन चारों फलों को पाने के लिये पारसमणि की तरह है।

रवि- बाबा! कुछ लोग जो भक्ति के ऊपर लच्छे पुच्छेदार भाषा में  घंटों प्रवचन देते हैं उनका स्तर क्या ज्ञानी का ही होता है या भक्त का?
बाबा- वे लोग, जो भाषायी जादू का प्रदर्शन करते हैं वह ज्ञान स्पर्धा और शास्त्रार्थ के लिये तो ठीक है परंतु वे रहते बंधनकारी ही हैं । केवल व्याख्यान कौशल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती जब तक कि उस ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतार लिया जाता। शास्त्र कहते हैं कि
‘‘ वाक्वैखरी शब्दझरी, शास्त्रव्याख्यान कौशलम।
वैदुष्यम विदुषाम् तदवत् , भुक्यते न तु मुक्तये।‘‘
इसलिये जैसा समझाया गया है उस प्रकार व्यावहारिक ज्ञान की सहायता से आगे बढ़ते जाने का अभ्यास करना चाहिये।

नन्दू- कुछ विद्वान कहते हैं कि भक्त और भगवान में हमेशा झगड़ा होता रहता है, वह क्या है?
बाबा- हाॅं सही सुना।
‘‘भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिनी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।‘‘
अर्थात् भक्ति परमपुरुष की सेवा है, प्रेमानन्द स्वरूपी वह, भक्त की प्रत्येक श्वास  और प्रश्वास  है। भक्ति =   भज् + क्तिन, अर्थात् प्रेम पूर्वक पुकारना, किसी को पूजना। इसमें  दो अस्तित्वों या सत्ताओं की आवश्यकता होती है,  एक वह जिसकी प्रशंसा की जाती है और दूसरा वह  जो प्रशंसा करता है। यहां ये दो अस्तित्व हैं भगवान, और भक्त। भक्त और भगवान में प्रेम का झगड़ा प्रारंभ से ही चला आ रहा है। भक्त कहते हैं भगवान बड़े हैं और भगवान कहते हैं कि भक्त बड़े हैं। दोनों के अपने अपने तर्क भी हैं, भक्त कहते हैं कि यदि भगवान उनके लक्ष्य न होते तो उन्हें आश्रय कहीं न मिलता और भगवान कहते हैं कि वह तो अनाम थे भक्त नहीं होते तो उन्हें नाम से पुकारने वाला कौन था, भक्तों ने उन्हें नाम दिया इसलिये वे ही बड़े हैं। इसलिये यह पारस्परिक अगाध प्रेम का झगड़ा है जिसमें आनन्द के अलावा कुछ नहीं है। दोनों एक दूसरे को आनन्दित करते हैं, इसे ‘मुक्ति‘ कहते हैं परंतु इसके आगे के स्तर पर जब भक्त और भगवान संबंधी द्वैतभाव समाप्त हो जाता है तब एकमात्र सच्चिदानन्दघन सत्ता ही बचती है और इसी में भक्त का पूरा अस्तित्व एकीकृत हो जाने की अवस्था को मोक्ष कहते हैं। इसी अवस्था को पाने के लिये सच्चे लोग आडम्बर को त्याग कर स्वस्वरूप के अनुसंधान में प्रारंभ से ही जुट जाते हैं।