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बाबा की क्लास ( पराभक्ति)
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राजू- लेकिन विद्वानों को ‘भक्ति‘ के भी अनेक प्रकारों पर चर्चा और व्याख्या करते देखा गया है, हम किस को चुने और किसको छोड़ दें यह बड़ी समस्या है?
बाबा- ठीक है, इसे भी अच्छी तरह जान लो, आनन्दसूत्रम के अनुसार ‘भक्तिर्भगवदभावना न स्तुतिः नार्चना।‘ अर्थात् भक्ति का अर्थ है परमब्रह्म का चिंतन, न कि प्रशंसा या स्तुति और न ही कर्मकांडीय प्रदर्शन । स्तुति का अर्थ है किसी के सामने उसकी प्रशंसा करना। यह चापलूसी नहीं तो और क्या है? यदि कोई पुत्र अपने पिता के सामने उनकी लंबी चैड़ी तारीफ करे तो प्रसन्न होने के स्थान पर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा? अर्चना का अर्थ है फूलों और अन्य भौतिक कर्मकांडीय वस्तुओं के साथ पूजा करना। इन वस्तुओं को भेंट करने से किस स्तर का प्रेम प्रकट होगा? कर्मकांडीय प्रदर्शन देश काल और पात्र के बीच होता है जो इनके बीच भिन्नता पैदा कर भक्त और भगवान के बीच दूरी पैदा कर देता है। परंतु ब्रह्म के चिंतन में भक्त धीरे धीरे अपने इष्ट की ओर बढ़ता है और जैसे जैसे वह अधिक निकट बढ़ता जाता है उसका भक्तिभाव भी बढ़ता जाता है। जिस समय वह परम पुरुष को अपना व्यक्तिगत और अंतरंग आत्मा जैसा अनुभव करने लगता है वह उनके समक्ष ब्राह्मिक प्रवाह में अपना आत्मसमर्पण कर देता है। यदि व्यक्ति परमपुरुष के सामने आत्मसमर्पण नहीं कर सकता है तो वह जीवन में कभी आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता । बिना आत्मसमर्पण किये परमात्मा की कृपा नहीं मिलेगी और बिना उसकी कृृपा के कुछ भी नहीं मिलेगा। इसलिये समर्पण के अलावा रास्ता है ही नहीं। भक्ति की अन्य परिभाषा है ‘‘ सा परानुराक्तिरीशवरे‘‘ । शब्द ‘रक्ति‘ का अर्थ है आकर्षण, ‘अनुराग‘ का अर्थ है किसी के लिये आकर्षण। दो प्रकार का आकर्षण एक अपरब्रह्म अर्थात् भौतिक बस्तुओं के लिये और दूसरा परम ब्रह्म अर्थात् अनन्त सत्ता के लिये। ध्यान रहे आकर्षण प्रकृति का नियम है, प्रतिकर्षण ऋणात्मक आकर्षण ही है।
रवि- परंतु कुछ विद्वानों को ‘निर्गुणा भक्ति‘ पर जोर देते देखा जाता है वह क्या है?
बाबा- भक्ति के विभिन्न स्तरों को समझानें के लिये विद्वानों ने लक्षणों के अनुसार भक्ति को अनेक प्रकारों में बांट दिया है, निर्गुणा भक्ति उनमें से एक है। निर्गुणा भक्ति में साधक अत्यधिक प्रेम के कारण बिना किसी अपेक्षा के अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। इसमें मानसिकता यह होती है कि मैं नहीं जानता कि मैं अपने ईश्वर को क्यों चाहता हूं पर ऐंसा करने से मुझे अच्छा लगता है। मैं उन्हें चाहता हूॅं क्योंकि वह मेरे प्राणों के प्राण और आत्मा की आत्मा हैं।
इंदु- कुछ लोग ‘‘वैधी भक्ति‘‘ की वकालत करते देखे गये हैं?
बाबा-वैधी भक्ति में साधक को ईश्वर से कोई विशेष लवलीनता नहीं होती, । किसी प्रतिज्ञा या व्रत के नाम पर गाय का गोबर लीपा जाता है, मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजाकर, फूल, वेल पत्र चढ़़ाकर और विशेष मंत्रों का पाठ किया जाता है यह वैधी भक्ति में आता है। इस प्रकार की भक्ति में और जो कुछ भी हो पर भक्त के हृदय की सरलता का अभाव ही दिखाई देता है।
चंदु- एक बार अनेक विद्वान ‘‘ज्ञानमिश्रा‘‘ भक्ति के बारे में व्याख्यान दे रहे थे, वह क्या है?
बाबा-ज्ञानमिश्रा भक्ति में सात्विक साधक अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुंचकर भी परम ब्रह्म को भूलता नहीं है अतः आत्मज्ञान अपने आप उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। यद्यपि यह निर्गुण भक्ति है पर इसमें भक्त में कुछ अहंकार, ज्ञान और दैवी षक्तियों के होने का भाव बना रहता है।
राजू- और, ‘‘केवला भक्ति‘‘ क्या है?
बाबा-केवला भक्ति में जब भक्त अपने लक्ष्य से एकाकार हो चुकता है तो केवल एक ही सत्ता बचती है, परंतु यह किसी के अपने प्रयास से संभव नहीं होती परम पुरुष या महापुरुषों की कृपा से ही यह संभव होती है। भक्ति की यह परमोच्च अवस्था है , इसे पराभक्ति भी कहते हैं। इसमें भक्त हर प्रकार की भेदात्मक बुद्धि और भिन्नताओं को भूल जाता है, इसे महिम्न ज्ञान कहते हैं। जबतक साधक के मन में भिन्नता का बोध रहता है वह ब्रह्म से एकाकार होने में संकोच करता है।
इंदु- ये प्रकार तो बढ़ते ही जा रहे हैं, आप तो वह बताइये जो सर्वोत्तम हो ?
बाबा- भक्ति के सभी प्रकारों का समन्वय अन्ततः ‘‘रागानुगा और रागात्मिका भक्ति ‘‘ के नाम से जाना जाता है। रागानुगा भक्ति में साधक की भावना रहती है कि वह भगवान को इसलिये प्रेम करता है क्योंकि इससे उन्हंे आनन्द मिलता है और इससे मुझे भी आनन्द प्राप्त होता है। रागात्मिका भक्ति में भक्त की यह भावना होती है कि मैं भगवान को प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता भले ही इसमें मुझे कष्ट हो पर मेरी भक्ति से मेरे प्रभु प्रसन्न रहें। इन दोनों में अंतर यह है कि रागानुगा में आनन्द देने के बदले में आनन्द प्राप्त करने की भावना होती है जबकि रागात्मिका में केवल आनन्द देने की ही भावना होती है। इसलिये रागात्मिका भक्त श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार के भक्त केवला भक्ति के पात्र होते है और गुरु कृपा से केवला भक्ति अर्थात् भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं। ये भक्त ही सिद्ध कहलाते हैं वे मृत्यु को जीत लेते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती वे दुख, शोक और घृणा से मुक्त हो जाते हैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांसारिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती वे सदा ही अपार आनन्दित अवस्था में रहते हैं। इसलिये अमरत्व के पुत्र, पुत्रियो! निर्भय होकर, हीन भावना त्यागो और अपने जन्म सिद्ध अधिकार ‘परमपुरुष का साक्षात्कार‘ को प्राप्त कर, उन्हें अपना बना लो और अपने भीतर छिपी अपार शक्तियों, ज्ञान और तेज को प्रकाषित कर जगत का कल्याण करो और अमर हो जाओ।
रवि- यह तो बहुत ही अच्छा रहा कि आज हम लोग सच्चे रास्ते को समझ गये परंतु क्या यह बहुत कुछ सैद्धान्तिक सा ही नहीं लगता? यदि कुछ उदाहरणों से इसे समझा दिया जाये तो शायद बचे हुए छोटे मोटे भ्रम भी दूर हो जायेंगे?
बाबा- ठीक है, उदाहरण तो तुम लोग स्वयं बन कर दिखाओगे! फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा के लिये इस अंतिम और सर्वोच्च स्तर की भक्ति के संबंध में रामायण पुराण और महाभारत के कुछ द्रष्टाॅंत पुनः स्मरण कराता हॅूं उन पर गंभीरता से चिंतन करना। रामायण में ‘शवरी‘ और महाभारत में ‘विदुर की पत्नी‘ का द्रष्टान्त ‘ रागानुगा भक्ति के उदाहरण हैं। दोनों के मन में यही भावना रहती थी कि किस प्रकार वे परमपुरुष को अपने हाथ से भोजन कराकर उन्हें आनन्दित करें और स्वयं भी आनन्द पायें। रामायण में ‘लक्ष्मण‘ और ‘हनुमान‘ रागात्मिका भक्ति के उदाहरण हैं, यहाॅं दोनों के मन में सदा यही भावना रहती थी कि उनके जीवन का एक भी क्षण ऐंसा व्यय न हो जाये जिसमें अपने आराध्य की सेवा कर उन्हें आनन्दित करने से वंचित रह जाऊं, भले ही उन्हें स्वयं कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े। महाभारत में गोपियों की भक्ति रागात्मिका भक्ति का उदाहरण है, द्रष्टान्त यह है कि एक बार कृष्ण ने भक्तों से कहा कि उनके सिर में बहुत दर्द हो रहा है जो किसी भक्त के पैरों की धूल का लेप करने से दूर हो सकता है । उनके आस पास रहने और अपने को कृष्ण के अनन्य भक्त कहने वालों उन सभी ने कहा अरे! अपने प्रभु को पैरों की धूल देकर अनेक जन्मों तक नर्क में रहना पड़ेगा, इसलिये वे यह कैसे कर सकते हैं, और धीरे धीरे वहाॅं से खिसक लिये। अन्त में कृष्ण ने उद्धव को वृज की गोपियों के पास उनके पैरों की धूल लाने भेजा, गोपियाॅं यह सुनते ही अपने अपने पैरों से स्पर्शित धूल एकत्रित कर देने लगीं, तब उद्धव ने कहा, क्या अपने पैरों की धूल भगवान के मस्तक पर लगाने से तुम्हें अनेक जन्म तक नर्क का कष्ट भोगने का बिलकुल आभास नहीं है? वे सब बोलीं, हम नर्क भले ही भोग लेंगे पर हमारे प्रभु का तो तत्काल दुख दूर हो जायेगा, हमें उनकी प्रसन्नता के अलावा और क्या चाहिये।
नन्दू- महाभारत में एक व्यक्ति का द्रष्टान्त है कि वह था तो जीर्णशीर्ण और भिक्षान्न पर ही जीवित रहने वाला, परंतु तलवार कमर में बाॅंधे अर्जुन, सुदामा और द्रौपदी को मारने के लिये ढूंड़ता फिरता था, वह क्या पागल था या कुछ और?
बाबा- तुमने ठीक याद कराया, वह भी रागात्मिका भक्ति का द्रष्टान्त है। उसका मानना था कि इन तीनों ने उसके आराध्य को कष्ट पहुंचाया इसलिये वह उसका बदला लेना चाहता है। अर्जुन ने उसके आराध्य से सारथी का काम लेकर रथ चलवाया और उन्हें कष्ट दिया, सुदामा ने उसके प्रभु से अपने पैर धुलवाये और द्रोपदी ने उन्हें उस समय अपनी मदद करने के लिये पुकार लिया जब वह अपना भोजन करने के लिये बैठे ही थे, अर्थात् उन्हें भूखा रखकर कष्ट पहुंचाया । यह भक्ति की पराकाष्ठा का उदाहरण है। यथार्थता यह है कि इन द्रष्टान्तों में निहित सार तत्व और शिक्षा को ही ग्रहण करना चाहिये ये कथानक ग्रंथकार ने इसी उद्देश्य से प्रस्तुत किये हैं।
बाबा की क्लास ( पराभक्ति)
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राजू- लेकिन विद्वानों को ‘भक्ति‘ के भी अनेक प्रकारों पर चर्चा और व्याख्या करते देखा गया है, हम किस को चुने और किसको छोड़ दें यह बड़ी समस्या है?
बाबा- ठीक है, इसे भी अच्छी तरह जान लो, आनन्दसूत्रम के अनुसार ‘भक्तिर्भगवदभावना न स्तुतिः नार्चना।‘ अर्थात् भक्ति का अर्थ है परमब्रह्म का चिंतन, न कि प्रशंसा या स्तुति और न ही कर्मकांडीय प्रदर्शन । स्तुति का अर्थ है किसी के सामने उसकी प्रशंसा करना। यह चापलूसी नहीं तो और क्या है? यदि कोई पुत्र अपने पिता के सामने उनकी लंबी चैड़ी तारीफ करे तो प्रसन्न होने के स्थान पर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा? अर्चना का अर्थ है फूलों और अन्य भौतिक कर्मकांडीय वस्तुओं के साथ पूजा करना। इन वस्तुओं को भेंट करने से किस स्तर का प्रेम प्रकट होगा? कर्मकांडीय प्रदर्शन देश काल और पात्र के बीच होता है जो इनके बीच भिन्नता पैदा कर भक्त और भगवान के बीच दूरी पैदा कर देता है। परंतु ब्रह्म के चिंतन में भक्त धीरे धीरे अपने इष्ट की ओर बढ़ता है और जैसे जैसे वह अधिक निकट बढ़ता जाता है उसका भक्तिभाव भी बढ़ता जाता है। जिस समय वह परम पुरुष को अपना व्यक्तिगत और अंतरंग आत्मा जैसा अनुभव करने लगता है वह उनके समक्ष ब्राह्मिक प्रवाह में अपना आत्मसमर्पण कर देता है। यदि व्यक्ति परमपुरुष के सामने आत्मसमर्पण नहीं कर सकता है तो वह जीवन में कभी आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता । बिना आत्मसमर्पण किये परमात्मा की कृपा नहीं मिलेगी और बिना उसकी कृृपा के कुछ भी नहीं मिलेगा। इसलिये समर्पण के अलावा रास्ता है ही नहीं। भक्ति की अन्य परिभाषा है ‘‘ सा परानुराक्तिरीशवरे‘‘ । शब्द ‘रक्ति‘ का अर्थ है आकर्षण, ‘अनुराग‘ का अर्थ है किसी के लिये आकर्षण। दो प्रकार का आकर्षण एक अपरब्रह्म अर्थात् भौतिक बस्तुओं के लिये और दूसरा परम ब्रह्म अर्थात् अनन्त सत्ता के लिये। ध्यान रहे आकर्षण प्रकृति का नियम है, प्रतिकर्षण ऋणात्मक आकर्षण ही है।
रवि- परंतु कुछ विद्वानों को ‘निर्गुणा भक्ति‘ पर जोर देते देखा जाता है वह क्या है?
बाबा- भक्ति के विभिन्न स्तरों को समझानें के लिये विद्वानों ने लक्षणों के अनुसार भक्ति को अनेक प्रकारों में बांट दिया है, निर्गुणा भक्ति उनमें से एक है। निर्गुणा भक्ति में साधक अत्यधिक प्रेम के कारण बिना किसी अपेक्षा के अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। इसमें मानसिकता यह होती है कि मैं नहीं जानता कि मैं अपने ईश्वर को क्यों चाहता हूं पर ऐंसा करने से मुझे अच्छा लगता है। मैं उन्हें चाहता हूॅं क्योंकि वह मेरे प्राणों के प्राण और आत्मा की आत्मा हैं।
इंदु- कुछ लोग ‘‘वैधी भक्ति‘‘ की वकालत करते देखे गये हैं?
बाबा-वैधी भक्ति में साधक को ईश्वर से कोई विशेष लवलीनता नहीं होती, । किसी प्रतिज्ञा या व्रत के नाम पर गाय का गोबर लीपा जाता है, मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजाकर, फूल, वेल पत्र चढ़़ाकर और विशेष मंत्रों का पाठ किया जाता है यह वैधी भक्ति में आता है। इस प्रकार की भक्ति में और जो कुछ भी हो पर भक्त के हृदय की सरलता का अभाव ही दिखाई देता है।
चंदु- एक बार अनेक विद्वान ‘‘ज्ञानमिश्रा‘‘ भक्ति के बारे में व्याख्यान दे रहे थे, वह क्या है?
बाबा-ज्ञानमिश्रा भक्ति में सात्विक साधक अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुंचकर भी परम ब्रह्म को भूलता नहीं है अतः आत्मज्ञान अपने आप उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। यद्यपि यह निर्गुण भक्ति है पर इसमें भक्त में कुछ अहंकार, ज्ञान और दैवी षक्तियों के होने का भाव बना रहता है।
राजू- और, ‘‘केवला भक्ति‘‘ क्या है?
बाबा-केवला भक्ति में जब भक्त अपने लक्ष्य से एकाकार हो चुकता है तो केवल एक ही सत्ता बचती है, परंतु यह किसी के अपने प्रयास से संभव नहीं होती परम पुरुष या महापुरुषों की कृपा से ही यह संभव होती है। भक्ति की यह परमोच्च अवस्था है , इसे पराभक्ति भी कहते हैं। इसमें भक्त हर प्रकार की भेदात्मक बुद्धि और भिन्नताओं को भूल जाता है, इसे महिम्न ज्ञान कहते हैं। जबतक साधक के मन में भिन्नता का बोध रहता है वह ब्रह्म से एकाकार होने में संकोच करता है।
इंदु- ये प्रकार तो बढ़ते ही जा रहे हैं, आप तो वह बताइये जो सर्वोत्तम हो ?
बाबा- भक्ति के सभी प्रकारों का समन्वय अन्ततः ‘‘रागानुगा और रागात्मिका भक्ति ‘‘ के नाम से जाना जाता है। रागानुगा भक्ति में साधक की भावना रहती है कि वह भगवान को इसलिये प्रेम करता है क्योंकि इससे उन्हंे आनन्द मिलता है और इससे मुझे भी आनन्द प्राप्त होता है। रागात्मिका भक्ति में भक्त की यह भावना होती है कि मैं भगवान को प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता भले ही इसमें मुझे कष्ट हो पर मेरी भक्ति से मेरे प्रभु प्रसन्न रहें। इन दोनों में अंतर यह है कि रागानुगा में आनन्द देने के बदले में आनन्द प्राप्त करने की भावना होती है जबकि रागात्मिका में केवल आनन्द देने की ही भावना होती है। इसलिये रागात्मिका भक्त श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार के भक्त केवला भक्ति के पात्र होते है और गुरु कृपा से केवला भक्ति अर्थात् भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं। ये भक्त ही सिद्ध कहलाते हैं वे मृत्यु को जीत लेते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती वे दुख, शोक और घृणा से मुक्त हो जाते हैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांसारिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती वे सदा ही अपार आनन्दित अवस्था में रहते हैं। इसलिये अमरत्व के पुत्र, पुत्रियो! निर्भय होकर, हीन भावना त्यागो और अपने जन्म सिद्ध अधिकार ‘परमपुरुष का साक्षात्कार‘ को प्राप्त कर, उन्हें अपना बना लो और अपने भीतर छिपी अपार शक्तियों, ज्ञान और तेज को प्रकाषित कर जगत का कल्याण करो और अमर हो जाओ।
रवि- यह तो बहुत ही अच्छा रहा कि आज हम लोग सच्चे रास्ते को समझ गये परंतु क्या यह बहुत कुछ सैद्धान्तिक सा ही नहीं लगता? यदि कुछ उदाहरणों से इसे समझा दिया जाये तो शायद बचे हुए छोटे मोटे भ्रम भी दूर हो जायेंगे?
बाबा- ठीक है, उदाहरण तो तुम लोग स्वयं बन कर दिखाओगे! फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा के लिये इस अंतिम और सर्वोच्च स्तर की भक्ति के संबंध में रामायण पुराण और महाभारत के कुछ द्रष्टाॅंत पुनः स्मरण कराता हॅूं उन पर गंभीरता से चिंतन करना। रामायण में ‘शवरी‘ और महाभारत में ‘विदुर की पत्नी‘ का द्रष्टान्त ‘ रागानुगा भक्ति के उदाहरण हैं। दोनों के मन में यही भावना रहती थी कि किस प्रकार वे परमपुरुष को अपने हाथ से भोजन कराकर उन्हें आनन्दित करें और स्वयं भी आनन्द पायें। रामायण में ‘लक्ष्मण‘ और ‘हनुमान‘ रागात्मिका भक्ति के उदाहरण हैं, यहाॅं दोनों के मन में सदा यही भावना रहती थी कि उनके जीवन का एक भी क्षण ऐंसा व्यय न हो जाये जिसमें अपने आराध्य की सेवा कर उन्हें आनन्दित करने से वंचित रह जाऊं, भले ही उन्हें स्वयं कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े। महाभारत में गोपियों की भक्ति रागात्मिका भक्ति का उदाहरण है, द्रष्टान्त यह है कि एक बार कृष्ण ने भक्तों से कहा कि उनके सिर में बहुत दर्द हो रहा है जो किसी भक्त के पैरों की धूल का लेप करने से दूर हो सकता है । उनके आस पास रहने और अपने को कृष्ण के अनन्य भक्त कहने वालों उन सभी ने कहा अरे! अपने प्रभु को पैरों की धूल देकर अनेक जन्मों तक नर्क में रहना पड़ेगा, इसलिये वे यह कैसे कर सकते हैं, और धीरे धीरे वहाॅं से खिसक लिये। अन्त में कृष्ण ने उद्धव को वृज की गोपियों के पास उनके पैरों की धूल लाने भेजा, गोपियाॅं यह सुनते ही अपने अपने पैरों से स्पर्शित धूल एकत्रित कर देने लगीं, तब उद्धव ने कहा, क्या अपने पैरों की धूल भगवान के मस्तक पर लगाने से तुम्हें अनेक जन्म तक नर्क का कष्ट भोगने का बिलकुल आभास नहीं है? वे सब बोलीं, हम नर्क भले ही भोग लेंगे पर हमारे प्रभु का तो तत्काल दुख दूर हो जायेगा, हमें उनकी प्रसन्नता के अलावा और क्या चाहिये।
नन्दू- महाभारत में एक व्यक्ति का द्रष्टान्त है कि वह था तो जीर्णशीर्ण और भिक्षान्न पर ही जीवित रहने वाला, परंतु तलवार कमर में बाॅंधे अर्जुन, सुदामा और द्रौपदी को मारने के लिये ढूंड़ता फिरता था, वह क्या पागल था या कुछ और?
बाबा- तुमने ठीक याद कराया, वह भी रागात्मिका भक्ति का द्रष्टान्त है। उसका मानना था कि इन तीनों ने उसके आराध्य को कष्ट पहुंचाया इसलिये वह उसका बदला लेना चाहता है। अर्जुन ने उसके आराध्य से सारथी का काम लेकर रथ चलवाया और उन्हें कष्ट दिया, सुदामा ने उसके प्रभु से अपने पैर धुलवाये और द्रोपदी ने उन्हें उस समय अपनी मदद करने के लिये पुकार लिया जब वह अपना भोजन करने के लिये बैठे ही थे, अर्थात् उन्हें भूखा रखकर कष्ट पहुंचाया । यह भक्ति की पराकाष्ठा का उदाहरण है। यथार्थता यह है कि इन द्रष्टान्तों में निहित सार तत्व और शिक्षा को ही ग्रहण करना चाहिये ये कथानक ग्रंथकार ने इसी उद्देश्य से प्रस्तुत किये हैं।
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